शैक्षिक अवसरों की समानता : Equalization of Educational Opportunities

शैक्षिक अवसरों की समानता का अर्थ

शैक्षिक अवसरों की समानता का सामान्य अर्थ हैं देश के सभी बच्चों को बिना किसी भेद-भाव के शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर और समान सुविधाएँ प्रदान करना। परन्तु समान अवसर और समान सुविधाओं के सम्बन्ध में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कुछ विद्वान शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर और समान सुविधाओं से अर्थ देश के सभी बच्चों के लिए एक समान शिक्षा अर्थात् समान पाठ्यक्रम से लेते हैं। 

अतः आप ही विचार करें कि विविधता के इस देश भारत में ऐसा कैसे हो सकता है! फिर सामान्य शिक्षा तो सबके लिए समान हो सकती है और होती भी है परन्तु विशिष्ट शिक्षा तो बच्चों की रुचि, रुझान, योग्यता और क्षमता के आधार पर ही दी जा सकती है। इसके विपरीत कुछ विद्वान इसका अर्थ शिक्षा संस्थाओं के समान रूप से लेते हैं, वे सरकारी, गैरसरकारी और पब्लिक स्कूलों के भारी अन्तर को समाप्त करने के पक्ष में हैं। 

और इनका तर्क है कि उसी स्थिति में सभी को शिक्षा के समान अवसर मिल सकते हैं अन्यथा धनी वर्ग के बच्चे पब्लिक स्कूलों की अच्छी शिक्षा प्राप्त करते रहेंगे और निर्धन वर्ग के बच्चे सरकारी एवं गैरसरकारी स्कूलों को निम्न स्तर की शिक्षा ही प्राप्त कर सकेंगे। आप ही विचार करें कि लोकतन्त्र में ऐसा कैसे किया जा सकता है। आवश्यकता है निर्धन वर्ग के मेधावी छात्रों के लिए अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करने की, न कि अच्छी शिक्षा संस्थाओं को बन्द करने की। इनके विपरीत कुछ विद्वान शैक्षिक अवसरों की समानता से अर्थ शिक्षा के किसी भी स्तर पर सभी बच्चों को प्रवेश की सुविधा प्रदान करने से लेते हैं। 

और इनका तर्क है कि शिक्षा मनुष्य का मौलिक अधिकार है। परन्तु यह धारणा भी गलत है, अधिकार के साथ कर्तव्य जुड़ा होता है। समान अवसरों के पीछे समान योग्यता एवं समान क्षमता का भाव निहित है। जहाँ तक अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की बात है उसके अवसर तो सभी को सुलभ कराना आवश्यक है परन्तु उससे आगे की शिक्षा के अवसर योग्यता एवं क्षमता के आधार पर ही सुलभ कराने चाहिए।

सच बात यह है कि शैक्षिक अवसरों की समानता का विचार लोकतन्त्र को देन है। लोकतन्त्र स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व के सिद्धान्तों पर आधारित है। यह सामाजिक न्याय का पक्षधर है। यह व्यक्ति के व्यक्तित्व का आदर करता है और प्रत्येक व्यक्ति को अपने विकास के स्वतन्त्र अवसर प्रदान करता है। लोकतन्त्रीय इस भावना के आधार पर सर्वप्रथम 1870 में ब्रिटेन में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य किया गया और उसे सर्वसुलभ बनाया गया। 

उसके बाद यूरोप के अन्य देशों में भी एक निश्चित स्तर तक की शिक्षा को अनिवार्य किया गया और सर्वसुलभ बनाया गया। भारत में इस प्रकार का विचार सर्वप्रथम ब्रिटिश शासन काल में उठा। 15 अगस्त, 1947 को हमारा देश स्वतन्त्र हुआ और 26 जनवरी, 1950 को हमारे देश में हमारा अपना संविधान लागू हुआ। इस सन्दर्भ में हमारे संविधान में दो घोषणाएँ की गई हैं। संविधान के अनुच्छेद 45 में यह घोषणा की गई है कि राज्य इस संविधान के लागू होने के समय से 10 वर्ष के अन्दर 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों की अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करेगा और इसके अनुच्छेद 29 में यह घोषणा की गई है कि राज्य द्वारा पोषित अथवा आर्थिक सहायता प्राप्त किसी भी शिक्षा संस्था में किसी भी बच्चे को धर्म, मूल, वंश अथवा जाति के आधार पर प्रवेश से वंचित नहीं किया जाएगा।

