(जन्म संवत् 1455, मृत्यु संवत् 1575)
महान् समाज सुधारक सन्त कवि कबीरदास जी का जन्म काशी के निकट संवत् 1455 में हुआ था। कहा जाता है कि कबीरदास जी विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। उसने लोक लज्जा के भय से शिशु को काशी के निकट लहरतारा नामक तालाब के निकट छोड दिया था। वहाँ से निःसन्तान जुलाहा नीरू तथा उसकी नीमा उसे उठा लाए और उसका नाम कबीर रखा। तथा इस प्रकार नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने इनका पालन-पोषण किया। इस प्रकार सन्त कबीर का प्रारम्भिक जीवन एक मुस्लिम परिवार में व्यतीत हुआ, लेकिन सन्त कबीर ने स्वयं को हिन्दू-मुस्लिम से परे रखकर एक योगी कहा। सन्त कबीर की शिक्षा-दीक्षा किसी संस्था में नहीं हुई। उन्होंने स्वयं इस बात को कई स्थानों पर कहा है, कबीर पढ़े लिखे नहीं थे जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है-
मसि कागद छुयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।
सन्त कबीर ने सन्तों की संगति से ही ज्ञान प्राप्त किया था। कबीर के गुरु सन्त रामानन्द थे। कबीर अपने गुरु रामानन्द से बहुत प्रभावित थे। रामानन्द ने उन्हें रामभक्ति का मन्त्र दिया तथा हिन्दू धर्म व दर्शन सम्बन्धी शिक्षा प्रदान की।
सन्त कबीर ने जो कुछ भी प्राप्त किया, वह जब उन्होंने समाज को अर्पित कर दिया। सन्त कबीर ने धर्म को जनसाधारण का रूप देने के लिए उसकी सहजता पर बल दिया। सन्त कबीर ने किसी भी धार्मिक विश्वास, लोक तथा वेद के अन्धानुकरण को स्वीकार नहीं किया। सन्त कबीर का मानना था कि यदि विचार शुद्ध एवं पवित्र नहीं हैं तो धर्म भी पवित्र नहीं हो सकता। उन्होंने हिन्दुओं की मूर्ति पूजा तथा नित्य स्नान, आदि को व्यर्थ कहा। इस संदर्भ में उन्होंने कहा कि-
पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार।
ताते यह चाकी भली पीस खाय संसार॥
नहाये धोये क्या भला, जो मन का मैल न जाय।
मीन सदा जल में रहे, धोये वास न जाय॥
सन्त कबीर ने भक्ति मार्ग को कर्म मार्ग तथा ज्ञान मार्ग से श्रेष्ठ बताते हुए कहा कि जब तक आराध्य के प्रति भक्ति भाव नहीं है, तब तक जप, तप, संयम, स्नान, ध्यान आदि सब व्यर्थ है।सन्त कबीर ने अपनी भक्ति में गुरु को बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान दिया है। कबीर की दृष्टि में गुरु वह साधु है, जिसे ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त है। इस सन्दर्भ में कबीर ने कहा है-
कबिरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और।
हरि रुठे गुरु ठौर है, गुरु रुठे नहीं ठौर॥
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पांय।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताए॥
सन्त कबीर ने समाज में व्याप्त पाखण्ड, रूढ़िवादिता, जातिवाद तथा साम्प्रदायिकता का घोर विरोध किया। सन्त कबीर ने समाज में प्रचलित जाति प्रथा का विरोध करके मानव जाति को एक-दूसरे के समीप लाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कबीर प्रथम सन्त थे, जिन्होंने दोनों सम्प्रदायों के बीच खुदी खाइयों को पाटने का प्रयत्न किया। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कबीर ने बिना किसी संकोच के दोनों धर्मों की बुराइयों पर खुले आम व्यंग किया।
इस प्रकार इन्होंने गृहस्थ जीवन भी व्यतीत किया। और 120 वर्ष की आयु में संवत् 1575 वि. में इनका स्वर्गवास हो गया। उनके अवसान के विषय में एक दोहा बहुत प्रचलित है-
संवत पन्द्रह सौ पचहत्तरा, कियौ मगहर गौन।
माघ सुदी एकादशी, रल्यौ पौन में पौन॥
कबीर दास जी की रचनाएं अथवा साहित्यक परिचय
रचनाएँ-
