लागत लेखांकन का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ, क्षेत्र, उद्देश्य, सिद्धान्त एवं महत्व

लागत लेखांकन का अर्थ

जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, यह किसी वस्तु या सेवा की लागत ज्ञात करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है जिसके आधार पर उस वस्तु या सेवा की लागत का अधिकतम शुद्ध अनुमान लगाया जा सके। इसके अन्तर्गत उत्पादित वस्तु या सेवा पर होने वाले व्ययों व उनसे प्राप्त लाभों का लेखा किया जाता है तथा वह आधार ज्ञात किया जाता है जिस पर विभिन्न व्ययों की गणना की गयी है व उनका उप-विभाजन किया गया है एवं उस वस्तु या सेवा की प्रति इकाई लागत व कुल लागत भी ज्ञात की जाती है। इसके अन्तर्गत लागत पर नियन्त्रण भी किया जाता है। इस प्रकार लागत लेखांकन वह प्रणाली है जिसके अन्तर्गत निर्मित वस्तु या सेवा की लागत ज्ञात की जाती है या उस पर नियन्त्रण रखा जाता है।

    यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि लागत लेखांकन (Cost Accounting) परिव्ययांकन (Costing) से भिन्न है। परिव्ययांकन एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा लागत का निर्धारण किया जाता है। इसके अन्तर्गत उन सिद्धान्तों व नियमों का अध्ययन किया जाता है जिनके द्वारा वस्तु या सेवा की लागत की सही गणना सम्भव होती है। संक्षेप में, वस्तु या सेवा की लागत की गणना विधि ही परिव्ययांकन है। इस प्रकार लागत लेखांकन एक व्यापक शब्द है जिसमें परिव्ययांकन भी सम्मिलित है किन्तु पाठको (विद्यार्थियों) के अध्ययन की दृष्टि से इन दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया जा रहा है।

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    लागत लेखांकन की परिभाषायें  

    लागत लेखांकन की परिभाषा विभिन्न विद्वानों ने दी है जिनमें से प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित-

    1. कार्डर के अनुसार- "किसी वस्तु के निर्माण अथवा किसी उपकार्य पर प्रयुक्त सामग्री तथा श्रम का खातों में लेखा करने की प्रणाली को लागत लेखांकन कहते हैं।"

    2. आर. आर. गुप्ता के अनुसार- "लागत लेखे लेखों की एक ऐसी प्रणाली है जिसके द्वारा व्ययों का विश्लेषण इस प्रकार किया जाता है कि उत्पादन की एक विशेष इकाई की कुल लागत उचित शुद्धता के साथ जानी जा सके और यह दिखा सके कि ऐसी कुल लागत किस प्रकार आयी है।"

    3. बिग के अनुसार- "लागत लेखांकन व्ययों के ऐसे विश्लेषण एवं वर्गीकरण का आयोजन है जिससे उत्पादन की विशेष इकाई की कुल लागत का निर्धारण उचित शुद्धता के साथ किया जा सके और साथ ही यह भी जाना जा सके कि ऐसी कुल लागत किस प्रकार आयी है।"

    4. एल. आर. डिक्सी के अनुसार- "लागत लेखे वित्तीय लेखों के पूरक अथवा सहायक लेखे है और जो किसी संस्थान अथवा उसके किसी विभाग की क्रिया की विस्तृत लागत से सम्बन्धित अतिरिक्त सूचनाएँ प्रदान करने के लिए तैयार किये जाते हैं।"

    5. आई. सी. उब्ल्यू. ए., लन्दन के अनुसार- 

    (a) "उस बिन्दु से जिस पर व्यय हुआ है अथवा व्यय हुआ माना गया है, लागत केन्द्रों तथा लागत इकाइयों से अन्तिम सम्बन्ध स्थापित करने तक की लागत का लेखा करने की प्रक्रिया को ही लागत लेखांकन कहते हैं। इसके व्यापक प्रयोग में सांख्यिकी आँकड़ों की परिकल्पना, लागत नियन्त्रण विधियों का प्रयोग तथा कार्यान्वित एवं नियोजित क्रियाओं की लाभदायकता का निर्धारण भी सम्मिलित होता है।"

    (b) "लागत लेखांकन लागत ज्ञात करने की तकनीक एवं प्रक्रिया है।"

    निष्कर्ष (Conclusion)- उपरोक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के बाद स्पष्ट होता है कि लागत लेखांकन वित्तीय लेखांकन (Financial Accounting) का ही एक अंग है जिसके अन्तर्गत सामग्री, श्रम तथा व्ययों का ऐसा विस्तृत ब्यौरा रखा जाता है जिससे किसी वस्तु अथवा सेवा की कुल लागत एवं प्रति इकाई लागत का ज्ञान प्राप्त किया जा सके, साथ ही यह भी जान सके कि विभिन्न प्रकार के व्यय प्रति इकाई लागत में कौन-सा भाग (हिस्सा) रखते हैं। लागत लेखांकन की उपयुक्त परिभाषा निम्न प्रकार दी जा सकती है-

    "लागत लेखांकन का आशय उत्पादों अथवा सेवाओं की लागत निर्धारित करने के लिए नियन्त्रण व प्रवन्ध के मार्गदर्शन हेतु समुचित रूप से संकलित आँकड़ों को प्रस्तुत करने के लिए व्ययों के वर्गीकरण, अभिलेखन एवं व्यवस्थित विभाजन है।"

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    लागत लेखांकन की विशेषताएँ

    उपरोक्त परिभाषाओं के अध्ययन के पश्चात् लागत लेखांकन की निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती है-

