आश्रम व्यवस्था क्या है ? प्रकार एवं महत्व की विवेचना कीजिए।

आश्रम व्यवस्था

भारतीय समाज में आध्यात्मवाद एवं सांसारिकता में समन्वय स्थापित करने का प्रारम्भ से ही प्रयत्न किया गया है। यहाँ त्याग और भोग दोनों को ही महत्व दिया गया है। इस देश में व्यक्ति को संसार के प्रति उदासीन रहने को नहीं कहा गया है और न ही सांसारिकता में अपने आपको इतना लीन कर देने को कहा गया है कि वह जीवन के अन्तिम लक्ष्य अर्थात् मोक्ष प्राप्ति को ध्यान में ही नहीं रखे। भारतीय संस्कृति में इस बात को विशेष महत्व दिया गया है कि मनुष्य धर्म के अनुसार अपने कर्त्तव्य का पालन करे, संसार में रहता हुआ त्याग व भोग की ओर प्रेरित हो और अन्त में मोक्ष की प्राप्ति करे। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर हमारे यहाँ एक क्रमबद्ध जीवन व्यवस्था की आवश्यकता को महसूस किया गया। परिणामस्वरूप व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन को चार भागों में बाँटा गया और प्रत्येक भाग में एक विशेष प्रकार की आचार-संहिता प्रस्तावित की गयी। जीवन की इसी व्यवस्था को आश्रम-व्यवस्था के नाम से पुकारते हैं।

आश्रम का अर्थ

डॉ. प्रभु के अनुसार, 'आश्रम' शब्द' श्रम' धातु से बना है जिसका अर्थ परिश्रम या उद्योग करने से है। इस दृष्टि से 'आश्रम' शब्द के दो अर्थ हैं- 

(अ) एक स्थान जहाँ प्रयत्न या उद्योग किया जाता है, तथा 

(ब) इस प्रकार के प्रयत्न या उद्योग के लिए की जाने वाली क्रिया। 

अतः इस अर्थ के आधार पर आश्रम का तात्पर्य ऐसे क्रिया स्थल से है जहाँ कुछ समय ठहरकर व्यक्ति उद्यम करता है। शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से कहा जाता है कि आश्रम ठहरने या विश्राम करने का एक स्थान है जहाँ व्यक्ति कुछ समय तक रहकर अपने आप में आवश्यक गुणों का विकास करके अपने को आगे की यात्रा के लिए तैयार करता है। इस प्रकार आश्रम स्वयं में कोई लक्ष्य न होकर लक्ष्य प्राप्ति का एक साधन है। प्रभु ने बताया है कि आश्रम को जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति हेतु व्यक्ति द्वारा की जाने वाली यात्रा के मार्ग में पड़ने वाला विश्राम-स्थल मानना चाहिए। आश्रम-व्यवस्था के अन्तर्गत एक आश्रम में रहता हुआ व्यक्ति अपने आपको दूसरे आश्रम या अवस्था के योग्य बनाता है। महाभारत में व्यासजी ने बताया है कि जीवन के चार आश्रम व्यक्तित्व के विकास की चार सीढ़ियाँ हैं। इन पर क्रम से चढ़ते हुए व्यक्ति ब्रह्म की प्राप्ति करता है।

