कृषक समाज का अर्थ एवं परिभाषा
राबर्ट रैडफील्ड (Robert Redfield) पहले समाजशास्त्री थे जिन्होंने कृषक समाज पर सर्वप्रथम क्षेत्रीय अध्ययन किये।
राबर्ट रैडफील्ड ने अपनी पुस्तक 'पीजेन्ट सोसायटी एण्ड कल्चर' (Peasant Society and Culture) में कृषक समाज को परिभाषित करते हुए कहा है कि "वे ग्रामीण लोग जो जीवन-निर्वाह के लिए अपनी भूमि पर नियन्त्रण बनाये रखते हैं और जोतते हैं तथा कृषि जिनके जीवन के परम्परागत तरीके का एक भाग है और जो कुलीन वर्ग या नगरीय लोगों की ओर देखते हैं एवं उनसे प्रभावित होते हैं जिनके जीवन का ढंग उन्हीं के समान होते हुए भी उनसे कुछ अधिक सभ्य होता है।"
रैडफील्ड की इस परिभाषा पर डॉ. बी. आर. चौहान ने टिप्पणी करते हुए कहा है कि "रैडफील्ड ने वुल्फ (Wolf) द्वारा विकसित अवधारणा कृषक वर्ग (Peasantry) एवं जोबर्ग (Sejoberg) द्वारा प्रतितपादित अवधारणा अभिजात वर्ग (Elite Group) की ओर ध्यान दिया तथा दोहरे समाज के आधे-आधे भागों तक पहुँचने के लिए दोनों को सम्मिलित कर दिया और कृषक समाज तक पहुँच गये।"
यदि हम रॉबर्ट रैडफील्ड की उपर्युक्त परिभाषा का विश्लेषण करें तो हम देखते हैं कि इन्होंने कृषक समाज को परिभाषित करते हुए दो महत्वपूर्ण तत्वों को स्पष्ट किया है, जो कि इस प्रकार हैं-
- ग्रामीणों के जीवन-निर्वाह का ढंग (Rural people mode of livelihood)
- अन्य स्तर के लोगों के साथ उनके सम्बन्धों की प्रवृत्ति (Nature of their relationship with other Strata)
प्रथम तत्व का आशय यह है कि कृषक समाज के अन्तर्गत भूमि को जोतने वाले उन समस्त ग्रामीणों को शामिल किया जाता है, जिनके जीवन-निर्वाह का एक सामान्य ढंग होता है तथा अन्य स्तर के लोगों के साथ उनका सम्बन्ध भिन्नता लिए हुए होता है। कृषक शब्द को स्पष्ट करते हुए रॉबर्ट रैडफील्ड ने कहा है कि "कृषक वे छोटे उत्पादनकर्त्ता हैं, जो केवल अपने उपभोग के लिए ही उत्पादन करते हैं।"
वस्तुतः रैडफील्ड का यह कथन बड़ा व्यापक है तथा इस परिभाषा के अन्तर्गत वे सभी समूह आ जाते हैं जो मछली मारकर अथवा शिकार करके या फल-फूल एकत्रित करके अपने जीवन का निर्वाह करते हैं। रॉबर्ट रैडफील्ड ने अपनी इस गलती को स्वीकार करते हुए इसे दूर करते हुए कहा है कि "कृषक समाज के अन्तर्गत केवल उन्हीं छोटे उत्पादनकर्त्ताओं को सम्मिलित किया जा सकता है जो अपनी आजीविका एवं जीवनयापन के ढंग को भूमि का जोतकर ही नियन्त्रित करते हैं।"
इस प्रकार रॉबर्ट रैडफील्ड ने कृषक शब्द के अन्तर्गत उन छोटे खेतिहर लोगों को सम्मिलित किया है जो स्वयं के उपभोग के लिए उत्पादन करते हैं। इन्होंने बाजार का उत्पादन करने वाले लोगों को किसान (Farmer) कहा। रॉबर्ट रैंडफील्ड पर फर्थ (Firth) एवं वुल्फ (Wolf) जैसे विद्वानों का प्रभाव पड़ा जिसके कारण बाद में उन्होंने अपने अध्ययन में संशोधन करके कृषक शब्द का प्रयोग उन छोटे खेतिहर किसानों के लिए किया जो जोतने वाली भूमि को नियन्त्रण में रखते हैं और एक सीमा तक आर्थिक रूप से स्वतन्त्र रहते हैं।