    1. लागत लेखांकन वित्तीय लेखांकन का ही एक महत्वपूर्ण अंग है।
    2. लागत लेखांकन से उत्पादित वस्तुओं की कुल लागत तथा प्रति इकाई लागत की जानकारी हो पाती है।
    3. इसके अन्तर्गत सामग्री, श्रम एवं व्ययों का विस्तृत ब्यौरा रखा जाता है।
    4. इसके अन्तर्गत लागत के तत्वों (सामग्री, श्रम एवं व्ययों) पर पर्याप्त नियन्त्रण रखा जाता है।
    5. इसके अन्तर्गत अपूर्ण कार्य की लागत की भी गणना की जाती है।
    6. यह वित्तीय लेखांकन का पूरक अथवा सहायक है।
    7. इसके अन्तर्गत लागत के व्ययों का वैज्ञानिक वर्गीकरण किया जाता है।
    8. इससे उत्पादित वस्तुओं की शुद्ध लागत की जानकारी हो पाती है।
    9. लागत लेखांकन कला एवं विज्ञान दोनों है।

    लागत लेखांकन का क्षेत्र

    लागत लेखांकन के मुख्य क्षेत्र निम्नांकित है-

    1. लागत वर्गीकरण (Cost Classification)- लागत वर्गीकरण का मुख्य उद्देश्य एक ही प्रकृति की विभिन्न लागतों को अलग-अलग वर्गों में विभाजित करना होता। लागतो का यह वर्गीकरण लागत प्रमाप के आधार पर किया जाता है. जैसे- समय के आधार पर व्यय का वर्गीकरण, प्रकृति के आधार पर व्यय का वर्गीकरण, उत्पादन प्रक्रिया की प्रकृति के आधार पर वर्गीकरण आदि। अतः लागत लेखांकन के अन्तर्गत व्ययों का अलग-अलग वर्गों में वर्गीकरण किया जाता है।

    2. लागत लेखांकन (Cost Recording)- लागत वर्गीकरण के बाद विभिन्न लागतों का संस्था की पुस्तकों में लेखा किया जाता है।

    3. लागत विभाजन (Cost Allocation)- लागत लेखांकन के बाद पूर्व निर्धारित आधार पर विभिन्न विभागों एवं लागत केन्द्रों के बीच लागत का विभाजन किया जाना इसके क्षेत्र के अन्तर्गत आता है।

    4. लागत निर्धारण (Cost Determination)- एक निश्चित अवधि में उत्पादित वस्तुओं की लागत का निर्धारण किया जाना आवश्यक होता है। इसके लिए विवरण विधि, उत्पादन खाता विधि, उत्पादन तालिका विधि आदि का प्रयोग किया जाता है।

    5. लागत की तुलना (Comparison of Cost)- लागत निर्धारण के बाद एक अवधि की लागत की तुलना दूसरी अवधि की लागत से तथा एक संस्था की लागत की तुलना दूसरी संस्था की लागत से की जाती है।

    6. लागत नियन्त्रण (Cost Control)- प्रमाप लागत, बजटरी नियन्त्रण, स्कन्ध नियन्त्रण, किस्म नियन्त्रण आदि विधियों के द्वारा लागत नियन्त्रण किया जाता है। इससे स्पष्ट है कि लागत लेखांकन से साधनों का समुचित प्रयोग सम्भव होता है।

    7. लागत प्रतिवेदन (Cost Reporting)- लागत प्रतिवेदन का मुख्य उद्देश्य प्रबन्ध की आवश्यकतानुसार लागत सम्बन्धी सूचना सही समय पर प्रदान करना होता है जिससे वह संस्था का नीति निर्धारण कर सके।

    8. लागत में कमी लाना (Cost Reduction)- इसके अन्तर्गत प्रति इकाई लागत कम करने का प्रयास किया जाता है. ताकि संस्था अधिक से अधिक लाभार्जन कर सके तथा प्रतिस्पर्द्धा का सामना कर सके।

    9. लागत अंकेक्षण (Cost Audit)- लागत अभिलेखों की जाँच को ही लागत अंकेक्षण कहते हैं, ताकि उनकी परिशुद्धता को प्रमाणित किया जा सके। इससे लागत प्रतिवेदन की विश्सनीयता बढ़ती है, साथ ही सामग्री नियन्त्रण तथा अशुद्धियों व कपटो को ढूँढ़ने में कारगर साबित होता है।

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    लागत लेखांकन की आवश्यकता

    सामान्य तौर पर प्रत्येक व्यापारी अपने समस्त लेन-देनों एवं व्यवहारों का लेखा करने के लिए वित्तीय लेखांकन पद्धति का अनुसरण करता है। इसके अन्तर्गत वर्ष के अन्त में समस्त लेन-देनों का संक्षिप्त ब्यौरा तैयार करता है और लाभ-हानि एवं आर्थिक स्थिति की जानकारी प्राप्त करता है किन्तु वित्तीय लेखांकन से व्यवसाय से सम्बन्धित सभी सूचनाएँ प्राप्त नहीं हो पाती हैं। वित्तीय लेखांकन से कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी नहीं हो पाती है, जैसे उत्पादन की लागत क्या है? लागत पर कैसे नियन्त्रण किया जाय तथा उत्तरदायित्व बिन्दु कहाँ है? वित्तीय लेखांकन की इन कमियों का ही परिणाम है लागत लेखांकन की आवश्यकता महसूस किया जाना। लागत लेखांकन की आवश्यकता के मुख्य कारण निम्नलिखित है-