भारतीय संस्कृति में मानव के चार प्रमुख कर्तव्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष माने गये है। इन कर्तव्यों को पुरूषार्थ कहा जाता है। आश्रम के द्वारा इन चारों कर्त्तव्यों की पूर्ति का प्रयत्न किया जाता है। कर्तव्यों की पूर्ति के इस प्रयत्न को आश्रम की संज्ञा दी गयी है, क्योंकि इन कर्तव्यों की पूर्ति के लिए प्रत्येक स्तर पर 'श्रम' करना पड़ता है और एक आश्रम की सफलता दूसरे आश्रम के कर्तव्यों को भी सरल बना देती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि आश्रम व्यवस्था वह अपूर्व व्यवस्था है जो हिन्दू जीवन को विभिन्न स्तरों में विभाजित कर व्यक्ति को समय विशेष के लिए प्रत्येक स्तर पर रखकर उसे भावी जीवन के लिए इस प्रकार तैयार करती है कि वह अपने प्रयास द्वारा समस्त दायित्वों को प्राथमिकता के आधार पर क्रमबद्ध रूप से पूर्ण करता हुआ जीवन के अन्तिम मोक्ष को प्राप्त कर सके। आज आश्रम व्यवस्था को जिस रूप में स्वीकार किया जाता है, उनका विधिवत् उल्लेख हमें सर्वप्रथम 'जाबालिक उपनिषद्' में मिलता है। इससे स्पष्ट है कि उपनिषद् काल में ही आश्रम-व्यवस्था की स्पष्ट एवं व्यवस्थित व्याख्या की गयी थी।

आश्रमों के प्रकार (विभाजन) एवं उनका महत्व

आश्रम-व्यवस्था के अन्तर्गत व्यक्ति की आयु को 100 वर्ष मानकर उसके सम्पूर्ण जीवन को चार बराबर भागों में विभाजित किया गया। इस प्रकार जीवन को 25-25 वर्ष के चार आश्रमों-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास में बाँटा गया है। इन चारों आश्रमों में क्रम से रहता हुआ व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक चार पुरुषार्थों की प्राप्ति करता है। इन चारों आश्रमों का एक-दूसरे दूसरे के साथ इतना निकट का सम्बन्ध है कि एक आश्रम के कर्त्तव्यों को निभाये बिना व्यक्ति दूसरे आश्रम से सम्बन्धित दायित्वों को ठीक से पूर्ण नहीं कर सकता। प्रत्येक आश्रम में धर्म की मर्यादा के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करने के पश्चात् ही व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति के योग्य बनता है। हम यहाँ चारों आश्रमों का उल्लेख करेंगे।

(1)  ब्रह्मचर्य आश्रम 

ब्रह्मचर्य आश्रम जीवन का सबसे पहला आश्रम है। उपनयन संस्कार (जनेऊ धारण करना) के बाद बालक ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करता था। अलग-अलग वर्ण के बालकों के लिए उपनयन संस्कार की आयु भी अलग-अलग रखी गयी है। ब्राह्मण बालक के लिए यह आयु 8 वर्ष, क्षत्रिय बालक के लिए।। वर्ष और वैश्य बालक के लिए 12 वर्ष रखी गयी। इस संस्कार के पश्चात् ही बालक ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करता था। ब्रह्मचर्य दो शब्दों से बना है जिसमें से एक है 'ब्रह्म' और दूसरा है 'चर्य'। 'ब्रह्म' का अर्थ है 'महान्' और 'चर्य' का अर्थ है 'अनुसरण करना या 'चलना'। इस तरह ब्रह्मचर्य का तात्पर्य है- महानता के मार्ग पर चलना यानि महान् आत्माओं का अनुसरण करना। ब्रह्मचर्य का सामान्यतः अर्थ यौन-संयम से ही लिया जाता हैं, किन्तु यह तो ब्रह्मचर्य का एक पहलू ही है। ब्रह्मचर्य का तात्पर्य सभी प्रकार के संयमों जैसे अनुशासन, कर्तव्यपरायणता, नैतिकता, आचरण की शुद्धता एवं पवित्रता आदि से है। ब्रह्मचर्य का तात्पर्य केवल इन्द्रिय संयम से ही नहीं था वरन् इन्द्रियों पर संयम रखते हुए वेदों के अध्ययन से था। इस आश्रम में ब्रह्मचारी संयम से रहता हुआ अपने आप में अनेक गुणों का विकास करता तथा अपने चरित्र का निर्माण करता हुआ भावी जीवन के लिए अपने को तैयार करता था।

