मानव सन्तति समाज की आधारशिला है। समाज की निरन्तरता को बनाये रखने के लिए सन्तानोत्पत्ति एक अत्यन्त आवश्यक व महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। साथ ही मातृत्व-पितृत्व की प्राप्ति मानव की एक सहज आकांक्षा भी है। सन्तान ही जीवन की सार्थकता की पहचान है। सृष्टि-निर्माण के साथ ही प्रकृति ने प्रत्येक जीव में नर या मादा रूप का सृजन किया तथा इनमें ऐसे अंगों का निर्माण किया जो गर्भाधान क्रिया द्वारा एक नये जीव की उत्पत्ति कर सके।
मनुष्य के जनन अंग (Reproductive Organs of Man)
मनुष्य में नर तथा मादा अलग-अलग होते हैं अर्थात् मनुष्य एकलिंगी (unisexual) होता है। पुरुष में नर जनन अंगों से शुक्राणु (sperms) तथा स्त्री में मादा जनन अंगों से अण्डाणु (ovam) का निर्माण होता है। निषेचन (Fertilization) क्रिया स्त्री के शरीर के अन्दर होती है। मैथुन (Copulation) द्वारा पुरुष शुक्राणुओं को स्त्री के गर्भाशय में पहुँचा देता है। स्त्री के शरीर में निषेचित अण्ड से भ्रूण (embryo) बनता है। भ्रूण का पोषण जरायु (placenta) द्वारा होता है। भ्रूण को भोजन तथा ऑक्सीजन जरायु द्वारा माता से ही प्राप्त होती है। भ्रूण का विकास लगभग 9 माह में पूर्ण होता है, तत्पश्चात् भ्रूण का शिशु रूप में जन्म होता है।
समाज की निरन्तरता को बनाये रखने के लिए सन्तान की केवल उत्पत्ति ही आवश्यक नहीं, बल्कि यह भी आवश्यक है कि उनके पालन-पोषण, शिक्षा तथा मानसिक विकास पर पूरा ध्यान दिया जाय। समाज और व्यक्ति दोनों के हित में है कि सन्तान की उत्पत्ति हो किन्तु इसी के साथ यह भी आवश्यक है कि जनसंख्या में सन्तुलन हो। जनसंख्या वृद्धि वर्तमान में समाज के लिए अभिशाप बन रही है। इस समस्या के निराकरण हेतु सन्तानोत्पत्ति पर नियन्त्रण आवश्यक है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति की प्रजनन तन्त्र का ज्ञान होना अति आवश्यक है। पुरुष और स्त्री के प्रजनन तन्त्रों की रचना तथा कार्यों में अन्तर होता है जिनकी जानकारी से ही इस उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है।
पुरुष (नर) प्रजनन अंग
सन्तानोत्पनि करने के लिए पुरुष में विशेष प्रकार के अंग होते हैं जो स्त्रीयों के प्रजनन अंगों से भिन्न होते हैं। युवावस्था- 14-15 वर्ष की आयु के पश्चात् एक बालक युवा होने लगता है तथा उसमें कुछ शारीरिक परिवर्तन भी होने लगते हैं। जैसे-आबाज भारी होना, दाढ़ी-मूंछ निकलना आरम्भ होना तथा प्रजनन अंगों का विकसित होना आदि।
शरीर की कुछ ग्रंथियां विशेष प्रकार का स्राव भी बनाने लगती हैं जिन्हें हम हारमोन (Hormons) कहते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ लिंगीय ग्रंथियों में भी हारमोन बनने लगते हैं जिससे व्यक्ति की मनोवृति तथा प्रजनन संस्थान विशेष प्रभावित होता है।