    1. उत्पादन लागत के सम्बन्ध में जानकारी- चूँकि वित्तीय लेखांकन के अन्तर्गत केवल व्यवसाय से सम्बन्धित आय-व्यय का विवरण रहता है। इसके अन्तर्गत लागत की गणना नहीं की जाती है। व्यय भी विभिन्न प्रकार के होते हैं। कुछ व्यय ऐसे होते है जिससे लागत अप्रभावित रहती है, जबकि कुछ व्यय लागत को प्रभावित करते है। वित्तीय लेखांकन ऐसे व्ययों के बीच अन्तर स्पष्ट नहीं करता है। यही कारण है कि वित्तीय लेखांकन के द्वारा किसी उत्पादन की वास्तविक लागत की गणना लगभग असम्भव ही है। इसके परिणामस्वरूप वस्तु के मूल्य निर्धारण में कठिनाई होती है और अन्य व्यापारियों के साथ प्रतियोगिता करना अहितकर प्रतीत होने लगता है। यह सत्य है कि सही मूल्य-निर्धारण के अभाव में इस प्रतिस्पर्धात्मक युग में बाजार में टिकना मुश्किल हो जाता है। अतः यह आवश्यक है कि लागत लेखांकन पद्धति अपनायी जाय, ताकि उत्पाद/सेवा को सही लागत की जानकारी प्राप्त कर मूल्य निर्धारण किया जा सके।

    2. सामग्री नियन्त्रण (Inventory Control)- वित्तीय लेखांकन के अन्तर्गत सामग्री के क्रय व विभिन्न विभागों में उसके निर्गमन का लेखा किया जाता है किन्तु सामग्री के छीजन, चोरी व अपव्यय का कोई लेखा नहीं किया जाता है। फलस्वरूप सामग्री पर पूर्ण नियन्त्रण रखना कठिन होता है। सामग्री पर पूर्ण नियन्त्रण नहीं होने का ही परिणाम होता है, लागत में वृद्धि। उत्पादन की लागत में वृद्धि व्यवसाय को हानि की ओर खीच ले जाती है। वित्तीय लेखांकन की इस कमी का भी परिणाम है लागत लेखांकन की आवश्यकता महसूस किया जाना। लागत लेखांकन लागत का सही विवरण प्रस्तुत कर व्यवसाय को हानि से सुरक्षा प्रदान करता है।

    3. वास्तविक लाभ-हानि की जानकारी- वित्तीय लेखांकन के अन्तर्गत कोई भी व्यापारी एक निश्चित तिथि पर व्यापार एवं लाभ-हानि खाता तैयार कर व्यवसाय के सकल लाभ (Gross Profit) एवं शुद्ध लाभ (Net Profit) की जानकारी प्राप्त करता है किन्तु वास्तविकता यह है कि वित्तीय लेखांकन द्वारा प्रदर्शित सकल लाभ व शुद्ध लाभ वास्तविकता से दूर होते हैं। ऐसा होने का मुख्य कारण यह है कि लाभ एवं हानियों की गणना करते समय कुछ ऐसे व्ययों व आयों को दिखाया जाता है जिनका उत्पादन से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। परिणामतः वित्तीय लेखांकन द्वारा प्रदर्शित लाभ व हा कभी कम या कभी अधिक होते हैं। ऐसी परिस्थिति में कभी-कभी व्यापार बन्द करने का भी निर्णय ले लेते हैं क्योंकि उन्हें यह समझ में नहीं आता है कि संस्था में गैर उत्पादक व्यय अधिक दिखाये गये हैं और जिनके ही परिणामस्वरूप हानि की स्थिति उत्पन्न हुई है। ऐसी परिस्थिति में यदि लागत लेखांकन का प्रयोग किया जाय तो संचालक व्यापार बन्द करने के बजाय गैरउत्पादक व्ययों पर नियन्त्रण रखने का प्रयास कर सकते है। इस प्रकार लेखांकन से न केवल वास्तविक लाभ की ही जानकारी होती है बल्कि गैस् उत्पादक व्ययों पर नियन्त्रण भी रखा जा सकता है।

    4. मजदूरी विवरण की प्राप्ति- वित्तीय लेखांकन से मात्र इस बात की ही जानकारी होती है कि मजदूरी मद में कुल कितना व्यय हुआ है। प्रत्येक विभाग में मजदूरी के मद में क्या व्यय हुआ है, की जानकारी वित्तीय लेखांकन से नहीं हो पाती है। इसके अलावा यह भी ज्ञात नहीं हो पाता है कि कितनी मजदूरी उत्पादक है और कितनी गैर उत्पादक। इन सारी बातों की जानकारी लागत लेखांकन से ही सम्भव है।

    5. विभागीय कार्यक्षमता की जानकारी - वित्तीय लेखांकन से सभी विभागों की कार्यक्षमता की सामूहिक जानकारी ही हो पाती है। ऐसा भी हो सकता है कि कोई खास विभाग बहुत ही अच्छी स्थिति (लाभ) में हो, जबकि कोई खास विभाग हानि की स्थिति में किन्तु वित्तीय लेखांकन से जो सूचना मिलती है, वह लाभ-हानि के आपसी समायोजन की बाद की होती है। इससे अलग-अलग विभाग की कार्यक्षमता की जानकारी नहीं हो पाती है। वित्तीय लेखांकन की यह कमी लागत लेखांकन के प्रयोग से समाप्त हो जाती है।

    6. निविदा मूल्य की गणना- चूँकि वित्तीय लेखांकन के अन्तर्गत लागत पत्र तैयार नहीं किये जाते हैं, जबकि निविदा मूल्य की गणना गत वर्ष की लागत के आधार पर की जाती है। अतः वित्तीय लेखांकन के अन्तर्गत निविदा मूल्य की गणना असम्भव है। स्पष्टतः निविदा मूल्य की गणना के लिए लागत लेखांकन का होना अति आवश्यक है।

    7. सम-विच्छेद-बिन्दु का निर्धारण- सम-विच्छेद-बिन्दु वह बिन्दु है जिस पर संस्था को न लाभ हो और न हानि। वित्तीय लेखांकन से यह ज्ञात नहीं हो पाता है कि किस बिन्दु पर संस्था को कितना लाभ होगा या हानि होगी तथा किस बिन्दु पर न लाभ होगा और न हानि। इन समस्त बातों की जानकारी लागत लेखांकन से ही सम्भव है।

