मानव श्वसन तंत्र का सचित्र वर्णन कीजिए | Maanav Shavsan Tantra ka Sachitra Varnan Kijiye

श्वसन अर्थात् श्वासोच्छ्वास क्रिया प्रत्येक जीवित प्राणी के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा आवश्यक क्रिया है। इसके बिना प्राणी एक पल भी जीवित नहीं रह सकता तथा इसके बिना क्षण भर में उसके मस्तिष्क और तन्त्रिकाओं को स्थायी क्षति पहुँचाती है। इस क्रिया में ऑक्सीजन युक्त शुद्ध वायु फेफड़ों में पहुंचकर रक्त को शुद्ध करती है और फेफड़ों में ऑक्सीजन की क्रिया द्वारा उत्पन्न गैस कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस प्रश्वास या उच्छ्वास द्वारा शरीर से बाहर निकलती है। और यह क्रिया निरन्तर चलती रहती है।

मानव श्वसन तंत्र का सचित्र वर्णन कीजिए | Maanav Shavsan Tantra ka Sachitra Varnan Kijiye

श्वास द्वारा शुद्ध वायु ग्रहण करना और अशुद्ध वायु का निष्कासन करना ही. श्वसन क्रिया कहलाती है। श्वसन क्रिया के अन्तर्गत शुद्ध वायु भीतर खींचने की क्रिया को उच्छ्वास और अशुद्ध वायु को बाहर निकालने की क्रिया को प्रश्वास कहते हैं। श्वसन एक रासायनिक क्रिया है, जिससे भोजन का ऑक्सीकरण प्राणियों में ऊर्जा उत्पन्न करती है। तथा यह क्रिया ऊतकों में होती है।

श्वसन क्रिया एक रासायनिक क्रिया है। इस क्रिया में विभिन्न अंग सहयोग करते हैं। इन अंगों के सामूहिक रूप को श्वसन तन्त्र कहते हैं। श्वसन क्रिया में दो क्रियाएँ सम्मिलित हैं-

1. उच्छ्वास (Inspiration)- 

साधारण भाषा में उच्छ्वास क्रिया को श्वास लेना भी कहते हैं। इस क्रिया के अन्तर्गत नाक द्वारा शुद्ध वायु ग्रहण की जाती है जो कार्बोहाइड्रेट व वसा को जलाकर शरीर में गर्मी (Heat) व ऊर्जा (Energy) उत्पन्न करने में सहायक होती है।

2. प्रश्वास (Expiration)- 

नाक द्वारा श्वास बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है। इसके द्वारा शरीर में व्यर्थ पदार्थों के जलने में उत्पन्न कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस शरीर से बाहर निकाली जाती है। आपने भी अनुभव किया होगा कि श्वास लेने व निकलने की क्रियाएँ लगातार बारी-बारी से होती रहती हैं। ऐसा नहीं होता कि दो बार श्वास ले ली जाय फिर उसे दो-चार बार में निकाला जाय। आप हल्की- श्वास लेंगे तो हल्की प्रश्वास ही बाहर निकलेगी। इसके विपरीत गहरी श्वास लेने पर प्रश्वास भी गहरी होगी।

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श्वसन क्रिया का महत्व श्वसन क्रिया प्रत्येक जीवधारी के लिए एक जीवनदायिनी क्रिया है। यह प्राणी के जीवन को सुरक्षित बनायें रखने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। एक मिनट भी श्वसन क्रिया के बन्द हो जाने से प्राणी की तत्काल मृत्यु हो सकती है। जिस प्रकार हम श्वसन लेते हैं उसी प्रकार हमारे शरीर की कोशिकाओं को भी श्वास लेने की आवश्यकता होती है, अतः शरीर में निरन्तर ऑक्सीजन गैस पहुँचते रहना आवश्यक है।

प्रत्येक प्राणी के शरीर में सोते-जागते, उठते-बैठते कुछ-न-कुछ क्रियाएँ होती रहती हैं। इन क्रियाओं में शरीर की ऊर्जा नष्ट होती रहती है। ऑक्सीजन गैस के कारण शरीर में जो ऑक्सीकरण या जारणा क्रिया (Oxidation) होती है उससे ऊर्जा उत्पन होती है। हमारे शरीर में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड पदार्थ सर्वाधिक पाया जाता है जो शरीर के समस्त उर्वरकों में होता है, अतः शारीरिक क्रियाओं के फलस्वरूप उत्पन्न विजातीय पदार्थों में भी कार्बन की ही मात्रा अधिक होती है। जारणा क्रिया द्वारा उत्पन्न होनेवाली गैस ही कार्बन-डाइ- ऑक्साइड गैस है जो प्रश्वास द्वारा शरीर से बाहर निकाल दी जाती है।

श्वसन क्रिया
श्वसन क्रिया 

अतः जिस प्रकार लकड़ी व कोयला आदि कार्बनिक पदार्थों के जलने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार भोजन द्वारा ग्रहण किये गये कार्बोहाइड्रेट्स व वसा आदि के रासायनिक विधि से जलने के लिए ऑक्सीजन अत्यन्त आवश्यक है, जो शरीर में गर्मी व ऊर्जा उत्पन्न करके शरीर के क्रियाशील रहने की क्षमता प्रदान करती है। साथ ही शारीरिक विकास, पेशियों की क्रिया तथा पाचक रसों का बनना भी इसी ऑक्सीजन पर निर्भर है, अतः श्वसन शरीर की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण क्रिया है।