अतः इस प्रकार पुरुष के प्रजनन अंग निम्न हैं-
(अ) वृषण या शुक्र ग्रन्थियाँ (Testas or Testicles) तथा वृषण कोष (Sxrotum)।
(ब) विभिन्न नलिकाएँ
1. एपीडीडाइमिस (Epididymis),
2. शुक्रवाहिनी (Vas Deference),
3. विक्षेपिणी नलिकाएँ (Ejaculatory)।
(स) विभिन्न ग्रन्थियाँ
1. शुक्राशय (Seminal Vesicles),
2. प्रोस्टेट ग्रन्थि (Prostate Gland)।
(द) शिश्न (Penis) या मूत्र मार्ग (Urinogenital Organ)
(अ) वृषण या शुक्र ग्रन्थियाँ
प्रत्येक पुरुष की उदरगुहा में मूत्रेन्द्रिय के मूल भाग के नीचे शुक्र ग्रन्थियों (Testis) का एक जोड़ा लटकता रहता है। दोनों शुक्र ग्रन्थियां एक मुलायम त्वचा द्वारा ढकी रहती हैं। इस ढके आवरण को वृषण कोष अथवा अण्डकोष (Scrotum or Testicle) कहते हैं। प्रत्येक शुक्र ग्रन्थि में अन्दर की ओर कई त्रिकोणीय आकार के कोष्ठ होते हैं जिनको शुक्र प्रणालिकाएँ (Seminiferous Tubules) कहते हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थि में लगभग एक हजार नलिकाएँ होती हैं। प्रत्येक शुक्र प्रणाली का पहला भाग तो टेड़ा-मेढ़ा होकर उपाण्ड (Epididymis) बनाता है और दूसरा भाग एक बड़ी तथा एक सीधी लम्बी नली में खुलता है। प्रत्येक शुक्र ग्रन्थि के कोष्ठों में हजारों की संख्या में शुक्र कीट अथवा शुक्राण (Spermatozoids) बनते हैं। प्रत्येक शुक्राणु के सिर पर एक गोलाकार कोशिका होती है जिसमें नाभिका (Nucleus) और जीवद्रव्य (Protoplasm) होता है।
नीचे एक लम्बी पूँछ होती है। इन ग्रन्थियों में शुक्राणु के अतिरिक्त एक और तरल पदार्थ का निर्माण होता है जिसे शुक्र अथवा वीर्य (Semen) कहते हैं। इस द्रव्य पदार्थ में शुक्राणु अपनी पूँछ की सहायता से तैरते हैं। प्रत्येक शुक्राणु का जीवन लगभग दो से ढाई दिन तक होता है। शुक्राणु या वीर्य मूत्र में पहुँचकर सहवास के समय स्त्री की योनि से होते हुए गर्भाशय में पहुँचते हैं।
वीर्य (Semen or Seminal Fluid)- वीर्य एक प्रकार का श्वेत, गाढ़ा व तरल पदार्थ होता है जो तीन ग्रन्थियों के स्त्राव से मिलकर बनता है-
1. शुक्राशय, 2. प्रोस्टेट ग्रन्थि, 3. एपीडीडाइमिस।
वीर्य की एक बूंद में लाखों शुक्राणु पाये जाते हैं। सामान्य अवस्था में वीर्य पुरुषेन्द्रिय से केवल सहवास के समय ही निकलता है, हर समय नहीं। सहवास के समय वीर्य स्त्री की योनि में प्रवेश करने पर उसके कुछ शुक्राणु तेजी से गर्भाशय की ओर बढ़ने लगते हैं।