    8. लाभों में परिवर्तन के कारणों को ढूँढ़ना- वित्तीय लेखांकन से लाभ में परिवर्तन की मात्रा की जानकारी तो अवश्य होती है किन्तु यह पता नहीं चल पाता है कि लाभ में परिवर्तन के क्या कारण रहे हैं। इनकी जानकारी लागत लेखांकन से होती है। लागत लेखों में जब हम लागत का तुलनात्मक विवरण (Comparative Statement of Cost) तैयार करते हैं तो हमें इस बात की जानकारी हो जाती है कि गत वर्ष की तुलना में व्ययों में परिवर्तन किन-किन कारणों से हुए है अर्थात् किन व्ययों में कमी हुई है या किनमें वृद्धि।

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    लागत लेखांकन के उद्देश्य

    प्रत्येक वस्तु, तकनीकी या प्रणाली के अपने कुछ खास उद्देश्य होते हैं, लागत लेखांकन भी इससे परे नहीं है। लागत लेखांकन के भी अपने कुछ खास उद्देश्य है जिन्हें लागत लेखा प्रारम्भ करते समय अवश्य ही ध्यान में रखा जाना चाहिए। इनकी उपेक्षा करने पर भयानक त्रुटियों उत्पन्न हो सकती है। यद्यपि, लागत लेखांकन के अनेक उद्देश्य है किन्तु उनमें से प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित है-

    1. लागत निर्धारण- लागत लेखांकन का मुख्य उद्देश्य उत्पादन (Product) या सेवा को लागत का निर्धारण करना होता है। यह लागत अलग-अलग हो सकती है, जैसे- प्रति इकाई, प्रति ठेका या प्रति फार्म। इससे विभिन्न अवधियों की लागत की तुलना की जा सकती है, वस्तु का मूल्य निर्धारित किया जा सकता है, निविदा मूल्य (Tender Price) का निर्धारण किया जा सकता है, विभिन्न विभागों की लाभदायकता ज्ञात की जा सकती है तथा अलाभकारी विभागों को बन्द करने का निर्णय लिया जा सकता है। लागत निर्धारण के लिए निम्नलिखित कार्य करने होते हैं-

    • व्ययों का वर्गीकरण व विश्लेषण करना;
    • व्ययों का विभाजन व उप-विभाजन करना;
    • ऐसे व्ययों को पृथक् करना जो लागत का अंग नहीं होते;
    • लागत प्रमाप (Cost Standard) निर्धारित करना;
    • श्रम, समय, मशीनरी व औजारों के सम्बन्ध में क्षय ज्ञात करना;
    • तुलनात्मक लागत विवरण (Comparative Statement of Cost) तैयार करना, ताकि लागत परिवर्तन के कारण की जानकारी हो सके, साथ ही उनका विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जा सके।

    2. लागत नियन्त्रण- किसी भी व्यवसाय का मुख्य उद्देश्य लाभार्जन होता है जिसकी प्राप्ति लागत नियन्त्रण से ही सम्भव है। यदि लागत लेखांकन लागत पर नियन्त्रण नहीं रख सकता है तो इसका प्रमुख उद्देश्य ही समाप्त हो जायेगा। लागत नियन्त्रण का आशय यह है कि किसी वस्तु या सेवा की लागत बिना कारण के ही न बढ़ जाय। लागत नियन्त्रण के लिए लागत लेखांकक को निम्नलिखित कार्य करने होते है-

    (i) सामग्री नियन्त्रण- लागत नियन्त्रण के लिए सामग्री नियन्त्रण आवश्यक होता है। इसके लिए लेखांकक सामग्री के क्रय व निर्गमन पर प्रभावी नियन्त्रण रखता है, इसके प्रयोग में सावधानी बरतता है, ताकि उसमे होने वाली हानि, जैसे- छीजन, बोरी, गबन आदि से बचा जा सके।

    (ii) मजदूरी नियन्त्रण- मजदूरी नियन्त्रण के लिए श्रम की मानक लागत (Standard Cost) निर्धारित कर दी जाती है। इस मानक लागत की तुलना वास्तविक लागत से की जाती है और दोनों लागतों में अन्तर आने पर उनका विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाता है तथा अन्तर के कारणों को ढूँढ़ा जाता है। यदि अन्तर श्रम अकुशलता के कारण आता है तो इसका उपयुक्त उपचार किया जाता है। इस प्रकार श्रम की कुशलता, लापरवाही व क्षति को रोका जा सकता है और सम्पूर्ण लागत पर नियन्त्रण रखा जा सकता है।

    (iii) उपरिव्यय नियन्त्रण- सामग्री एवं श्रम की भाँति विभिन्न उपरिव्यय, जैसे- कारखाना उपरिव्यय, कार्यालय उपरिव्यय तथा विक्रय व वितरण उपरिव्यय, भी लागत के आवश्यक भाग (अंग) होते हैं। अतः इन पर भी नियन्त्रण रखा जाना उतना ही आवश्यक है जितना कि सामग्री एवं मजदूरी पर। इन पर नियन्त्रण नहीं रखने से ये आवश्यकता से अधिक हो सकते है, परिणामस्वरूप लागत में वृद्धि होगी। विभिन्न उपरिव्ययों का कुछ प्रमुख व्ययों के साथ आनुपातिक सम्बन्ध स्थापित कर उन पर प्रभावी नियन्त्रण रखा जा सकता है. जैसे- कारखाना उपरिव्यय का 20%, कार्यालय उपरिव्यय कारखाना लागत का 10% आदि।