हमारे देश में इस समस्या पर सर्वप्रथम विचार किया कोठारी आयोग (1964-66) ने। उसने सुझाव दिया कि शैक्षिक अवसरों की समान सुविधा प्रदान करने के लिए सर्वप्रथम 6 से 14 आयुवर्ग के बच्चों की कक्षा । से 8 तक की शिक्षा अनिवार्य एवं निःशुल्क की जाए और किसी भी वर्ग के बच्चों की इस शिक्षा प्राप्त करने में आने वाली कठिनाइयों को दूर किया जाए। साथ ही देश के सभी वर्ग के बच्चों, युवकों और प्रौढ़ों के लिए उनकी रुचि, रुझान, योग्यता और आवश्यकतानुसार इससे आगे की (माध्यमिक, उच्च, प्रौढ़ और सतत्) शिक्षा को व्यवस्था की जाए और किसी भी वर्ग के बच्चों, युवकों और प्रौढ़ों की इस शिक्षा प्राप्त करने में आने वाली कठिनाइयों को दूर किया जाए। बस यहीं से हमारे देश में शैक्षिक अवसरों की समानता का एक नया अर्थ शुरु हुआ। 

और इस प्रकार से हम इसे हम निम्नलिखित रूप में भाषाबद्ध कर सकते हैं- शैक्षिक अवसरों की समानता का अर्थ है राज्य द्वारा देश के सभी बच्चों के लिए स्थान, जाति, धर्म अथवा लिंग आदि किसी भी आधार पर भेद किए बिना एक निश्वित स्तर तक की शिक्षा अनिवार्य एवं निःशुल्क रूप से सुलभ कराना और उनकी इस शिक्षा प्राप्त करने में आने वाली कठिनाइयों का निवारण करना। साथ ही देश के सभी बच्चों और युवकों को इससे आगे की शिक्षा उनकी रुचि रुझान, योग्यता, क्षमता और आवश्यकतानुसार सुलभ कराना और उनकी इस शिक्षा प्राप्त करने में आने वाली कठिनाइयों का निवारण करना।

शैक्षिक अवसरों की समानता की आवश्यकता

आज पूरा संसार मानवाधिकार के प्रति सचेत है। संसार के सभी देशों में शिक्षा को मानव का मूल अधिकार माना गया है। तब किसी भी देश में सभी को शिक्षा प्राप्त करने की समान सुविधाएँ होनी चाहिए। लोकतन्त्रीय देशों में तो यह और भी अधिक आवश्यक है, बिना इसके लोकतन्त्र अर्थहीन है। हमारे लोकतन्त्रीय देश में तो इसकी और अधिक आवश्यकता है, कारण स्पष्ट हैं।

1. लोकतन्त्र की रक्षा के लिए 

लोकतन्त्र की सफलता उसके नागरिकों पर निर्भर करती है, उसके नागरिकों की योग्यता और क्षमता पर निर्भर करती है; और नागरिकों की योग्यता एवं क्षमता निर्भर करती है शिक्षा पर। अतः देश के प्रत्येक नागरिक को शिक्षित करना आवश्यक है। और इस क्षेत्र में हमारे देश की स्थिति बड़ी चुनौतीपूर्ण है। पहली बात तो यह है कि इसकी जनसंख्या बहुत अधिक है और साधन अपेक्षाकृत बहुत कम हैं। दूसरी बात यह है कि देश की आधे से अधिक जनता निर्धन है, अपने बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था करने में असमर्थ है। तीसरी बात यह है कि वर्तमान (2010) में इसकी लगभग 50% जनसंख्या गाँवों में रहती है, दूर-दराजों में रहती है, इनमें रेगिस्तानी, पहाड़ी और जंगली क्षेत्रों में भी रहने वालों की बहुत बड़ी संख्या है। परिणाम यह है कि शिक्षा सर्वसुलभ नहीं है। अतः आवश्यक है कि हम उपेक्षित, निर्धन और दूर-दराज में रहने वालों को शिक्षा सुविधाएँ प्रदान करें, उन्हें लोकतन्त्रीय मूल्यों का ज्ञान कराएँ और उनमें सोचने-समझने और निर्णय लेने की शक्ति का विकास करें। तभी देश में लोकतन्त्र सफल हो सकता है।