ब्रह्मचर्य आश्रम बालक में बालक को गुरुकुल में ही रहना पड़ता था। यहाँ उसे एक विशेष प्रकार की दिनचर्या बितानी होती थी। यहाँ आते ही बालक का अध्ययन कार्य प्रारम्भ नहीं हो जाता था। उसे गुरु की अनेक प्रकार की सेवा करनी होती थी, जैसे- उसे आश्रम में झाडू लगानी पड़ती, आश्रम की गायें चरानी पड़र्ती, हवन के लिए जंगल से लकड़ी लानी पड़ती और दान प्राप्त करना पड़ता था। जब गुरु बालक के कार्यों से प्रसन्न हो जाता और यह समझ लेता कि बालक में अध्ययन की वास्तिवक इच्छा और जिज्ञासा है, तभी उसे वेदों के अध्ययन की आज्ञा दी जाती थी। वेदों के अध्ययन का महत्व सांस्कृतिक परम्पराओं को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने,ऋषि-ऋण से छुटकारा प्राप्त करने और ऋषियों के प्रति श्रृद्धा का भाव व्यक्त करने की दृष्टि से विशेष था।

जहाँ तक विद्यार्थी की दिनचर्या का प्रश्न है, धर्मशास्त्रों एवं मनुसंहिता के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उसे प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व उठना पड़ता था, उसे दिन में केवल दो बार भोजन करने की आज्ञा थी और उसके लिए शहद, मीठी वस्तुएँ, मांस, गन्ध, जूता एवं छतरी आदि का प्रयोग वर्जित था। ब्रह्मचारी के लिए कर्तव्यों का निर्धारण इस प्रकार से किया गया था कि उसका शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास ठीक ढंग से हो सके। उसके लिए संयम और विभिन्न कर्त्तव्यों का पालन करना इस दृष्टि से आवश्यक था कि उसका शारीरिक विकास ठीक प्रकार से हो सके। यही कारण है कि उसे ऐसी वस्तुओं को प्रयोग में लेने की आज्ञा नहीं थी जो काम-वासना को भड़काने में सहायक हो। इस आश्रम में बालक के लिए नृत्य, गायन, जुआ, झूठ, हिंसा आदि वर्जित थे। उसके लिए सत्य बोलना, पवित्रता का आचरण करना, सत्य की खोज करना और अध्ययन में रुचि लेना आवश्यक था। इसी से उसका मानसिक विकास सम्भव था। अपने आध्यात्मिक विकास के लिए बालक को अपने आपसे अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, पवित्रता आदि गुणों का विकास करना होता था। योग-दर्शन में बताया गया है कि शौच (पवित्रता), सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर की पूजा आदि वे नियम हैं जिनसे मानसिक विकास होता है। आध्यात्मिक विकास हेतु यमों का पालन आवश्यक माना गया है। ये यम हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह। स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्यार्थी की दिनचर्या इस प्रकार से निर्धारित की गयी है कि वह वेदों के अध्ययन के साथ-साथ अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सके।

