सामान्य दशाओं में शिशु का जन्म एक स्वाभाविक शारीरिक प्रक्रिया होती है, किन्तु जब गर्भावस्था और प्रसवकाल में दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों का सामना करना पड़ता है तो शिशु जन्म एक संकटपूर्ण घटना का रूप ले लेता है। भारत की लगभग 68.8% जनसंख्या गाँवों में रहती है, जो आज भी अधिकांशतः अशिक्षित तथा अज्ञात होने के साथ-साथ रूढ़िवादी, रीति-रिवाजों से बंधी हुई है। उनके रहन-सहन, खाने-पीने, स्वच्छता, रोग व परिचर्या की व्यवस्था तथा माता व शिशु की विशिष्ट आवश्यकताओं के लिए सन्तुलित व पौष्टिक आहार का उन्हें ज्ञान नहीं होता जो शिशु और माता दोनों के जीवन तथा स्वास्थ्य पर कुठाराघात है।
आज के वैज्ञानिक युग की मान्यता है कि जिस बालक ने जन्म लिया है, उसकी अल्पकालिक मृत्यु का प्रश्न ही नहीं उठता। कहा जाता है कि किसी देश की बाल-मृत्यु की दर उस देश की सामाजिक व आर्थिक स्थिति का सर्वश्रेष्ठ सूचक है।
यदि भारत में बाल-मृत्यु की समस्या पर नजर डालें तो प्रतीत होगा कि यहाँ बाल-मृत्यु की दर बहुत अधिक है, जिसका समाधान करना अत्यन्त आवश्यक है।
वर्तमान में भारत में बाल मृत्यु (0-4 वर्ष) प्रति एक हजार पर 133 है।
शिशु मृत्यु (बाल मृत्यु ) के कारण
बाल मृत्यु के प्रमुख कारण निम्नलिखित है
1. बाल-विवाह
अशिक्षा और अज्ञानता के परिणामस्वरूप हमारे देश में 14-15 वर्ष की आयु में विवाह कर दिये जाते हैं। छोटी आयु में विवाह होने से काफी छोटी आयु की कन्याएँ माता बन जाती हैं। कम उम्र में उनके जनन-तन्त्र अपरिपक्व रहते हैं, ऐसी अवस्था में माताओं से उत्पन्न सन्तान कमजोर होती है और ऐसे बच्चे अधिक समय तक जिन्दा नहीं रहते। इसी कारण हमारे यहाँ बाल- मृत्यु-दर और मातृ-मृत्यु संख्या सदैव अन्य विकसित देशों से अधिक रही है।
2. माता की रुग्णता का प्रभाव
स्वस्थ माता ही स्वस्थ शिशु को जन्म दे सकती है, परन्तु जो माता हृदय रोग तथा तपेदिक जैसे भयंकर रोग से पीड़ित होगी, तो उसकी सन्तान भी प्रकृतिवत् उन रोगों से पीड़ित होगी।
3. अधिक सन्तान
निम्न वर्ग के स्त्री-पुरुषों को प्रायः परिवार नियोजन के बारे में जानकारी नहीं होती या वे लोग इसे धर्म- विरोधी समझते हैं, जिसके परिणामस्वरूप सन्तानों की संख्या में लगातार वृद्धि होती रहती है। वे उन्हें उचित वस्त्र तो क्या उनके लिए भोजन भी उपलब्ध नहीं करा पाते, जिससे उचित देखभाल के अभाव में शिशुओं की मृत्यु हो जाती है।
4. शिशु-कल्याणकारी संस्थाओं की निष्क्रियता
हमारे देश में अन्य देशों की तुलना में शिशु मृत्यु दर के अधिक होने का एक कारण यह भी है कि हमारे देश में शिशु एवं बाल-कल्याणकारी विभिन्न संस्थाएँ अधिक सक्रिय एवं सजग नहीं हैं। यदि इस प्रकार की संस्थाएँ सजग हों तथा उनकी सेवाएँ सर्वसुलभ हों तो अनेक शिशुओं को मृत्यु के मुँह में जाने से बचाया जा सकता है।
5. दोषयुक्त प्रसूतिका गृह