2. व्यक्ति के वैयक्तिक विकास के लिए 

लोकतन्त्र व्यक्ति के व्यक्तित्व का आदर करता है और प्रत्येक व्यक्ति को अपने विकास के स्वतन्त्र अवसर प्रदान करता है। और हमारे देश की स्थिति यह है कि इसकी आधे से अधिक जनसंख्या पिछड़ी है, निर्धन है, अच्छी शिक्षा से वंचित है। यदि हम सचमुच अपने देश के प्रत्येक व्यक्ति को अपने विकास के अवसर प्रदान करना चाहते हैं तो पहली आवश्यकता यह है कि सभी को शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर एवं सुविधाएँ प्रदान करें।

3. वर्ग भेद की समाप्ति के लिए 

स्वतन्त्रता प्राप्ति से पहले हमारे देश में शिक्षा उच्च वर्ग तक सीमित थी, परिणाम यह हुआ कि इस देश में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उच्च वर्ग का अधिकार बढ़ता गया और निम्न वर्ग के व्यक्ति और पिछड़ते गए और वर्ग भेद बढ़ता गया। लोकतन्त्र इस प्रकार के सामाजिक और आर्थिक वर्ग भेद का विरोधी है। इस वर्ग भेद की समाप्ति के लिए सभी वर्गों के बच्चों एवं युवकों को शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर एवं सुविधाएँ प्राप्त कराना आवश्यक है। हमारे संविधान के अनुच्छेद 29 में स्पष्ट रूप से घोषणा की गई है कि राज्य द्वारा पोषित अथवा आर्थिक सहायता प्राप्त किसी भी शिक्षा संस्था में किसी भी नागरिक को धर्म, मूल, वंश अथवा जाति के आधार पर प्रवेश से वंचित नहीं किया जाएगा।

4. समाज के उन्नयन के लिए 

लोकतन्त्र सामाजिक वर्गभेद का विरोधी है, वह पूरे राष्ट्र को एक समाज मानता है और उसे सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज के रूप में विकसित करने में विश्वास करता है और यह तब तक सम्भव नहीं है जब तक देश के प्रत्येक नागरिक को शिक्षित नहीं किया जाता। इसके लिए हमारे देश में शैक्षिक अवसरों की समानता की बहुत आवश्यकता है।

5. राष्ट्र के आर्थिक विकास के लिए 

किसी राष्ट्र का आर्थिक विकास दो तत्त्वों पर निर्भर करता है-प्राकृतिक संसाधन और मानव संसाधन। जहाँ तक प्राकृतिक संसाधनों की बात है यह तो प्रकृति की देन है, परन्तु मानव संसाधन का विकास शिक्षा द्वारा होता है। और जिस राष्ट्र में जितनी अधिक और उत्तम प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था होती है, वह राष्ट्र उतनी ही तेजी से आर्थिक विकास करता है। अतः आवश्यक है कि हम जिन तक शिक्षा नहीं पहुँचा पा रहे हैं उन तक शिक्षा पहुँचाएँ, और उनके शिक्षा प्राप्त करने के मार्ग में जो कठिनाइयाँ आएँ उन्हें दूर करें। यही शैक्षिक अवसरों की समानता का अर्थ है।

भारत में शैक्षिक अवसरों की असमानता

भारत में शिक्षा के क्षेत्र में कई प्रकार की असमानता है अतः यहाँ उन सबका संक्षेप में वर्णन प्रस्तुत है।

1. प्रान्त-प्रान्त की शिक्षा में असमानता 

भारत विभिन्न प्रान्तों में बँटा हुआ है और अपने-अपने क्षेत्र में शिक्षा की व्यवस्था करना प्रान्तों का अपना उत्तरदायित्व है। यूँ कहने को पूरे देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के अनुसार 10+2+3 शिक्षा संरचना लागू कर दी गई है, परन्तु वास्तविकता यह है कि प्रथम 10 वर्षीय आधारभूत पाठ्यचर्या (Core Curriculum) का ईमानदारी से पालन नहीं किया गया है। इस पाठ्यचर्या की मूल बात त्रिभाषा सूत्र और कार्यानुभव अथवा समाजोपयोगी उत्पादक कार्य अथवा कार्य शिक्षा हैं। 

प्रान्तीय सरकारों ने इन्हें अपने-अपने रूप में लिया है। और मजे की बात यह है कि कुछ प्रान्तों में तो अंग्रेजी को अनिवार्य किया गया है। +2 पर भी भिन्न-भिन्न प्रान्तों में भिन्न-भिन्न व्यवस्था है। +3 पर तो विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता है ही। इतना ही नहीं अपितु किसी प्रान्त में सभी स्तर की शिक्षा निःशुल्क है; जैसे-कश्मीर में और किसी में केवल प्राथमिक शिक्षा ही निःशुल्क है। वर्तमान (2010) में एक प्रदेश में तो लड़कों की कक्षा 10 तक की और लड़कियों की स्नातक स्तर तक की शिक्षा निःशुल्क है। इसका अर्थ है कि सम्पूर्ण भारतवासियों को शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं हैं।