    3. लागत के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण समंक प्रदान करना (Supply of Important Data in Connection with the Costs)- व्यावसायिक कार्यों पर नियन्त्रण एवं लागत ज्ञात करने हेतु शुद्ध आँकड़े (Data) प्रस्तुत करना भी लागत लेखो का प्रमुख उद्देश्य है। सामग्री की मात्रा एवं मूल्य, श्रमिकों की मजदूरी तथा उनके द्वारा किये गये कार्य, विभिन्न कार्यों पर किये गये अन्य प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष व्यय, उत्पादित वस्तु की मात्रा, निर्मित माल का स्टॉक, बिक्री की मात्रा एवं मूल्य तथा लाभ आदि से सम्बन्धित वस्तु आँकड़े लागत लेखे ही प्रदान करते हैं। इनके द्वारा लागत का ज्ञान, लागत पर नियन्त्रण, विभिन्न अवधियों की लागतों की तुलना, लाभों की तुलना आदि कार्य सम्पन्न किये जाते हैं।

    4. स्कग्य मूल्यांकन (Inventory Valuation)- लागत लेखांकन उत्पादन में प्रयुक्त होने वाले कच्चे माल, चालू कार्य व तैयार माल के अन्तिम शेष के मूल्यांकन को सरल बनाता है। लागत लेखांकन ऐसी महत्वपूर्ण सूचनाएँ प्रदान करता है जिनके आधार पर कच्चे माल के अन्तिम मूल्य का सही मूल्यांकन किया जाना सम्भव हो पाता है।

    5. विक्रय मूल्य निर्धारित करना (To Determine the Selling Price)- उत्पादों का मूल्य निर्धारण भी लागत लेखांकन का महत्वपूर्ण उद्देश्य होता है। लागत लेखांकक उत्पादन व सेवा का विभिन्न परिस्थितियों में मूल्य निर्धारण करता है। मूल्य निर्धारण के लिए सर्वप्रथम उत्पादन की लागत की गणना की जाती है और तब उसमें एक निश्चित प्रतिशत लाभ जोड़ दिया जाता है जो कि विक्रय मूल्य होता है। यह लाभ या तो विक्रय मूल्य पर जोड़ा जाता है या फिर लागत मूल्य पर।

    6. योजनाएँ एवं नीति निर्धारण (Planning and Policy Formation)- व्यवसाय के सम्बन्ध में भावी योजनाएँ बनाने तथा नीतियाँ निर्धारित करने हेतु लागत लेखांकन महत्वपूर्ण सूचनाएँ प्रदान करता है। दूसरे शब्दों में, प्रबन्धकों को नीतियाँ निर्धारित करने में काफी मदद करता है, जैसे-

    • लागत-मात्रा-लाभ सम्बन्ध (Cost-Volume-Profit Relationship) ज्ञात करने में,
    • किसी खास उत्पाद के उत्पादन को (हानि की स्थिति में) चालू रखने या बन्द करने में,
    • बनाओ या खरीदो सम्बन्धी निर्णय लेने में,
    • वर्तमान मशीनरी का प्रतिस्थापन नयी मशीन से किया जाय या नहीं आदि।

    7. अन्य उद्देश्य (Other Objects)- 

    • उत्पादन के उचित स्तर का ज्ञान कराना।
    • विभिन्न विभागों तथा संयन्त्रों की लाभदायकता का पता लगाना।
    • लागत व्ययों का विश्लेषण करना आदि।
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    लागत लेखांकन के सिद्धान्त

    लागत लेखांकन के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित है-

    1. लागत हमेशा इसके कारण से सम्बन्धित होती है- लागत सामान्यतया कारण से सम्बन्धित होती है। लागत आँकड़ों का संग्रहण एवं विश्लेषण उनकी प्रकृति के आधार पर किया जाता है तथा इनका अविभाजन कारण-सम्बन्ध के आधार पर किया जाता है।

    2. असामान्य लागतें लागत खाते में नहीं दिखायी जाती हैं- आग द्वारा क्षति, बोरी द्वारा क्षति, दुर्घटना द्वारा क्षति की लागत को असामान्य लागत कहते हैं। इन लागतों को उत्पादन लागत में शामिल नहीं किया जाता है क्योंकि इनका सम्बन्ध उत्पादन से बिल्कुल नहीं होता है। इसी प्रकार अन्य वित्तीय प्रकृति के व्ययों को लागत लेखांकन में नहीं दिखाया जाता है।

    3. लागत किये जाने के बाद ही दिखाया जाता है- जब तक व्यय नहीं किया गया हो, इसे लागत नहीं माना जा सकता तथा लागत केन्द्र में चार्ज नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए, सामान्य क्षति एवं क्षय सम्बन्धित इकाई द्वारा तभी वहन किया जायेगा जब हानि उत्पन्न हो आयेगी। हानि उत्पन्न होने की सम्भा 'पा के आधार पर इसे सम्बन्धित इकाई पर चार्ज नहीं किया जा सकता है।

    4. ऐतिहासिक लागते भावी लागतों में नहीं जोड़ी जातीं- सामान्य सिद्धान्त के अनुसार किसी खास अवधि की लागत उसी अवधि में समायोजित होती है, किसी भावी लागत में नहीं। हाँ, इस नियम का भी अपवाद है, जैसे- विज्ञापन पर किया गया व्यय। विज्ञापन का व्यय लाभ वाले वर्ष में ही चार्ज किया जाता है।

    5. दोहरी लेखा प्रणाली पर आधारित है- लागत बही एवं अन्य लागत नियन्त्रण खाते भी दोहरी लेखा प्रणाली पर आधारित है।