कृषक समाज की मुख्य विशेषताएँ
कृषक समाज की विशेषताओं को निम्नलिखित चार शीर्षकों के अन्तर्गत देखा जा सकता है-
1. आकारीय विशेषताएँ
कृषक समाज की आकारीय विशेषताओं के अन्तर्गत इसका निम्न रूप देखा जा सकता है-
(i) जनसंख्या- कृषक समाज से सम्बन्धित गाँवों की जनसंख्या बहुत ही कम होती है। बहुत से गाँव तो ऐसे होते हैं जिनमें जनसंख्या के नाम पर गिने-चुने व्यक्ति और मकान होते हैं। भारत में गाँव की जनसंख्या 5000 तक मानी जाती है। गाँवों में जनसंख्या कम होने के कारण जनसंख्या घनत्व भी काफी कम होता है।
(ii) कृषि मुख्य व्यवसाय- गाँवों में रहने वाले कृषकों का प्रमुख व्यवसाय कृषि होता है। अपने खेतों से लगाव होने के कारण ये लोग कृषि के अलावा अन्य व्यवसाय करना पसन्द नहीं करते हैं क्योंकि ये अन्य व्यवसाय के लिए अपने खेतों को छोड़कर अन्यत्र जाना पसन्द नहीं करते हैं।
(iii) प्रकृति से सीधा सम्बन्ध- कृषक समाज का प्रकृति से सीधा व घनिष्ठ सम्बन्ध होता है जिसके कारण यहाँ पर महानगरीय सभ्यता व बनावटी संस्कृति का जाल बिछा नहीं होता। ये लोग सीधे, सरल तथा कृषि व्यवसाय से जुड़े होने के कारण छल-कपट, धोखा, तनाव, संघर्ष, प्रतिस्पर्द्धा तथा औपचारिकता से दूर रहते हैं।
(iv) अलग पहचान- कृषक समाज की एक अलग पहचान होती है जिसके कारण इनके गाँव दूर से पहचाने जा सकते हैं। इनके गाँवों की पहचान मिट्टी के बने छोने मकान, घास-फूस की झोंपड़ियाँ, गोबर से पुते मकान, काँटेदार झाड़ियों की मेड़ आदि से की जा सकती है। इनके घर तथा खेतों के मध्य दूरी काफी कम रहती है। अधिकांश कृषकों के घर तो खेतों में ही बने रहते हैं। गाँवों में बहुत पक्के मकान भी होते हैं जो किं जमींदार, व्यापारी तथा महाजनों के होते हैं।
(v) खुले बड़े मैदान- कृषक समाज के गाँवों में प्रायः खुले रूप में बड़े-बड़े मैदान होते हैं जिनका प्रयोग ये लोग चरागाह के रूप में करते हैं। इसके अतिरिक्त गाँवों में सामान्यतः छोटे-बड़े कुएँ, छोटे-छोटे मन्दिर, तथा तालाब होते हैं।
2. सामाजिक विशेषताएँ-
कृषक समाज की सामाजिक विशेषताओं को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है-
(i) सरलता- कृषक समाज सरलता का द्योतक है अर्थात् कृषक समाज में नगरीय समाज की तरह जटिलता नहीं पायी जाती है। कृषक समाज में अनेक विभिन्नताएँ पायी जाती हैं, लेकिन नगरीय समाज की तुलना में यहाँ एकरूपता अधिक दिखाई देती है।
(ii) जनजातीय विशेषताएँ भी सम्मिलित- कृषक समाज गाँवों में निवास करता है। गाँव के इन कृषकों में विभिन्न जाति के लोग सम्मिलित रहते हैं। इसके अतिरिक्त गाँव में कई जनजातियाँ रहती हैं। इसलिए कृषक समाज में जनजातीय विशेषताएँ भी पायी जाती हैं।
