बाल्यकाल का व्यक्तित्व पर प्रभाव | Baalyakaal ka vyaktitv par prabhaav

व्यक्तित्व शब्द का अर्थ बताना बहुत कठिन है क्योंकि इसका अर्थ बहुत विस्तृत है। साधारणतः मनुष्य के बाह्य स्वरूप से उसका व्यक्तित्व परखा जाता है, किन्तु जब किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को गम्भीरता से देखा जाता है तो बाह्य गुणों की अपेक्षा उसके बौद्धिक, चारित्रिक, आध्यात्मिक तथा मानसिक आदि आन्तरिक गुणों को अधिक महत्व दिया जाता है। इस प्रकार व्यक्तित्व शब्द एक ऐसा शब्द है, जिसमें व्यक्ति के समस्त शारीरिक व आन्तरिक गुण समाहित होते हैं। वे गुण उसे जन्मजात मिले हों या जन्म के पश्चात् विकसित या अर्जित किये गये हों।

व्यक्तित्व का अर्थ

व्यक्तित्व शब्द की विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी हैं-

मनु (Manu)- "व्यक्तित्व की परिभाषा किसी व्यक्ति के ढाँचे, व्यवहार, रूपों, सामर्थ्यो, अभिवृत्तियों और योग्यताओं के सबसे लाक्षणिक संकलन के रूप में की जा सकती है।"

गार्डन आलपोर्ट (Gorden Allport)- "व्यक्तित्व के भीतर उन मनोदैहिक गुणों का गत्यात्मक संगठन है, जो परिवेश के होने वाले उसके अपूर्व अभियोजनों का निर्णय करते हैं।"

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि व्यक्तित्व आनुवंशिक और अर्जित गुणों का एक संकलन है। व्यक्ति के व्यवहार का सम्पूर्ण गुण है जो दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है।

व्यक्तित्व सम्बन्धी दृष्टिकोण

व्यक्तित्व के उपर्युक्त परिभाषाओं के अतिरिक्त कुछ अन्य विद्वानों के दृष्टिकोणों पर भी दृष्टि डालना आवश्यक है, जो निम्न हैं- 

1. साधारण दृष्टिकोण- 

अधिकांश रूप से व्यक्तित्व का अर्थ व्यक्ति के बाह्य रूप, रंग, शारीरिक गठन, वेश-भूषा तथा ओजपूर्ण भाषा आदि से लगाया जाता है, जिसके बल पर वह दूसरों की सहज में ही आकर्षित करने में सफल होता है।

2. दार्शनिक दृष्टिकोण- 

कुछ दार्शनिकों के दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्तित्व को 'आत्मतत्व' माना गया है जो उसे विशेष प्रकार के व्यवहार करने की प्रेरणा देता है जिसका आत्मतत्व जितना प्रबल होगा उसका व्यक्तित्व उतना ही प्रभावशाली होगा। पं. जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी, सुभाषचन्द्र बोस आदि इसी व्यक्तित्व के धनी महापुरुष थे।

3. समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण- समाजशास्त्रियों के अनुसार 'व्यक्तित्व' व्यक्ति के सामाजिक अर्थात् अर्जित गुणों का एक संकलन है जो अति प्रभावशाली होता है अर्थात् व्यक्ति जन्म के समय अत्यन्त निर्बुद्धि प्राणी होता है, किन्तु सामाजिक वातावरण के प्रभाव से वह विभिन्न सामाजिक गुणों को आत्मसात करता है और समाज में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लेता है।

4. मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण- 

उपर्युक्त दृष्टिकोण 'व्यक्तित्व' का एक एकांगी अर्थ प्रस्तुत करते हैं जैसे-शाब्दिक अर्थ, शारीरिक रचना, आत्मतत्व तथा सामाजिक गुण आदि। किन्तु वास्तविकता इसके विपरीत है क्योंकि व्यक्तित्व का अर्थ एकांगी न होकर अत्यन्त व्यापक है जो अपने में एक समग्रता समेटे हुए है।

इस प्रकार व्यक्तित्व आन्तरिक और बाह्य गुणों का संकलन है, जो पर्यावरण और वंश के प्रभाव से विकसित होता है तथा दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता भी रखता है।

श्रेष्ठ व्यक्तित्व की विशेषतायें 

श्रेष्ठ व्यक्तित्व केवल आकर्षक शरीर रचना व आन्तरिक गुणों का संकलन ही नहीं, बल्कि उसमें समुचित शारीरिक विशेषताएँ तथा आन्तरिक गुण (बुद्धिमत्ता, कार्यकुशलता, उत्तम चरित्र तथा कर्तव्यपरायणता) समाहित होते हैं। व्यक्तित्व में निम्न विशेषताओं का होना आवश्यक है-

1. शारीरिक गठन- 

एक श्रेष्ठ व्यक्तित्व के व्यक्ति का शारीरिक गठन समानुपातिक रूप में होना चाहिए। वह अधिक गोरा या सुन्दर न भी हो तो भी उसमें ऐसा आकर्षण जरूर होना चाहिए जो किसी पर अपना प्रभाव डाल सके। 