वायुमण्डल की शुद्ध वायु में लगभग 20% ऑक्सीजन गैस मिलती रहती है तथा एक स्वस्थ व्यक्ति एक मिनट में 16-18 बार श्वास लेकर ऑक्सीजन ग्रहण करता है तथा कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस के रूप में शरीर की गन्दगी को बाहर निकालता है।

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श्वसन तन्त्र के मुख्य अंग (Main Organs of Respiratory System)

श्वसन तंत्र के मुख्य अंग निम्नलिखित हैं-

1. नाक (Nose)

2. कण्ठ या गला (Throat)

3. स्वर यन्त्र (Larynx)

4. श्वास नली (Trachea)

5. श्वसनी (Bronchials)

6. फेफड़े या फुफ्फुस (Lungs)

श्वसन क्रिया में उपर्युक्त सभी अंग प्रत्यक्ष रूप से भाग लेते हैं। इसके अतिरिक्त शरीर के दो अन्य अंग भी अप्रत्यक्ष रूप से श्वसन क्रिया में भाग लेते हैं-

1. पेशियाँ- विभिन्न पसलियों के बीच में पेशियों, जो एक पसली को दूसरी से जोड़ती है।

2. महाप्रचीरा (Diaphram)- गुम्बद की आकृति का पेशीय पर्दा जो उदर को वक्ष से अलग करते हैं। इनके बारे में आगे यथास्थान चर्चा की जायगी।

श्वसन तन्त्र के मुख्य अंग
श्वसन तन्त्र के मुख्य अंग

1. नाक (Nose)- 

सर्वप्रथम वायु नाक द्वारा श्वास लेने पर भीतर प्रवेश करती है। नाक के दोनों गुहा नासाछिद्र या नासापुट (Nostrils) वायु ग्रहण करते हैं। नाक के अन्दर एक उपास्थिका पर्दा (Saptum) होता है जो इसे दो भागों में विभाजित करता है।नाक का प्रत्येक भाग नासिका रन्ध्र कहलाता है। नासिका रन्ध्रों के भीतर श्लेष्मिक झिल्ली होती है जिससे श्लेष्मा निकलता है। यह रोग के कीटाणुओं को नष्ट करता है। इसके भीतर रक्त केशिकाओं का जाल-सा बिछा रहता है जो वायु के तापक्रम को शरीर के तापक्रमे के बराबर बनाता है। नासिका रन्ध्रों में कुछ छोटे-छोटे रोएँ भी होते हैं जो धूल के कणों को भीतर जाने से रोकते हैं। 

नाक का पिछला भाग सूँघने में सहायता प्रदान करता है। यह भाग कण्ठ में जाकर खुलता है। नासागुहा के नीचे की ओर नाक की अस्थि होती है। इसी के द्वारा नाक एवं मुख पृथक-पृथक् रहते हैं। नाक के ऊपरी भाग में वह छिद्रावस्था होती है। इसके अतिरिक्त भीतर की ओर सुरंग की भाँति तीन अन्य पतली अस्थियाँ निहित होती हैं। यहाँ समस्त भाग पर श्लेष्मिक झिल्ली का आवरण चढ़ा होता है जिससे चिपचिपा तरल पदार्थ निकलता है जो तमाम बैक्टीरिया को समाप्त कर देता है। नाक के श्लेष्म में लाइजोजाइम (Lyzozyme) नामक कीटाणुनाशक पदार्थ होता है। 

नासिका छिद्र द्वारा वायु के प्रवेश का मार्ग
नासिका छिद्र द्वारा वायु के प्रवेश का मार्ग

यदि नासागुहा की सतह में स्थित छोटे-छोटे पक्षान (Cilia) जो छलनी का कार्य करते हैं, वायु के जीवाणु को नहीं रोक पाते तो वह चिपचिपे एवं लसलसे पदार्थ में चिपक जाते हैं और लाइजोजाइम द्वारा उनका भक्षण हो जाता है और वायु शुद्ध हो जाती है। इस श्लेष्मिक झिल्ली में अनेक रक्त कोशिकाएँ होती हैं जिनकी उष्णता के कारण वायु में गर्माहट आ जाती है और वायु का तापमान लगभग शरीर के बराबर हो जाता है। कुछ लोग नाक की अपेक्षा मुँह से श्वास लेते हैं, लेकिन यह गलत है। श्वास लेने का अंग नाक है न कि मुँह। मुँह से श्वास लेने वाले न केवल नाक से श्वास लेने पर होने वाले लाभों से वंचित रहते हैं। बल्कि नाक व वक्षस्थल के रोगों से भी प्रायः प्रसित हो जाया करते हैं। इसलिए माता-पिता को अपने बच्चों की ओर प्रारम्भ से ही ध्यान देना चाहिए कि वे मुँह से श्वास लेने की आदत न डालें बल्कि नाक से ही श्वास लें। 

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2. कण्ठ या गला- 

नासा गुहाएँ अन्दर थोड़ी दूर जाकर एक नली के रूप में हो जाती हैं जो कण्ठ में खुलती हैं। कण्ठ के इस भाग को ग्रसनी (Pharynx) भी कहते हैं। यह नली अर्थात् ग्रसनी आगे चलकर दो भागों में विभक्त हो जाती है। पहला स्वर यन्त्र कहलाता है जिसमें वायु प्रवेश करती है तथा दूसरा ग्रास नली कहलाता है जिसमें से होकर भोजन आमाशय में पहुँचता है। 

