(1) मौलिक अधिकारों का संशोधन
1950 से 1966 तक नीति निदेशक सिद्धान्तों के क्रियान्वयन हेतु मौलिक अधिकारों में संशोधन किया गया। इस काल में ज्ञात हुआ कि नीति निदेशक तत्व मौलिक अधिकारों की तुलना में निम्न स्थान रखते हैं। लेकिन इस मान्यता का विकास हुआ कि निदेशक सिद्धान्तों के क्रियान्वयन के लिए मौलिक अधिकारों को संशोधित किया जा सकता है। मद्रास बनाम चम्पाकम दोराइराजन के वाद में उच्चतम न्यायालय के सामने प्रश्न आया कि मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के विरोध की स्थिति में किसको प्राथमिकता दी जाए ?
न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 37 के द्वारा नीति निदेशक तत्व को न्यायालय के द्वारा अप्रवर्तनीय घोषित किया गया है। भाग तीन में दिये गए उपबन्धों पर अभिभावी नहीं हो सकते, जिन्हें अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत रिट के द्वारा स्पष्टतः परिवर्तनीय बनाया गया है। नीति निदेशक तत्व मूल अधिकारों के अनुरूप और उनके सहायक के रूप में रहेंगे।
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(2) मौलिक अधिकार अपरिवर्तनीय
1967 से 1971 के मध्य ज्ञात हुआ कि मौलिक अधिकार अपरिवर्तनीय हैं। 1967 में गोलकनाथ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपने बहुमत के निर्णय में यह कहा कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती। इस निर्णय से उच्चतम न्यायालय द्वारा 1951 में शंकरी प्रसाद तथा 1965 में सज्जन सिंह के मामलों में अपने ही द्वारा दिए गये निर्णयों को पलट दिया। 10 फरवरी, 1970 को उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में बैंकों के राष्ट्रीयकरण से सम्बन्धित अध्यादेश तथा कानून को निम्न आधार पर अवैध घोषित कर दिया कि मुआवजा या प्रतिकर की राशि इतनी कम नहीं होनी चाहिए कि वह न्यायोचित प्रतीत न हो । प्रतिकर वास्तव में प्रतिकर होना चाहिए, उसके नाम पर दिया गया धोखा या भुलावा मात्र नहीं। संक्षेप में, न्यायालय ने राज्य नीति निदेशक तत्वों तथा मौलिक अधिकारों के मध्य के सम्भावित विरोधाभास की स्थितियों में समन्वय के सिद्धान्त का प्रयोग करने की अपेक्षा व्यापक रूप से मौलिक अधिकारों को अभिभावी घोषित किया।
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(3) मौलिक अधिकारों में संशोधन, सम्भव है
गोलकनाथ वाद के बाद नीति निदेशक तत्वों की स्थिति में निम्न तथा अधीनस्थ की स्थिति सामने आई। 1971 के लोकसभा चुनावों में श्रीमती इन्दिरा गाँधी और उनके दल को अभूतपूर्व विजय मिली। इन्दिरा गाँधी ने कहा कि "हम नीति निदेशक तत्वों की क्रियान्विति हेतु दृढ़ संकल्प हैं और इसलिए मौलिक अधिकारों को भी संशोधित करना पड़ा तो हम करेंगे।" शासक वर्ग द्वारा अपनाये गए इस दृष्टिकोण के संविधान में 24वें और 26 वें संशोधन किये गए।
24 वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई कि संसद को संविधान के किसी भी अनुच्छेद में संशोधन करने का अधिकार है। 25 वें संविधान संशोधन 1971 द्वारा अनुच्छेद 31 में प्रतिकर शब्द को हटाकर धनराशि शब्द रखा गया। इसी संशोधन में अनुच्छेद 31 में नया खण्ड 311 ड़ा गया जिसमें कहा गया कि निदेशक तत्वों के अन्तर्गत अनुच्छेद 39 की भौतिक सम्पत्ति के स्वामित्व और नियन्त्रण तथा धन के उत्पादन के साधनों के केन्द्रण से सम्बद्ध धाराओं को प्रभावी बनाने के लिए पारित किया गया है। कोई भी कानून इस आधार पर अवैध नहीं ठहराया जा सकेगा कि वह अनुच्छेद 14, 19 या 31 में दिये गए मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करता है।
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(4) 42वाँ संशोधन अधिनियम, 1976
केशवानन्द भारती के मामले में उच्चतम न्यायालय ने इस बात को मान लिया कि मौलिक अधिकारों में संशोधन सम्भव है, लेकिन सरकार और संसद सन्तुष्ट नहीं थे, क्योंकि इस निर्णय ने इस धारणा का प्रतिपादन किया कि एक बुनियादी ढाँचे का निर्माण करता है जिसे संसद अपनी संशोधन शक्ति से बदल नहीं सकती। इसी कारण आपातकाल के समय 42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 पारित किया गया। इस संशोधन के खण्ड 4 में कहा गया कि निदेशक तत्वों को लागू करने के लिए संसद जिन कानूनों का निर्माण करे, उन्हें इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि कानून संविधान में दिए गए किसी अधिकार को सीमित करता है।
(5) मिनर्वा मिल केस
इस केस में 42 वें संविधान संशोधन को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई। लम्बी सुनवाई के बाद उच्चतम न्यायालय ने 31 जुलाई, 1980 को 42वें संशोधन के दो प्रावधानों-खण्ड 4 व खण्ड 55 को अवैध घोषित कर दिया क्योंकि इनसे संविधान के बुनियादी ढाँचे को आघात पहुँचता है। मिनर्वा मिल केस के बाद वर्तमान समय मे स्थिति यह है कि संविधान के अनुच्छेद 39 के भाग'ब' और 'स' (आर्थिक और सामाजिक न्याय से सम्बद्ध निदेशक तत्व) की क्रियान्विति के लिए तो मौलिक अधिकारों को सीमित निर्माण नहीं किया जा सकेगा जो मौलिक अधिकारों को सीमित या संशोधित करता हो। किया जा सकेगा, लेकिन अन्य निदेशक तत्वों की क्रियान्विति के लिए ऐसे किसी कानून का निर्माण नहीं किया जा सकेगा जो मौलिक अधिकारों को सीमित या संशोधित करता हो।
उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्वों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इनमें कोई भी विरोध या संघर्ष नहीं है बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं। इन दोनों का एक ही लक्ष्य है-व्यक्तित्व का विकास तथा लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना ऑस्टिन के अनुसार," संविधान में इन्हें इस अपेक्षा से सम्मिलित किया गया है कि एक दिन भारत में भारत के भूत और वर्तमान को भविष्य से जोड़ देते हैं तथा भारत में सामाजिक क्रान्ति के लक्ष्य वास्तविक स्वाधीनता का वृक्ष अपनी जड़े मजबूत करेगा। अधिकार और सिद्धान्त इस प्रकार को शक्ति प्रदान करते हैं।