शुक्राणु (Spermatozoa)- शुक्राणु पुरुष जनन की एक अत्यन्त सूक्ष्म रचना है जिसे केवल अणुवीक्षण यंत्र द्वारा ही देखा जा सकता हैं। ये शुक्राणु वृषण में ही उत्पन्न होते हैं तथा वहीं परिपक्व भी होते हैं। यही कारण है कि वृषणों को शुक्राणु ग्रंथियां भी कहते है।युवावस्था प्राप्त होते ही वृषणों में शुक्राणु का निर्माण होना शुरू होने लगता है।
सूक्ष्मदर्शी से शुक्राणुओं का निरीक्षण करने पर आप देखेंगे कि शुक्राणु का एक हिस्सा मोटा होता है तथा दूसरी ओर लम्बी-सी दुम भी निकली होती है जो शुक्राणु को गतिशील बनाती है। इस मोटे भाग को अण्डाकार पिण्ड कह सकते हैं जिसके अन्दर एक केन्द्रक (Nucleous) होता है तथा उसके चारों ओर एक पतला जीव द्रव भरा होता है। शुक्राणु के केन्द्रक में ये सभी पैतृक गुण पाये जाते हैं जो नव शिशु को विरासत में मिलते हैं। एक शुक्राणु की लम्बाई लगभग 1/10 मिमी० होती है। यह स्त्रीजनन कोशिका की अपेक्षा अधिक छोटे होते हैं। जब शुक्राणु परिपक्व हो जाते हैं तब यह शुक्रवाहिनी में चले जाते हैं तथा आवश्यक प्रक्रिया के उपरान्त स्त्रीजनन कोशिका के प्रत्येक शुक्राणु साथ मिलकर एक नये जीव का निर्माण करने लगते हैं। प्रत्येक का जीवन लगभग 2 या 22 दिन तक होता है।
यह भी पढ़ें- रक्त परिसंचरण तंत्र का सचित्र वर्णन- कक्षा- 10
इसे भी पढ़ें- संक्रामक रोग एवं उनकी रोकथाम | Sankraamak Rog Evam Unakee Rokathaam
(ब) विभिन्न नलिकाएँ
1. एपीडीडाइमिस- प्रत्येक वृषण की आन्तरिक रचना देखने से ज्ञात होता है कि वृषभ विभिन्न त्रिकोण आकार के भागों में विभाजित होती है जिसमें दो या तीन घुमावदार नलिकाएँ होती हैं जिसमें शुक्राणु उत्पन्न होते हैं। ये नलिकाएँ परस्पर मिलकर एक जाल सा बना देती हैं। इनमें से भी अनेक नलिकाएँ निकलकर एक टेढ़ी-मेढी घुमावदार नलिका में जाकर मिल जाती हैं। इसी घुमावदार नलिका को एपीडीडाइमिस कहते हैं। यह वृषण के कुछ पीछे की ओर एक तन्तुमय आवरण से ढकी हुई स्थिति में रहती है। यदि इस नली के घुमाव को सीधा करके देखा जाय तो इसकी लम्बाई लगभग 20 फुट होगी। किन्तु यह नली थोड़े ही स्थान में कुण्डली भरे हुए स्थिति में होती है। अतः इसे एपीडीडाइमिस कुण्डली (Coil) भी कहते हैं। इस प्रकार वृषण के त्रिकोण भाग की नलिकाएँ शुक्राणुओं को जाल में से होकर एपीडीडाइमिस तक पहुंचा देती हैं।
2. शुक्रवाहिनी- एपीडीडाइमिस कुण्डली के आगे एक प्रवर्ध के रूप में लम्बी-सी होकर आगे बढ़ जाती है। यही शुक्रवाहिनी कहलाती है। यह नली कुछ नीचे की ओर झुककर शुक्र ग्रन्थियों से ऊपर उदर में प्रवेश करती है जहाँ यह शुक्राशय से निकली नली से मिलकर निक्षेपणी नली का निर्माण करती है।