 3. स्वर यन्त्र-

भोजन नली स्वर यन्त्र के पीछे की ओर होती है तथा भोजन को भोजन नली में जाने के लिए स्वर यन्त्र के मुख पर से होकर गुजरना पड़ता है, किन्तु स्वर यन्त्र पर एक उपास्थि का बना हुआ ढक्कन लगा रहता कहते हैं। जैसे ही खाद्य या पेय पदार्थ स्वर यन्त्र के ऊपर है जिसे इपीग्लोटिस (Epiglottis)कहते है, तुरन्त ढक्कन गिरकर श्वास नली से गुजरने लगता है, का मुख बन्द कर लेता भोजन के नीचे सरकते ही फिर यह ढक्कन खुल जाता है। इस प्रकार भोजन श्वास नली में जाने से रुक जाता है। यदि कभी-कभी अचानक भोजन का कण श्वास नली से बाहर आ जाता है तो इस खाँसी को ढसका लगना कहते हैं। इस प्रकार प्रकृति श्वास नली व फेफड़ों की सुरक्षा करती है। श्वास नली के ऊपरी दो छल्लों से कण्ठ या गले का ढाँचा बनता है। ये छल्ले उपास्थि से बने होते हैं। प्रथम छल्ला सामने की ओर से चौड़ा उभरा हुआ होता है। यह C के आकार का अधूरा छल्ला होता है। इसे अवदुयास्थि (Thyroid Cartilage) कहते हैं। इसे गले के बाहर से छूकर अनुभव किया जा सकता है।

दूसरा छल्ला चारों ओर से पूर्ण होता है जो मुडिकायास्थि (Coricoid Cartilage) कहलाता है। पूर्ण श्वास नली में यही छल्ला पूर्ण होता है। इन दोनों छल्लों के मध्य स्थित रिक्त स्थान होता है जिसमें सौत्रिक तन्तु होते हैं। स्वर यन्त्र की गुहा के आर-पार रज्जु (Vocal Cords) भी होते हैं जो दृढ़ता से झिल्लियों के साथ जुड़े होते हैं। यहीं से स्वर उत्पन्न होते हैं। स्वर यन्त्र (Larynx) श्वास नली का ऊपरी भाग स्वर यन्त्र कहलाता है। स्वर यन्त्र में स्वररज्जु होते हैं जो बोलते समय स्वर उत्पन्न करते हैं। जब फेफड़े से वायु बाहर की ओर आती है तथा वेग से स्वररज्जुओं के पास से गुजरती हैं तो स्वररज्जुओं में कम्पन होता है तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की ध्वनि निकलती है, जिसमें मुख व नाक भी सहायक होते हैं। स्वर का पतला व मोटा अर्थात् भारी एवं महीन आवाज स्वररज्जुओं की लम्बाई, खिंचाव तथा वायु के कम्पनों की आकृति पर निर्भर करता है। पुरुषों के स्वररज्जु लम्बे होते हैं जिससे उनकी आवाज स्त्रियों की अपेक्षा भारी होती है। बच्चों का स्वर यन्त्र अत्यन्त छोटा होता है, किन्तु युवावस्था में इतना बड़ा हो जाता है कि बाहर से उभरा हुआ स्पष्ट दिखायी देता है। यह भाग टेटुआ कहलाता है।

4. श्वास नली (Trachea)- 

श्वास नली स्वर यन्त्र के ठीक नीचे से आरम्भ होती है अर्थात् स्वर यन्त्र से जुड़ी होती है। यह 12-15 सेमी0 लम्बी तथा 2-3 सेमी० चौड़ी उपास्थि के छल्लों से निर्मित होती है। ये छल्ले अधूरे अर्थात् C के आकार के होते हैं। इनका अपूर्ण भाग पीछे की ओर होता है। ये छल्ले अत्यन्त लचीले होते हैं तथा वायु के आने-जाने के लिए सदैव खुले रहते हैं।

श्वास नली की भीतरी सतह पर श्लेष्मिक झिल्ली चढ़ी रहती है जिसमें से तरल पदार्थ निकलता रहता है। नाक के बालों से छत्रे के बाद भी यदि धूल के कण या बैक्टीरिया श्वास नली में आ जाते हैं तो उन्हें यह नष्ट करके फेफड़ों में जाने से रोक लेता है। इस झिल्ली पर छोटे-छोटे उभार से होते हैं जो इतने सतर्क रहते हैं कि वायु के अतिरिक्त किसी भी अवांछनीय कणों के पहुँचने पर तुरन्त उत्तेजित हो जाते हैं जिससे खांसी आ जाती है और वह कण भी झटके से बाहर हो जाता है।

