ब्रिटिश अकाल नीति क्या है | कम्पनी राज में अकाल के कारण | उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में अकालों की तीव्रता

भारत में कृषि उत्पादन मुख्यतः मानसून से होने वाली वर्षा पर निर्भर करता रहा है। मानसून से होने वाली वर्षा की अनुपस्थिति में यहाँ सूखा और अकाल (Famine or Drought) की स्थिति प्राचीन काल से उत्पन्न होती रही है जिसमें मनुष्य और पशुओं के जीवन की बहुत क्षति भी होती रही है। परन्तु प्राचीन और मध्यकालीन युगों में ऐसे अवसरों पर प्रजा को प्रत्येक प्रकार की सुविधा पहुँचाना शासक का कर्त्तव्य स्वीकार किया गया था जिसकी पूर्ति प्रत्येक शासक ने अपनी क्षमता के अनुसार की थी।

ब्रिटिश अकाल नीति क्या है | कम्पनी राज में अकाल के कारण | उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में अकालों की तीव्रता

भारत में ईस्ट इण्डिया की सत्ता 1764 ई. में बक्सर के युद्ध के पश्चात् बंगाल से आरम्भ हुई और 1769-70 ई. में ही बंगाल, बिहार और उड़ीसा के सूबों में भयंकर अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गयी जिसका उत्तरदायित्व बहुत कुछ कम्पनी के कुशासन पर था। कम्पनी ने उस अवसर पर अकाल-पीड़ितों की सहायता करना अपना उत्तरदायित्व नहीं माना। उस समय बंगाल में क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन था। इस कारण कम्पनी ने अकाल पीड़ितों की सहायता करने का उत्तरदायित्व बंगाल के नवाब पर डाल दिया जबकि वस्तुत: कम्पनी ही सूबे की सम्पूर्ण आय का उपभोग कर रही थी। ऐसी स्थिति में इस सूबे की प्राय: एक तिहाई जनता समाप्त हो गयी और कृषि बर्बाद हो गयी।

कम्पनी के शासन के अन्तर्गत 1781 ई. और 1782 ई. में मद्रास क्षेत्र में अकाल की स्थिति बनी और 1784 ई. में प्रायः सम्पूर्ण उत्तर भारत में अकाल पड़ा। उस समय तक भी कम्पनी ने अकाल-पीड़ितों की सहायता करना अपना उत्तरदायित्व स्वीकार नहीं किया। 1792 ई. में मद्रास क्षेत्र में पुनः अकाल की स्थिति उत्पन्न हुई। इस अवसर पर, सर्वप्रथम कम्पनी ने अकाल-पीड़ितों की सहायता के लिए कुछ कार्य किये और इस प्रकार उसे अपना उत्तरदायित्व स्वीकार किया। 1803 ई. में आधुनिक उत्तर-प्रदेश में अकाल पड़ा। उस समय कम्पनी ने किसानों को लगान में छूट दी, जनता को कर्ज दिये और जिन व्यक्तियों ने उस समय वहाँ, अनाज का आयात किया, उन्हें इनाम भी दिये। 

1833 ई. में दक्षिण भारत के गुन्टूर जिले में और 1837 ई. में उत्तर भारत के एक बड़े क्षेत्र में अकाल पड़े। दोनों अवसरों पर कम्पनी ने जनता की भलाई के लिए कुछ सार्वजनिक कार्य किए और लगान में छूट भी दी। इस प्रकार, कम्पनी के शासन के अन्तर्गत शासक-वर्ग ने अकाल पीड़ितों की सहायता करना अपना उत्तरदायित्व तो स्वीकार कर लिया परन्तु अकाल न पड़े और अकाल पड़ने के अवसर पर क्या सहायता कार्य किये जायें इसकी कोई निश्चित योजना नहीं बनायी। प्रत्येक प्रान्त की सरकार ने जिलाधीशों के माध्यम से अपने-अपने क्षेत्र में अकाल से निबटने के लिए विभिन्न तरीके अपनाये। परन्तु ये सभी प्रयत्ल अपर्याप्त रहे और विभिन्न अकालों के अवसर पर मनुष्यों और पशुओं के जीवन की हानि होती रही। धर्मार्थ-संस्थाएँ अकाल पीड़ितों की सहायता के लिए अवश्य कार्य करती रहीं, परन्तु वे कार्य सहायता-कार्य ही थे। अकाल न पड़े, इस दिशा में कोई कार्य किया जाना सम्भव नहीं हुआ।