2. मानसिक स्तर- 

एक अच्छे व्यक्तित्व की यह भी विशेषता है कि व्यक्ति बुद्धिमान् हो, सहृदय हो, उसके चेहरे से प्रसन्नता झलकती हो तथा उसके व्यवहार तथा क्रियाएँ समायोजित हों। एक लम्बा-चौड़ा सुगठित देहयष्टिवाला व्यक्ति यदि बिल्कुल निर्बुद्धि है अथवा अन्य व्यक्ति से कटा हुआ गुमसुम-सा मुँह लटकाये रहता है तो यह श्रेष्ठ व्यक्तित्व का एक अवगुण है जो उसे कभी भी प्रभावशाली नहीं बना सकता।

3. संवेगात्मक सन्तुलन- 

संवेगात्मक सन्तुलन का अर्थ है भावनात्मक सन्तुलन। एक अच्छे व्यक्तित्व के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति में किसी भावना की न तो अधिक तीव्रता होनी चाहिए न ही शिथिलता। क्रोध, लोभ, स्नेह, प्रसत्रता, हँसी, मजाक आदि ऐसी भावनाएँ हैं जो अत्यन्त आवश्यक हैं।

4. सामाजिकता- 

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। अतः श्रेष्ठ व्यक्तित्व के लिए आवश्यक है कि वह समाज से कटकर न रहे, बल्कि सभी सामाजिक सम्बन्धों से समायोजन करता रहे। अपने में ही डूबा रहने वाला अर्थात् अन्तर्मुखी व्यक्ति कभी श्रेष्ठ व्यक्तित्व वाला नहीं कहा जा सकता।

5. लक्ष्य- 

उत्तम लक्ष्य श्रेष्ठ व्यक्तित्व का आवश्यक गुण है। यदि किसी दृष्ट-पुष्ट और तीव्र बुद्धि वाले व्यक्ति का लक्ष्य चोरी, डकैती या विद्रोह करना है तो वह व्यक्तिव महत्वहीन है। व्यक्ति का लक्ष्य अपना परिवार, समाज या देश का विकास और प्रगति करना होना चाहिए तथा इसी दिशा में सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए।

6. दृढ़ संकल्प शक्ति- 

व्यक्तित्व विकास तथा अपने लक्ष्य की प्राप्ति तभी हो सकती है जब व्यक्ति में दृढ़ संकल्प शक्ति हो। इस शक्ति के आधार पर ही वह लक्ष्य प्राप्ति में आने वाली बाधाओं का निराकरण करने में सफल हो सकता है।

7. चरित्र- 

श्रेष्ठ व्यक्तित्व का एक महान् गुण है उसका चरित्रवान होना। चरित्र भी एक व्यापक शब्द है, जिसमें विभिन्न गुणों का समावेश होता है, जैसे- सत्य बोलना, लोभ, बेईमानी, भ्रष्टाचार से दूर रहना, किसी के साथ विश्वासघात न करना, किसी को दुःख न देना, जरूरतमन्दों की हरसम्भव सहायता करना, अपनी पत्नी के अतिरिक्त समस्त स्त्रियों को बहन, बेटी का सम्मान देना तथा उनकी सुरक्षा करना, वृद्धों तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों का सम्मान करना आदि।

8. महत्त्वाकांक्षा- 

उच्च लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए व्यक्ति में उच्च महत्त्वाकांक्षा का होना भी उसके श्रेष्ठ व्यक्तित्व का मुख्य गुण है। किसी कारणवश उसके जीवन में उनकी पूर्ति नहीं हो पाती है तो असन्तोषी नहीं रहना चाहिए।

व्यक्तित्व पर वंशानुगत प्रभाव

प्रत्येक बालक अपने माता-पिता व पूर्वजों से कुछ गुण लेकर जन्म लेता है, जो भविष्य में उसके व्यक्तिव का कारण बनते हैं। ये गुण निम्न हैं-

(अ) शारीरिक रचना-

व्यक्ति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू है, उसकी शारीरिक रचना अर्थात् शारीरिक गठन। यह विशेषता उसे वंशानुक्रम से प्राप्त होती है। उसका लम्बा-चौड़ा या नाटा-मोटा होना, विभिन्न अंगों की आकृति, रूप-रंग तथा सौन्दर्य अधिकांश रूप से अपने वंश के गुणों पर निर्भर करता है। सामाजिक पर्यावरण इसमें कुछ अन्तर अवश्य उत्पन्न कर सकता है, किन्तु मूल रूप में शरीर की संरचना वंशानुक्रम के अनुकूल ही होती है।

(ब) ग्रन्थियों की रचना-

मनुष्य के शरीर में अनेक ग्रन्थियां होती हैं जो एक प्रकार का स्राव उत्पन्न करती हैं जो भिन्न-भिन्न प्रकार से शारीरिक-मानसिक गतिविधियों को प्रभावित करते हैं। ये ग्रन्थियाँ दो प्रकार की होती हैं-

