नानक भक्ति सम्प्रदाय के एक दूसरे प्रमुख सन्त थे। उनके विचार भी कबीर जैसे ही थे। नानक का जन्म 1469 ई. में तालवण्डी नामक गाँव में हुआ था। तालवण्डी का आधुनिक नाम ननकाना है। यह पश्चिमी पंजाब के शेखपुरा जिले में लाहौर से 35 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। नानक के माता-पिता खत्री जाति के थे। उनके पिता कालू गाँव के पटवारी थे। नानक ने गाँव की पाठशाला में ही शिक्षा पायी थी। वे बचपन से ही विचारमग्न रहते थे और जीवन और मृत्यु की बड़ी-बड़ी समस्याओं पर सोच-विचार करते थे। इसलिये उनके पिता ने उनका विवाह एक खत्री कन्या से कर दिया और उन्हें अपने ससुर के पास काम सीखने भेज दिया। नानक के ससुर जैराम सुल्तानपुर में दौलत खाँ लोदी की सेवा में अनाज के एक व्यापारी थे। लेकिन नानक हिसाब-किताब ठीक नहीं रख पाते थे, इसलिये उन्होंने वह जगह छोड़ दी और साधु-संन्यासियों की संगति में रहने लगे। वे फिर धर्म गुरु बन गये और उनकी जिस प्रथम उक्ति ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया, वह थी "कोई हिन्दू और कोई मुसलमान नहीं है।" नानक ने गृहस्थ जीवन का परित्याग नहीं किया। उनके परिवार में उनकी पत्नी और दो पुत्र थे। लेकिन फिर भी वे अपना सारा समय साधना, उपदेशों और सुधारों में लगाते रहे। कबीर की तरह उनका भी विचार था कि गृहस्थ जीवन और घरेलू काम करना आध्यात्मिक उन्नति के बीच बाधक नहीं है।
कबीर के विपरीत नानक एक सुशिक्षित व्यक्ति थे। उन्होंने अपनी मातृभाषा पंजाबी के सिवाय फारसी और हिन्दी का भी अध्ययन किया था। उन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया था और वे मध्य एशिया के कुछ देशों में और अरब में भी गये थे। वे विभिन्न उद्यमों, प्रवृत्तियों और सम्प्रदायों के लोगों के सम्पर्क में आये थे। उन्होंने बहुत से प्रेरक पदों और गीतों की रचना की। इन्हें एक ग्रन्थ के रूप में संकलित कर दिया गया और बाद में उन्हें आदि ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित कर दिया गया।
नानक का उद्देश्य एक ही ईश्वर की मान्यता के आधार पर हिन्दू धर्म मे सुधार करना और हिन्दुओं एवं मुसलमानों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना था। यह बात ध्यान देने योग्य है कि नानक के इरादे किसी नवीन धर्म की स्थापना करने के न थे और उनके जीवन-काल में सिख धर्म कोई अलग धर्म न होकर हिन्दू धर्म की ही एक शाखा था। वास्तव में नानक के जीवन काल में तो इसे सिख धर्म कहते ही नहीं थे। सिख शब्द संस्कृत के शिष्य का बिगड़ा हुआ रूप है। सोलहवीं सदी में सर्वसाधारण में प्रचलित पंजाबी भाषा में नानक के शिष्यों को सिख कहा जाता था। नानक के पश्चात् उनके उत्तराधिकारियों के काल में ही सीख धर्म ने एक अलग धर्म का रूप ले लिया। नानक को तब पैगम्बर माना जाने लगा और आदि ग्रन्थ सिख धर्म का मुख्य धर्म-ग्रन्थ बन गया।
कबीर की तरह नानक भी वेदों और कुरान को नहीं मानते थे। वे भी जाति-पाति, ब्राह्मणों और मौलवियों की प्रमुखता, रस्म-रिवाज, धर्म-आडम्बरों, उपवासों और तीर्थ-यात्राओं के विरुद्ध थे। मूर्ति-पूजा के घोर विरोधी थे। उन्होंने मुसलमानों और हिन्दुओं की सभी जातियों के लोगों को यहाँ तक कि अछूतों को भी अपना शिष्य बनाया था। वे एक निराकार ब्रह्म में आस्था रखते थे, जिसे वे सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, अतुलनीय, अचिन्त्य ओर अगम्य तथा अपनी सृष्टि से बिल्कुल अलग मानते थे। उनका कहना था कि ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण कर, उसका नाम जपने से, नम्रतापूर्ण व्यवहार से और सभी प्रकार के छल-कपट का त्याग कर मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है। नानक कर्म और पुनर्जन्म को मानते थे। वे मुक्ति को मानव जीवन अन्तिम लक्ष्य समझते और मानते थे। मुक्ति मिलने का तात्पर्य यह है कि आत्मा का अलग अस्तित्व समाप्त हो जाता है वह परमात्मा में लीन हो जाती है। नानक के उपदेशों में नैतिकता, नम्रता, सत्य, दान और दया को प्रमुख स्थान प्राप्त था। दान करना, हरि का नाम जपना और तन-मन से गुरु की आज्ञा का पालन करना, सिखों से मुख्य कर्तव्य माने जाते थे। उनमें ईश्वर के प्रति प्रेमपूर्ण भक्ति की पूर्णतया आवश्यक र्थी।
नानक के उपदेशों ने धीरे-धीरे एक अलग सम्प्रदाय का रूप ग्रहण कर लिया और वह धीरे-धीरे एक धर्म में विकसित हो उठा। डेढ़ सौ वर्ष से भी अधिक समय तक हिन्दू बहुत बड़ी संख्या में नानक पन्थ के अनुयायी रहे हैं। इन लोगों को नानक के उपदेशों में बड़ी आस्था थी। वे सिखों के गुरुद्वारों में जाते और उपासना में भाग लेते थे। नानक के सम्प्रदाय में कुछ मुसलमान भी थे। नानक के उत्तराधिकारियों के समय सिख धर्म धीरे-धीरे हिन्दू धर्म से अलग होता गया और कालान्तर में उससे भिन्न हो गया। चौथे सि गुरु रामदास ने अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर का सुप्रसिद्ध सरोवर बनवाया और उनके उत्तराधिकारी गुरु अर्जुन के नानक और अन्य गुरुओं की वाणियों का संकलन आदि ग्रन्थ की रचना की।
इस प्रकार अमृतसर सिख धर्म का मुख्य केन्द्र और तीर्थ बन गया और आदि ग्रन्थ उनका धर्म ग्रन्थ। मुगलों की दमन नीति के कारण सिख गुरुओं ने सिख सम्प्रदाय को सैनिक संगठन का रूप दे डाला और जब औरंगजेब ने मूर्खतापूर्वक 1675 ई. में गुरु तेग बहादुर का वध करा डाला तब तो गुरु गोविन्दसिंह ने सिखों में एक भीतरी संगठन खालसा की स्थापना कर उन्हें धार्मिक एवं सैनिक जाति में ही बदल दिया।