5. श्वसनी (Bronchials)- 

श्वास नली 12 सेमी0 से 15 सेमी० के पश्चात् दो भागों में बंट जाती हैं जिन्हें श्वास निकायें कहते हैं। प्रत्येक श्वास निकायें अपने बायें दायें फेफड़ों में प्रवेश कर जाती हैं। यह श्वास निकायें फेफड़ों में पहुंचकर क्रमशः अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं में वृक्ष की भाँति विभक्त होती जाती हैं। अन्त में यह अत्यन्त बारीक हो जाती हैं जिन्हें वायु प्रणालियाँ (Bronchiols) कहते हैं। श्वास निकायें श्वास नली की भाँति छल्लों से निर्मित नहीं होती, बल्कि वे लचीली पेशियों से बनी होती हैं। अन्त में ये सूक्ष्म प्रणालियाँ छोटे-छोटे लम्बे फैले से थैलों में परिवर्तित हो जाती हैं। ये थैले वायुकोष कहलाते हैं। फेफड़े वास्तव में इन्हीं वायुकोषों के समूह से मिलकर बनते हैं।

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6. फेफड़े या फुफ्फुस (Lungs)-

फेफड़े स्पंजी संरचनाएँ हैं और संख्या में दो (प्रत्येक और वक्ष गुहा में एक-एक) होते हैं। फेफड़े हल्के गुलाबी व भूरे रंग के दिखायी पड़ते हैं। प्रत्येक फेफड़ा चारों ओर से दोहरी पतली झिल्ली से ढका रहता है जिसे फुफ्फुस आवरण या प्लूरा (Plura) कहते हैं। इनकी एक परत फेफड़े पर चिपकी रहती है तथा दूसरी परत वक्ष की दीवार के सम्पर्क में रहती है। इन दोनों परतों के बीच बहुत कम स्थान रहता है। वक्ष पर आघात होने से प्लूरा कोष में वायु शीघ्र भर जाती है और फेफड़े पर दबाव पढ़ता है जिससे वह सिकुड़ जाता है। प्लूरा कोष में एक द्रव्य भरा रहता है जिसे प्लूलिम्फ कहते हैं जो प्लूरा झिल्ली को तर रखता है। इससे फैलते तथा सिकुड़ते समय फेफड़ों में किसी प्रकार की रगड़ नहीं लग पाती है, परन्तु प्लूरा झिल्ली से निकलने वाले पदार्थ का यदि आधिक्य हो जाता है तो शरीर में प्ल्यूरिसी (Pleurisy) नामक रोग उत्पन्न हो जाता है। यह रोग काफी कष्टदायक होता है। इसके सूखने पर भी Dry Pleurisy हो जाती है।

फेफड़े

फेफड़े कई भागों में विभाजित रहते हैं जिन्हें खण्ड (Lobes) कहते हैं।बाँयां फेफड़ा दो खण्डों तथा दायाँ फेफड़ा तीन खण्डों में विभाजित होता है। इन खण्डों की आन्तरिक रचना का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि दोनों ओर के फेफड़ों का प्रत्येक खण्ड अन्दर से अनेक छोटे-छोटे खण्डों में विभाजित होता है जो स्वयं पुनः और अधिक खण्डों में विभाजित होते हैं। इनका सूक्ष्मतम भाग चिकनी झिल्ली का बना हुआ और थैलियों प्लूरा के समान फूला हुआ होता है। इन थैलियों को वायुकोष (Air sacs) कहते हैं। 

श्वास निकायों के अन्तिम सूक्ष्मतम सिरे इन्हीं वायुकोषों में खुलते हैं। प्रत्येक वायुकोष से संलग्न अंगूर के गुच्छे के समान वायु के अनेक सूक्ष्म कोष होते हैं जिनको कूपिका (Alveoli) कहते हैं और ये वायुकोष में खुलते हैं। इन कूपिकाओं के कारण श्वसन तल कई गुना (लगभग 55 गुना) बढ़ जाता है। इन वायुकोषों के समूहों को ही फेफड़े की संज्ञा दी गयी है। वायुकोषों तथा रक्त कोशिकाओं की भित्तियाँ इतनी पतली होती है कि यहाँ ऑक्सीजन तथा कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की आदान-प्रदान क्रिया बहुत ही सहज हो जाती है। वायुकोषों से रक्त में ऑक्सीजन प्रवेश करती है और रक्त से कार्बन-डाइ-ऑक्साइड निकलकर वायुकोषों में पहुँचती है। इस क्रिया को श्वसन द्वारा रक्त में ऑक्सीजन का प्रसरण करना कहते हैं।

वायु को उच्छ्वासन के योग्य बनाना- जो वायु हमारे अन्दर श्वास द्वारा प्रवेश करती है उसमें धूल, विविध प्रकार के ठोस कण, कई प्रकार के कीटाणु और धुआँ आदि मिला होता है। यह पदार्थ यथावत् शरीर में पहुँचकर अनिष्टकारी सिद्ध हो सकते हैं। कभी- कभी बाह्य बायु शरीर के तापमान की अपेक्षा ठण्डी होती है। साधारणतः वायु में जलवाष्प भी मिली होती है परन्तु ग्रीष्म काल में बहुधा वायु शुष्क हो जाती है जिससे फेफड़ों को हानि हो सकती हैं। वायु के इन सभी दोषों को दूर करने के लिए शरीर के श्वसन तन्त्र पूरी-पूरी व्यवस्था करते हैं।