ब्रह्मचर्य आश्रम का समाजशास्त्रीय महत्व 

इस आश्रम में गुरु के प्रत्यक्ष सम्पर्क में रहता हुआ विद्यार्थी अपने व्यक्तित्व का विकास करता है, अपने आपको सद्‌गुणों से विभूषित करता है, अपना चरित्र-निर्माण करता है और अपनी यौन इच्छाओं पर नियन्त्रण रखते हुए अपने को गृहस्थ-जीवन के योग्य बनाता है। इस आश्रम का बालक के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से विशेष महत्व है। यह आश्रम समाज की सांस्कृतिक परम्पराओं को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरित करने में विशेष रूप से सहायक रहा है। उस समय सांस्कृक्तिक परम्पराएँ मौखिक रूप से ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित की जाती थीं। ऐसी स्थिति में ब्रह्मचर्य आश्रम के माध्यम से समाज के एक वर्ग पर यह दायित्व डाला हुआ था कि वह अध्ययन, सम्वर्द्धन तथा प्रसारण द्वारा अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं, सामाजिक मूल्यों और जीवन-दर्शन को बनाये रखे। इसी आश्रम की सहायता से भारतीय सामाजिक आदर्शों और व्यावहारिक प्रतिमानों को अनेक शताब्दियों तक बनाये रखा जा सका। इस आश्रम में सरल और सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करता हुआ बालक यह सीखता था कि जीवन में भौतिक आवश्यकताएँ ही सब कुछ नहीं हैं, वे तो आध्यात्मिक उद्देश्य की पूर्ति में सहायक मात्र हैं। यहाँ बालक विभिन्न कर्तव्यों से परिचित होता था, अपने उचित धर्म को सीखता था।

आश्रम-व्यवस्था के महत्व पर प्रकाश डालते हुए डॉ. कापड़िया ने लिखा है- "छात्रत्व जीवन अवधि का वह समय है जिसमें वेग होता है। यह समय तूफान और तनाव, आतुरता, शारीरिक-शक्तिवर्द्धन, भावनात्मक, अस्थिरता, यौन-प्रवृत्ति के विकास, यौनिक उत्तेजना और आत्म-प्रदर्शन करने का काल होता है। हिन्दू मनीषियों ने विद्यार्थी जीवन को इस प्रकार नियन्त्रित करने का प्रयास किया है, उसकी युवावस्था का विकास सन्तुलित रूप से हो सके। उन्होंने मस्तिष्क तथा शरीर के लिए उचित नियम निर्धारित किये हैं। वास्तव में यह जीवन अत्यन्त कष्टपूर्ण था,परन्तु जीवन का ढंग यौवनावस्था के प्रबल वेग को नियन्त्रित करता था। इसे नियन्त्रित जीवन कहा जा सकता है, लेकिन जब सम्पूर्ण दैनिक जीवन नियमबद्ध हो जाता है तथा इसे जीवन के महान् उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अनुशासित कर दिया जाता है, तब इसके दमन का प्रश्न नहीं उठता है।" यह आश्रम श्रम के महत्व से व्यक्ति को परिचित कराके उसके जीवन में असफलताओं की सम्भावना को काफी घटा देता है। यह आश्रम बालक को सादा जीवन और उच्च विचार के आदर्श की प्रेरणा देता है।

(2) गृहस्थ आश्रम

ब्राह्मचर्य आश्रम में अध्ययन कार्य पूर्ण करने के पश्चात् विवाह-संस्कार सम्पन्न होने पर व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है जहाँ वह पचास वर्ष की आयु तक रहता है। यह आश्रम ही वह महान् कर्म-स्थल है जहाँ व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम में प्राप्त शिक्षाओं को मूर्त रूप देता है। इस आश्रम में व्यक्ति धार्मिक एवं सामाजिक दायित्वों को पूरा करने की ओर आगे बढ़ता है। यहाँ मर्यादा में रहता हुआ व्यक्ति धर्म, अर्थ तथा काम नामक पुरुषार्थों को प्राप्त करता है। इस आश्रम में रहकर ही वह स्वयं परिवार एवं समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों को पूर्ण करता हुआ अपने को आगे के आश्रम के योग्य बनाता है। श्री गोखले ने गृहस्थ धर्म के सम्बन्ध में बताया है कि इस आश्रम के अन्तर्गत एक गृहस्थ का धर्म है कि वह जीव-हत्या, असंयम तथा असत्य से दूर रहे, पक्षपात, शत्रु निर्बुद्धिता तथा डर को पास न आने दे। मादक द्रव्यों का सेवन, कुसंग, अकर्मण्यता और चाटुकारों पर धन व्यय न करे, माता-पिता, आचार्यों और वृद्धों का आदर करे, पत्नी के प्रति उसका व्यवहार धर्म, अर्थ तथा काम की मर्यादाओं के अनुसार ही। इस प्रकार परिवार के सदस्यों में पारस्परिक आदर तथा एक-दूसरे के कल्याण का ध्यान हो कुल-धर्म का सार है। गृहस्थ के इन सभी दायित्वों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि गृहस्थ आश्रम व्यक्ति के लिए भोग एवं विलास का काल न होकर त्यागमय जीवन, कर्म और साधना का महान् स्थल है।