प्रसूतिका गृह की अव्यवस्था भी बाल-मृत्यु का एक कारण है। सम्पन्न परिवार में भी रूढ़िवादिता व छुआछूत के कारण प्रसव के लिए प्रायः घर का सबसे गन्दा व अन्धेरे वाला स्थान चुना जाता है, जहाँ पर किसी तरह की शुद्ध वायु भी नहीं आती। खिड़की, दरवाजे बिल्कुल बन्द कर दिये जाते हैं तथा सर्दी से बचाने के लिए उस बन्द कमरे में अँगीठी भी जलाकर रख दी जाती है, जिससे वहाँ का वातावरण बहुत अधिक प्रदूषित हो जाता है। अस्वच्छता व दुर्गन्ध तो वहाँ सदैव विद्यमान रहती ही है। परिणामतः बच्चों व माँ दोनों अस्वस्थ व रोगग्रस्त हो जाते हैं।
6. रूढ़िवादिता एवं अज्ञानता
भारत की अधिकांश जनता ग्रामों में रहती है, जहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य केन्द्रों तथा अस्पतालों का अभाव रहता है। अज्ञानता एवं दरिद्रता के साथ-साथ जन्म संख्या की बढ़ोत्तरी होती है, क्योंकि उन्हें परिवार नियोजन के नियमों का ज्ञान नहीं होता है। परिणामतः बच्चों को न भरपेट भोजन मिलता है, न कपड़े ही मिलते हैं, जिससे शिशु रोगी हो जाते हैं और मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।
7. सन्तुलित व पौष्टिक आहार न मिलना
निर्धनता तथा अज्ञानता के कारण गर्भवती स्त्रियाँ तथा स्तनपान कराने वाली माताओं को उचित व सन्तुलित भोजन नहीं मिल पाता। गर्भवती स्त्री को साधारण स्त्री की अपेक्षा अधिक पोषक तत्त्वों की आवश्यकता होती है, परन्तु वे उससे वंचित रहती हैं। स्तनपान करने वाला शिशु भी माता से ही भोजन प्राप्त करता है। यदि माता को उचित भोजन नहीं मिलता तो स्तनों में दूध कम बनता है, जिससे शिशु कमजोर हो जाता है। परिणामतः शिशु व माता दोनों अस्वस्थ रहते हैं तथा रोग से शीघ्र ही प्रभावित होने के कारण कभी-कभी शिशु की मृत्यु तक हो जाती है।
8. निर्धनता
बच्चों की अकाल मृत्यु का कारण उनके माता-पिता की निर्धनता भी है। निर्धनता भारतीय ग्रामीण जनता का अभिशाप है। निर्धनता के कारण गर्भवती महिला व नवजात शिशुओं को उचित व पौष्टिक भोजन नहीं मिल पाता। धन के अभाव के कारण ही नवजात शिशुओं को उनकी आवश्यकतानुसार वस्त्र भी नहीं मिलते और उचित चिकित्सा का भी अभाव रहता है। इसलिए धन के अभाव के कारण कभी-कभी तो प्रसव के समय ही माता व शिशु दोनों ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त जन्म के उपरान्त भी किसी रोग जैसे- पीलिया अथवा आहार की कमी के कारण शिशु की मृत्यु हो जाती है।
9. गन्दगी
निर्धन परिवार स्वच्छता के लाभों से वंचित रहते हैं। प्रसव के समय प्रायः अप्रशिक्षित दाइयों द्वारा ही प्रसव कराया जाता है। यह कार्य उन्हें गन्दे वातावरण में ही करना पड़ता है, जिसमें रोगग्रस्त होने की आशंका बनी रहती है और प्रसव के समय हुए किसी भी गम्भीर संक्रमण के कारण प्रायः नवजात शिशु की मृत्यु तक हो जाती है।
10. गर्भावस्था की असावधानी