2. प्रान्त विशेष की शिक्षा में असमानता

हमारे देश में किसी प्रान्त के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की शिक्षा में भी अन्तर है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रायः प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर तक ही शिक्षा उपलब्ध है और जहाँ कहीं माध्यमिक स्तर की शिक्षा सुलभ भी है उसका स्तर नगरीय माध्यमिक शिक्षा की तुलना में कुछ निम्न कोटि का है। बड़े-बड़े नगरों और ग्रामीण अंचलों के शैक्षिक पर्यावरण में तो बहुत अधिक अन्तर है।

3. शिक्षण संस्थाओं का असमान वितरण 

बच्चों के लिए स्कूल और कॉलिजों की संख्या भी कहीं आवश्यकता से अधिक, कहीं आवश्यकता से बहुत कम और कहीं बिल्कुल ही नहीं है। किसी क्षेत्र में सरकारी और गैरसरकारी दोनों प्रकार के स्कूल और कॉलिज हैं और कहीं किसी भी प्रकार के स्कूल और कॉलिज नहीं हैं। महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों की स्थापना तो राजनैतिक दबाव पर ही की जाती है।

4. लड़के-लड़कियों की शिक्षा संस्थाओं में असमानता 

हमारे देश में प्राथमिक और उच्च स्तर पर तो सहशिक्षा की व्यवस्था है, परन्तु उच्च प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग सकूलों की व्यवस्था की जाती है। बड़े अफसोस की बात है कि देश के अधिकतर प्रान्तों में लड़कों के स्कूलों की अपेक्षा लड़कियों के स्कूलों की संख्या बहुत कम है जबकि जनसंख्या की दृष्टि से यह बराबर होनी चाहिए। दूसरी तरफ लड़कियों की शिक्षा स्नातक स्तर तक निःशुल्क कर दी गई है और लड़कों को इस से वंचित रखा गया है। स्पष्ट है कि हमारे देश में लड़के-लड़कियों को शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं है।

5. विद्यालय-विद्यालय की शिक्षा में असमानता 

स्थान विशेष पर भी जो शिक्षण संस्थाएँ हैं उनके भवन, फर्नीचर, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, शिक्षण सामग्री एवं शिक्षकों में बड़ी भिन्नता है। इनकी कार्य प्रणाली में भी बड़ा अन्तर है। प्राइवेट स्कूल, सरकारी सकूल और पब्लिक स्कूलों में तो बहुत अधिक अन्तर है। पब्लिक स्कूलों का तो अपना आकर्षण है।

6. लड़के-लड़कियों की शिक्षा में असमानता

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से लड़के-लड़कियों में कोई अन्तर नहीं होता। लोकतनत्र तो लिंग के आधार पर किसी भी क्षेत्र में भेदभाव नहीं करता, परन्तु अफसोस हमारे देश में माध्यमिक स्तर पर लड़के-लड़कियों के पाठ्यक्रमों में कुछ अन्तर रखा गया है। साफ जाहिर है कि हमारे देश में आज भी लड़के-लड़कियों को शिक्षा के समान अवसर सुलभ नहीं है।

7. उपेक्षित क्षेत्र एवं वर्ग के बच्चों की शिक्षा की अपर्याप्त व्यवस्था

यूँ हमारे देश में दूर-दराजों में रहने वाले और पिछड़े, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था का वायदा तो किया जाता है, परन्तु इनकी शिक्षा की उचित व्यवस्था अभी तक नहीं की जा सकी है, निम्न वर्ग के बच्चों के लिए निम्न सतर की शिक्षा ही सुलभ है। उपेक्षित वर्ग के मेधावी छात्रों के लिए जो नवोदय विद्यालय खोले गए हैं उनमें भी उच्च वर्ग के बच्चे अधिक पहुँच रहे हैं। कैसी विडम्बना है।

8. विद्यालयों में बच्चों के साथ व्यवहार में असमानता

हमारे देश में प्राइवेट स्कूल प्रायः जाति और धर्म के आधार पर खोले जाते हैं और ऐसे स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति भी जाति और धर्म के आधार पर की जाती है। जिन प्रान्तों में शिक्षकों की नियुक्ति सरकार ने अपने हाथों में ले रखी है वहाँ या तो भाई भतीजावाद चल रहा है या पैसा चल रहा है। ऐसे अध्यापक बच्चों के साथ समान और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करेंगे, यह कैसे सोचा जा सकता है!

