मौलिक अधिकारों का अर्थ एवं परिभाषाएँ
हमारे देश में आपातकाल में जनता को किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे। उसे न भाषण देने की स्वतन्त्रता थी और न समाचार पत्र प्रकाशित करने की। आने-जाने के अधिकार पर भी सरकार ने रोक लगा रखी थी। अपने जन्मसिद्ध अधिकार स्वतन्त्रता के लिए भी जनता ने आन्दोलन किया परन्तु सरकार को अन्त में झुकना पड़ा तथा जनता को पुनः मौलिक अधिकार प्राप्त हुए।
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मौलिक अधिकार के बारे में बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि, "भारत में इन अधिकारों को विधान मण्डलों या सरकार की इच्छा पर छोड़ देना उचित नहीं था। अतः ये वे अधिकार हैं जिनके बिना जनता अपनी उन्नति नहीं कर सकती।"
मौलिक अधिकारों का आशय स्पष्ट करते हुए डॉ. पुखराज जैन ने लिखा है कि, "मौलिक अधिकार वे होते हैं जो व्यक्ति के लिए मौलिक तथा अपरिहार्य होने के कारण संविधान के द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं और व्यक्ति के इन अधिकारों में राज्य के द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।"
व्यक्ति के लिए मौलिक अधिकार नितान्त जरूरी हैं। इनकी कमी से व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता। इन अधिकारों को मौलिक इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन्हें देश की मौलिक विधि अर्थात् संविधान में स्थान दिया गया है।
पतंजलि शास्त्री ने मूल अधिकारों के सम्बन्ध में लिखा है कि "मौलिक अधिकारों की यह मुख्य विशेषता है कि वे राज्य द्वारा पारित विधियों से ऊपर हैं।"
पायली के विचार के अनुसार, "मौलिक अधिकार एक ही समय पर शासकीय शक्ति से व्यक्ति स्वातन्त्र्य की रक्षा करते हैं और शासकीय शक्ति द्वारा व्यक्ति की स्वतन्त्रता को सीमित करते हैं।" इस प्रकार मौलिक अधिकार व्यक्ति तथा राज्य के बीच समन्वय स्थापित कर राष्ट्रीय एकता तथा शक्ति की वृद्धि करते हैं।"
ए. एन. पालकीवाला के अनुसार, "मौलिक अधिकार राज्य के निरंकुश स्वरूप से साधारण नागरिकों की रक्षा करने वाला कवच है।"
इस प्रकार मौलिक अधिकार नागरिकों को कल्याण तथा न्याय और व्यवहार की सुरक्षा प्रदान करते हैं। ये राज्य के हस्तक्षेप से व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा करते हैं।
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मूल अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों में भेद
मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्व
ये दोनों ही भारत राज्य के नागरिकों के विकास के लिए आवश्यक है और इस दृष्टि से इन्हें परस्पर सम्बन्धित कहा जा सकता है। वास्तव में,सविधान निर्माता जिन बातों को तुरन्त ही प्रदान करने की स्थिति में थे उन्हें उनके द्वारा मूल अधिकारों मैं स्थान दिया गया और जिन बातों का तुरन्त पूर्ण करने की स्थिति में नहीं थे। उनका उल्लेख निदेशक तत्वों में कर दिया गया। इस दृष्टि से मूल अधिकारों और निदेशक तत्वों को परस्पर सम्बन्धित कहा जा सकता है, किन्तु इसके साथ ही इसमें निम्नलिखित महत्वपूर्ण अन्तर भी हैं-