1. नलिकायुक्त ग्रन्थियाँ- अधिकांश नलिकायुक्त ग्रन्थियाँ पाचन संस्थान से सम्बन्धित होती हैं जैसे-यकृत, क्लोम व प्लीहा आदि। ये अन्दर स्रावित तत्त्वों को एक नलिका के द्वारा सम्बन्धित अंगों में पहुंचाकर व्यक्ति के स्वास्थ्य को बनाये रखती हैं।

2. नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ- नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ अपने स्राव को बिना किसी नलिका की सहायता के सीधे ही रक्त में पहुँचा देती है। ये स्स्राव हारमोन कहलाते हैं।

इन ग्रन्थियों तथा उनके प्रभाव का वर्णन नीचे किया जा रहा है-

1. गलग्रन्थि- यह प्रन्धि गले के मूल तथा सामने की ओर स्थित होती है। इस ग्रन्थि के क्रियाशील न होने से बालक की बुद्धि का विकास भली-भाँति नहीं होता। बौना, कुरूप या मन्दबुद्धि होना इसी ग्रन्थि की उचित क्रियाशीलता पर निर्भर करता है। इस ग्रन्थि के अत्यधिक क्रियाशील होने की स्थिति में बुद्धि की अपेक्षा शारीरिक विकास विशेष रूप से लम्बाई बहुत तीव्रता से बढ़ने लगती है तथा बालक में तनाव, अशान्ति, चिड़चिड़ापन व अस्थिरता उत्पन्न हो जाती है, जिसका व्यक्तित्व विकास से सीधा सम्बन्ध होता है।

2. अग्न्याशय- इस ग्रन्यि को 'सर्वकिंवी' ग्रन्थि भी कहते हैं। इसकी कमी से मानसिक शक्ति क्षीण हो जाती है, बालक के भावावस्था  को प्रभावित करती है तथा उसे चिड़चिड़ा व डरपोक बना देती है। उसका स्वभाव सदैव शंकाग्रस्त रहने लगता है।

3. अधिवृक्क ग्रन्थि- इस ग्रन्थि के स्राव का व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसकी अधिकता से बालक या बालिका में पुरुषोचित तथा स्त्रियोचित गुण शीघ्रता से प्रकट होने लगते हैं। यह ग्रन्थि दो भागों में विभाजित रहती है। इसके बाह्य भाग की निष्क्रियता से शरीर में निर्बलता, शिथिलता, चिड़चिड़ापन तथा यौन इच्छा दुर्बल हो जाती है। वह परिस्थितियों से समायोजन करने में समर्थ नहीं हो पाता तथा इस अन्धि के आन्तरिक भाग की निष्क्रियता से बालक भावात्मक रूप से कमजोर हो जाता है तथा इसके अधिक सक्रिय रहने पर व्यक्ति में बहुत शीघ्र उत्तेजना व्याप्त होने लगती है।

4. जनन ग्रन्थि- ये ग्रंथियां प्रजनन से सम्बन्धित होती हैं, इसके उचित रूप से स्रावित होने से यौन सम्बन्धी रुचियों के विकास में सहायता मिलती है। पुरुष हारमोन्स से पुरुषत्व तथा स्त्री हारमोन्स से स्त्रीत्व का समुचित विकास होता है। ये ग्रन्थियाँ युवावस्था में विकसित होती हैं, जिससे बालक-बालिकाओं के युवावस्था में इनके लिंग के अनुरूप युवावस्था के लक्षण विकसित होने लगते हैं, जैसे- बालिकाओं में मासिक धर्म आरम्भ होना तथा दुग्ध ग्रन्थियों की वृद्धि तथा बालकों में दाढ़ी, मूँछ निकलना, आवाज भारी होना आदि। इस ग्रन्थि की निष्क्रियता से व्यक्ति स्त्री-पुरुष के मुख्य लक्षणों से वंचित हो जाता है।

5. पिट्यूटरी ग्रन्थि- इस ग्रन्थि को 'पौष ग्रन्यि' भी कहते हैं। यह मस्तिष्क में स्थित होती है तथा समस्त नलिकाविहीन ग्रन्थियों के कार्यों को नियन्त्रित करती है। बालक के विकसित काल अर्थात् बाल्यकाल में इस ग्रन्थि के निष्क्रिय होने से बालक का शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। उसका शरीर बौना तथा उसकी बुद्धि मन्द हो जाती है और इसके अधिक सक्रिय होने से बालक का शरीर असाधारण लम्बा तथा शरीर के अनुपात में बुद्धि सामान्य लेकिन आक्रामक हो जाती है।

(स) स्नायुविक संगठन-

स्नायुविक संगठन अर्थात् बालक का स्नायु मण्डल उसके शारीरिक व मानसिक विकास को अत्यधिक प्रभावित करता है। जिस बालक का स्नायु मण्डल जितना अधिक सुव्यवस्थित रूप से विकसित होता है उसका व्यक्तित्व विकास भी उतना ही उचित रूप से होता है।