3. विक्षेपणी नली- शुक्राशय से एक पतली नली निकलकर प्रोस्टेट ग्रन्थि में से होती हुई मूत्र मार्ग में खुलती है। यही विक्षेपणी नली कहलाती है। इस प्रकार शुक्राशयों से निकली हुई नलिकाओं तथा शुक्रवाहिनियों से मिलकर बनी हुई नली ही निक्षेपणी नली है जो शुक्राशयों से स्रावित तरल द्रव तथा शुक्राणुओं को मूत्र मार्ग के उस भाग में पहुँचाती है जो प्रोस्टेट ग्रन्थि से होकर गुजरती है।
(स) विभिन्न ग्रन्थियाँ
शुक्राशय- मूत्राशय की ग्रीवा के पीछे स्थित छोटी-छोटी दो ग्रंथियां शुक्राशय कहलाती हैं जो देखने में एक घुमावदार झिल्ली की थैली-सी लगती हैं। इसमें एक गाढ़ा पीला या चिपचिपा तरल पदार्थ एकत्र होता है जिससे शुक्राणुओं का पोषण होता है। वास्तव में शुक्राशय शुक्र ग्रंथियों से आये हुए शुक्ररस को एकत्र करता है। जब यह शुक्ररस से भर जाता है तब धीरे- धीरे स्वयं खाली भी होने लगता है।
प्रोस्टेट ग्रन्थि- प्रोस्टेट ग्रन्थि मूत्राशय के ठीक नीचे स्थित होती है। इसे पुरुषस्व ग्रन्थि भी कहते हैं। इस ग्रन्थि में एक तरल क्षारीय पदार्थ स्रावित होता है तथा विभिन्न सूक्ष्म नलिकाओं द्वारा मूत्र मार्ग में पहुँचता है। यह तरल पदार्थ पुरुष की मूत्रेन्द्रिय तथा स्त्री की योनि में पहुँचे हुए शुक्राणुओं की सुरक्षा करता है। यदि यह तरल पदार्थ मूत्र मार्ग में न पहुँचे तो पुरुष के मूत्र मार्ग तथा स्त्री की योनि में उपस्थित एसिड से शुक्राणु शक्तिहीन हो जायेगा अथवा पूर्णतया नष्ट हो जायेगा।
(द) शिश्न या मूत्र मार्ग (Penis)
पुरुष के मूत्र मार्ग को शरीरशास्त्र की भाषा में शिश्न कहा जाता है जिसकी लम्बाई लगभग 3-4 इंच होती है। मैथुन के समय अथवा उसकी इच्छा पर यह अधिक लम्बा, मोटा व कड़ा हो जाता है। पुरुष का यही अंग मूत्र त्याग करने, मैथुन करने तथा शुक्ररस निकालने का कार्य करता है।
शिश्न के मुख्य तीन भाग होते हैं। इन्हें दण्डिकाएँ कहते हैं। प्रथम भाग शिश्न मूल के आगे तक जाता है तथा दो दण्डिकाएँ ऊपर की ओर जाती हैं। प्रथम को मूत्र दण्डिका तथा शेष दोनों को शिश्न दण्डिका कहा जाता है। शिश्न के अगले भाग को लिंग मुण्ड (Penis Glands) कहते हैं। लिंग मुण्ड की दण्डिकाएँ एक विशेष प्रकार के ऊतकों से निर्मित होती हैं। इसमें नाड़ी तन्तु व रक्त कोशिकाएँ होती हैं। शिश्न के सभी भाग एक पतली त्वचा से ढके रहते हैं। यह त्वचा कुछ आगे-पीछे भी खिसक सकती है। साधारण स्थिति में शिश्न की बनावट स्पंज की भाँति होती है।
यह भी पढ़ें- मानव श्वसन तंत्र का सचित्र वर्णन कीजिए | Maanav Shavsan Tantra ka Sachitra Varnan Kijiye
स्त्री (मादा) प्रजनन अंग
स्त्री प्रजनन संस्थान-पुरुष की भाँति स्त्री में भी प्रजनन अंग होते हैं, किन्तु पुरुषों से सर्वथा भिन्न। दोनों के प्रजनन अंगों की सम्मिलित प्रक्रिया ही सन्तान के जन्म के लिए आवश्यक होती है।