गर्भावस्था की असावधानी भी शिशु के जीवन संकट का कारण बन जाती है। गर्भस्थ शिशु माता के रक्त से ही पोषक तत्त्व प्राप्त करता है। यदि माता पहले से ही रोगी हो तो बच्चे भी रोग से प्रभावित होकर काल-कवलित हो जाते हैं। तपेदिक तथा एड्स जैसे रोग माँ से शिशु में संक्रमित हो जाते हैं।
11. शिशु का निश्चित समय में पूर्व जन्म लेना
भारत में प्रायः 50% बालक निश्चित समय से पूर्व ही जन्म ले लेते हैं तथा कमजोर व अर्द्ध-विकसित होने के कारण मृत्यु का शिकार हो जाते हैं। उनका समय से पूर्व जन्म लेना माता को अपर्याप्त भोजन, माता की शक्तिहीनता, गर्भस्थ शिशु की उचित देखभाल न होना, प्रसवकालीन तथा प्रसव के पश्चात् शिशु व माता की उचित देख-भाल न होना आदि कारण हो सकते हैं, जो शिशु की जीवन रक्षा नहीं कर पाते।
12. गर्भवती को असन्तुलित व पर्याप्त पौष्टिक भोजन न मिलना
भारत के ग्रामीण अधिकांशतया निर्धन हैं। यह निर्धनता उनके साथ वर्षों से चली आ रही है और आज भी यह एक समस्या ही बनी हुई है। इसका सीधा प्रभाव उनके स्वास्थ्य को गिराने में मुख्य भूमिका अदा करता है। साधारण रूप से सामान्य व्यक्ति को भी पर्याप्त प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स, विटामिन व खनिज लवण युक्त भोजन की आवश्यकता होती है, जबकि गर्भवती के भोजन में इसकी मात्रा लगभग दुगुनी हो जानी चाहिए, जो अपने शरीर में एक अन्य शिशु का भी पोषण करती है, किन्तु ऐसी स्थिति में क्या सोचा जाय, जबकि उन्हें स्वयं पौष्टिक या कभी-कभी भरपेट भोजन भी प्राप्त होना कठिन हो जाता है। यही कारण है कि अपर्याप्त तथा अपौष्टिक भोजन के कारण बच्चे गर्भ में पूर्ण विकसित नहीं होने पाते तथा वे गर्भ में ही अथवा जन्म के कुछ समय पश्चात् विभिन्न रोगों से पीड़ित होकर काल कवलित हो जाते हैं।
13. प्रसव से पूर्व असावधानियाँ
चिकित्सा क्षेत्र में इस ओर काफी अनुसंधान हो चुका है कि प्रसव काल से पूर्व की असावधानियाँ भी शिशु के जीवन संकट का कारण बन जाती हैं। इन असावधानियों में माता का स्वास्थ्य, उचित परामर्श, चिकित्सा का अभाव व अज्ञानता आदि को लिया जा सकता है।
1. माता का स्वास्थ्य- गर्भस्थ शिशु माता के रक्त से ही पोषक तत्व प्राप्त करता है। यदि माता पहले से ही कमजोर व रोगी होगी तो वह कदापि स्वस्थ बच्चे को जन्म नहीं दे सकेगी। यदि किसी प्रकार उनका जन्म भी हो जाता है तो माँ का अस्वस्थ दूध पीकर उनकी स्थिति और भी अधिक चिन्ताजनक हो जाती है। यह तथ्य है कि रोगी माता-पिता की सन्तान भी रोगी होगी, जिनको रोगक्षमता के अभाव के कारण जीवन-काल बहुत थोड़ा ही होता है।