(द) मानसिक गुण-

मानसिक गुणों को मानसिक प्रवृत्तियों और प्रेरक के रूप में भी समझा जा सकता है। व्यक्ति कुछ अपनी नैसर्गिक प्रवृत्तियों, बुद्धि, स्वभाव सम्बन्धी गुणों को भी अपनी वंश परम्परा से प्राप्त करके जन्म लेता है। सामाजिक परिवेश केवल शारीरिक विकास में ही नहीं, बल्कि बालक के मानसिक विकास में उसी सीमा तक प्रभाव डाल सकते हैं जिस सीमा तक उसमें वंशानुक्रम के अनुसार अनुभूति या शक्ति हो। इस प्रकार परिवेशीय प्रभाव को वंशानुक्रम व्यक्तित्व के प्रभाव के रूप में एक सीमा अवश्य प्रदान करता है।

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व्यक्तित्व पर पर्यावरण का प्रभाव

बालक के व्यक्तित्व पर पर्यावरण अर्थात् वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। नन्हें बालक का वातावरण उसका परिवार होता है। एक बालक अपने भीतर तमाम गुणों को छिपाये रहता है। उन गुणों को विकसित करने के लिए वातावरण की आवश्यकता होती है। बालक का जिस वातावरण में पालन-पोषण होगा, उसी के अनुसार उसके गुण विकसित होंगे। व्यक्तित्व के विकास में सहायक पर्यावरण को हम निम्न भागों में विभाजित कर सकते हैं-

1. परिवार का प्रभाव- 

इस बात से सभी सहमत हैं कि बालक के व्यक्तित्व विकास में उसके पारिवारिक परिवेश का महत्वपूर्ण हाथ होता है। परिवार में बालक का माता-पिता का सर्वाधिक निकट का सम्बन्ध होता है। बालक अपनी अनुकरण प्रवृत्ति के कारण अपने माता-पिता से भाषा, व्यवहार, आदतें तया नैतिक गुणों को सीखता है। दो विभिन्न परिवारों के बालकों में उपर्युक्त गुणों के अन्तर को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। असभ्य तथा निम्न संस्कृति के वातावरण में पले बच्चे उद्दण्ड, अव्यावहारिक अथवा मन्द बुद्धि या अन्तर्मुखी हो जाते हैं, जबकि एक आदर्श नीतिवान व गुणी माता-पिता की सन्तान उन जैसे ही बनाने का प्रयास करती है। माता-पिता का गलत आचरण, अस्वस्थ यौन प्रवृत्ति का प्रदर्शन, बच्चों में उत्सुकता जागृत करता है, जिसके समाधान के लिए उन्हें सही मार्गदर्शन न मिलने के कारण वे धीरे-धीरे यौन सम्बन्धी गलत कार्यों की ओर प्रवृत्त होने लगते हैं।

बालकों पर अत्यधिक नियन्त्रण अथवा नियन्त्रण का अभाव, अत्यधिक लाड़-प्यार अथवा लाड़-प्यार का अभाव उसके व्यक्तित्व को कुण्ठित बना देता है।

2. स्कूल का प्रभाव-

परिवार के पश्चात् बालक के व्यक्तित्व को स्कूल, स्कूल का वातावरण, शिक्षक तथा उसके सहपाठियों आदि का विशेष प्रभाव पड़ता है। जैसे-जैसे बालक बड़ा होता है, वह अधिकाधिक विद्यालयीय वातावरण में घुलने-मिलने लगता है। स्कूल में शिक्षक बालक के लिए आदर्श होते हैं तथा उनके रहन-सहन, व्यवहार, नैतिकता आदि का उस पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। वह इस बात के ज्ञान से दूर रहता है कि शिक्षक के व्यवहार उपयुक्त हैं अथवा अनुपयुक्त। केवल उनको आदर्श मानकर वह भी वैसी ही नकल करने लगता है।

बालक अपने शिक्षक को आदर्श मानता है, अतः बात-बात पर डाँटने, मारने, झिड़कने या व्यंग्य करने से बालक के कोमल मन को आघात पहुँचता है, उसके मन में उसके लिए घृणा व विद्रोह की भावनाएँ पनपने लगती हैं। वह खिन्न व उदास रहते-रहते शिक्षा से भी दूर भागने लगता है, जबकि शिक्षक का मृदु व्यवहार बच्चे के व्यक्तित्व को सही दिशा प्रदान करने में सहायक होता है।

बच्चे भिन्न-भिन्न प्रकृति, आचार-व्यवहार के बच्चों के सम्पर्क में आते हैं। वह उनसे भी पर्याप्त प्रभावित होते हैं। कहते हैं कि 'संगत ही गुण ऊपजे, संगत ही गुण जाय।' वह उक्ति अत्यन्त तथ्यपूर्ण है। अमीर। तथा बड़ी आयु के बच्चे गरीब व छोटी आयु के बच्चों के साथ घमण्ड व अधिकारपूर्ण व्यवहार करते हैं। यह व्यवहार स्नेहपूर्ण भी हो सकता है और घृणा व तिरस्कारपूर्ण भी। इससे बालक के व्यक्तित्व पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है।

बालकों में प्रतिस्पर्द्धा भी होती है। प्रतिस्पर्द्धा एक-दूसरे को अधिक प्रगति करने में सहायता होती है, किन्तु यदि प्रतिस्पर्द्धा के साथ ईर्ष्या, द्वेष या एक-दूसरे को नीचा दिखाने की भावना हो तो कमजोर बच्चों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता।