स्त्रियों में निम्न प्रजनन अंग होते हैं-
1. योनि (Vagina), 2. गर्भाशय (Uterus or Womb), 3. डिम्ब (Fallopian Tubes), 4. डिम्ब ग्रन्थियाँ (Ovaries)।
इनमें से प्रथम को छोड़कर शेष तीनों अंग स्त्री की उदरगुहा में स्थित होते हैं।
1. योनि
योनि लगभग 10-12 सेमी० लम्बी एक नलिका होती है जो अन्दर गर्भाशय से आरम्भ होकर स्त्री की मूत्रेन्द्रियों से खुलती है। योनि का भीतरी भाग चिकनी श्लेष्मिक झिल्ली से ढका रहता है। इसमें से एक प्रकार का चिकना तरल द्रव निकलता रहता है जिससे योनि मार्ग सदैव तर व चिकना बना रहता है। योनि मार्ग की भीतरी रचना अत्यन्त लचीले ऊतकों द्वारा निर्मित होती है। यही कारण है कि आवश्यकतानुसार यह भाग फैलकर काफी बड़ा भी हो सकता है। आवश्यकता समाप्त होते ही पुनः पूर्ववत् होने लगता है। पुरुष अपने शिश्न द्वारा इस मार्ग में अपना वीर्य डालता है जिससे वीर्य में उपस्थित शुक्राणु योनि मार्ग से होते हुए गर्भाशय में प्रवेश करते हैं। मासिक धर्म के समय रक्त भी इसी मार्ग से बाहर आता है।
2. गर्भाशय
गर्भाशय श्लेष्मिक झिल्ली का बना हुआ एक थैला सा होता है जो उदरगुहा मूत्राशय व मलाशय के बीच में स्थित होता है। इसकी लम्बाई लगभग 7-8 सेमी०, चौड़ाई 5-6 सेमी तक तथा मोटाई 2-3 सेमी में होती है। । गर्भाशय की रचना भी अत्यन्त लचीली होती है इसलिए गर्भ-वृद्धि के साथ-साथ गर्भाशय बढ़ने लगता है तथा गर्भ के परिपक्व होने पर इसका आकार लगभग 750 गुना बढ़ जाता है। वैसे इसका आकार नाशपाती की भाँति होता है जिसका चौड़ा भाग ऊपर की ओर और सँकरा भाग योनि में खुलता है। इस संकरे भाग में एक छिद्र होता है जिसे गर्भ छिद्र कहते हैं। पुरुष के वीर्य द्वारा पहुँचे हुए शुक्राणु इसी गर्भ छिद्र द्वारा गर्भाशय में पहुंच जाते हैं। गर्भाशय में ही शिशु के जीवन का आरम्भ होता है तथा उसे पनपने के लिए भोजन व ऑक्सीजन गर्भाशय द्वारा ही प्राप्त होता है। गर्माशय में पूर्ण परिपक्व होने पर शिशु गर्भाशय को छोड़कर धीरे-धीरे योनि मार्ग से बाहर आ जाता है। इस क्रिया को प्रसव कहते हैं।
गर्भाशय की दीवार बहुत लचीली ऊतकों की बनी होती है, जिसमें तीन परतें होती हैं। पहली व बाहरी परत चिकनी होती है जो गर्भाशय के लिए एक आवरण का कार्य करती है। दूसरी व मध्य की परत में आडे-तिरछे रेशे से होते हैं जिसे इलास्टिक रेशे कहा जा सकता है। इसी कारण गर्भ वृद्धि के साथ-साथ गर्भाशय की थैली भी बढ़ जाती है। इन रेशों की दृढ़ता के कारण गर्भाशय में पूर्ण शिशु को समा लेने एवं उनका बोझ वहन करने की पूर्ण क्षमता उत्पन्न हो जाती है। तीसरी व अन्तिम परत श्लेष्भिक झिल्ली की होती है जिसमें बहुत छोटी-छोटी (सूक्ष्म) सैकड़ों ग्रंथियां होती हैं तथा अतिरिक्त रक्त संचित होने से यह परत मोटी व गद्देदार हो जाती है। जब गर्भाशय में प्रतिमास बिना संसेचित अण्डाणु प्रवेश करता है तब भ्रूण का निर्माण तो होता ही नहीं, बल्कि अतिरिक्त रक्त व नष्ट कोशिकाओं के साथ मासिक धर्म के रूप में रक्त बाहर निकल जाता है।
