भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन परिचय

आधुनिक युग के प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म काशी में सन् 1840 में हुआ था। आपके पिता बाबू गोपाल चन्द्र अच्छे कवि थे। बाल्यावस्था में माता-पिता का निधन हो गया। इनकी शिक्षा पारिवारिक उलझनों के फलस्वरूप अच्छी न हो सकी। आपने स्वाध्याय द्वारा अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त किया। इन्हें हिन्दी के प्रति अगाध प्रेम था। भारतेन्दु जी ने केवल सात वर्ष की आयु में एक दोहे की रचना की थी। पिता जी ने इनकी प्रतिभा से प्रसन्न होकर इन्हें महान् कवि होने का आशीर्वाद दिया था। आपके ऊपर माँ सरस्वती तथा लक्ष्मी दोनों की ही महान् कृपा थी। आपने मुक्त हस्त से विभिन्न संस्थाओं को दान दिया। 6 जनवरी, सन् 1884 में लगभग 35 वर्ष की अल्पायु में ही हिन्दी के आधुनिक युग के जन्मदाता का स्वर्गवास हो गया।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जीवन परिचय

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का साहित्यिक परिचय 

भारतेन्दु जी मेधावी साहित्यकार थे। उन्होंने गद्य एवं पद्य दोनों पर समान रूप से लेखनी चलाई। वे युग प्रवर्तक साहित्यकार थे। अनेक पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक थे तथा साहित्यकार एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के संरक्षक। उनकी दानशीलता प्रसिद्ध है। उनके यहाँ साहित्यकारों तथा कलाकारों का दरबार सा लगा रहता था। प्रकृति-प्रेम, देश-प्रेम, राष्ट्रीय समस्याएँ एवं भक्ति उनके साहित्य के मुख्य विषय रहे हैं, वे स्वतन्त्रवेत्ता साहित्यकार थे। आपकी साहित्यिक साधना से साहित्यिकों, विद्वानों एवं साहित्य प्रेमी व्यक्तियों ने उन्हें 'भारतेन्दु' को उपाधि से विभूषित किया। भारतेन्दु प्रेरक साहित्यकार थे। पं. बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमघन', बालकृष्ण भट्ट एवं प्रताप नारायण मिश्र आपके मित्र साहित्यकार थे।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचनायें

रचनाएँ- भारतेन्दु जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। गद्य और पद्म दोनों पर उनका समान अधिकार था। उनकी गद्य रचनाएँ गद्य लेखकों के क्रम में दी गयी हैं। इनकी पद्य रचनाएँ निम्न हैं-

  1. भक्ति सर्वस्व, 
  2. प्रेम माधुरी, 
  3. प्रेम तरंग, 
  4. प्रेमाश्रु वर्णन, 
  5. दान लीला, 
  6. प्रेम सरोवर, 
  7. कृष्ण चरित्र, 
  8. प्रेम मालिका, 
  9. भारतवीरत्व, 
  10. विजय बल्ली, 
  11. विजयिनी, 
  12. विजयपताका, 
  13. बन्दरसभा, 
  14. बकरी विलाप।

इन रचनाओं में भक्ति, प्रेम, देशभक्ति, समाज-सुधार, हास्य-व्यंग्य आदि के दर्शन होते हैं। 

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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की काव्यगत विशेषताएँ

(क) भावपक्षीय विशेषताएँ

वर्णन का क्षेत्र- भारतेन्दु जी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जहाँ उन्होंने श्रृंगार, ईश्वर-भक्ति, नीति आदि प्राचीन विषयों पर पुराने ढंग की कविता लिखीं तथा समाज-सुधार, राष्ट्र-प्रेम तथा राजनीति आदि नवीन विषयों पर भी कविताएँ लिखीं। उनकी कविता को विषय के अनुसार चार भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. श्रृंगार प्रधान, 
  2. भक्ति प्रधान, 
  3. सामाजिक समस्या प्रधान, 
  4. राष्ट्र-भक्ति प्रधान।