2. उचित परामर्श व चिकित्सा का अभाव- पूर्व में बताया जा चुका है कि ग्रामीण माताएँ अत्यधिक रूढ़िवादी होती हैं। स्वस्थ शिशु को जन्म देने के लिए जिन बातों की आवश्यकता होती है जैसे- गर्भावस्था में पौष्टिक तत्त्वयुक्त भोजन प्राप्त होना, जिससे गर्भस्थ शिशु का भली-भाँति पोषक हो सके, माता के शरीर में रक्त की कमी या अन्य कोई गर्भ सम्बन्धी विकार न होना आदि के लिए माताओं को न तो उचित परामर्श मिलता है न ही उचित चिकित्सा सुविधा। वे गर्भावस्था को भी एक साधारण स्थिति समझकर जैसे-तैसे शिशु को जन्म दे देती हैं। इसका परिणाम नवजात शिशु के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल ही पड़ता है।
3. अज्ञानता- आज हमारी ग्रामीण जनता अज्ञानता के स्तर से गुजर रही है क्योंकि यहाँ शिक्षा का अत्यन्त अभाव है। आज आधुनिक चिकित्सा पद्धति की रोशनी ग्रामों को आलोकित नहीं कर पायी है। अतः आधुनिक चिकित्सा पद्धति का जहाँ शिक्षित महिलाओं व शहरी महिलाओं को लाभ मिल जाता है वहीं ग्रामीण महिलाएँ इन सुविधाओं से वंचित रह जाती हैं। वे अपनी पुरानी रूढ़िवादी पद्धतियों को ही अपनाने में अपना भला समझती हैं।
यह समस्या केवल ग्रामों तक ही सीमित नहीं है। नगरों में भी सभी व्यक्ति न तो शिक्षित होते हैं न ही ज्ञानवान, अतः अज्ञानता की दृष्टि से नगरों की स्थिति को भी सन्तोषजनक नहीं कहा जा सकता। यद्यपि आज बालिकाओं को शिक्षा के माध्यम से वैवाहिक जीवन, सन्तान-पालन, स्वच्छता, शरीर रचना, गर्भाधान, प्रसवकालीन सावधानियों से परिचित कराने के लिए पूरे प्रयत्न किये जाते हैं, किन्तु लाखों बालिकाएँ अल्प शिक्षा ही प्राप्त कर पाती हैं जो भविष्य में अज्ञानता के कराण अपना व शिशु का भविष्य अन्धकार में डालती रहती है।
4. प्रसव की दोषयुक्त पद्धति- आजकल प्रत्येक शहरों व कस्बों में अस्पतालों द्वारा प्रसव की सुरक्षित विधि प्रदान की जाती है, किन्तु ग्रामों में अब भी लोग रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास के कारण शताब्दियों पूर्व के रिवाजों का अनुसरण करते हैं तथा अप्रशिक्षित दाइयों द्वारा घर में प्रसव कराती हैं। इन्हें न तो प्रसव कराने की उचित विधि का ही ज्ञान होता है, न ही स्वच्छता का। रसोई के गन्दे चाकू से नाल काटना, गन्दे वस्त्रों व कपड़ों का प्रयोग, गन्दा मैला-कुचैला बदबूदार बिस्तर आदि न केवल शिशु के प्राण संकट में डालता है, बल्कि माता को भी संक्रमण आदि से ग्रस्त करता है।
यदि कोई प्रसव असामान्य है तो निश्चित ही दाइयाँ माता व शिशु दोनों के प्राण ले लेती हैं क्योंकि उनके पास इस स्थिति से निबटने के लिए कोई साधन नहीं होता। यदि किसी प्रकार दोनों जीवित बच भी गये तो उन्हें टिटनेस अथवा माता को जननांगों सम्बन्धी ऐसी व्याधियाँ लग जाती हैं जो जीवन भर उनका पीछा नहीं छोड़तीं। इन व्याधियों में गर्भाशय की क्षति, जनन मार्ग में संक्रमण, गर्भाशय का बाहर निकलना आदि गुख्य है।