3. डिम्ब नलिकाएँ
इन नलिकाओं को अण्डवाहिनी भी कहते हैं। यह संख्या में दो होती हैं जिनकी लम्बाई लगभग 4 इंच होती है। गर्भाशय के दायें-बायें एक-एक डिम्ब नलिका स्थित होती है। यह एक ओर डिम्ब ग्रन्थि या अण्डाशय से मिली होती है तथा दूसरी ओर गर्भाशय से मिली होती है अर्थात् उसके भीतरी सिरे गर्भाशय में खुलते हैं। यह नलिकाएँ बाहरी सिरों पर झालरदार व कीपनुमा होती हैं। ये नलिकाएँ डिम्ब ग्रंथियों से डिम्ब को लेकर गर्भाशय में पहुँचाने का कार्य करती हैं। यह डिम्ब संसेचित अथवा बिना संसेचित दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं।
4. डिम्ब ग्रन्थियाँ
डिम्ब ग्रंथियों को अण्डाशय भी कहते हैं। यह उदरगुहा में गर्भाशय के दायीं व बायी ओर स्थित होती हैं। इनका आकार बादाम की गिरि से मिलता-जुलता है। इनकी लम्बाई एक इंच तथा गोलाई लगभग 1/2 इंच होती है। यौवन काल से पूर्व भी इनके सैकड़ों डिम्ब (जनन कोशिकाएँ) रहती हैं, किन्तु यौवन अवस्था आने पर ही इनमें प्रतिमास एक परिपक्व डिम्ब तैयार होता है। यह डिम्ब एक बड़ी कोशिका के रूप में होता है, जिसे परिपक्व होने में लगभग 28 दिन लगते हैं। यह डिम्ब एक प्रकार के डिम्ब कोश में रहते हैं।
जब प्रत्येक अण्ड पूर्णरूपेण पक जाता है, तो अण्डकोष फट जाता है और तब ये अण्डाशय से बाहर की ओर निकलता है। अण्डाशयों से बिल्कुल सटी हुई एक नली का मुख होता है जिसका आकार कीप की भाँति होता है। इस नली को अण्डवाहिनी (Fallopian Tube) कहते हैं।
युवावस्था- युवावस्या (Puberty) प्राप्त करने पर स्त्री के शरीर में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन होने लगते हैं। 12 से 15 वर्ष की अवस्था में बालिका में युवावस्या के चिह्न प्रस्फुटित होते हैं। स्तनों में उभार आने लगता है। बगलों में बाल आने लगते हैं। जंघाएँ चौड़ी होने लगती है। कूल्हों में भारीपन आने लगता है। इसी अवस्था में बालिका को रजोधर्म प्रारम्भ होता है और उसके शरीर के सभी अंग परिपक्वता प्राप्त करने लगते हैं।
रजोधर्म- साधारणतया प्रत्येक स्त्री को रजोधर्म 28 दिन बाद होता है। इसमें लाल रंग का स्राव निकलता है। यह प्रायः तीन या चार दिन तक होता है। मासिक धर्म प्रारम्भ होने से यह स्पष्ट हो जाता है यदि कन्या की जननेन्द्रिय पूर्ण तथा वृद्धि प्राप्त कर चुकी है। गर्भावस्था में रजोधर्म बन्द हो जाता है।
बन्ध्यता (बाँझपन)क्या है ?