(1) मूल अधिकार न्याय-योग्य हैं, लेकिन निदेशक तत्व न्याय-योग्य नहीं हैं (Fundamental Rights are Justiciable but Directive Principles are not Justiciable)- मूल अधिकार और निदेशक तत्वों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण अन्तर यही है कि मूल अधिकार न्याय-योग्य हैं, लेकिन निदेशक सिद्धान्त न्याय-योग्य नहीं हैं। यदि कोई कानून किसी मूल अधिकार का उल्लंघन करता है तो क्योंकि अनुच्छेद 32 ने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को अधिकार दिया है कि वे मूल अधिकारों को लागू करने के लिए आवश्यक कार्यवाही करें, अत: ये न्यायालय मूल अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कानूनों को अवैध घोषित कर सकते हैं, लेकिन न्यायालय द्वारा किसी कानून को इस आधार पर अवैध नहीं घोषित किया जा सकता कि वह निदेशक तत्वों के प्रतिकूल है। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति को अवैध रूप से नजरबन्द कर दिया जाए तो वह न्यायालय से बन्दी प्रत्यक्षीकरण का लेख जारी करवा सकता है, लेकिन यदि राज्य संविधान के नीति निदेशक तत्वों के अनुसार मद्य निषेध लागू नहीं करता, तो भारत का कोई न्यायालय राज्य को मद्य निषेध लागू करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।
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(2) मूल अधिकार निषेधात्मक है, जबकि निदेशक सिद्धान्त सकारात्मक निर्देश हैं- दूसरा अन्तर यह है कि मूल अधिकार राज्य के लिए कतिपय निषेधाज्ञाएँ (injunctions) है जिनके द्वारा राज्य को कुछ काम न करने को आदेश दिया गया है इसके विपरीत, निदेशक तत्व नागरिकों के प्रति राज्य के कतिपय सकारात्मक उत्तरदायित्व हैं और राज्य से आशा की गई है कि वह नागरिकों के प्रति अपने इन दायित्वों को पूर्ण करेगा।
एलेन ग्लेवबिल के शब्दों में, "मूल अधिकार तो कतिपय निषेधाज्ञाएँ हैं और इनके द्वारा राज्य को कुछ कार्यों को करने से रोका जाता है इसके विपरीत राज्य-नीति के निदेशक तत्व सरकार के लिए कुछ सकारात्मक आदेश हैं, जिन्हें पूरा करना उसका कत्र्त्तव्य ठहराया गया है।"
(3) मूल अधिकार नागरिकों के लिए है, नीति निदेशक तत्व राज्य के लिए। ये तत्व राज्य के कर्त्तव्य निर्धारित करते हैं।
मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्व संविधान की दो प्रमुख व्यवस्थाएँ हैं, दोनों ही महत्वपूर्ण व्यवस्थाएँ हैं, लेकिन वैधानिक दृष्टि से नीति निदेशक तत्वों की तुलना में मूल अधिकारों को उच्चता की स्थिति प्राप्त है। 'मिनर्वा मिल्स विवाद' 1980 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि "वैधानिक दृष्टि से नीति निदेशक तत्वों की तुलना में मूल अधिकारों को उच्चता को स्थिति प्राप्त है-निदेशक सिद्धान्तों को मूल अधिकरों की अपेक्षा उच्चता की स्थिति प्रदान करने पर संविधान की 'मूल संरचना' (Basic structure) नष्ट होती है।"
इस प्रकार मूल अधिकार व नीति निदेशक तत्वों में कुछ भेद अवश्य हैं, लेकिन इनमें कोई आपसी विरोध नहीं है।
मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्व एक दूसरे के पूरक : सामंजस्यपूर्ण संरचना का सिद्धान्त (Principle of Harmonious Construction)- मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्वों के प्रसंग में सही दृष्टिकोण यह है कि संविधान की ये दो व्यवस्थाएँ एक-दूसरे को पूरक है। संविधान के भाग तीन में सम्मिलित मूल अधिकार एवं भाग 4 में उल्लिखित निदेशक तत्व वास्तव में एक ही समूची व्यवस्था के अंग है तथा इन दोनों का लक्ष्य एक ही है और वह है व्यक्तित्व का विकास तथा लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना। न्यायमूर्ति के. सदानन्द हेगड़े ने इस सम्बन्ध में 'सामंजस्यपूर्ण संरचना का सिद्धान्त' प्रतिपादित किया है। वे लिखते है- "सिद्धान्ततः एक ही संविधान के दो भागों में कोई असंगति नहीं हो सकती। राज्य नीति के निदेशक तत्वों को अपनाकर हमारे संविधान निर्माताओं ने कोई असंगति उत्पन्न नहीं की। उनका प्रयत्न वैयक्तिक अधिकार व सामाजिक कल्याण में समन्वय स्थापित करना था।"