1858 ई. में ब्रिटिश क्राउन  ने भारत की शासन-सत्ता कम्पनी के हाथों से अपने हाथों में ले ली। 1860-61 ई. में दिल्ली और आगरा के मध्य के क्षेत्र में अकाल पड़ा। उस अवसर पर प्रथम बार अकाल पीड़ितों को केन्द्रीय सरकार की ओर से सहायता प्रदान की गयी और इस कार्य के लिए दरिद्रशालाएँ स्थापित की गयीं। इस प्रकार यह निश्चित हुआ कि अकाल न पड़ें और अकाल की स्थिति में जनता की सहायता की जाए, यह सरकार का उत्तरदायित्व है। तब भी सरकार ने अकालों को रोकने के लिए कोई निश्चित योजना नहीं बनायी। 

1866 ई. में उड़ीसा, उत्तरी बंगाल, मद्रास और बिहार के विस्तृत क्षेत्र में अकाल पड़ा। उस समय सरकार ने स्वंस्थ व्यक्तियों को कार्य उनकी सहायता करने का प्रयत्न अवश्य किया परन्तु अकाल पीड़ितों को देखभाल का उत्तरदायित्व मुख्यतः समाज-सेवी और धार्मिक संस्थाओं पर ही छोड़ा गया। परन्तु ये कार्य समुचित सिद्ध नहीं हुए और उस अकाल के समय में अनुमानत: लगभग 13 लाख व्यक्तियों की जानें तो उड़ीसा के क्षेत्रों में ही गयीं। अन्य स्थानों पर भी प्रायः यही स्थिति रही। इस अकाल की भीषणता ने सरकार को इस सम्बन्ध में कुछ ठोस निर्णय लेने के लिए बाध्य किया। 

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सरकार ने इस सम्बन्ध में सुझाव के लिए सर जॉर्ज कैम्पबैल की अध्यक्षता में एक समिति को नियुक्ति की। उसकी सिफासिश पर सरकार ने निर्णय लिया कि अकालों को रोकने के लिए सरकार को रेलों और नहरों की स्थापना करनी चाहिए, अकाल की व्यवस्था की देखभाल करने का उत्तरदायित्व जिलाधिशों का है और जनता को सहायता देने का उत्तरदायित्व मात्र समाज सेवी संस्थाओं का न होकर सरकार का भी है। इस कारण 1868 ई. में जब राजपूताना के कुछ भागों और मध्य-भारत में अकाल पड़ा तो सरकार ने अकाल पीड़ितों की सुरक्षा करने का प्रयत्न किया, यद्यपि यह पर्याप्त सिद्ध नहीं हुआ।

जिस प्रकार लॉर्ड लिंटन ने भारत गवर्नर जनरल का कार्य भार संभाला, उस समय मद्रास, बम्बई, हैदराबाद, पंजाब और मध्य भारत के अधिकांश भागों में अकाल पड़ा हुआ था। 1876-78 ई. के इस भंयकर अकाल में लगभग पचास लाख व्यक्तियों की मृत्यु हुई। इस कारण 1878 ई. में लार्ड ने रिचार्ड स्ट्रेची के सभापतित्व में एक कमीशन की नियुक्ति की जिसे अकालों को रोकने और अकाल पड़ने पर उससे सम्बन्धित व्यवस्था करने के लिए सुझाव देने का कार्य सौपा गया। 

अतः इस कमीशन ने इस सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिये -

  1. भूखे मर जाने की स्थिति व्यक्तियों को कार्य दिया जाना चाहिए और बीच-बीच में उनकी आवश्यकताओं का निरीक्षण करते हुए उनकी मजदूरी में वृद्धि की जानी चाहिए।
  2. असहाय व्यक्तियों को कैम्पों या दरिद्रशालाओं में एकत्रित किया जाना चाहिए जहाँ उन्हें अन्न, भोजन या धन मिलना चाहिए।
  3. अकाल से प्रभावित क्षेत्र में अन्य व्यापारियों पर निगाह रखनी चाहिए जिससे वे अन्न के मूल्यों में वृद्धि न कर सकें तथा उस क्षेत्र से अन्न का निर्यात रोक देना चाहिए।
  4.  लगान और अन्य करों में छूट या राहत देनी चाहिए।
  5. अकाल-पीड़ित क्षेत्र से पशुओं को भी स्थानान्तरित किया जाना चाहिए।
  6. प्रत्येक प्रान्त में एक स्थायी अकाल फण्ड स्थापित किया जाना चाहिए।
  7. सरकार द्वारा विभिन्न स्थानों पर नहरों तथा रेलों की स्थापना की जानी चाहिए।