(iii) अन्धविश्वास व जादू-टोने- कृषक समाज में जनजातीय समाजों के समान अनेक विश्वास, जादू-टोने, अन्धविश्वास, टोटके, पशु बलि, पेड़ों की पूजा, भूत-प्रेतों पर विश्वास आदि जैसी विशेषताएँ भी पायी जाती हैं। क्योंकि गाँव में कृषक समाज के अतिरिक्त जनजातीय समाज भी पाये जाते हैं, इन जनजातीय समाजों के अन्धविश्वास तथा जादू-टोने आदि पर धीरे-धीरे कृषक समाज के लोग विश्वास करने लगते हैं तथा प्रयोग भी करने लगते हैं।
(iv) स्थिर सामाजिक स्थिति- समाज में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति वही है जो उसे जन्म से प्राप्त हुई है अर्थात् सवर्ण जाति में जन्म लेने वाला व्यक्ति सवर्ण है तथा निम्न जाति (जैसे- हरिजन, नाई, कुम्हार) में जन्म लेने वाला व्यक्ति निम्न है। यहाँ आर्थिक ढाँचे में अभी इस रूप में परिवर्तन नहीं हुआ है कि कोई निम्न जाति का व्यक्ति उच्च पद पाकर उचित स्थिति तथा सम्मान पा सके। इसका कारण यह है कि अभी गाँवों में सवर्ण जाति का एकाधिकार है और ये लोग अभी भी संकीर्ण विचारधारा रखते हैं तथा सामाजिक स्थिति में इस प्रकार के परिवर्तन को खुले दिमाग से स्वीकार नहीं करते हैं।
(v) गाँवों से अत्यधिक लगाव- कृषक समाज के लोगों को अपने गाँव से अत्यधिक लगाव रहता है, जिसके कारण अनेक संकटों के समय भी वे लोग अपने गाँव को छोड़ते नहीं, भले ही इनकी मृत्यु हो जाए।
3. सांस्कृतिक विशेषताएँ-
कृषक समाज की अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक विशेषताएँ होती हैं, जो निम्न प्रकार हैं-
(i) परम्परागत समाज- कृषक समाज परम्परागत समाज है। इस समाज में आज हम जिन विश्वासों को देखते हैं वे हजारों वर्षों की परम्पराओं की देन हैं। यहाँ पाया जाने वाला धर्म शास्त्रीय पुस्तकों में विवेचित नहीं है। यहाँ धर्म मन्दिर तथा मस्जिदों तक सीमित नहीं है। यहाँ धर्म और उससे सम्बन्धित देवी-देवता जीवन के साथ चलते हैं और उनके साथ खेतों और खलिहानों में कार्य करते हैं। इसके अतिरिक्त कृषक समाज के असंख्य देवी-देवता उनके अपने हैं जो समय-समय पर उनकी रक्षा करते हैं तथा आशीर्वाद देते हैं। इनके अनेक ऐसे देवी-देवता हैं जो अलग-अलग कार्यों के साथ पूजे जाते हैं। ये लोग इनकी पूजा किये बिना कोई कार्य प्रारम्भ नहीं करते। इसके अतिरिक्त इन देवी-देवताओं के साथ अनेक गाथाएँ तथा कहानी-किस्से जुड़े होते हैं, जो कि कृषक समाज के लोगों को पूजा के लिए प्रेरित करते हैं।
(ii) धर्म में जादू-टोने का मिश्रण- कृषक समाज के धर्म में जादू-टोना, टोटका, भूत-प्रेत आदि किसी न किसी रूप में जुड़ा रहता है।
(iii) अन्धविश्वासी परम्पराओं की एक शक्तिशाली श्रृंखला- कृषक समाज के संस्कृति प्रतिमान में अन्धविश्वासी परम्पराओं की एक शक्तिशाली श्रृंखला पायी जाती है, जिससे व्यक्ति आज भी जुड़ा हुआ है। ये अन्धविश्वासी परम्पराएँ इनके सांस्कृतिक मूल्यों की गाथा कहती है।
