मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय और रचनाएँ


माँ भारती के वरद-पुत्र, कविवर मैथिलीशरण गुप्त का जन्म सन् 1886 ई. में चिरगाँव जनपद झाँसी में हुआ था। आपके पिता का नाम सेठ रामचरण था, जो स्वयं श्रेष्ठ कवि थे। अतः गुप्त जी की कवि प्रतिभा अपने पिता से पैतृक दान के रूप में प्राप्त हुई। आपकी स्कूली शिक्षा कक्षा नौ तक हो सकी। स्वाध्याय ही ज्ञान प्राप्ति का माध्यम बना। आचार्य महावीर प्रसाद द्ववेदी के सम्पर्क में आकर आपकी काव्य प्रतिभा निखर उठी और आगे चलकर वे राष्ट्र कवि के पद पर प्रतिष्ठित हुए। गुप्तजी पर महात्मा गाँधी और उनके स्वतन्त्रता आन्दोलन का अत्यधिक प्रभाव पड़ा और वे उसमें भाग लेकर कई बार जेल गये। गुप्त जी को क्रमशः आगरा एवं प्रयाग विश्वविद्यालय ने डी. लिट्. की उपाधियों से विभूषित किया। भारतीय संस्कृति और राष्ट्र का अनन्य सेवक एवं महाकवि का सन् 1964 में स्वर्गवास हो गया।

मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय और रचनाएँ

मैथिलीशरण गुप्त का साहित्यिक परिचय

काव्य रचना की ओर आपकी रुचि बचपन से ही जग गयी। महावीरप्रसाद द्विवेदी ने आपकी साहित्यिक प्रतिभा को पहचाना तथा मार्गदर्शन किया। मुंशी अजमेरी का साथ आपको मिला। आपकी प्रतिभा धीरे-धीरे निखरी। राष्टप्रेम. भारतीय संस्कृति प्रेम के कारण ही आपको राष्ट्रकवि बनाया गया।

मैथिलीशरण गुप्त की रचनायें

रचनाएं मौलिक काव्य-भारत- भारती, जयद्रथ-वध, पंचवटी, साकेत, यशोधरा, द्वापर, हिडिम्बा सिद्धराज, नहुष, रंग में भंग, किसान, कावा और कर्बला, बक संहार, विष्णु-प्रिया, जयभारत आदि।

अनुदित काव्य- मेघनाद-वध, ब्रजभाषा, विरहिणी, वीरांगना, प्लासी का युद्ध, उमर खय्याम की रुबाइयाँ, स्वप्नवासवदत्ता, प्रतिमानाटकम्, अभिज्ञान शाकुन्तलम् ।

नाटक- तिलोत्तमा, चन्द्रहास, अनघ।

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मैथिलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषतायें

वर्णन का क्षेत्र- गुप्त जी के काव्य में सर्वत्र आदर्श और यथार्थ का सुन्दर समन्वय है। उनका काव्य सत्यं, शिवं और सुन्दरम् का प्रतीक है। इनके काव्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(क) भावपक्षीय विशेषताएँ

1. राम भक्ति- गुप्त जी राम के अनन्य भक्त थे। उनके राम कृष्ण से भिन्न नहीं हैं। फिर भी उन्हें तुलसी की तरह राम रूप ही अधिक प्रिय है।

धनुर्वाण या वेणु लो श्याम रूप के संग।

मुझ पर चढ़ने से रहा राम ! दूसरा रंग।

2. आर्य संस्कृति से प्रेम- गुप्त जी भारत की प्राचीन आर्य संस्कृति के उपासक हैं। उन्होंने अपने विभिन्न काव्यों में प्राचीन संस्कृति के आदर्शों को चित्रमय रूप में प्रस्तुत किया है। भारतीय संस्कृति के भक्त कवि सदा स्वार्थ से दूर रहा। उनके काव्य का उद्देश्य भी लोक सेवा ही रही, जिसकी भावना निम्न पंक्तियों में दृष्टिगोचर होती है-

न तन सेवा न मन सेवा, न जीवन और न धन सेवा।

मुझे है इष्ट जन सेवा, सदा सच्ची भुवन सेवा॥

3. राष्ट्र प्रेम- गुप्त जी एक सच्चे राष्ट्र-प्रेमी कवि थे। भारतेन्दु के समय में देश प्रेम की जो भावना प्रारम्भ हुई थी, उसका पूर्ण विकास गुप्तजी की रचनाओं में मिलता है। 'भारत-भारती' में कवि की यह भावना स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। राष्ट्रीय भावनाओं में ये गाँधी जी से प्रभावित हैं -