1. श्रृंगार प्रधान- इन्होंने श्रृंगार के संयोग तथा वियोग दोनों ही पक्षों का पूर्ण व्यवहार किया है। 'चन्द्रावली' में नायिका के मुख से ही उनकी व्याकुलता दर्शनीय है-

दुःख के दिन कोउ भाँति बितै, बिरहागम रंग सँजोवती हैं। 

हम ही अपनी दशा जानें सखी, निसि सोबती हैं किधी रोवती हैं।

2. भक्ति प्रधान- भारतेन्दुजी कृष्ण के भक्त थे। ये पुष्टि सम्प्रदाय के अनुयायी थे। एक सच्चे भक्त को दीनता, सरसता और विनयशीलता इनके भक्ति के पदों में सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। वे अपने को कृष्ण का सखा मानते हैं-

सखा प्यारे कृष्ण के गुलाम राधारानी के।

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ब्रज की लतापता मोहि कीजै।

इनकी भक्ति में दैन्य के साथ चुनौती के भी प्रखर स्वर सुनाई देते हैं- 

सम्हारहु अपने कौं गिरधारी।

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ही नाही उनमें जिसकों तुम सहजहिं दीनौ तारी॥

3. सामाजिक समस्या प्रधान- भारतेन्दु का युग प्राचीन तथा नवीन के संगम का युग था। प्राचीन परम्पराएँ अपना दम तोड़ चुकी थीं। नवीन में वर्तमान, को वहन करने की शक्ति न थी। फलस्वरूप सम्पूर्ण समाज विश्रृंखलित हो चुका था। विदेशी राज्य के अत्याचारों से समाज कग्रह रहा था। नये-नये टैक्सों ने इसकी आर्थिक कमर तोड़ दी थी। समग्र समाज एक विचित्र स्थिति में था। उसे आलस्य, फूट तथा कुरीतियों ने खोखला कर दिया था। भारतेन्दु ने इस दशा को आँख खोलकर देखा और अपने साहित्य के द्वारा उसे जनता के सामने रखा। उनके द्वारा लिखे हुए 'अंधेर नगरी' तथा 'भारत दुर्दशा' आदि नाटक तत्कालीन सामाजिक समस्याओं को ही हमारे सामने रखते हैं। इन नाटकों में उन्होंने समाज, पुलिस, महाजन, कर्मचारी, आलसी आदि सभी पर करारे व्यंग्य किये हैं- 

चूरन खावै एडीटर जात, जिनके पेट पचे नहीं बात।

चूरन पुलिस वाले खाते, सब कानून हजम कर जाते॥

साँच कहें ते पनही खावै, झूठे बहु विधि पदवी पावें।

भीतर होय मलिन की कारौ, चाहिए बाहर रंग चटकारौ॥

4. राष्ट्र-भक्ति प्रधान- 'भारत दुर्दशा' नाटक इनके राष्ट्र-प्रेम का सच्चा प्रतीक है। ये भारत के पूर्व वैभव को बखानते हुए कहते हैं-

भारत के भुजबल जग रच्छित, भारत विद्या लहि जग सिच्छित। 

भारत तेज जगत विस्तारा, भारत भय कम्पित संसारा

और दूसरे ही क्षण वर्तमान स्थिति पर विलाप से करते नजर आते हैं-

हाय चित्तौर निलज तू सारी अजहूँ, खरी भरतहिं मझारी॥

प्रकृति-चित्रण- उनका प्रकृति वर्णन अनुभव की गरिमा से परिपूर्ण है। अनेक स्थलों पर प्रकृति का मानवीकरण करते हुए वर्णन किया गया है। इस दृष्टि से 'यमुना वर्णन' की सजीवता देखते ही बनती है-