(iv) तर्क और वितर्क का अभाव- कृषक समाज के धार्मिक सांस्कृतिक प्रतिमान में तर्क-वितर्क का अभाव पाया जाता है। ये लोग बिना तर्क-वितर्क के सब कुछ आँखें मूंदकर स्वीकार कर लेते हैं जिसके कारण इनकी परम्पराओं में स्थातित्व अधिक होता है।
(v) विभिन्न अनुष्ठानिक कार्य- कृषक समाज में अनेक धार्मिक तथा सांस्कृतिक विचित्र अनुष्ठान पाये जाते हैं। एक कृषक समाज के अन्तर्गत जातिगत अनुष्ठानिक कार्य भिन्न-भिन्न होते हैं जैसे किसी जाति में संस्कार के पूर्ण करते समय सुअर अथवा मेमने की बलि दी जाती है तो किसी जाति में संस्कार के पूर्ण करते समय नारियल तोड़ा जाता है तथा सिन्दूर चढ़ाया जाता है।
4. आर्थिक विशेषताएँ-
कृषक समाज की अपनी विशिष्ट आर्थिक विशेषताएँ होती हैं, जो निम्न प्रकार हैं-
(i) आर्थिक ढाँचे का मुख्य आधार कृषि- कृषक समाज के आर्थिक ढाँचे का प्रमुख आधार कृषि है। यहाँ अधिकांश व्यक्ति कृषि कार्यों से जुड़े होते हैं। जिन लोगों के पास अपनी स्वयं की भूमि होती है उस पर वे कृषि करते हैं लेकिन जिनके पास स्वयं की भूमि नहीं होती वे दूसरों के खेतों पर श्रमिक के रूप में कृषि कार्य करते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ व्यक्ति पशुओं का पालन व मवेशियों को चराने का कार्य करते हैं। गाँव के बढ़ई, जुलाहे आदि भी अप्रत्यक्ष रूप में कृषि से जुड़े होते हैं क्योंकि जिन चीजों का ये कार्य करते हैं उनका उत्पादन कृषि से ही होता है।
(ii) अविकसित अर्थव्यवस्था- कृषक समाज में पाई जाने वाली अर्थव्यवस्था अविकसित होती है अर्थात् इनकी अर्थव्यवस्था लचर, जर्जर तथा अपंग होती है जिसके कारण इनकी आय बहुत कम होती है। इस समाज के अधिकांश लोग गरीबी की रेखा के अन्तर्गत या इससे नीचे रहते हैं जिसके कारण इनका जीवन स्तर अच्छा नहीं होता और ये लोग अपने जीवन की आम जरूरतों को भी पूर्ण नहीं कर पाते हैं।
(iii) जन्मजात समस्याएँ- कृषक समाज का आर्थिक ढाँचा जर्जर होने के कारण इन लोगों को निर्धनता, बेकारी, भुखमरी जैसी समस्याएँ जन्म से ही प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त बाढ़, अकाल, सूखा, पाला जैसी प्राकृतिक समस्याएँ इनके जीवन को और भी कष्टमय बना देती हैं।
(iv) निम्न स्तर का रहन-सहन- कृषक समाज के अधिकांश लोगों का जीवन-स्तर तथा रहन-सहन निम्न श्रेणी का होता है जिसके कारण कभी-कभी इनके पास शरीर ढकने को वस्त्र, पेट भरने को अन्न तथा इलाज कराने को पैसा तक नहीं होता। ये जीवन का अधिकांश समय दरिद्र नारायण के सान्निध्य में गुजारते हैं।
(v) स्थायी बाजारों का अभाव- कृषक समाजों के गाँव छोटे तथा पिछड़े होते हैं जिनमें स्थायी बाजारों का अभाव पाया जाता है। इनके गाँवों में छोटी-छोटी दुकानें होती हैं या सप्ताह में एक हाट बाजार लगता है, जिनमें आम जरूरत की छोटी-मोटी चीजें ही मिल पाती हैं।