गृहस्थ आश्रम के सारे दायित्वों को यज्ञ, दान और तप के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया है। एक गृहस्थ का यह कर्त्तव्य है कि वह देवताओं, ऋषियों, माता-पिता, अतिथियों तथा अन्य प्राणियों के प्रति अपने दायित्व को निभाये। देवता, ब्राह्मण, गुरु एवं विद्वानजनों का पूजन करें। पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य तथा अहिंसा का आचरण करे।

गृहस्थ के लिए प्रतिदिन धर्मपूर्ति के लिए पंच महायज्ञों का विधान किया गया है। इनका उद्देश्य विभिन्न प्रकार की हिंसा से अपने आपको मुक्त रखना था। मनु ने बताया है कि गृहस्थ के घर में चूल्हा, चक्की, झाडू, ऊखल-मूसन तथा जल-पात्र विभिन्न जीव-जन्तुओं की हिंसा के स्थान है। इनसे होने वाली हिंसा के प्रायश्चित के रूप में पंच महायज्ञ आवश्यक बताये हैं। इन यज्ञों के द्वारा गृहस्थ ऋषियों, देवताओं, माता-पिता, अतिथियों और विभिन्न प्राणियों के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करता था। इन यज्ञों का लक्ष्य व्यक्ति में ईश्वर के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करना, उसे वैदिक साहित्य के अध्ययन की ओर लगाना, समाज की सांस्कृतिक परम्पराओं की रक्षा करना, ऋषि-मुनियों, गुरुजनों, माता-पिता और अतिथियों के प्रति दायित्व निर्वाह की ओर उसे प्रेरित करना और प्राणि-मात्र के कल्याण को ध्यान में रखना रहा है। पंच-महायज्ञों के माध्यम से गृहस्थ त्यागमय जीवन व्यतीत करता हुआ अपने और समाज के जीवन को उन्नत बनाने में महत्वपूर्ण योग देता रहा है। देवऋण, पितृऋण तथा ऋषिऋण से छुटकारा प्राप्त करने के लिए भी गृहस्थी के लिए विभिन्न यों को सम्पन्न करना आवश्यक बताया गया है। गृहस्थ धन कमाता है, लेकिन वह उस धन का उपयोग समाज के प्रति अपने दायित्व निर्वाह के लिए करता है। धन-संचय लक्ष्य न होकर अन्य के हित में उसका उपयोग करना गृहस्थ के जीवन का लक्ष्य रहा है।

गृहस्थ आश्रम का महत्व सबसे अधिक महत्वपूर्ण आश्रम क्यों ? 