तरनि-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।

झुके कूल सों जल परसन हित मनहुँ सुहाये

किंधौ मुकुर में लखत उझकि सब निज-निज सोभा। 

कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा॥

(ख) कलापक्षीय विशेषताएँ

भाषा- भारतेन्दु का गद्य 'खड़ी बोली' में तथा पद्य अधिकांशतः 'ब्रजभाषा' में है। भारतेन्द ने ब्रजभाषा में अप्रचलित शब्दों को निकालकर उसका बहुत कुछ संस्कार किया है। भाषा में जहाँ तहाँ प्रचलित उर्दू शब्दों और 'पॉलिसी, मेडल' जैसे अंग्रेजी शब्द भी पाये जाते हैं। यत्र-तत्र मुहावरों और कहावतों का भी प्रयोग किया है। इनके सहज एवं स्वाभाविक प्रयोग से भारतेन्दु जी का भाषा सौन्दर्य देखते ही बनता है-

काले परे कोस, चलि चलि थकि गये पाँय, 

सुख के कसाले परे, ताले परे नस के। 

रोय रोय नैनन में हाले परे, जाले परे, 

मदन के पाले परें प्रान परबस के॥ 

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पगन में छाले परे नाँधिवे की नाले परे, 

तऊ लाल लाले परे रावरे दरस के॥

इनकी भाषा में कहीं-कहीं व्याकरण की अशुद्धियाँ पायी जाती हैं, जिसका कारण यही है कि इन्हें एक बार लिखकर दुबारा देखने का अवकाश ही नहीं मिलता होगा। इन्होंने खड़ी बोली में भी कविता करके आधुनिक कवियों का मार्ग प्रशस्त किया है।

शैली- भारतेन्दु जी के काव्य में हमें विषय के अनुसार विविध शैलियों के दर्शन होते हैं, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं-

  1. भक्ति के पदों में गीत काव्य के अनुकूल भावात्मक शैली है।
  2. श्रृंगार के पदों में रीतिकाल की सम्पूर्ण अलंकृत शैली है।
  3. देश-प्रेम की कविताओं में उ‌द्बोधनात्मक शैली है।
  4. समाज-सुधार की भावना से युक्त कविताओं में व्यंग्यात्मक शैली है।
  5. अन्य शैलियों में वर्णनात्मक तथा चित्रात्मक शैली के दर्शन होते हैं।

छन्द- भारतेन्दु ने अपने समय के प्रचलित प्रायः सभी छन्दों में रचना की है। गीत, कवित्त, रोला, सवैया, कुण्डलियाँ, लावनी, गजल, छप्पय, दोहा आदि इनके प्रिय छन्द हैं।

रस अलंकार- भारतेन्दु ने प्रायः सभी रसों तथा अलंकारों का प्रयोग किया है। इन्हें उपमा, रूपक, सन्देह और उत्प्रेक्षा आदि अलंकार अधिक प्रिय हैं। यमुना वर्णन में प्रयुक्त अलंकार अपने उत्कृष्ट रूप में देखे जा सकते हैं। भारतेन्दु जी ने शृंगार रस का बड़ा ही रोचकतापूर्ण वर्णन किया है। समान भाव से श्रृंगार के दोनों पक्षों पर लेखनी चलाई है। पर उन्हें वियोग श्रृंगार वर्णन में ही अत्यधिक सफलता मिली है।

साहित्य में स्थान- भारतेन्दु जी ने अपनी प्रतिभा के बल से भाषा, भाव और शैली सभी में नवीनता तथा मौलिकता का समावेश करके उन्हें आधुनिक काल के अनुरूप बनाया है। अतएव ये आधुनिक काल के साहित्यकारों में ऊँचा स्थान रखते हैं और आधुनिक काल के जन्मदाता कहे जाते है। पन्त जी के शब्दों में उनका महत्व प्रकट कर सकते हैं-

भारतेन्दु कर गये भारती की वीणा-निर्माण। 

किया अमर स्पर्शों ने जिसका बहु विध स्वर संधान


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