सरकार ने इस कमीशन के सुझावों को स्वीकार कर लिया। 1883 ई. में सरकार ने एक अकाल-संहिता (Famine Code) का निर्माण किया जिसमें अकाल को रोकने और अकाल की स्थिति में जनता को सुरक्षा प्रदान करने के लिए क्या कार्य किया जाए, इन नियमों का विस्तृत उल्लेख किया गया।

1896-97 ई. में अकाल से प्राय: सभी प्रान्त प्रभावित हुए। उस समय सरकार ने प्राय: आठ करोड़ रुपऐ व्यय किये तथा सभी सम्भव सहायता कार्य किये जो पर्याप्त सफल भी रहे। 1899 ई. मैं जब लॉर्ड कर्जन ने गवर्नर जनरल का कार्यभार सँभाला, पूर्वी भारत के अतिरक्ति भारत में प्रायः सभी भागों में अकाल पड़ रहा था। लॉर्ड कर्जन ने अकाल-पीड़ितों की सहायता के लिए प्राय: सात करोड़ रुपये व्यय किये, स्वस्थ व्यक्तियों को मजदूरी पर कार्य दिया गया, असहायों को आर्थिक सहायता दी गयी, लगान में छूट दी गयी, और उसने स्वयं विभिन्न स्थानों पर घूम-घूमकर व्यवस्था की देखभाल की।

इसके पश्चात् उसने मैक्डोनल की अध्यक्षता में एक कमीशन की नियुक्ति की जिसे अकालों की रोकथाम करने और अकालों के समय में की जाने वाली व्यवस्था के सम्बन्ध में सुझाव देने का कार्य सौंपा दिया गया। इस कमीशन ने 1901 ई. में अपनी रिपोर्ट दी तथा कृषि, सिंचाई, अकाल फण्ड आदि की उन्नति के लिए विभिन्न सुझाव दिये। उसने यह भी सुझाव दिया कि सरकार को सबसे अधिक प्रयत्न प्रजा में नैतिक सांहस उत्पन्न करने के लिए करना चाहिए और इसके लिए आवश्यक है कि सरकार अकाल-पीड़ितों को अकाल की शुरूआत होते ही सहायता के लिए गैर-सरकारी संस्थाओं पूर्ण सहयोग और सहायता लेनी चाहिए। कर्जन ने कमीशन के सभी सुझावों को स्वीकार कर लिया और कृषि सिंचाई, लगान आदि से सम्बन्धित सुधार करते हुए उनका विशेष ध्यान रखा ।

1906-07 ई. और 1907-08 ई. में भी भारत में गम्भीर अकाल की स्थिति उत्पन्न हुई। 1942-43 ई. में द्वितीय महायुद्ध के समय में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा। इस प्रकार ब्रिटिश शासन-काल में भारत अकालों से छुटकारा नहीं पा सका। इसका उत्तरदायित्व सरकार की आर्थिक नीतियों, मुख्यतः लगान-नीति का रहा जिनके कारण भारत के अधिकांश व्यक्ति जीवन का न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करने मात्र से ऊपर नही उठ पाये तथा कृषि उत्पादन में जरा भी कमी हो जाने की स्थिति में अकाल की पीड़ा से प्रभावित हुए। अंग्रेजी शासन का गम्भीरतम कुप्रभाव भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ी था। अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों के फलस्वरूप भारत मेंन तो कृषि की स्थिति सुधरी और न ही उद्योगों का विकास हुआ तथा भारत की गिनती विश्व के निर्धनतम देशों में की जाने लगी। ऐसी स्थिति में अकाल की समस्या से छुटकारा पाना असम्भव था।

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