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।

वह नर नहीं है पशु निरा और मृतक समान है।

4. समाज-सुधार- गुप्त जी के काव्यों में सुधारवादी दृष्टिकोण भी देखने को मिलता है। हिन्दू-मुस्लिम एकता अछूतोद्धार एवं विधवा विवाह के समर्थन में आपने जोरदार तर्क प्रस्तुत किये हैं। अछूतोद्धार के विषय में इनका मत सुनिए-

इन्हें समाज नीच कहता है ये भी तो हैं प्राणी।

इनमें भी मन और भाव है किन्तु नहीं वैसी वाणी।

5. मानवता की उपासना- राष्ट्र कवि मानवता को देवत्व की जननी स्वीकारते हैं। राम का मानव रूप ही उन्हें पूज्य है। मनुष्य जीवन की सार्थकता तभी है, जब वह मानवता हेतु समर्पित रहे-

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

6. प्रजातान्त्रिक भावना- गुप्त जी के प्रबन्ध काव्यों में इनके राजनीतिक दृष्टिकोण के भी दर्शन होते हैं।'वक-संहार' में बकासुर द्वारा किये जाने वाले प्रजा के पीड़न और अत्याचार 'अंग्रेजों के अत्याचार' की ओर संकेत करते हैं। ये अपने अधिकारों को प्राप्त करना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। इन्हें माँगना नहीं रुचता-

स्वत्वों की भिक्षा कैसी।

दूर रहे इच्छा ऐसी॥

'वक-संहार' में ही प्रजातन्त्र की ओर संकेत करते करते हुए गुप्तजी कहते हैं-

राजा प्रजा का पात्र है, वह एक प्रतिनिधि मात्र है। 

यदि वह प्रजा का पालक नहीं तो त्याज्य है।

हम दूसरा राजा चुनें जो सब तरह सबकी सुने।

कारण प्रजा का ही, असल में राज्य है।

7. प्रकृति-चित्रण- गुप्त जी को प्रकृति का रम्य-रूप अच्छा लगता है। प्रकृति-चित्रण की दृष्टि से उनकी 'पंचवटी' रचना सर्वोत्कृष्ट है-

चारु चन्द्र की चंचल किरणें खेल रही हैं जल थल में।

स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बर तल में।।

कवि ने प्रकृति को पृष्ठभूमि के रूप में स्थान-स्थान पर चित्रित किया है। इनकी प्रकृति मानव व्यापारों से अभिभूत दिखाई देती है।

8. चरित्र-चित्रण- मानव हृदय का वास्तविक चित्र खींचने की गुप्त जी में अद्भुत क्षमता है। उनके पात्रों में अलौकिकता के स्थान पर मानवता है। उनमें न कोई देवता है और न कोई दानव है। अतएव इनका चरित्र-चित्रण स्वाभाविक और मर्मस्पर्शी होता है। 'साकेत' में भरत के साथ ही राम को वन से लौटाने के लिए गई हुई कैकेयी के हृदय में मर्म-वेदना निम्न शब्दों में प्रस्फुटित हो उठी है-

हे राम, दुहाई करूँ और क्या तुमसे,

कहते आते थे यही सभी नरदेही,

माता न कुमाता पुत्र कुपुत्र भले ही।

युग युग तक चलती रहे कठोर कहानी,

रघुकुल में भी थी एक अभागिन रानी।

सचमुच ही इन शब्दों में कैकेयी के हृदय की आत्म-ग्लानि और पश्चाताप प्रकट हो जाता है, जिससे उसके हृदय परिवर्तन की सूचना प्राप्त होती है। ये इसके लिए पहले ही (कैकेयी दशा वर्णन में) भूमिका तैयार कर लेते हैं।

सबने रानी की ओर अचानक देखा,

वैधव्य-तुषारावृत्ता यथा विधु-लेखा।

बैठी थी अचल तथापि असंख्यतरंगा,

वह सिंही अब थी हहा ! गोमुखी गंगा।

9. नारी-श्रद्धा- प्राचीन आर्य संस्कृति के उपासक होने के कारण गुप्तजी के हृदय में नारियों के प्रति अटूट श्रद्धा और सहानुभूति है। 'उर्मिला' और 'यशोधरा' जैसे काव्यों में उपेक्षित नारियों का सफल चित्रण कर गुप्त जी ने एक नवीन परम्परा को जन्म दिया है। 'यशोधरा' काव्य में यशोधरा में मातृ तथा पत्नी रूप का सुन्दर सामंजस्य दिखाया गया है और निम्नलिखित दो पंक्तियों में ही सारा चित्र खींच दिया है-