'बन्ध्यता' प्रजनन तन्त्र से सम्बन्धित एक विकार या दोष है। यह दोष स्त्री या पुरुष किसी में भी हो सकता है। सन्तानोत्पत्ति स्त्री के डिम्ब तथा पुरुष के शुक्राणु के संयोग से होती है। यदि पुरुष के वीर्य में शुक्राणु नहीं होंगे तो स्त्री के डिम्ब का निषेचन न हो सकेगा और यह डिम्ब नष्ट हो जाएगा। इसी प्रकार पुरुष का शुक्राणु बिना स्त्री के डिम्ब से मिले गर्भधारण नहीं करा सकता। ऐसी अवस्था में स्त्री या पुरुष बन्ध्या या बाँझ कहलायेंगे। पुरुष के वीर्य में शुक्राणु कई कारणों से नहीं पाये जाते हैं। जैसे- वृषणों में शुक्राणु शुक्रजनन कोशिकाओं के न होने से बनते ही न हों अथवा शुक्राणुओं के बनने पर भी शुक्रवाहिनियों में कोई अवरोध होने के कारण वे वीर्य में नहीं आ पाते हों। वीर्य में शुक्राणुओं का कम होना भी स्त्री में गर्भधारण न कर सकने का कारण बन सकता है। इसी प्रकार स्त्रियों में डिम्ब का न बनना या न निकलना दोनों में से कोई भी कमी होने से गर्भधारण नहीं हो पाता है। डिम्ब नलिका में कोई रुकावट होने के कारण भी डिम्ब गर्भाशय में नहीं पहुँच पाते हैं। बन्ध्यता किसी रोग के कारण भी हो सकती है। ऐसे में स्त्री-पुरुष दोनों को ही किसी कुशल डॉक्टर से परामर्श लेना चाहिए।
स्तन ग्रन्थि
स्तन छाती की हड्डी के दोनों ओर होते हैं। ये अर्द्ध गोलाकार होते हैं। इनके बीच में कुछ उभार होता है जिसे स्तनवृन्त (Nipple) कहते हैं। इन स्तनवृन्तों के शिखर पर नन्हें-नन्हें छिद्र होते हैं जो दुग्ध नलिकाओं के मुख होते हैं। इन्हीं से दुग्ध स्राव होता है। इन स्तनवृन्तों तथा इनके चारों ओर का भाग काला तथा गहरा भूरा होता है। इसको स्तन मण्डल (Areola) कहते हैं। स्तन वास्तव में अनेक दुग्ध ग्रन्थियों का समूह है। इनके मध्य में वसा रहती है। स्तनवृन्त तक प्रत्येक ग्रन्थि से एक दुग्ध नलिका जाती है और इस प्रकार स्तनवृन्त के छिद्रों से दुग्ध बाहर आता है। गर्भावस्था में स्तनों का आकार बढ़ जाता है। शिशु जन्म के पश्चात् ही स्तनों में दुग्ध आने लगता है।
गर्भाधान या संसेचन क्रिया
पुरुष का शुक्ररस योनि में पहुँचने के उपरान्त कुछ शुक्राणु तैरते हुए गर्भ छिद्र से होकर गर्भाशय में पहुँच जाते हैं। गर्भाशय से वह अण्डवाहिनी नलिका में जाते हैं। यहाँ पर अण्ड और शुक्राणु के संयोग से भ्रूण (Embryo) की उत्पत्ति होती है। भ्रूण अण्डवाहिनी से खिसककर नीचे गर्भाशय में आ जाता है। यहाँ पर भ्रूण गर्भावस्था की दीवार में श्लेष्मिक झिल्ली से किसी एक स्थान पर संयोजी ऊतकों द्वारा चिपक जाता है। धीरे-धीरे भ्रूण के चारों ओर झिल्ली का एक आवरण बन जाता है और उसमें भ्रूण वृद्धि करने लगता है।