उपनिषदों, महाभारत तथा स्मृतियों में स्पष्टतः बताया गया है कि गृहस्थ आश्रम में जीवन व्यतीत किये बिना व्यक्ति के लिए मोक्ष प्राप्ति सम्भव नहीं है। इस आश्रम की महत्ता इस दृष्टिकोण से विशेष है कि गृहस्थ जीवन के साथ अनेक सामाजिक, धार्मिक और नैतिक कर्तव्य जुड़े हुए हैं। अन्य तीनों आश्रमों के लोग अपने भरण-पोषण के लिए गृहस्थ पर ही निर्भर रहते हैं। इस आश्रम को सबसे अधिक महत्वपूर्ण इस कारण माना गया है, क्योंकि जीवन की सफलता इसी की सफलता पर निर्भर करती है। मनु के अनुसार जिस तरह वायु का आश्रय लेकर सब जीव-जन्तु जीते हैं, उसी तरह गृहस्थ का आश्रय लेकर सब आश्रम जीवन व्यतीत करते हैं। सभी आश्रमों में रहने वाले व्यक्तियों को गृहस्थ से ही भोजन एवं पवित्र ज्ञान प्राप्त होने के कारण गृहस्थ आश्रम ही सर्वोपरि आश्रम है। जिस प्रकार सभी छोटी और बड़ी नदियाँ अन्त में समुद्र में ही स्थायी रूप से विभाग पाती हैं, उसी प्रकार सब आश्रमों के व्यक्ति गृहस्थ के हाथों में ही सुरक्षा एवं स्थायित्व प्राप्त करते है। गृहस्थ आश्रम को अन्य आश्रमों की तुलना में सबसे अधिक महत्व दिये जाने के कुछ विशेष कारण है जिनका यहाँ हम संक्षेप में उल्लेख करेंगे-

(अ) पुरुषार्थों की पूर्ति का स्थल- गृहस्थ आश्रम ही एक ऐसा स्थान है जहाँ अर्थ नामक पुरुषार्थ को उपार्जित किया जाता है और काम का उपभोग किया जाता है। अन्य तीन आश्रमों में में इन दो पुरुषार्थों की पूर्ति की कोई व्यवस्था नहीं है। यहाँ व्यक्ति धर्म के अनुसार विभिन्न दायित्वों को निभाता है, धर्म नामक पुरुषार्थ को उपार्जित करता है। इस आश्रम में इन तीनों पुरुषार्थों को प्राप्त करता हुआ व्यक्ति अपने को चौथे पुरुषार्थ, मोक्ष प्राप्ति के लिए तैयार करता है। यह आश्रम भोग और त्याग दोनों के महत्व पर समान रूप से प्रकाश डालता है।

(ब) यज्ञों का सम्पादन- सभी प्रकार के ऋणों से मुक्त होने के लिए यज्ञों की पूर्ति आवश्यक बतायी गयी है। ये यज्ञ पाँच माने गये हैं- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ तथा अतिथियज्ञ (नृयज्ञ)। इन पाँच महायज्ञों का निर्वाह गृहस्थ आश्रम में ही सुगमतापूर्वक किया जा सकता है। इन यज्ञों का महत्व इसी दृष्टि से है कि इनके माध्यम से गृहस्थ समाज के विभिन्न लोगों के प्रति अपने दायित्व को पूर्ण करता है। हिन्दू जीवन-दर्शन के अनुसार व्यक्ति केवल अपने लिए ही नहीं जीता है। वह समाज का एक घटक है, समाज से बहुत कुछ ग्रहण करता है, अतः समाज के प्रति उसका कुछ दायित्व भी है। इसी दायित्व को वह विभिन्न यज्ञों के सम्पादन द्वारा निभाता है।

(स) समाज के सामान्य कल्याण में योगदान- अन्य तीनों आश्रमों की अपेक्षा गृहस्थ आश्रम का समाज कल्याण की दृष्टि से सर्वाधिक महत्व है। एक गृहस्थ ही अन्य तीनों आश्रमों के लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सामूहिक कल्याण में योग दे सका है। गृहस्थ के सहयोग के बिना अन्य तीनों आश्रम के लोगों के लिए अपने कर्तव्यों को निभाना किसी भी रूप में सम्भव नहीं था, अतः गृहस्थ ही सम्पूर्ण समाज के हित में विशेष योग दे पाता था।

इस आश्रम के उपर्युक्त महत्व को ध्यान में रखकर ही यह कहा गया है कि गृहस्थ आश्रम ही वह धुरी है जिस पर सम्पूर्ण आश्रम-व्यवस्था का अस्तित्व बना हुआ है।