    लागत लेखांकन के लाभ अथवा महत्व

    वर्तमान औद्योगिक युग में जबकि औद्योगिक तकनीके जटिल होती जा रही है, लागत लेखांकन का महत्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है। विभिन्न उत्पादकों के बीच गला काट प्रतियोगिता (Cut-throat Competition) पायी जाती है। एक उत्पादक दूसरे से आगे बढ़ने के लिए सतत् प्रयत्नशील है, ऐसी स्थिति में लागत लेखांकन के अभाव में किसी भी उत्पादक के लिए बाजार में टिक पाना असम्भव प्रतीत होता है। इसके अभाव में उत्पादक को भारी हानि उठानी पड़ सकती है। इस प्रकार लागत लेखांकन उत्पादकों के लिए महत्वपूर्ण तो है ही, अन्य पक्षों, जैसे- कर्मचारियों, नियोक्ताओं, उपभोक्ताओं तथा राष्ट्र एवं समाज के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं है। विभिन्न पक्षों के लिए लागत लेखांकन के महत्वों का स्पष्टीकरण नीचे दिया जा रहा है

    (1) उत्पादकों को लाभ (Advantages to the Producers)

    1. सामग्री पर नियन्त्रण (Control on Material)- लागत लेखांकन विभाग द्वारा सामग्री के क्रय, भण्डारण एवं निर्गमन पर नियन्त्रण रखा जाता है जिससे सामग्री की चोरी, छीजन व अन्य प्रकार की बर्बादी आदि न्यूनतम हो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि प्रति इकाई सामग्री की लागत न्यूनतम होती है जिससे वस्तु की निर्माण लागत में भी कमी आती है। अन्ततः उत्पादक के लाभ में वृद्धि होती है।

    2. श्रम पर नियन्त्रण- श्रथ पर नियन्त्रण हेतु श्रम नियन्त्रण विभाग होता है। यह उनके आवागमन, कार्य, पारिश्रमिक आदि पर उचित नियन्त्रण रखता है जिसके परिणामस्वरूप श्रम की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है और प्रति इकाई श्रम लागत कम होती है। इसके अन्तर्गत श्रमिकों के बीच कार्य का बंटवारा उनकी रुचि एवं कार्यक्षमता या योग्यता के आधार पर किया जाता है तथा उन्हें उनके द्वारा किये गये कार्य के अनुरूप पारिश्रमिक दिया जाता है। 

    3. व्ययों पर नियन्त्रण- इसके अन्तर्गत विभिन्न उपरिव्ययों (कारखाना, कार्यालय एवं बिक्री तथा वितरण) पर नियन्त्रण रखा जाता है। इन व्यगों को कम या न्यूनतम करने का हरसम्भव प्रयास किया जाता है जिससे प्रति इकाई कुल लागत कम होती है और उत्पादक का लाभ बढ़ता है।

    4. यन्त्रों के उपयोग पर नियन्त्रण- लागत लेखांकन विभाग द्वारा यन्त्रों के उपयोग पर भी नियन्त्रण रखा जाता है तथा मशीन घण्टा दर (Machine Hour Rate) की गणना कर गन्नों की कार्यक्षमता ज्ञात की जाती है। यदि किसी मशीन की मशीन घण्टा दर में वृद्धि होती है तो इसकी आनकारी शीघ्र हो जाती है। अतः मशीन में व्याप्त दोषों का शीघ्र ही निराकरण कर उसकी कार्यक्षमता बढ़ायी जाती है।

    5. विभागों की लाभदायकता का ज्ञान- लागत लेखा विभाग द्वारा अलग-अलग विभागों का लाभ-हानि खाता अलग-अलग तैयार किया जाता है जिससे अलाभकर विभागों के सम्बन्ध में जानकारी हो जाती है। अतः हानि मे चलने वाले विभागों को बन्द करके कुल लाभ को बढ़ाया जा सकता है।

    6. विक्रय मूल्य का निर्धारण- व्यापारिक सफलता के लिए उचित मूल्य का निर्धारण अत्यन्त आवश्यक है। इसके अभाव में इस प्रतिस्पर्धात्मक युग में व्यावसायिक सफलता की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। विक्रय मूल्य निर्धारित करने के पूर्व सर्वप्रथम सही लागत का ज्ञान आवश्यक होता है और उसमें एक निश्चित प्रतिशत लाभ जोड़कर विक्रय मूल्य का निर्धारण होता है। वस्तुतः लागत लेखांकन के अभाव में न तो सही लागत का निर्धारण सम्भव है और न लाभ का ही।

    7. निविदा मूल्य का निर्धारण- निविदा मूल्य के निर्धारण हेतु गत वर्ष के लागत की आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति लागत लेखांकन से ही सम्भव है। अतः लागत लेखांकन से निविदा मूल्य के निर्धारण में सहायता मिलती है।

    8. उत्पादन लागत की तुलना-  दो वर्षों की उत्पादन लागत को तुलना करना तथा उनके बीच अन्तर की जानकारी प्राप्त करना तथा अन्तर के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करना लागत लेखांकन द्वारा ही सम्भव है। इससे लागत को न्यूनतम करके उत्पादक के लाभ को बढ़ाया जा सकता है।

    9. लाभ में वृद्धि व कमी के कारणों की जानकारी- संस्था में लाभों में कमी व वृद्धि के क्या कारण है, इसकी जानकारी लागत लेखों के गहन अध्ययन से ही सम्भव है। व्यवसाय का सफल संचालन तभी सम्भव है जब उचित नीति का निर्धारण हो तथा व्यापार में होने वाले लाभों में कमी या वृद्धि के कारणों की जानकारी हो।

    10. वित्तीय लेखों के परिणामों की जाँच- विनीय लेखांकन के अन्तर्गत व्यवसाय के लाभ-हानि की जानकारी हेतु लाभ-हानि खाता तैयार किया जाता है, जबकि लागत लेखांकन के अन्तर्गत लाभ की मात्रा जानने के उद्देश्य से लाभ-विवरण (Statement of Profit) तैयार किया जाता है। इस प्रकार दोनों लेखों के परिणामों की तुलना कर वित्तीय लेखों के परिणामों की जाँच की जाती है।