इस आवरण के अन्दर एक द्रव रहता है जो भ्रूण की रक्षा करता है। शनैः शनैः भ्रूण से चिपकने वाला भाग बढ़कर एक लम्बी नली का रूप धारण कर लेता है। इस नली को ही गर्भनाल (Placente) की संज्ञा दी जाती है। गर्भ नाल द्वारा ही गर्भाशय की दीवार तथा भ्रूण की झिल्ली जुड़ी रहती है। इसकी रचना गर्भाशय की दीवार और भ्रूण की झिल्ली के संयोजन से ही होती है जिसमें रुधिर कोशिकाएँ पर्याप्त मात्रा में होती हैं। इन कोशिकाओं के द्वारा ही माता का रुधिर भ्रूण के शरीर में आता-जाता रहता है। इस रुधिर के द्वारा ही भ्रूण आवश्यकतानुसार भोजन, जल, वायु आदि पदार्थ प्राप्त होते हैं और भ्रूण से दूषित पदार्थ इन्हीं के द्वारा बाहर निकलकर माता के शरीर में पहुँचते रहते हैं जहाँ से बाहर निकल जाता है। इस प्रकार माता के गर्भाशय से भ्रूण पलकर पूर्ण शिशु का रूप धारण कर लेता है। नौ मास के पश्चात् गर्भाशय की मांसपेशियाँ सिकुड़ने लगती हैं, जिनके दबाव के कारण शिशु सिर के बल निकल आता है। शिशु के जन्म के तुरन्त पश्चात् गर्भ नाल को काट दिया जाता है। नाल काटने पर शिशु माता के शरीर से पृथक् हो जाता है। गर्भ नाल के काटने का स्थान शिशु की नाभि पर होता है। जन्म के पश्चात् शिशु के शरीर के समस्त अंग स्वयं कार्य करने लगते हैं।
महत्वपूर्ण प्रश्न-उत्तर
प्रश्न- 1. लैंगिक जनन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर- प्रजनन का अर्थ है सन्तान को जन्म देना। प्रजनन कार्य के लिए हमारे शरीर में जो संस्थान व प्रणाली है, उसे ही प्रजनन तन्त्र कहते हैं। प्रजनन का कार्य एक ऐसा कार्य है जो स्त्री तथा पुरुष दोनों के सहयोग से ही सम्पन्न होता है।
प्रश्न- 2. मासिक धर्म क्या है?
उत्तर- प्रतिमाह योनि मार्ग से होने वाला रक्त आदि का स्त्राव ही मासिक धर्म या मासिक स्राव होता है।
प्रश्न- 3. बन्ध्यता किसे कहते हैं?
उत्तर- किसी स्त्री-पुरुष (दम्पति) का सन्तान उत्पत्ति में असमर्थ होना ही बाँझपन या बन्ध्यता कहलाता है।
प्रश्न- 4. पुरुष प्रजनन तन्त्र के चार मुख्य अंगों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर- पुरुष प्रजनन तन्त्र के चार मुख्य अंग-
(i) वृषण या शुक्र ग्रन्थियाँ
(ii) शुक्रवाहिनी
(iii) शुक्राशय
(iv) शिश्न।
प्रश्न- 5. स्त्री जननांग के विभिन्न भागों के नाम लिखिए।
उत्तर- स्त्री प्रजनन तन्त्र के मुख्य अंग-
(i) अण्डाशय,
(ii) अण्डवाहिनियाँ
(iii) गर्भाशय
(iv) योनि।
प्रश्न- 6. निषेचन किसे कहते हैं?
उत्तर- पुरुष के शुक्राणु तथा स्त्री के अण्डाणु या अण्डे के साथ संलयित हो जाने की क्रिया को निषेचन कहते हैं। 7.
प्रश्न- 7. माहवारी चक्र कितने दिन में पूर्ण होता है?
उत्तर- माहवारी चक्र 28 दिन में पूर्ण होता है।