'चन्द्रभवन बोडिंग एण्ड लाजिंग बैंगलोर बनाम् राज्य तथा अन्य' (1970), मिनवां मिल्स बनाम् भारत संघ' (1980) तथा अन्य कुछ विवादों के निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर बल दिया है कि, मूल अधिकार और निदेशक तत्व एक दूसरे के पूरक हैं। पायली, के सदानन्द हेगड़े और ऐनविल आस्टिन आदि लेखकों ने अपनी पुस्तकों में इसी बात पर बल दिया है। वस्तुतः इनका परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा ये एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते।
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राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों का संवैधानिक महत्व या उपयोगिता
यद्यपि नीति-निर्देशक तत्वों के पीछे कोई कानूनी बल नहीं है, इन्हें न्यायालय द्वारा एक नहीं कराया जा सकता है, किन्तु फिर भी इन्हें मात्र पवित्र घोषाणायें कहना उचित नहीं है। भारत में नोति निर्देशक तत्वों के महत्व (उपयोगिता) निम्न कारणों से हैं-
- प्रजातान्त्रिक राष्ट्र में जनमत की शक्ति से कोई इंकार नहीं कर सकता। यही जनमत की शक्ति निर्देशक तत्वों के पीछे सबसे बड़े बल के रूप में कार्य करती है।
- नीति-निर्देशक तत्व संविधान के विभिन्न प्रावधानों को व्याख्या करने में अत्यधिक सहायक होते हैं।
- नीति-निर्देशक तत्वों का नैतिक आदर्श के रूप में संविधान द्वारा भी पालन किया जाता है जैसे- संविधान की प्रस्तवना सम्बन्ध में।
- नीति-निर्देशक तत्व वह मानक हैं जिनके आधार पर किसी सरकार को सफल या असफल अथवा अच्छा या बुरा कहा जा सकता है।
- नीति-निर्देशक तत्व देश की चरम सीमाओं से रक्षा करते हैं। शासन में कोई भी दल क्यों न सत्तारूढ़ हो वह अपनी नीतियों का निर्माण नीति-निर्देशक तत्वों से परे नहीं कर सकता।
वास्तव में नीति-निर्देशक तत्वों का वास्तविक महत्व (उपयोगिता) इस बात में है कि ये नागरिकों के प्रति राज्य के दायित्व के द्योतक हैं। डॉ. अम्बेडकर ने निर्देशक तत्वों का महत्व बताते हुए कहा है कि "मेरी मान्यता है कि नीति निर्देशक सिद्धान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे आर्थिक लोकतन्त्र को हमारे आदर्श के रूप में प्रतिष्ठापित करते हैं।
निष्कर्ष
यह ठीक है कि राज्य की नीति के निर्देशक तत्वों को न्यायालयों के माध्यम से लागू नहीं करवाया जा सकता, परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत एक प्रजान्तत्र देश है और यहाँ केन्द्र तथा राज्य दोनों सरकारों का आधार जनता को अनुमति पर निर्भर है। सरकार को एक निश्चित अवधि के पश्चात् निर्वाचनों के माध्यम से जनता के समाने आना पड़ेगा। एक चैतन्य जनमत किसी ऐसी सरकार को निर्वाचित नहीं करेगा जो जन कल्याण से सम्बन्धित इन निर्देशक तत्वों का उल्लघंन करती है। संविधान सभा की प्रारूप समिति के प्रमुख सदस्य अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर ने ठीक कहा था, "कोई भी लोकप्रिय मन्त्रिमण्डल संविधान के चतुर्थ भाग के उपबन्धों के उल्लंघन का साहस नहीं कर सकता है।" संक्षेप में हम कह सकते हैं कि राज्य को नीति निर्देशक तत्व भारत में प्रजातन्त्र की सुरक्षा का आधार है।
Good job sir
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