    11. नीति निर्धारण में सहायक- प्रत्येक व्यवसाय का प्रबन्धक भविष्य के लिए कुछ योजनाएँ बनाता है तथा उन्हें लागू करने के लिए नीति निर्धारण करता है। भविष्य में किस वस्तु का उत्पादन करना है. किस वस्तु का उत्पादन बन्द करना है, के सम्बन्ध में निर्णय लागत लेखांकन द्वारा प्रदत्त सूचनाओं के आधार पर ही लिया जाता है। संक्षेप में, भावी नियोजन व नीति निर्धारण का आधार वर्तमान लागत लेखांकन द्वारा प्रदत्त सूचनाएँ ही है।

    12. प्रमाप लागत से वास्तविक लागत की तुलना- प्रबन्ध की दृष्टि से किसी उत्पाद (Product) की कितनी लागत आनी चाहिए, यह पूर्व निर्धारित होता है जिसे प्रमाप लागत कहते हैं। पुनः वास्तविक लागत की तुलना प्रमाप लागत से की जाती है तथा अन्तर के कारणों को ढूँढा जाता है। इस प्रकार लागत लेखांकन की सहायता से प्रति इकाई लागत को कम करने का प्रयास किया जाता है।

    13. व्यवसाय का सक्षम प्रवन्ध- लागत लेखांकन की सहायता से प्रवन्ध को व्यवसाय के विभिन्न विभागों के प्रबन्ध की जानकारी प्राप्त होती है जिससे कहाँ परिवर्तन किया जाना आवश्यक है, के सम्बन्ध में निर्णय लेना सरल हो जाता है। इस प्रकार लागत लेखांकन की मदद से व्यवसाय का कुशल प्रवन्ध सम्भव हो पाता है।

    14. सरकार को आवश्यक सूचनाएँ एवं विवरण भेजने में सहायक- प्रत्येक व्यवसायी को अपने व्यवसाय के उत्पादन, बिकी एवं उत्पादन कर आदि से सम्बन्धित सूचनाएँ सरकार को भेजनी पड़ती है जिसका आधार लागत लेखांकन के आँकड़े ही होते हैं।

    15. विक्रेताओं की कार्यकुशलता का ज्ञान- लागत लेखांकन के अन्तर्गत अलग-अलग विक्रेताओं द्वारा की गयी बिक्री का अलग-अलग लेखा रखा जाता है जिससे प्रत्येक विक्रेता को कार्यकुशलता की जानकारी प्रबन्ध को होती रहती है। इससे उनकी कार्यकुशलता बढ़ाने, पारिश्रमिक निर्धारित करने आदि में काफी मदद मिलती है।

    (II) कर्मचारियों को लाभ

    लागत लेखांकन के ही आधार पर श्रमिकों को उनका उचित पारिश्रमिक मिल पाता है। इससे कुशल श्रमिकों को अपनी कुशलता का परिचय देने की प्रेरणा मिलती है, साथ ही अकुशल श्रमिक कुशलता की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरित होते हैं। श्रमिकों की मजदूरी तया बोनस की दरें ज्ञात रहती है जिससे मिलने वाले पारिश्रमिक की गणना वे स्वयं कर लेते है। इस प्रकार लागत लेखांकन के प्रयोग से श्रमिक शोषणमुक्त हो जाते हैं और उन्हें अधिक पारिश्रमिक पाने की प्रेरणा मिलती है। संक्षेप में, लागत लेखांकन से श्रमिकों को निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं-

    • उचित पारिश्रमिक की प्राप्ति, 
    • अधिक कार्य करने की प्रेरणा, 
    • कार्यक्षमता अभिवृद्धि की प्रेरणा, 
    • श्रमिकों व नियोक्ताओं के बीच संघर्ष का अभाव।

    (III) विनियोजकों को लाभ

    प्रत्येक विनियोजक अपने विनियोग की सुरक्षा चाहता है तथा विनियोग पर अधिक दर से प्रत्याय (Return) चाहता है। लागत लेखांकन की सहायता से विनियोजकों को किसी खास व्यवसाय की लाभार्जन क्षमता की सही जानकारी होती है जिससे वे अपने धन का विनियोग अच्छे व्यवसाय (लाभप्रद) में करने सम्बन्धी सही निर्णय लेने में सक्षम हो पाते हैं। सामान्य तौर पर बैंक तथा वित्तीय निगम किसी व्यवसाय को ऋण देने के पूर्व उसके लागत लेखांकन के आधार पर लाभार्जन क्षमता का अध्ययन कर लेते हैं।

    (IV) उपभोक्ताओं को लाभ

    लागत लेखांकन उत्पादन लागत पर नियन्त्रण रखता है तथा उत्पादन के साधनो का सर्वोत्तम प्रयोग करवाता है। परिणामस्वरूप वस्तु या सेवा की उत्पादन लागत न्यूनतम होती है। फलस्वरूप विक्रय मूल्य कम होता है और उन्हें अच्छी किस्म की वस्तुएँ कम कीमत पर उपलब्ध हो पाती है। संक्षेप में, लागत लेखांकन से उपभोक्ताओं को निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं-

    • सस्ती वस्तुओं की प्राप्ति, 
    • अच्छी किस्म की वस्तुओं की प्राप्ति, 
    • नवीनतम वस्तुओं की प्राप्ति, 
    • मूल्यों में स्थिरता।