गैसों का आदान-प्रदान

कहा जाता है कि श्वसन तन्त्र एक एयर कण्डीशनर के सभी कार्य कुशलतापूर्वक सम्पन्न करता है। कभी-कभी बाह्य उपचारों से श्वसन अंगों की कार्यक्षमता और कुशलता में कमी आ जाती है। उदाहरण के लिए आप नाक में डालने वाली उन तेज औषधियों को लीजिए जो प्रायः जुकाम व ठण्ड लगने की दिशा में नथुनों में डाली जाती हैं। इन दवाओं से क्षणमात्र के लिए ही लाभ होता है परन्तु ये नासिका के अन्दर की श्लेष्मा की कोमल व नाजुक प्रन्थियों को विशेष हानि पहुंचाती हैं। वायु को श्वास के उपयुक्त बनाने के लिए निम्न क्रिया निरन्तर होती रहती हैं-

1. नासिका के प्रवेश द्वार के निकट जो अन्दर की ओर बाल होते हैं वे सब प्रकार के धूल-कणों व अन्य दूषित कणों को अन्दर जाने से रोकते हैं।

2. नासिका में जो श्लेष्मा का स्राव होता है वह कीटाणुनाशक है। श्लेष्मा के सम्पर्क में आते ही कीटाणु तुरन्त नष्ट हो जाते हैं।

3. धूल तथा अन्य वस्तुओं के कण तथा कीटाणु जो बचकर नासिका से आगे निकल जाते हैं उन्हें नष्ट करने के लिए श्वसन मार्ग के अन्दर की ओर श्लेष्मा झिल्ली के अस्तर में बालों जैसे प्रवर्ध होते हैं, ये रोमक कहलाते हैं तथा बराबर हिलते रहते हैं। ये बाह्य हानिकारक वस्तुओं के ऊपर की ओर कण्ठ तक धकेल देते हैं जिससे वे या तो थूक के द्वारा बाहर निकल जाते हैं या अन्दर निगल लिए जाते हैं। आमाशय में पहुँचने पर ये कीटाणु हाइड्रोक्लोरिक एसिड के सम्पर्क में आते ही नष्ट हो जाते हैं। श्लेष्मा झिल्ली के चिपचिपे स्रावों में भी कुछ धूल-कण या कीटाणु चिपक जाते हैं। इस प्रकार इन समस्त हानिकारक पदार्थों से फेफड़ों की सुरक्षा हो जाती है।

4. वायु कभी-कभी बहुत ठण्डी और शुष्क होती है। ये दोनों दशाएँ फेफड़ों को हानि पहुँचाती हैं। मोटी-मोटी स्पंजी श्लेष्मा-सी झिल्ली में जो रक्त कोशिकाएँ होती हैं वे वायु को गर्मी प्रदान कर उसके तापमान को शरीर के सामान्य तापमान के समान बना देती हैं। इसके साथ ही श्लेष्मा की तरलता उसको नम भी बना देती है।

श्वास किया में महाप्रचीरा की गतिविधि

श्वासोच्छ्वास क्रिया (Breathing)

आपको पहले ही बताया गया है कि श्वासोच्छ्वास क्रिया के अन्तर्गत दो क्रियाएँ होती हैं। इस क्रिया में उपर्युक्त अंगों के साब-साथ पसलियों के मध्य की अन्तर्पशुकीय पेशियाँ तथा वक्षोदर मध्यस्थ पेशी भी अप्रत्यक्ष रूप से महत्वपूर्ण सहयोग करती है।

उच्श्वसन- 

जब हम श्वास द्वारा वायु को अन्दर ग्रहण करते हैं तो इस क्रिया को उच्छ्वसन कहते हैं। महाप्रचीरा गुम्बद के समान आकृति का होता है और श्वसन क्रिया में महत्वपूर्ण योगदान करता है। जब महाप्रचीरा या डायाफ्राम (Diaphram) पेशियों में संकुचन होता है तो महाप्रचीरा की ऊँचाई कम हो जाती है तथा सामने से देखने पर चपटी-सी लगती है। इस क्रिया के फलस्वरूप वक्षस्थल का आयतन बढ़ जाता है तथा प्रश्वसन के समय इसमें विमोचन की क्रिया होने से पूर्ववत् हो जाता है। महाप्रचीरा में संकुचन के साथ-ही- साथ वे पसलियों को जोड़नेवाली पर्शुका पेशियों में भी संकुचन होता है जिसके फलस्वरूप पसलियाँ ऊपर को उठती हैं, दायें-बायें फैलती हैं और वक्षस्थल का आयतन (घेरा) और भी अधिक फैलकर बढ़ जाता है। इस प्रकार बढ़े आयतन के कारण पैदा हुए रिक्त स्थान को भरने के लिए फेफड़े फूलते हैं और फलस्वरूप फेफड़ों का आयतन बढ़ जाता है। इस बढ़े हुए आयतन को भरने के लिए वायु प्रबल वेग से फेफड़ों के अन्दर प्रवेश करती है। यही उच्छ्वसन या उच्छ्वास कहलाता है। इस प्रकार फेफड़ों के अन्दर वायु प्रवेश करने की क्रिया पूर्ण होती है।