(3) वानप्रस्थ आश्रम

शास्त्रकारों के अनुसार 50 वर्ष की आयु पूरी कर लेने पर व्यक्ति को वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहिए। मनु ने बताया कि जब गृहस्थ यह देखे कि उसके शरीर की त्वचा शिथिल हो गयी है, उसमें झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, बाल पक गये हैं, पुत्र के भी पुत्र हो गया है, तब विषयों से मुक्त होकर वह वन का आश्रम ले। डॉ. काणे ने लिखा है कि 50 वर्ष के लगभग की अवस्था हो जाने पर व्यक्ति संसार के सुख एवं वासनाओं की भूख से ऊब उठता था तथा वन की राह ले लेता था, जहाँ वह आत्म-निग्रही, तपस्वी, एवं निःअपराध जीवन व्यतीत करता था। शाब्दिक दृष्टि से वानप्रस्थ का अर्थ है, 'वन की ओर प्रस्थान करना।' स्पष्ट है कि 50 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने के बाद व्यक्ति अपने परिवार, नाते-रिश्तेदारों और समाज को छोड़कर जंगल में चला जाता है और मानव मात्र की सेवा में अपना समय लगाता है। वह 75 वर्ष की आयु तक इसी आश्रम में रहता है। वानप्रस्थी के लिए बताया गया है कि उसे जंगल में एक कुटिया बनाकर रहना चाहिए। वह जंगल में अकेला भी जा सकता है और अपनी पत्नी के साथ भी रह सकता है, घर से निकलकर जंगल में रहकर वह त्याग और तपस्यामय जीवन व्यतीत करता है और विषय-भोगों पर नियन्त्रण पाने का प्रयत्न करता है। वन में वह सरल, त्यागमय तथा सेवामय पवित्र जीवन बिताता है तथा अपने को प्रभु-चिन्तन में लगा देता है। वानप्रस्थी निष्काम भाव से कर्म करता है। वह विद्यार्थियों को निःशुल्क शिक्षा प्रदान करने के साथ-साथ उनके चरित्र-निर्माण और व्यक्तित्व के विकास में महत्वपूर्ण योग देता है।

इस आश्रम का मुख्य लक्ष्य व्यक्ति को संन्यास आश्रम के लिए तैयार करना रहा है और इसी बात को ध्यान में रखते हुए वानप्रस्थी के कर्त्तव्यों को निश्चित किया गया है। यहाँ वह सांसारिक सुखों से अलग होने की कोशिश करता है। यहाँ वह भोजन के रूप में कन्दमूल और फलों का सेवन करता है तथा वस्त्र के लिए मृगचर्म या पेड़ की छाल पत्ती को काम में लेता है। कुल्लूक भट्ट ने इन्द्रिय-संयम, सांसारिकता से विरक्ति, समता का भाव, जीवों के प्रति दया और शिक्षा द्वारा जीवन-निर्वाह वानप्रस्थी के मुख्य धर्म बताये हैं। वानप्रस्थी के लिए बताया गया है कि उसे जमीन पर सोना तथा घास-फूस से बनी कुटिया या पेड़ के नीचे रहना चाहिए। वह भीषण गर्मी में भी अग्नि के सम्मुख बैठकर यज्ञ करता है। यहाँ पर भी वह गृहस्थ आश्रम में किये जाने वाले पंच-महायज्ञों को जारी रखता है। भोजन के लिए भिक्षा के रूप में वह जो कुछ प्राप्त करता है, उसमें से दान देता है तथा अतिथियों का भी सत्कार करता है।