5. दोषयुक्त निवास- स्थान-प्रसव की दोषपूर्ण पद्धति के अतिरिक्त सम्पन्न परिवारों में भी रूढ़िवादिता व छुआछूत के कारण प्रसव के लिए प्रायः घर का सबसे निकृष्ट व अन्धेरेवाला स्थान चुना जाता है, जहाँ किसी प्रकार शुद्ध वायु का प्रवेश नहीं हो सकता, बल्कि हवा बिल्कुल भी न आये इसलिए उसके खिड़की-दरवाजे, बिल्कुल बन्द कर दिये जाते हैं तथा सदर्दी से बचाने के लिए उसे बन्द कमरे में अँगीठी भी जलाकर रख दी जाती है, जिससे वहाँ का रहा-सहा वातावरण भी दूषित हो जाता है। अस्वच्छता व दुर्गत्व का तो साम्राज्य रहता ही है। परिणाम यह होता है कि बच्चा व माँ दोनों ही अस्वस्थ व रोगग्रस्त हो जाते हैं।
6. पाचन व श्वास नली में अवरोध- बाल-मृत्यु या जन्म के बाद शीघ्र मृत्यु का एक बड़ा कारण यह भी होना है कि बच्चों को प्रायः गले व श्वास नली में अवरोध हो जाता है, जिससे शिशुओं की मृत्यु भी हो जाती है। यह स्थिति गर्भ में बच्चे का पूर्ण पोषण न होना, जन्म के बाद , गले व नाक की श्लेष्मा भली-भांति न निकालना अथवा संक्रमण के कारण हो सकती है।
7. माँ व बच्चे के पोषण में कमी- सर्वप्रथम गर्भवती माता को ही सामान्य स्थिति की अपेक्षा अधिक प्रोटीन, विटामिन तथा खनिज लवण आदि की आवश्यकता होती है, जिसके द्वारा बच्चे का भी भली-भाँति पोषण होता रहता है, किन्तु निर्धनता, अज्ञानता आदि के कारण भोजन में पर्याप्त पोषक तत्वों के अभाव के कारण रोगी, अविकसित या विकलांग बच्चे जन्म लेते हैं, जिनमें से अधिकांश की तो मृत्यु ही हो जाती है, शेष अपना बोझस्वरूप जीवन जीने को विवश हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त प्रसव के बाद भी ग्रामीण माताओं को ऐसा भोजन प्राप्त नहीं होता जो उनका व नवजात शिशु का भली प्रकार परोषण कर सके बल्कि यह तो सामान्य स्थिति है कि माता को भरपूर दूध भी नहीं होता, अतः वे परेशान होकर 4-6 महीने बाद ही बच्चों को रोटी आदि खिलाना आरम्भ कर देती हैं। फलस्वरूप उन्हें जिगर, अनीमिया व रिकेट्स आदि बीमारियाँ घेर लेती हैं।
8. अधिक सन्तानें- अज्ञानता व निर्धनता एक अन्य समस्या को भी जन्म देती है, वह है अधिक सन्तानोत्पत्ति। निम्न वर्ग की महिलाएँ कितना ही कष्ट उठायें, उनके बच्चे रोगी रहें, उन्हें भर पेट दूच तो क्या भोजन भी न मिले, किन्तु सन्तान वृद्धि को रोकना वे पाप के समान समझती हैं। 'छोटा परिवार सुखी परिवार' के सिद्धान्त को वे किसी प्रकार समझना ही नहीं चाहतीं, बल्कि बच्चे उत्पन्न करना, मरना व जीना सब ईश्वर की कृपा समझती हैं और परेशान होकर भी जनसंख्या बढ़ाने में अपना गौरव समझती हैं।
सरकार ने परिवार नियोजन कार्यक्रम के लिए बहुत प्रचार व प्रसार किया है, किन्तु इसका अधिकांश लाभ मध्यमवर्गीय परिवारों को ही अधिक प्राप्त हुआ है। परिणाम यह हुआ है कि पढ़े-लिखे मध्यम परिवारों में बच्चों की संख्या कम हुई है, किन्तु निर्धन, अशिक्षित जनता अभी भी अबाध गति से सन्तानोत्पादन किये जा रही है। इसका प्रमाण उस समय मिलता है जब आप एक भिखारिणी को गोद व पेट सहित 6-7 बच्चों के साथ देखती हैं।