3. सामाजिक प्रभाव-

बालक अपने समाज व संस्कृति से भी प्रभावित होता है। वह जिस प्रकार के समाज व संस्कृति में जीवन व्यतीत करता है वह उनके गुणों व अवगुणों दोनों को अपने जीवन में ढालने लगता है। यही कारण है कि एक सुसभ्य व सुसंस्कृत परिवार तथा एक असभ्य व अनैतिक परिवार के बच्चों को दूर से ही अलग-अलग पहचाना जा सकता है।

वास्तव में बालक के व्यक्तित्व विकास के लिए वंशानुक्रम तथा पर्यावरण दोनों समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। यदि दोनों में से किसी एक का भी अभाव रहेगा तो उसका शारीरिक व मानसिक विकास अवरुद्ध हो सकता है।

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व्यक्तित्व विकास की विभिन्न अवस्थाएँ

व्यक्ति जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है, परन्तु व्यक्तित्व का विकास जीवनपर्यन्त नहीं होता। व्यक्तित्व विकास की प्रक्रिया का एक क्रम होता है, जो कभी तीव्र, कभी धीमे या समाप्त हो जाता है। व्यक्तित्व विकास के क्रम को समझने के लिए व्यक्ति की आवश्यकतानुसार होनेवाले परिवर्तनों को समझना आवश्यक है। व्यक्ति की अवस्था को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है-

1. शैशवावस्था- 

बच्चे के जन्म से छह वर्ष की अवस्था शैशवावस्था मानी गयी है। इस अवस्था में उसके शारीरिक एवं मानसिक विकास की गति बहुत तीव्र होती है, बल्कि सत्य तो यह है कि यह वही अवस्था है, जब बच्चे के व्यक्तित्व विकास की स्थायी नींव पड़ जाती है। मनोवैज्ञानिक फ्रायड के अनुसार तो प्रथम तीन वर्ष में ही स्थायी व्यक्तित्व की नींव पड़ती है बाद में तो उसका विकास होता है जो कि उसके माता-पिता तथा पारिवारिक पर्यावरण पर निर्भर करता है।

2. बाल्यावस्था-

6 से 12 वर्ष की अवस्था बाल्यावस्था होती है। जहाँ परिवार के साथ-साथ उसके विद्यालय के शिक्षक तथा साथियों का भी प्रभाव पड़ने लगता है। इस अवस्था में उसमें सामाजिकता, सहयोग, मैत्री, नेतृत्व आदि गुणों का विकास होता है। यदि वह विद्यालय के पर्यावरण में अपना अनुकूलन करने में असमर्थ होता है अथवा उस पर अनावश्यक नियन्त्रण व ताड़ना का भार पड़ता है तो बच्चे हीनता का शिकार होकर दब्बू या विद्रोही और अपराधी तत्वों की ओर अग्रसर होने लगते हैं।

3. किशोरावस्था-

13-17 वर्ष की अवस्था 'किशोरावस्था' कहलाती है। इस अवस्था में भी बालक को व्यक्तित्व विकास में पर्याप्त तीव्रता उत्पन्न हो जाती है। इस समय उसका मानसिक विकास अति तीव्रता से होता है, जबकि शैशवावस्था में विशेष रूप से शारीरिक विकास तथा अज्ञात मानसिक गुणों, जैसे- साधारण आदतों व व्यवहारों व भाषा का विकास होता है, किन्तु किशोरावस्था में बालक का मानसिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, नैतिक सभी गुणों का विकास होता है, वह पर्याप्त समझदार हो जाता है तथा उसके विकास का क्षेत्र असीमित हो जाता है। इस समय एक विशेष बात उनमें विकसित होती है वह है विपरीत लिंग की ओर आकर्षण। यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है जिसके फलस्वरूप वह अपने को अधिक आकर्षक बनाकर अपने पुरुषत्व या स्त्री सुलभ गुणों का प्रदर्शन करता है। अपने व्यक्तित्व को अधिक से अधिक निखारने का प्रयत्न करता है।

इस अवस्था में उसकी समस्त जिज्ञासाएँ जागृत होने लगती हैं साथ ही उसकी आवश्यकताएँ दायित्व से आत्म-प्रदर्शन आदि की भावनाओं का भी विकास होने लगता है। यही वह अवस्था है जब परिवार तथा समाज चाहे तो बालक को एक होनहार युवक या युवती बना सकता है अथवा अपने आचरणों से एक पथभ्रष्ट अपराधी।

4. प्रौढ़ावस्था-

इस अवस्था को 'वयस्क अवस्था' भी कहा जा सकता है। यह व्यक्ति की ऐसी अवस्था है जो एक प्रकार से व्यक्तित्व विकास के ठहराव की अवस्था कही जा सकती है। इस अवस्था तक वह जो भी अथवा जैसा भी बन पाता है उसमें गम्भीरता आ जाती है। उच्छृंखलता समाप्त हो जाती है। इस समय तक व्यक्ति एक पके बड़े के समान हो जाता है जिसमें पूर्व के उचित, ग्रा अनुचित संस्कारों को स्पष्टतया देखा जा सकता है। प्रौडों के सामने अपने परिवार, व्यवसाय, नौकरी, विवाह तथा सन्तानोत्पत्ति के दायित्व आ जाते हैं जिनके साथ उसे अनुकूलन करना होता है।