वानप्रस्थ आश्रम का महत्व वानप्रस्थ आश्रम का इस दृष्टि से विशेष महत्व रहा है कि इसके माध्यम से वैयक्तिक शुद्धि तथा सामाजिक कल्याण के उद्देश्यों की पूर्ति में काफी सहायता मिली है। 50 वर्ष की आयु में गृहस्थ त्यागकर वानप्रस्थी बन जाने से युवा पीढ़ी के लोगों को परिवार में सब प्रकार के अधिकार प्राप्त हो जाते थे। इससे पारिवारिक जीवन में संघर्ष को सम्भावना काफी कम हो जाती थी। ऐसी स्थिति में समाज को आर्थिक समस्या का भी सामना नहीं करना पड़ता था और बेकारी की समस्या भी उत्पन्न नहीं होती थी। वानप्रस्थी अपने जीवन के लम्बे अनुभवों और त्यागमय आदर्शों के आधार पर ब्रह्मचारियों को शिक्षा प्रदान करता, उनका मार्गदर्शन करता और उनके चरित्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था। वानप्रस्थ आश्रम एक ओर वानप्रस्थी के मानसिक विकास में योग देता, उसके जीवन को पवित्र बनाता और दूसरी ओर उसे सब प्रकार की सांसारिक चिन्ताओं से मुक्त करता, संसार के प्रति विरक्ति का भाव पैदा करता और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर चलने के लिए तैयार करता।

(4) संन्यास आश्रम

मनुस्मृति में बताया गया है कि आयु के तीसरे भाग को वन में व्यतीत करने के बाद आयु के चौथे भाग अर्थात् 75 वर्ष की आयु के पश्चात् वानप्रस्थी संसार को छोड़कर संन्यास आश्रम में प्रवेश करता था। अब वह सामाजिक और सांसारिक सम्बन्धों से पूर्णतया अलग हो जाता था। संन्यासी उसे ही माना गया है जो संसार का पूरी तरह त्याग कर चुका हो। संन्यास आश्रम में प्रवेश करने पर व्यक्ति अपना पुराना नाम भी त्याग देता और संन्यासी के रूप में नवीन नाम ग्रहण करता। इस आश्रम में संन्यासी के लिए एक ही पुरुषार्थ प्राप्त करना शेष रहता और वह है मोक्ष। इसकी प्राप्ति के लिए उसे सब कुछ त्यागना पड़ता है। वह स्वार्थी रूप से एक स्थान पर नहीं रहता, एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमता रहता है और लोगों को उपदेश देता रहता है। संन्यासी को अपने पास कुछ भी रखने की आज्ञा नहीं थी। वह जीवन-मृत्यु की चिन्ता से परे होता था। अपनी भोजन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वह दिन में केवल एक बार भिक्षा माँग सकता था। जो कुछ मिल जाता, उसी से उसे सन्तोष था, अधिक मिलने पर प्रसन्न नहीं होता और न मिलने पर दुःखी नहीं होता।

वायु-पुराण के अध्याय 8 में संन्यासी के दस कर्त्तव्य बताये गये हैं- भिक्षावृत्ति से भोजन प्राप्त करना, चोरी न करना, बाह्य तथा आन्तरिक पवित्रता रखना, प्रमादी न होना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, दया करना, प्राणियों के प्रति क्षमादान होना, क्रोध न करना, गुरु की सेवा करना तथा सत्य बोलना। मनु ने लिखा है कि संन्यासी को अपने पर पूर्ण संयम रखना चाहिए। उसे नीची दृष्टि रखकर चलना चाहिए, कपड़े से छानकर जल पीना चाहिए, सत्य से पवित्र करके वाणी का प्रयोग करना चाहिए एवं मन को पूर्ण पवित्र रखकर आचरण करना चाहिए। संन्यासी के लिए कहा गया है कि उसे सुख-दुःख का अनुभव नहीं करना चाहिए। संन्यासी संसार में रहता हुआ भी पारलौकिक जीवन में प्रवेश कर जाता था और निष्काम भाव से प्राणी मात्र के कल्याण में अपने को लगा देता था तथा मिट्टी और सोना उसके लिए समान थे। वह निष्काम भाव से कर्म करता हुआ प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को उत्तम बनाने में अपना अपूर्व योग देता था व इस आश्रम में आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न करता था।

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