    (V) राष्ट्र व समाज को लाभ

    वर्तमान युग नियोजन का युग है। प्रत्येक देश की सरकार अपने देश का आर्थिक विकास करने के लिए योजनाएँ बनाती है। योजनाओं के लिए लागत व्यय के आँकड़े एकत्रित करने की आवश्यकता पड़ती है। उन आँकड़ों के ही आधार पर सरकार यह निर्णय लेती है कि किस उद्योग को बढ़ावा दिया जाय तथा किसको आर्थिक सहायता। इसके अलावा सरकार प्रत्येक विभाग के लिए बजट बनाती है तथा बजटरी नियन्त्रण द्वारा इन पर नियन्त्रण भी रखती है। इसी प्रकार प्रमापित लागत पद्धति (Standard Cost System) से विकास योजनाओं पर होने वाले व्ययों को नियन्त्रित किया जाता है।

    उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि लागत लेखांकन से विभिन्न क्षेत्रों में अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं। इसके अभाव में औद्योगिक प्रगति की कल्पना कोरी कल्पना ही होगी। लागत लेखांकन द्वारा उद्योगों की प्रगति, औद्योगिक उत्पादन में नित्य नयी प्रक्रियाओं का विकास, उद्योगों का कुशल प्रबन्ध तथा श्रमिकों की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है।

    "लागत लेखांकन दूरदर्शिता की पद्धति है, न कि उत्तरवर्ती परीक्षण। यह हानियों को लाभों में परिवर्तित करता है, कार्यकलापों को गतिशील बनाता है और क्षयों को दूर करता है।"

    उपरोक्त कथन मुख्य रूप से दो भागों में बंटा हुआ है। कथन के प्रथम भाग के अनुसार लागत लेखांकन दूरदर्शिता की पद्धति है, न कि उत्तरवर्ती परीक्षण। उत्तरवर्ती परीक्षण का आशय मृत्यु के बाद मृत्यु का कारण ज्ञात करने के लिए शव परीक्षण से है। वित्तीय लेखे व्यवसाय के परिणाम वित्तीय वर्ष के अन्त में प्रस्तुत करते है। 

    दूसरे शब्दों में, वित्तीय लेखों की सूचनाएँ इतने विलम्ब से प्राप्त होती है कि उनका समुचित प्रयोग किया जाना सम्भव नहीं हो पाता है। हानियों एवं अपव्ययों के सम्बन्ध में शीघ जानकारी प्राप्त नहीं हो पाने के कारण उन्हें उत्पन्न होते ही नियन्त्रित किया जाना सम्भव नहीं हो पाता है। इस प्रकार वित्तीय लेखांकन उत्तरवर्ती परीक्षण के सिद्धान्त पर आधारित है। 

    वित्तीय लेखांकन की इस कमी को समाप्त करने के उद्देश्य से ही लागत लेखांकन का विकास हुआ है। दूसरी ओर, लागत लेखांकन कार्य केवल लागत ज्ञात करने तथा विक्रय मूल्य निर्धारित करने तक ही सीमित नहीं होता बल्कि यह प्रबन्धकों को ऐसी सूचनाएँ भी प्रदान करता है जिससे विभिन्न लागतों पर नियन्त्रण भी रखा जा सके। लागत नियन्त्रण हेतु प्रमापित लागत लेखांकन (Standard Costing) तथा बजटरी नियन्त्रण (Budgetary Control) जैसी प्रविधियों प्रयोग में लायी जाती है। प्रमापित लागत लेखांकन के आधार पर हम यह तय करते हैं कि लागतें क्या होनी चाहिए। 

    दूसरी ओर, बजटरी नियन्त्रण के अन्तर्गत संस्था की महत्वपूर्ण क्रियाओं का पूर्व-निर्धारण क्रियात्मक बजट तैयार कर किया जाता है। सरल शब्दो मे, लागत लेखांकन के अन्तर्गत वर्तमान तथा भावी परिस्थितियों का गहन विश्लेषण कर लागतों का पूर्वानुमान लगाया जाता है जिसे लागत नियन्त्रण में काफी सहायता मिलती है। लागत लेखांकन की इस विशिष्ट प्रकृति के ही कारण प्रायः यह कहा जाता है कि "लागत लेखांकन दूरदर्शिता की पद्धति है, न कि उत्तरवर्ती परीक्षण।"

    उपर्युक्त कथन के दूसरे भाग में यह कहा गया है कि "लागत लेखांकन हानियों को लाभों में परिवर्तित करता है, कार्यकलापों को गतिशील बनाता है तथा क्षयों को दूर करता है।" कथन का यह भाग लागत लेखांकन के लाभों की ओर इंगित करता है जिसका वर्णन इसके ठीक पूर्व किया जा चुका है। अतः इस भाग के उत्तर स्वरूप लागत लेखांकन के लाभ की सामग्री प्रयुक्त होगी।

    इसी प्रकार, "लागत लेखों पर किया गया व्यय, व्यय नहीं बल्कि एक विनियोग है।" यह कथन भी लागत लेखांकन के लाभ की ओर इंगित करता है। लागत लेखों को रखने के लिए हिसाब-किताब की अनेक बहियों, विवरण-पत्र आदि रखने होते है, साथ ही अलग लागत लेखांकन विभाग की स्थापना करनी पड़ती है जिसके परिणामस्वरूप संस्था के व्ययों में वृद्धि होती है किन्तु लागत लेखांकन पर किये गये व्यय लाभप्रद विनियोग होते है जिनका लाभ अनेक वर्षों तक प्राप्त होता रहता है। 

    दूसरे शब्दों में, इस पद्धति पर किये गये व्यय अनुत्पादक नहीं बल्कि उत्पादक होते हैं। इससे लागत लेखांकन विधि, उत्पादन, प्रशासन, विक्रय एवं वितरण के समस्त कारकों की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है, साथ ही उत्पादन लागत में भी कमी आती है। इस पद्धति को अपनाने से श्रम एवं बर्बादी पर रोक लगती है तथा लागत पर प्रभावी नियन्त्रण सम्भव होता है। यही कारण है कि "लागत लेखों पर किया गया व्यय, व्यय नहीं बल्कि एक विनियोग है" कहा जाता है।

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