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बाल्यावस्था के अनुभवों का मनुष्य के जीवन पर प्रभाव

"बालक मनुष्य का जन्मदाता है।" बाल्यकाल व्यक्ति के जीवन का निर्माण काल है। जब वह पिता बनता है तो परिवार तथा समाज द्वारा उसे विभित्र परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार के खट्टे-मीठे अनुभव प्राप्त होते हैं जो उसके व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ते हैं और जीवनपर्यन्त पीछा नहीं छोड़ते।

माता-पिता से प्राप्त किये हुए अच्छे गुणों को भी बाल्यकाल के अनुभवों से अधिक विकसित किया जा सकता है। बाल्यावस्था में उसे जो कुछ भी अनुभव प्राप्त होते हैं, वे सब मिलकर उसके वंशानुगत गुणों को विकसित करते हैं।

बाल्यावस्था में बालक की आवश्यकताएँ पूर्ण न होने, भरपूर स्नेह न मिलने, न्याय, प्रशंसा और उचित नियन्त्रण न मिलने से वह अविकसित व्यक्ति के रूप में विकसित होगा।

बाल्यावस्था में उसे उचित और पौष्टिक भोजन न मिलने से भी उसका व्यक्तित्व अविकसित रह जाता है। उसका शारीरिक विकास अपूर्ण रह जाता है। बालक का नैतिक चरित्र बहुत कुछ बाल्यकाल के इन्हीं सामाजिक अनुभवों के आधार पर निर्भर होता है। वे महत्त्वपूर्ण पहलू निम्न हैं-

1. प्रेम की सन्तुष्टि-

प्रत्येक बालक प्रेम का भूखा होता है क्योंकि वह उसकी नैसर्गिक प्रवृत्ति है। इसी कारण वह प्रेम की छाँव में ही सन्तुष्ट होता है। यदि आप सौतेले परिवेश के बालकों तथा अनाथालय के बालकों के जीवन का अध्ययन करें तो आप उनके जीवन में प्रेम की रिक्तता पायेंगे जो उनमें दब्बूपन, खिन्नता तथा हीनता का रूप भी दिखायी देगा। अतः माता-पिता को चाहिए कि उन्हें अपना प्रेम-स्नेह दें, जिससे वह आत्मसन्तुष्ट तथा अपने को सुरक्षित समझें। माता-पिता का प्यार बालकों के हृदय को प्रसन्नता से भर देता है जिससे उन्हें ऐसी आन्तरिक प्रेरणा प्राप्त होती है जो उसके व्यक्तित्व विकास में सहायक होती है तथा ऐसे बालक ही भविष्य में दूसरों को भी प्यार व सहानुभूति देने में समर्थ हो पाते हैं और बड़े होकर अपने परिवार को भी प्रसन्न व सुखी रखते हैं। उनका प्रफुल्लित चेहरा तथा हँसमुख व्यक्तित्व बरबस दूसरों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।

2. खेल एवं कल्पना का महल-

बालकों में कल्पना प्रवृत्ति की अत्यन्त तीव्रता पायी जाती है। वे अपने काल्पनिक संसार को विभित्र प्रकार के खेलों, मिट्टी के घरौंदों व चित्रकारी आदि के रूप में उजागर करते रहते हैं। वे बड़ों की बातों, व्यवहारों, वस्तुओं यहाँ सक कि शक्ल-सूरत, हाव-भाव तक को अपनी कल्पना का जामा पहनाकर अपनी रुचि का प्रदर्शन करते हैं। एक गार्ड का बच्चा सीटी व झण्डी के साथ अपने को अपने पिता का प्रतिरूप समझता है। उनकी यह प्रतिरूपता व प्रदर्शन व्यर्थ नहीं होता, बल्कि उसमें उनकी वह रुचियाँ व प्रतिभाएँ छिपी होती हैं जो भविष्य में उनके जीवन-मार्ग को प्रशस्त करती हैं। अतः माता-पिता व शिक्षकों को चाहिए कि बालकों को खेल-कूद के पर्याप्त अवसर प्रदान करें तथा उनसे ऐसे रचनात्मक कार्य करायें जिनसे उनकी काल्पनिक शक्ति व उनमें निहित प्रतिभा का पर्याप्त विकास हो सके।

जो बालक खेल-कूद से दूर रहकर गुमसुम बैठना पसन्द करते हों तो निश्चित समझना चाहिए कि उनमें कोई शारीरिक या मानसिक दुर्बलता है। उसका चिकित्सक या मनोवैज्ञानिक से परामर्श करके उचित निदान करना चाहिए। 