कबीरदास एक मस्त फकीर थे और मन की मौज में आकर इकतारे पर गाया करते थे। इनके पद और साखियाँ ग्रन्थों के रूप में संगृहीत हुई। इन संग्रहों की संख्या 79 कही जाती है। इसमें 'बीजक' सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और साखी। इनमें वेदान्त तत्व. हिन्दू मुसलमानों को फटकार, संसार की अनित्यता, बाह्य आडम्बरों का विरोध आदि अनेक प्रसंग हैं।
साखी दोहों के रूप में मिलती हैं, वैसे ये दोहे नहीं दोहों की भाँति 'साखी' छन्द हैं। कबीर ने लगभग 5 हजार साखियाँ लिखीं। सबद पदों के रूप में मिलते हैं। कबीर के आध्यात्मिक विचार गेय रूप में इन पदों में मिलते हैं। शब्द को सबद रूप में लिया गया है। रमैनी चौपाई छन्दों में निबद्ध हैं। इनमें कंबीर सिद्धान्तों का वर्णन मिलता है। कबीरपंथी साखी सबद रमैनियों के संग्रहों को 'बानी' नाम देते हैं, अतः इनकी रचनाओं को 'कबीर की बानी' कहा जाता है। डॉ. श्यामसुन्दर दास ने इनकी रचनाओं का सम्पादन किया है, उस संग्रह का नाम उन्होंने 'कबीर ग्रन्थावली' दिया है। कबीर वचनावली के नाम से भी इनके रचना संग्रह मिलते हैं।
विद्यालयी शिक्षा के न होते हुए भी सत्संग तथा भ्रमण के प्रभाव से वे ज्ञानी बन गये। हिन्दू-मुस्लिम एवं शूद्र सभी को वे समान भाव से देखते थे। वे आग्रह रहित सदाचार पोषक तथा मिथ्याचरण विरोधी थे। स्वभाव के फक्कड़ थे। उनके मन में जो आता, सत्य की कसौटी पर खरा उतरता, ये अपने कल्याणकारी विचार प्रस्तुत कर देते।
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कबीर दास जी की काव्यगत विशेषतायें
काव्यगत विशेषताएँ-
कबीर भक्तिकाल की ज्ञानाश्रयी शाखा के सर्वोच्च कवि थे। वे पढ़े-लिखे नहीं थे, किन्तु इनका हृदय भावुक था। अतः इनकी कविता में कलापक्ष की अपेक्षा भाव पक्ष की प्रधानता है। इनकी काव्यगत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं जिसका वर्णन नीचे किया गया है।
कबीरदास की काव्य की भाव-पक्षीय विशेषताएँ
भावपक्षीय विशेषताएँ
वर्णन का क्षेत्र- कबीर बाह्य आडम्बरों के विरोधी, मानवता के पुजारी, परस्पर प्रेम तथा विश्वास के प्रचारक थे। अतः इनकी कविता में भक्ति की भावना, रहस्यवाद की भावना, गुरु महिमा, पाखण्ड का विरोध और लौकिक ज्ञान का अनुभवसिद्ध वर्णन मिलता है। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-
भक्ति तथा रहस्यवाद की भावना- कबीरदास भक्तिकाल की ज्ञानाश्रयी शाखा के सर्वोच्च कवि हैं। इनकी कविता में ज्ञान और भक्ति का सुन्दर समन्वय मिलता है। उनके मत से नीरस ज्ञान प्रेम, विश्वास तथा श्रद्धा के अभाव में निरर्थक हैं। अटल विश्वास, श्रद्धा और भक्ति ही ईश्वर प्राप्ति का प्रधान साधन है। 'प्रेम का ढाई आखर' पढ़ने वाला हो 'पण्डित' है। प्रेमरहित शरीर 'मसान' है जैसा उन्होंने ने कहा है-
जा घट प्रेम न संचरै सो घट जान मसान।
जैसे खाल लुहार की साँस लेत बिनु प्रान॥
इस निम्नलिखित दोहे में कबीर की रहस्यवादी भावना प्रकट होती है-
लाली मेरे लाल की, जित देखें तित लाल।
लाली देखन में चली, मैं भी हो गई लाल॥
निर्गुण ब्रह्म- यद्यपि कबीर ने राम का वर्णन किया है पर इनके राम दशरथ के पुत्र नहीं हैं। वे अरूप, अलख, अनादि और अनामी निराकार ब्रह्म ही हैं-
जाके मुँह माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप।
पुहुप बास ते पातरा, ऐसा तत्व अनूप॥
उन्होंने 'राम' शब्द का प्रयोग किया है लेकिन दशरथ पुत्र राम के लिए नहीं। उनके राम तो निर्गुण ब्रह्म हैं-
दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना। राम नाम का मरम है आना।
'हरि' शब्द का भी उन्होंने प्रयोग किया है लेकिन विष्णु अथवा कृष्ण के लिए नहीं।