श्वसन क्रिया में महाप्रचीरा एवं पसलियों की क्रियाविधि

प्रच्छ्वास (Expiration)- 

उच्छश्वास के पश्चात् प्रच्छ्वास क्रिया प्रारम्भ होती है। यह क्रिया महाप्रचीरा की पेशियों में संकुचन के तत्काल बाद पेशियों के विमोचन से प्रारम्भ होती है जिसमें महाप्रचीरा का गुम्बद अपने पूर्व गुम्बद की स्थिति में आ जाता है। पशुकाएँ एवं उरोस्थि भी पीछे की ओर आ जाती हैं। इन सब क्रियाओं से वक्षगुहा छोटी हो जाती है। फुफ्फुस संकुचित होकर वायु को बाहर की ओर धकेल्नती है। यही क्रिया श्वास बाहर निकालना या प्रच्छ्श्वसन कहलाती है। श्वसन क्रिया में श्वास लेना तथा निकालना निरन्तर होता रहता है। यह क्रिया वक्ष महाप्रचीरा पेशी एवं वक्ष पेशियों के स्वाभाविक संकुचन एवं विमोचन के फलस्वरूप घटित होती है। श्वसन में सहायता प्रदान करने वाली मांसपेशियाँ अनैच्छिक होती हैं और उनका कार्य स्वयं ही होता रहता है। ये प्रायः स्वतन्त्र रूप से कार्य करती हैं। 

श्वासोच्छ्वास क्रिया से सम्बन्धित कुछ मुख्य बातें-

(i) उच्छ्‌वास तथा प्रश्वास क्रिया निरन्तर होती रहती है।

(ii) इस क्रिया का सम्पन्न होना वक्षोदर मध्यस्थ पेशी तथा अन्तर्पशुकीय पेशी के संकुचन व विमोचन पर निर्भर करता है।

(iii) ये पेशियाँ अनैच्छिक होती हैं। इनका कार्य स्वतन्त्र रूप से होता रहता है।

(iv) हल्की उच्छ्वास क्रिया के साथ हल्की प्रश्वास क्रिया तथा गहरी उच्छ्वास क्रिया के साथ प्रश्वास क्रिया भी गहरी होती है।

(v) गहरी श्वास लेने पर फेफड़ों में वायु बड़े तीव्र वेग से प्रवेश करती है तथा तीव्रता से शरीर की अशुद्धियाँ लेकर बाहर निकलती है। अतः सदैव गहरी श्वास लेने का अभ्यास करना स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है क्योंकि तीव्र वेग से वायु के फेफड़ों में प्रवेश करने का अर्थ होता है तीव्रता से रक्त की शुद्धि होना तथा अशुद्धि का बाहर निकलना।

(vi) अधिक शारीरिक परिश्रम या भय आदि के समय शरीर को अधिक शुद्ध वायु की आवश्यकता होती है। अतः स्वतः ही गहरी-गहरी श्वासें आने लगती हैं।

(vii) आपको जैसा कि बताया गया है कि श्वसन क्रिया से सम्बन्धित पेशियाँ अनैच्छिक होने के कारण स्वतन्त्र रूप से कार्यरत रहती हैं, किन्तु इन पेशियों की एक विशेषता यह भी है कि यदि हम प्रयास करें तो इनकी गति को रोक सकते हैं। कुछ समय के लिए धीमा या तीव्र बना सकते हैं। योगी तथा कुछ अभ्यस्त व्यक्ति अभ्यास के द्वारा 2-4 क्या 8-10 घण्टों तक भी अपनी श्वास रोक सकते हैं। प्राणायाम ही श्वास रोकने का एक सफल अभ्यास है।

(viii) गहरी श्वास लेना स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त लाभदायक है। फुफ्फुसों के अन्दर 1500 cc + 1500 cc + 500 cc = 3500 cc से अधिक बायु समाने की क्षमता होती है। यह क्षमता श्वासधारिता (Vital Capacity) कहलाती है। इस प्रकार Vital Capacity = Complimental Air + Supplemental Air + Lidal Air । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि एक साधारण श्वास (Ordinary Breath) की अपेक्षा गहरी श्वास (Deep Breath) के द्वारा लगभग तीन गुनी मात्रा अधिक ऑक्सीजन फुफ्फुसों में प्रवेश करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम जितनी गहरी श्वास लेंगे उतनी ही अधिक प्राणवायु (ऑक्सीजन) शरीर में प्रवेश करेगी। स्वाभाविक रूप से हमारा स्वास्थ्य उत्तम होगा। यह लाभ हर साधारण श्वासोच्छ्‌वास क्रिया से प्राप्त नहीं कर सकते।

साधारण श्वास क्रिया से हमारे शरीर की कोशिकाओं का अपूर्व पोषण होता है। अतः गहरी श्वास (Deep Breath) लेने की आदत डालनी चाहिए अथवा शारीरिक परिश्रम व व्यायाम करना चाहिए जिससे स्वाभाविक रूप से गहरी श्वास द्वारा अधिक से अधिक प्राणवायु शरीर का भली प्रकार पोषण कर सके।

व्यायाम से शरीर के स्वस्थ रहने का कारण यह है कि व्यायाम करने से श्वसन क्रिया की गति बहुत तीव्र हो जाती है। गहरी श्वासें आती हैं जिससे शरीर में अधिक मात्रा में प्राण वायु प्रवेश करके विभिन्न तन्तुओं को स्वस्थ बनाती हैं तथा अधिक मात्रा में कार्बन के जलने से कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस उत्पन्न होकर शरीर से बाहर निकलती है। इसके अतिरिक्त शरीर की सभी पेशियाँ क्रियाशील होने से उनमें फुर्ती का संचार होता है। व्यायाम से श्वसन क्रिया पर निम्न प्रभाव होते हैं-