3. जिज्ञासा की सन्तुष्टि-

बालक के लिए संसार में सब कुछ नया-नया होता है। वह प्रत्येक वस्तुओं व क्रियाओं को बड़ी जिज्ञासा से देखता है और उसके विषय में जानने और समझने की चेष्टा में 'क्यों' और 'क्या' का उत्तर चाहता है। पानी कैसे बरसता है? पक्षी कपड़े क्यों नहीं पहनते? कुत्ते सड़क पर पड़ी वस्तुएँ क्यों खाते हैं? बड़े लोग क्यों रोते हैं? आदि। कहने का तात्पर्य यह है कि वह किस समय क्या बात पूछ बैठेंगे, इसका अनुमान लगाना कठिन है। वे केवल पूछते ही नहीं हैं, बल्कि जब तक उनकी उत्सुकता सन्तुष्ट नहीं हो जाती वह बात उनके अचेतन मन से नहीं निकलती।  एक उत्सुकता पूरी होते न होते दूसरी, तीसरी, चौथी उत्पन्न होती रहती कभी-कभी तो बड़े लोग उन्हें डॉट-डपट भी देते हैं अथवा गलत उत्तर देकर उन्हें शान्त करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु ऐसा करना उनके साथ सर्वथा अन्याय करना है। माता-पिता तथा शिक्षकों का यह कर्तव्य है कि उनकी जिज्ञासा सन्तुष्टि के लिए बहुत धैर्य से काम लें तथा उचित रीति से उनका निवारण करें अन्यथा बालकों के मन में अनुचित भावनाएँ एवं धारणाएँ बनने लगेंगी, जिसका प्रभाव उनको अनुचित कार्य करने की प्रेरणा देगा। जो बातें बताना उचित न हो उनके लिए उन्हें अपनी बुद्धि चातुर्य से इस प्रकार सन्तुष्ट करें कि उनकी जिज्ञासा मिट जाय तथा उनके मस्तिष्क पर कोई गलत प्रभाव न पड़े।

4. अनुकरण प्रवृत्ति का महत्त्व-

बालकों में क्रियाशीलता व अनुकरण की प्रवृत्ति स्वाभाविक है। जिस बालक में ये प्रवृत्तियाँ जितनी तीव्र होंगी वह भविष्य में उतना ही अधिक प्रतिभाशाली तथा महान् कलाकार बनने की क्षमता रखता है। अब इसका विकास किस सीमा तक तथा किस दशा की ओर होता है यह माता-पिता के द्वारा प्रवान किये हुए परिवेश पर निर्भर करता है।

5. प्रशंसा तथा पुरस्कार-

प्रशंसा व पुरस्कार व्यक्ति के उत्साहवर्द्धन का ऐसा साथन है जो बालकों को क्या बड़ों को भी अपार प्रेरणा व प्रगति करने की शक्ति प्रदान करता है। छोटे बालकों की बुद्धि व समझ भी छोटी-सी होती हैं और अत्यन्त कोमल भी। उनके साधारण से कामों पर भी आप उनकी प्रशंसा करने में संकोच न करें। वह छोटे होने पर भी प्रशंसा व दण्ड का अर्थ भली-भाँति समझते हैं। एक-दो वर्ष का बालक चलने-फिरने व दैनिक वस्तुओं को पहचानने लगता है। अपने छोटे-मोटे कार्य करने का भी असफल प्रयास करता है। यदि आप उससे अपना रूमाल उठाने के लिए कहें तो रूमाल उठाने पर उसकी प्रशंसा करके अपनी प्रसन्नता अवश्य प्रकट करें। आप देखेंगी कि वह दौड़-दौड़कर अन्य वस्तुएँ भी ला-लाकर आपको देगा और अत्यन्त प्रसन्न होगा।

6. आत्म-सम्मान-

आत्म-सम्मान पर केवल बड़े-बूढ़ों का ही अधिकार नहीं है। बच्चे भी अपने आत्म-सम्मान की भावना हृदय में संजोये रहते हैं। उसमें थोड़ी-सी ठेस पहुँचने से वह अचेतन रूप से तिलमिला जाते हैं और उसका प्रभावहीन भावना के रूप में उनके मन को कुरेदता रहता है। यदि बालक में कोई शारीरिक, मानसिक या भाषा सम्बन्धी कमी है तो उसका मजाक बनाने, उसे झिड़की देने, बार-बार दूसरों के सामने भद्दे रूप में प्रदर्शित करने अथवा उसकी आलोचना करते रहने से वह अपने को दूसरों की तुलना में दीन-हीन सा समझने लगता है।

उस कमी को छोड़कर उसके अन्य गुणों की सराहना करेंगी तो उसके आत्म-सम्मान की भावना सन्तुष्ट होगी, साथ ही वह अपनी कमी को सहर्ष पूरा करने का भी प्रयास करेगा। बालकों में कभी-कभी पैसे चुराने की आदत पड़ जाती है। इस आदत को छुड़ाने के लिए मारना-पीटना व्यर्थ है। वह दुःखी होकर अचेतन रूप से आपको भी दुःखी करते रहेंगे और अपनी आदत नहीं छोड़ेंगे। अतः आप इसके निवारण के लिए उन्हें रुपये पैसे गिनने को दें, रखने को दें तथा उनसे हिफाजत करने को कहें। आपको पैसे निकालने हैं तो उन्हीं से निकलवायें अर्थात् उन्हें पैसे सम्बन्धी कुछ ऐसे दायित्व सौंपे जिससे वह अपने को कुछ महत्वशाली समझने लगे। निश्चित रूप से धीरे- धीरे पैसे चुराने से वे दूर होते जायेंगे।