जाति-पाँति पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।
इस प्रकार राम, हरि शब्दों का प्रयोग कबीर ने निर्गुण ब्रह्म के लिए ही किया है। पर यही 'राम' कबीर के उपासना क्षेत्र में 'पिउ' बन जाते हैं और यहीं से कबीर रहस्यवादी हो जाते हैं-
हरि मोर पिउ मैं राम की बहुरिया।
कबीर ने माया को आत्मा और परमात्मा के मिलन में बाधक माना है। शंकराचार्य के समान माया को त्रिगुणात्मक कहा है-
ठगिनि महा माया हम जानी।
तिरगुन फाँस लिए कर डोले बोले मधुरीबानी।
रहस्यात्मकता- वास्तव में कबीर का कवि हृदय रहस्यात्मकता से ओत-प्रोत रहा है, जिसकी कविताओं में पूर्णतया अभिव्यक्ति हुई है। रहस्यगत भक्ति का एक बहुत अच्छा सुन्दर चित्र देखिए-
बहुत दिनन थें में प्रीतम पाये। भाग बड़े घरि बैठे आये।
मन्दिर माँहि भया उजियारा। ले सूती अपनाँ पीव पियारा॥
और फिर वे अपने को ब्रह्ममय कर पुकार उठते हैं-
लाली मेरे लाल की, जित देखें तित लाल।
लाली देखन मैं चली, मैं भी हो गयी लाल॥
बहुत से विद्वान 'नैया विश्च नदिया डूबी जाय' जैसे उलटवासियों और रूपकों में साधनात्मक रहस्यवाद के स्वरूप के दर्शन करते हैं। इसे ज्ञानात्मक रहस्यवाद की संजा भी दी जाती है। इनका रहस्यवाद सूफी कवियों के रहस्यवाद से भिन्न है। सूफी कवि प्रेममूलक रहस्यवादी थे।
गुरु महिमा- कबीर ने गुरु को ज्ञान का प्रतीक माना है, वह शिष्य का सबसे बड़ा हितू है. इसलिए उसे ईश्वर से भी पहले वन्दनीय माना। वह गोविन्द से भी अधिक महत्वपूर्ण है।
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाँय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय॥
पाखण्ड का विरोध- कबीर माला, जाप, छापा, तिलक, मूर्ति-पूजा, जाति-पाँति आदि के विरोधी थे। स्वभाव से उदार होते हुए भी बाह्य आडम्बरों की आलोचना करते समय इनमें प्रखरता और कठोरता आ जाती थी। तभी मूर्तिपूजा के विरोध में कह उठते थे-
पाहन पूजे हरि मिले, तौ मैं पूजों पहार।
ताते ये चाकी भली, पीस खाय संसार॥
इसी प्रकार मुसलमानों को भी बाह्य आडम्बर त्यागने के लिए फटकारा है-
काँकर पाथर जोरि कै, मसजिद लई चिनाय।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय॥
वे हिन्दू तथा मुसलमानों में कोई भेद नहीं मानते थे। अतएव इन्होंने हिन्दुओं तथा मुसलमानों में प्रचलित आडम्बरों, तीर्थ और अवतारवाद का डटकर विरोध किया है। जप, माला, छापा, तिलक, मूँड़ मुड़ाना, अजान देना, जटा बढ़ाना, कपड़े रँगना, पोथी रटना आदि की निरर्थकता के प्रतिवाद से इनकी वाणी निखर आती है-
सन्तो ! राह दोउ हम दीठा।
हिन्दू तुरक हटा नहिं माने, स्वाद सबन का मीठा।
लौकिक ज्ञान- कबीर ने मानव जीवन से सम्बन्ध रखने वाले उपदेश भी दिये और उनमें प्रभाव उत्पन्न करने के लिए अन्योक्ति, उपमा आदि का प्रयोग भी किया है। इस प्रकार की साखी देखिए-
केला तबहिं न चेतिया, जब ढिंग लागी बेरि।
अबके चेते क्या भया, काँटन्ह लीन्हा घेरि॥
आत्म-ज्ञान- कबीर के पास आत्म-ज्ञान का बल था। जब ज्ञान हृदय में आता है तब आँधी के समान भ्रम एवं माया के बन्धनों को उड़ा देता है-
सन्तो ! भाई आई ज्ञान की आँधी।
भ्रम की टाटी सबै उड़ानी, माया रहै न बाँधी॥
कबीरदास की काव्य की कलापक्षीय विशेषताएँ
कलापक्षीय विशेषताएँ
भाषा कबीर पढ़े-लिखे न थे। भाषा का इन्हें अच्छा और शुद्ध ज्ञान न था। अतः इनकी भाषा भी इनके विचारों की ही भाँति विचित्र तथा अनूठी है। इसे पंचमेल खिचड़ी अथवा सधुक्कड़ी के नाम से पुकारा जाता है। इसमें राजस्थानी, पंजाबी, खड़ी बोली, ब्रजभाषा, अवधी, पूर्वी, फारसी, संस्कृत आदि के शब्द मिले हुए हैं। शुद्धता और परिमार्जन की दृष्टि से इनकी भाषा महत्व की न होते हुए भी वाणी की सत्यता के कारण बड़ी गहरी प्रभावशाली है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इनको 'वाणी का डिक्टेटर' कहा है। कबीर की भाषा विषयक मान्यता थी-