1. गहरी श्वास- व्यायाम करने से स्वाभाविक रूप से गहरी गहरी श्वासें आती हैं जिससे जितनी तीव्रता से फेफड़ों में ऑक्सीजन पहुँचती है उतनी ही तीव्रता से रक्त शुद्धि का भी कार्य होता है।

2. रक्त- प्रवाह की तीव्र गति-आपने अनुभव किया होगा कि अधिक परिश्रम या व्यायाम करते समय हृदय की गति बहुत तीव्र हो जाती है। इसका कारण यह है कि व्यायाम से श्वास की गति तीव्र हो जाती है तथा बड़े तीव्र वेग से ऑक्सीजन फेफड़ों में पहुँचती है जो तीव्र गति से रक्त को शुद्ध करती है तथा शरीर में जल्दी-जल्दी तीव्रता से रक्त प्रवाह होने लगता है। इससे ऊतकों को ऊर्जा मिलती है तथा शरीर के विजातीय द्रव कार्बन-डाइ-ऑक्साइड के रूप में बाहर निकाल दिये जाते हैं।

3. पसीना अधिक निकलता है- व्यायाम से जहाँ हानिकारक गैसों का तीव्रता से निष्कासन होता है वहीं व्यायाम करने से श्वास शरीर की विभिन्न कोशिकाएँ अधिक क्रियाशील होती है जिससे अधिक मात्रा में यूरिया, यूरिक एसिड, लवण आदि पसीने के रूप में बाहर निकल जाते हैं। सामान्य अवस्था में 16-18 बार प्रति मिनट श्वास लेता है, एक स्वस्थ व्यक्ति जबकि शिशु व बालकों की गति वयस्कों की अपेक्षा कहीं अधिक होती है। प्रश्वास द्वारा अशुद्ध वायु के फेफड़ों में से निकल जाने के पश्चात् फेफड़े बिल्कुल वायु रहित नहीं हो जाते वरन् उसमें वायु कुछ न कुछ शेष रह जाती है।

फुफ्फुसों में ऑक्सीजन व कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस का आदान-प्रदान 

आपको यह विदित है कि फुफ्फुसों में अशुद्ध रक्त शुद्ध होने के लिए आता है। फुफ्फुसीय धमनी हृदय के दाहिने निलय से अशुद्ध रक्त लेकर फुफ्फुसों में पहुंचती है। फुफ्फुसों में पहुँचने के पश्चात् यह धमनियाँ शाखाओं-प्रशाखाओं तदन्तर क्रमशः अत्यन्त सूक्ष्म कोशिकाओं के रूप में परिवर्तित हो जाती है तथा फुफ्फुसों में सर्वत्र फैले हुए वायु कोषों के चारों ओर लिपटी रहती है।

अब श्वास द्वारा रिक्त हुई वायु ऑक्सीजन के रक्त के हीमोग्लोबिन तुरन्त ग्रहण कर लेते हैं। यदि लाल रक्त कणों में हीमोग्लोबिन वाला पदार्थ न होता तो रक्त में ऑक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता कदापि न होती। लेकिन नहीं, फेफड़ों के अन्दर जो रक्त कोशिकाओं का जाल-सा बिछा है उसकी बारीक व झिरझिरे दीवारों से छनकर ऑक्सीजन रक्त में मिल जाती है तथा रक्त की कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस वायु में मिल जाती है तथा प्रश्वास द्वारा बाहर निकल जाती है।

अब यह रक्त शुद्ध चमकीले लाल रंग का होता है जो ऑक्सीजन से लदा होता है। फेफड़ा जब शुद्ध रक्त को वापस हृदय के बायें अलिन्द में भेजते हैं तो वहाँ से पुनः रक्त परिसंचरण आरम्भ होता है तथा सम्पूर्ण शरीर में जब यह रक्त कोशिकाओं द्वारा पहुँचाया जाता है तो शरीर की सभी कोशिकाएँ रक्त के साथ आयी हुई ऑक्सीजन को ग्रहण कर लेती हैं तथा अपने अन्दर की कार्बन-डाइ-ऑक्साइड को बाहर निकाल देती हैं जो रक्त में वापस आकर रक्त को अशुद्ध बना देती हैं। अन्त में ऑक्सीजन कोशिकाओं में कार्बनिक पदार्थ का जारण क्रिया करती है जिससे दो परिणाम होते हैं-

1. कार्बन-डाइ-ऑक्साइड के रूप में अशुद्ध वायु बाहर निकल जाती है। 

2. जारण क्रिया (Oxidation) से शरीर में गर्मी उत्पन्न होती है। यही गर्मी शरीर की ऊर्जा है। शरीर में गर्मी न होने से अर्थात् शरीर के ठण्डा हो जाने का अर्थ है मृत शरीर। 