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।

आँचल में है दूध और आँखों में पानी ॥

(ख) कलापक्षीय विशेषताए

भाषा- मैथिलीशरण गुप्त की भाषा शुद्ध तथा परिष्कृत खड़ी बोली है। खड़ी बोली में सरल तथा मधुर कविता करके गुप्त जी ने इस धारणा को निर्मूल सिद्ध कर दिया है कि खड़ी बोली में ब्रजभाषा का सा माधुर्य नहीं आ सकता है। इनकी भाषा में कहीं-कहीं संस्कृतनिष्ठता आ गई है। उनकी भाषा के दो रूप दिखाई देते हैं- 

1. स्वच्छ भाषा- यह इनमें प्रारम्भ से ही दिखाई देती है 'भारत-भारत्ती' इसका उदाहरण है। जैसे-

मानस भवन में आर्यजन, जिसकी उतारें आरती।

भगवान् भारतवर्ष में, गूंजे हमारी भारती॥

2. भाषा की सरलता तथा कोमलता- बंगला भाषा की कविताओं में अनुशीलन तथा उसी भाषा के काव्यों के अनुवाद से गुप्तजी की रचनाओं में सरलता तथा कोमलता आ गई है।

शैली- गुप्त जी की रचनात्मक वृत्ति बहुमुखी है। अतः इनकी रचनाओं में शैली के विविध रूप पाये जाते हैं। संक्षेप में हम इनकी शैली को चार भागों में बाँट सकते हैं-

1. प्रबन्धात्मक शैली- इस शैली मे साकेत, पंचवटी, रंग में भंग, जयद्रथ वध, प्रबन्ध काव्य लिखे गये हैं। इसे विवरणात्मक शैली भी कहा जाता है। इसमें कथात्मकता की रक्षा के लिए भाषा को सरल और सीधे रूप में अपनाया गया है।

2. उपदेशात्मक शैली- द्विवेदी युग के प्रभाव से गुप्तजी की जिन रचनाओं में उपदेशात्मकता की अधिकता है, वे उपदेशात्मक शैली में लिखी गई हैं। इनकी भाषा अपेक्षाकृत ओजपूर्ण है। हिन्दू गुरुकुल, भारत-भारती और वक-संहार इसी शैली में लिखे गये हैं।

3. गीति-नाट्य शैली- गुप्त जी ने यशोधरा, सिद्धराज, नहुष आदि काव्यों में कथानक को गेय पदों के रूप में प्रस्तुत किया है। उसके कथोपकथन मुक्त छन्दों में हैं, अतः इस शैली को 'गीति नाट्य' शैली का नाम दिया जा सकता है।

4. भावात्मक शैली- गुप्त जी के सहानुभूति व्यंजक गीतों में भाव की प्रधानता, छायावाद तथा रहस्यवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। अतः इन गीतों की इस शैली को भावात्मक शैली अथवा गीति काव्यात्मक शैली कहा जाता है। झंकार के गीत इसी शैली में लिखे गये हैं। साकेत के नवम् सर्ग के गीतों में भी इस शैली के दर्शन किये जा सकते हैं।

मुझे फूल मत मारो।

मैं अबला वाला वियोगिनी कुछ तो दया विचारो।

छन्द तथा अलंकार- गुप्त जी ने आधुनिक तथा प्राचीन दोनों प्रकार के छन्दों में रचना की है। हरिगीतिका, लावनी, गीतिका मालिनी, गीत, पद, घनाक्षरी, रोला, उल्लाला आदि अनेक प्रकार के छन्द इन्होंने लिखे हैं। इनकी रचना में प्रायः अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग पाया जाता है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा और मानवीकरण उनके प्रिय अलंकार हैं। उपमा का एक प्रयोग देखते ही बनता है-

सबने रानी की ओर अचानक देखा।

वैधव्य-तुषारावृत्ता यथा विधु-लेखा ॥

मानवीकरण अलंकार का उदाहरण देखिए-

शिविर ! न फिर गिरि वन में।

अनुप्रास की छटा भी देखिए-

चारु चन्द्र की चंचल किरणें,

तनु तड़प-तड़प कर तप्त तात् ने त्यागा।

साहित्य में स्थान- अपनी अद्भुत प्रतिभा के कारण श्री मैथिलीशरण गुप्त अपने युग के प्रतिनिधि कवि हैं। राष्ट्रीय चेतना को वाणी देने के कारण इनको राष्ट्र कवि कहा जाता है। अपनी रचनाओं के द्वारा इन्होंने जो कार्य कर दिखाया है, उसे एक महान् नेता भी अपने व्यक्तित्व द्वारा पूर्ण करने में असफल सिद्ध होगा। आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि "वे निःसन्देह हिन्दी भाषी जनता के प्रतिनिधि कवि कहे जा सकते हैं।"

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