9. बाल-विवाह- अधिक जनसंख्या का बाल- विवाह से सीधा सम्बन्ध है। आज शिक्षित समाज को छोड़कर शेष अधिकांश लोग आज के अत्याधुनिक युग में भी बाल-विवाह जैसी कुप्रथा को गले लगाये हुए हैं। सरकार की ओर से बाल-विवाह एक दण्डनीय अपराध भी घोषित किया जा चुका है, किन्तु ग्रमों में अब भी 8-10 वर्ष में ही नहीं, बल्कि अबोध बच्चों के विवाह कर दिये जाते हैं जिन्हें विवाह या सन्तानोत्पादन का सही अर्थ भी नहीं मालूम होता। परिणाम यह होता है कि अपरिपक्व अवस्था से ही बालिकाएँ सन्तान उत्पन्न करने लगती हैं जिससे अपरिपक्व, रोगी, अस्वस्थ, विकलांग या मृत बच्चे अधिक जन्म लेते हैं। ये छोटी-छोटी अबोध बालिकाएँ जिन्हें अपने स्वास्थ्य का भी ज्ञान नहीं होता वे, अविकसित बच्चे के साथ अपना जीवन भार स्वरूप बोती रहती हैं।
वास्तव में निर्धन वर्ग अपनी आर्थिक समस्या का समाधान बाल-विवाह में ढूँढ़ता है जो भविष्य में उसके लिए तथा उसकी सन्तान दोनों के लिए समाधान की बजाय एक समस्या बन जाता है।
10. निर्धनता- निर्धनता भारतीय ग्रामीण जनता का एक अभिशाप है। सरकार की विभिन्न आर्थिक योजनाओं के बाद भी यहाँ की अधिकांश जनता अपनी गरीबी रेखा से ऊपर नहीं पहुँच पायी है। जनसंख्या वृद्धि की समस्या सुरसा के मुँह की भाँति फैलती जा रही है।
वास्तविकता यह है कि निर्धनता अधिक जनसंख्या वृद्धि को जन्म देती है और जनसंख्या वृद्धि निर्धनता को। यह विचारणीय बात है कि जिन लोगों को भरपेट भोजन, तन ढकने के वस्व तथा सिर छिपाने के लिए छत नसीब नहीं होती, वह चाहते हुए भी अपने व शिशुओं तथा बालकों के लिए पौष्टिक भोजन की व्यवस्था कैसे कर सकते हैं? भारत के आंकड़ों से पता लगता है कि पोषक आहार के अभाव में प्रतिवर्ष 10,00,000 बच्चों की मृत्यु हो जाती है। ये बच्चे भोजन के अभाव में सूख-सूखकर रोगग्रस्त होने व मरते रहते हैं।
शिशु मृत्यु (बाल मृत्यु ) पर नियन्त्रण के उपाय
बाल-मृत्यु के नियन्त्रण में निम्न उपाय सहायक हो सकते हैं
1. जनता के जीवन स्तर में सुधार
अधिकांश भारतीय जनता का जीवन स्तर अत्यन्त असन्तोषप्रद है। सरकार को चाहिए कि ऐसे उपाय किये जायें व लघु उद्योगों को विकसित किया जाय जिससे निर्धन जनता को पर्याप्त भोजन, वस्त्र तथा रहने के लिए स्वच्छ आवास प्राप्त हो सके। यह देश के प्रत्येक नागरिक की मूल आवश्यकता है जिसे सरकार को पूरा करना ही चाहिए तथा इसके लिए बड़े- बड़े उद्योगपतियों, समाजसेवी संस्थाओं को भी सहयोग करना चाहिए। जीवन स्तर में सुधार होने पर उनमें शिक्षा के लिए भी रुचि उत्पन्न होगी, जिसका अप्रत्यक्ष प्रभाव न्यून जनसंख्या तथा स्वस्थ बच्चों के रूप में सामने आयेगा।
घनी आबादी भी बहुत कुछ रहन-सहन के निम्न स्तर और संख्या में अधिक बालकों के लिए उत्तरदायी है। परिवार नियोजन की भावना यदि निर्धन परिवारों में जग जाय तो देश का उत्थान अवश्य होगा।
2. शिक्षा का प्रसार