बच्चों के दोस्त व सहेलियों के सामने बच्चे का किसी प्रकार अपमान न करें, डाँटें-मारे नहीं। इससे भी बच्चों के व्यक्तित्व का बुरा प्रभाव पड़ता है।

7. स्वतन्त्रता-

बालकों की कुछ इस प्रकार की प्रवृत्ति होती है कि वे अपने किसी काम में या खेलकूद में किसी प्रकार का बन्धन स्वीकार करने को तैयार नहीं होते। आरम्भिक अवस्था में तो यह स्थिति होती है कि यदि उन्हें चलना नहीं आ रहा है तो किसी की अंगुली पकड़कर नहीं चलेंगे भले ही बार-बार गिरते रहें, खाना नहीं आ रहा है तो भी अपने हाथ से ही खाएँगे चाहे अपना हाथ-मुँह-कपड़े गन्दे कर लें। कहने का तात्पर्य यह है कि वह मनमानी करने में ही आनन्दित होते हैं, किन्तु यह मनमानी बेईमानी नहीं है। 

वह इसी प्रकार लुढ़कते-गिरते, नुकसान करते हुए सब कुछ सीखते हैं यदि उन्हें ऐसे कामों पर रोक लगायी गयी तो वह जिद्दी हो जाते हैं या कुण्ठित। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उन्हें बिल्कुल स्वच्छन्द छोड़ दिया जाय। यदि उन्हें किसी काम या खेल से हानि होने की सम्भावना हो तो उन्हें रोकना भी आवश्यक है, लेकिन उन्हें समझाते हुए। आपका यह दायित्व है कि आप उन्हें अपनी निगरानी में रखते हुए उनकी रुचि, प्रवृत्ति व आदतों को इस प्रकार पनपने में सहायता करें कि वे बिना अपना कोई अहित किये हुए अपना शारीरिक विकास करते रहें।

8. समाज का प्रभाव-

व्यक्ति सामाजिक प्राणी है। वह समाज का तथा समाज उसका पूरक है। बालक जैसे सामाजिक परिवेश में जन्म लेता तथा बड़ा होता है उसका बालक के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। रईसों के बच्चों में बड़ापन तथा गरीबों के बच्चों में हीनता व दब्बूपन की भावना देखने को मिलती है। इसी प्रकार सम्भ्रान्त परिवार के बच्चे संयमित और निम्न परिवार के बच्चों में असंयमित व्यवहारों का मुख्य कारण उनका सामाजिक परिवेश ही है। निम्न आर्थिक स्थिति के बच्चों की आवश्यकताएँ अपूर्ण रह जाने से प्रायः उनमें अपराधी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जबकि साधन सम्पन्न परिवारों के बालकों में ऐसी सम्भावना कम होती है।

9. उचित विचार, चरित्र तथा आदर्श 

बालक परिवार में रहकर अच्छे-बुरे, उचित अनुचित का ज्ञान प्राप्त करता है। यदि बच्चे को आरम्भ से ही इस बात का ज्ञान न कराया जाय कि क्या उचित है क्या अनुचित है तो बड़े होकर वे आदतें पक्की होकर उसके व्यक्तित्व को कुरूप बना देंगी।

माता-पिता तथा शिक्षकों को चाहिए कि वे बच्चों में अच्छे विचारों, अच्छी आदतों तथा उच्च आदशों का विकास करें। यहीं संस्कार और शिक्षाएँ भविष्य में जीवन का अंग बन जायेंगी।

महत्वपूर्ण प्रश्न-उत्तर 

प्रश्न- 1. व्यक्तित्व की एक स्पष्ट एवं सरल परिभाषा लिखिए।

उत्तर- गार्डन आलपोर्ट के अनुसार- "व्यक्तित्व के भीतर उन मनोदैहिक गुणों का गत्यात्मक संगठन है जो परिवेश के होनेवाले उसके अपूर्व अभियोजनों का निर्णय करते हैं।"

प्रश्न- 2. शैशवावस्था में शिशु के व्यक्तित्व पर किन कारकों का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है? 

उत्तर- शैशवावस्था में शिशु के व्यक्तित्व पर उसके माता-पिता तथा पारिवारिक पर्यावरण का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। 

प्रश्न- 3. बाल्यावस्था में बालक के व्यक्तित्व पर मुख्य रूप से किसका प्रभाव पड़ता है?

उत्तर- बाल्यावस्था में बालक के व्यक्तित्व पर मुख्य रूप से परिवार के साथ-साथ उसके विद्यालय के शिक्षक तथा साथियों का प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न- 4. व्यक्तित्व को प्रभावित करनेवाले कारकों को कितने वर्गों में बाँटा जा सकता है?

उत्तर- व्यक्तित्व को प्रभावित करनेवाले कारकों को निम्न वर्गों में बाँटा जा सकता है- आनुवंशिकता तथा पर्यावरण।

प्रश्न- 5. व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले दो मुख्य कारक कौन से हैं?

उत्तर- व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारक निम्न हैं-

(i) वंशानुगत कारक एवं 

(ii) पर्यावरणीय कारक।

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