फेफड़ों की वायु ग्रहण शक्ति- व्यक्ति जीवनपर्यन्त सोते-जागते श्वास लेते हैं जिससे शुद्ध वायु फेफड़ों में पहुँचती रहती है तथा अशुद्ध वायु बाहर निष्कासित होती रहती है, किन्तु अशुद्ध वायु के बाहर निष्कासित हो जाने पर भी फेफड़े कभी भी नितान्त वायुरहित नहीं हो जाते, बल्कि वायु बायु का एक बड़ा भाग अन्दर फेफड़ों में ही रह जाता है। गहरी श्वास पर वायु अन्दर प्रविष्ट हुई तथा बाहर निष्कासित वायु की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। अतः चाहे श्वास गहरी ली जाय अथव हल्की, प्रत्येक स्थिति में फेफड़ों में अतिरिक्त वायु निष्कासित काय की मात्रा में इससे लाभ यह होता है कि बाहर की वायु अन्दर पहुंचकर वहाँ पूर्व उपस्थित वायु के साथ मिल जाती है जिससे बाहर की ऊष्मा या ठण्डक से फुफ्फुस सुरक्षित रहता है। प्रत्येक साधारण उच्छ्‌वास के साथ लगभग 500cc वायु फुफ्फुस में प्रवेश करती है तथा प्रश्वास के साथ इतनी ही वायु बाहर निकल जाती है। इसे साधारण वायु (Tidal Air) कहते हैं किन्तु गहरी उच्छ्वास क्रिया में वायु की मात्रा 3,500 cc हो जाती है इसे हम सहायक वायु (Competimental Air) कहते हैं। प्रश्वास की क्रिया जबकि पूरी वायु निकल नहीं पाती केवल 1,500 cc वायु बाहर ही निकल पाती है। इसे (Supplementary Air) कहते हैं। केवल अन्दर फुफ्फुसों एवं वायु नलिकाओं आदि में 1,500 cc वायु रह जाती है। स्वच्छ वायु का सेवन करने के लिए निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक है-

1. सदैव गहरी श्वास ली जाय। 

2. श्वास मुख से नहीं नाक से ली जाय। श्वास लेने का अंग नाक है न कि मुँह। मुँह में ऐसी व्यवस्था नहीं होती जिससे वायु शुद्ध होकर शरीर में प्रवेश करे। 

3. धूल-गर्द में हल्की-हल्की श्वास ली जानी चाहिए अथवा नाक पर रूमाल रखकर श्वास ली जानी चाहिए किन्तु ऐसी स्थिति में गहरी श्वास लेना हानिकारक है। 

4. ऐसे व्यायाम किये जायें जो श्वास सम्बन्धी हों जैसे-प्राणायाम व योगासन। 

5. अधिक झुककर बैठने व कन्धे झुकाकर चलने से फेफड़े भिचे रहते हैं जिससे फेफड़ों में वायु का आवागमन भली-भाँति नहीं हो पाता। अतः बैठने व चलने के आसन उचित होने चाहिए तभी श्वास क्रियाएँ भली-भांति सम्पत्र होगी।

महत्वपूर्ण  प्रश्न-उत्तर -

प्रश्न- 1. श्वसन तन्त्र के किन्हीं तीन मुख्य अंगों के नाम लिखिए।

उत्तर- नासिका, श्वासनली एवं फेफड़े।

प्रश्न- 2. श्वसन द्वारा कौन-सी गैस ग्रहण की जाती है?

उत्तर- श्वसन द्वारा ऑक्सीजन ग्रहण की जाती है।

प्रश्न- 3. शरीर में ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए कौन-सी क्रिया आवश्यक होती है?

उत्तर- कोशाओं में होने वाली ऑक्सीकरण क्रियाओं के लिए आक्सीजन उपलब्ध कराना तथा रुधिर से कार्बन-डाइ-ऑक्साइड को विसर्जित करने के लिए श्वसन क्रिया अति आवश्यक है।

प्रश्न- 4. नाक से साँस लेने के मुख्य लाभ लिखिए।

उत्तर- नाक से श्वास लेने पर बायु में विद्यमान अशुद्धियाँ नाक में ही रुक जाती हैं तथा स्वच्छ वायु फेफड़ों में पहुंचती है।

प्रश्न- 5. उत्तर फेफड़ों की संरचना कैसे होती है?

उत्तर- फेफड़े स्पंजी संरचनाएँ हैं और संख्या में दो होते हैं। फेफड़े हल्के गुलाबी व भूरे रंग के दिखायी पड़ते हैं। प्रत्येक फेफड़ा चारों ओर से दोहरी पतली झिल्ली से ढका रहता है जिसे फुफ्फुस आवरण या प्लूरा कहते हैं।

प्रश्न- 6. फेफड़ों की रक्षा करने वाली झिल्ली का क्या नाम है?

उत्तर- फेफड़े चारों ओर से फुफ्फुसीय आवरण नामक झिल्ली में सुरक्षित रहते हैं।

प्रश्न- 7. फेफड़ों द्वारा किस हानिकारक गैस को बाहर निकाला जाता है?

उत्तर- फेफड़ों द्वारा कार्बन-डाइ-ऑक्साइड गैस को बाहर निकाला जाता है।

प्रश्न- 8. सामान्य अवस्था में फेफड़ों में कितनी बायु होती है?

उत्तर- सामान्य अवस्था में फेफड़ों में लगभग 2.5 लीटर वायु सदैव भरी होती है।

प्रश्न- 9 .एक स्वस्थ व्यक्ति एक मिनट में कितनी बार श्वास लेता है?

उत्तर- एक स्वस्थ व्यक्ति प्रति मिनट में 15-18 बार श्वास लेता है।

प्रश्न- 10. नाक में बाल क्यों होते हैं?

उत्तर- नाक में विद्यमान बाल वायु में मिले हुए धूल-कणों, बैक्टीरिया आदि को बाहर रोक लेते हैं तथा श्वसन तन्त्र में साफ वायु ही प्रवेश कर पाती है।

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