शिक्षा व्यक्ति की अज्ञानता, अन्धविश्वास व रूढ़िवादिता को दूर करने तथा उनमें जागृति उत्पन्न करने का मुख्य साधन है। शिक्षा के द्वारा उनके अज्ञान को दूर किया जा सकता है तथा माताओं को गर्भधारण, शिशु सुरक्षा, मातृ सुरक्षा, पूर्व प्रसव तथा प्रसव के बाद की जानलेवा परिचर्या की आवश्यक जानकारी भी दी जा सकती है।
3. स्वास्थ्य तथा प्रसव केन्द्रों की स्थापना
हमारे देश के प्रामीण अंचलों में स्वास्थ्य व प्रसव केन्द्रों का पर्याप्त अभाव है। यच्चापि भारत सरकार ने बाल व मातृ कल्याणकारी विभिन्न योजनाएँ चलायी हैं, किन्तु ग्रामीण व पिछड़े क्षेत्रों के लोगों की इसकी सुविधा नहीं मिल पाती। अतः इन क्षेत्रों में ये स्थान खोले जायें। जहाँ ग्रामीण स्वियों को स्वास्थ्य, गर्भकालीन, प्रसवकालीन तथा शिशु पालन की शिक्षा दी जाय। इस कार्य में चल-चित्र, भाषणों व पोस्टरों आदि से सहायता ली जा सकती है। किन्तु कार्यकर्ताओं को घर-घर, मुहल्ले-मुहल्ले भेजकर लोगों को उसकी जानकारी देना चाहिए। पृथक् से भी प्रसव केन्द्र बनाये जाने चाहिए जहाँ गरीबों को मुफ्त प्रसव क्रिया सुविधा, कम-से-कम 3-4 दिन प्रसूता को मुफ्त पोषक आहार व दवा आदि की व्यवस्था हो।
4. प्रशिक्षित डॉक्टर एवं नर्स
इस केन्द्र में प्रशिक्षित डॉक्टर, नर्स तथा प्रसव सम्बन्धी आवश्यक सुविधाओं की उपलब्धि की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे गंवार व अनुभवहीन दाइयों के चंगुल में माताएँ व शिशु न पड़ सकें।
5. गर्भवती व शिशु का भोजन
भारत में बाल-मृत्यु व मातृ-मृत्यु का एक मुख्य कारण उन्हें पौष्टिक भोजन का अभाव भी है। विभिन्न सम्पन्न देशों में साधनहीन गर्भवती को अन्तिम महीनों में सरकार की ओर से मुफ्त या न्यूनतम मूल्य पर पौष्टिक आहार देने की व्यवस्था होती है। भारत में भी अस्पतालों में ऐसी व्यवस्था है, किन्तु भ्रष्टाचार की आड़ में इसका अधिकांश भाग वहाँ के कर्मचारियों के पास चला जाता है, बेचारी जरूरतमन्द माताएँ इस सुविधा से वंचित रह जाती हैं।
6. परिवार नियोजन
भारत में बाल-मृत्यु दर कम करने तथा मातृ-सुरक्षा के लिए परिवार नियोजन कार्यक्रम विशाल पैमाने पर प्रसारित करने की आवश्यकता है। यद्यपि आजकल दूरदर्शन केन्द्र भी इस ओर प्रशंसनीय भूमिका अदा कर रहा है, किन्तु हम यह सोचने के लिए बाध्य हैं कि कितने ग्रामीणों तथा शहरी निर्धनों को दूरदर्शन की सुविधा प्राप्त है। अतः इस प्रकार की सार्वजनिक योजनाओं को लागू करने के साथ-साथ सरकार को यह भी ध्यान देना होगा कि इनका लाभ कितने जरूरतमन्द लोगों को प्राप्त हो रहा है। भारत जैसे गरीब देश में घर-घर में परिवार नियोजन कार्यक्रम लागू करना अत्यन्त कठिन कार्य है, किन्तु एक समस्या से अनेक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। इसलिए शिक्षा तथा प्रचार के द्वारा इस दिशा में तेजी लाने की आवश्यकता है।