संस्कृत है कूप जल, भाषा बहता नीर।
उन्होंने अपनी भाषा के विषय में स्वयं लिखा है-
बोली हमरी पूरबी, हमें लखै नहिं कोय।
हमको तो सोई लखै, धुर पूरब को होय॥
देशाटन करने के कारण इनकी भाषा में पंजाबी, राजस्थानी, ब्रजभाषा, अवधी आदि भाषाओं की शब्दावली स्वतः ही आ गई है। इन्होंने साहित्यिक नहीं वरन् लोकभाषा को भी अपनाया जो सहज एवं सर्वग्राह्य थी। सरलता, सहजता, स्पष्टता तथा सजीवता इनकी भाषा के प्रमुख गुण हैं।
शैली- जिस प्रकार भाषा और भाव की दृष्टि से कबीर अनूठे तथा अद्वितीय हैं, उसी प्रकार शैली की दृष्टि से भी ये अद्वितीय कवि हैं। इनकी शैली पर इनके अनूठे व्यक्तित्व की गहरी छाप है। जिस प्रकार ये सीधे, सच्चे और कृत्रिमता से दूर रहते हैं, उसी प्रकार उनकी शैली भी सीधी और कृत्रिमता से दूर रहने वाली है। फिर भी उसमें हृदय को स्पर्श करने की अपूर्व शक्ति है।
विचारों की विविधता के कारण इनकी शैली परिवर्तित होती रही है। जहाँ वे भक्ति और प्रेम का चित्रण करते हैं, वहाँ उनकी शैली सरल व सजीव होती है। जैसे-
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप॥
रहस्यमय भावनाओं के चित्रण और उलटवासियों में इनकी शैली दुरूह, अस्पष्ट तथा कुटु हो गई है। जैसे-
कबीर दास की उलटी बानी।
भीजै कम्बल, बरसै पानी।
एक नवीन धर्म प्रवर्तक के रूप में जहाँ ये प्राचीन मान्यताओं का खण्डन और अपनी मान्यताओं का मण्डन करते हैं, वहाँ वे प्रभाववादी तार्किक शैली का आश्रय लेते हैं। इस प्रकार की शैली में स्वभाव से ही अक्खड़पन आ जाता है और यत्र-तत्र चुटीले व्यंग्य के भी दर्शन हो जाते हैं। जैसे-
बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।
जो नर बकरी खात है, ताको कौन हवाल।।
पाहन पूजे हरि मिले, तौ मैं पूजों पहार।
ताते ये चाकी भली, पीस खाय संसार ॥
रस, अलंकार और छन्द- यद्यपि कबीर ने रस, अलंकार की दृष्टि से कविता नहीं लिखी है, फिर भी स्वाभाविक रूप से इनकी कविता में रसात्मकता विद्यमान है। भले ही उनका शास्त्रीय रूप इनकी कविता में प्राप्त न हो। जहाँ उन्होंने हरि को 'पिउ' और अपने को 'बहुरिया' मानकर विरह की आकुलता और मिलन के आनन्द का चित्रण किया, वहाँ विप्रलम्भ और संयोग श्रृंगार के दर्शन होते हैं। भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के चित्रण में उत्कृष्ट कोटि का शान्त रस देखा जा सकता है। अनुप्रास, रूपक और उपमा, दृष्टान्त, उत्प्रेक्षा, अन्योक्ति आदि अलंकार भी इनकी कविता में यत्र तत्र स्वाभाविक रूप से आये हैं। उन्होंने साखी (दोहा का दूसरा रूप), गेय पद तथा देहातों में प्रचलित 'कहरवा' आदि छन्दों का प्रयोग किया है। छन्द शास्त्र की दृष्टि से इनमें बहुत से दोष भी. पाये जाते हैं।
साहित्य में स्थान-
मसि कागद छुयो नहिं, कलम गही नहिं हाथ।
चारिउ युग कौ महात्मा, मुखहिं जनाई बात॥
उक्त दोहे से स्पष्ट है कि कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। अनुभवपरक, आत्मबल, तपबल एवं साधना बल के आधार पर कबीर ने वह शक्ति अर्जित कर ली कि उन्हें वाणी सिद्ध हो गई। उनकी वाणी में ज्ञान का जादू था, जिसने सहज रूप में सभी को आकर्षित किया और निर्गुण काव्यधारा के वे सर्वश्रेष्ठ कवि एवं सम्मोहक समाज सुधारक के रूप में जाने जाते हैं। निर्भय होकर निर्गुण-शंख ध्वनि करने वाला विश्व-साहित्य में कबीर जैसा अन्य कोई साहित्यकार नहीं हुआ तथा हम सब उस महान संत कोटिशः प्रणाम करते है।