9. बच्चों के शैक्षिक पर्यावरण में असमानता 

शैक्षिक अवसरों की समानता का एक तकाजा यह भी है कि सभी बच्चों को पढने के लिए समान पर्यावरण दिया जाए। हमारे देश में समान पर्यावरण के स्थान पर जमीन आसमान के अन्तर वाला पर्यावरण है। कुछ बच्चे झोपड़ियों के अन्धेरे में रहते हैं, कुछ गन्दे गलियारों में रहते हैं और कुछ ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं में रहते हैं, शानदार कोठियों में रहते हैं। साफ जाहिर है, निम्न वर्ग के बच्चों को पढ़ने के लिए न स्थान है और न सुविधा और उच्च वर्ग के बच्चों को सबकुछ सुलभ है। तब यह कैसे कहा जा सकता है कि इन बच्चों को पढ़ने के समान अवसर सुलभ हैं। नवोदय विद्यालय इस क्षेत्र में ऊँट के मुँह में जीरा भर हैं।

10. समर्थ की जय

हमारे देश की वर्तमान स्थिति बड़ी अलोकतान्त्रिक है। यहाँ मनुष्य की योग्यता की नहीं उसकी सामर्थ्य की पूजा होती है। बच्चों को अच्छे स्कूल और कॉलिजों में प्रवेश उनकी योग्यता के आधार पर नहीं, अभिभावकों की आर्थिक सम्पत्रता, राजनैतिक प्रभुता या अमानुषिक शक्ति के आधार पर मिलता है। यह शैक्षिक अवसरों की असमानता नहीं तो और क्या है।

भारत में शैक्षिक अवसरों की समानता की लाने के उपाय

शैक्षिक अवसरों की समानता के दो मुख्य पहलू हैं- पहला यह कि देश के सभी बच्चों और युवकों को बिना किसी भेदभाव के, किसी भी स्तर की, किसी भी प्रकार की शिक्षा समान रूप से सुलभ कराना और दूसरा यह कि किसी भी वर्ग के बच्चों अथवा युवकों के किसी भी स्तर की, किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने में आने वाली बाधाओं का निवारण करना। परन्तु भारत में इन दोनों कार्यों को करना बहुत कठिन है। इनके मार्ग में चार बड़ी बाधाएँ हैं- पहली देश की बढ़ती हुई जनसंख्या, दूसरी संसाधनों की कमी, तीसरी अधिकांश जनता का पिछड़ापन और निर्धनता और चौथो एक बड़ी जनसंख्या का दूर-दराजों-रेगिस्तानी, पहाड़ी और जंगली क्षेत्रों में छोटी-छोटी बस्तियों में रहना। इस दिशा में हमारे देश में सर्वप्रथम विचार किया कोठारी आयोग (1964-66) ने। उसने इन सब बाधाओं को मद्देनजर रखते हुए शैक्षिक अवसरों की समानता की प्राप्ति हेतु निम्नलिखित सुझाव दिए-

कोठारी आयोग (1964-66) के सुझाव

(1) कक्षा 1 से कक्षा 8 तक की शिक्षा अनिवार्य एवं निःशुल्क की जाए और इस लक्ष्य को दो पंचवर्षीय योजनाओं में प्राप्त किया जाए।

(2) प्राथमिक स्तर पर छात्रों को पाठ्यपुस्तकें, लेखन सामग्री और मध्याह्न भोजन निःशुल्क दिया जाए।

(3) पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की शिक्षा के लिए विशेष व्यवस्था की जाए और कबीलों के बच्चों के लिए आवासीय आश्रम स्कूल खोले जाएँ।

(4) मन्द बुद्धि और विकलांग बालकों के लिए अलग से स्कूल खोले जाएँ, इनमें विशेष प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षकों की नियुक्ति की जाए।

(5) माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के निर्धन छात्रों को शुल्क मुक्त किया जाए।

(6) माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा स्तर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में बुक बैंक योजना लागू की जाए।

(7) माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के निर्धन एवं योग्य छात्रों को पुस्तकें क्रय करने के लिए आर्थिक सहायता दी जाए।

(8) शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर विभिन्न छात्रवृत्तियों की समुचित व्यवस्था की जाए और व्यावसायिक स्कूल-कॉलिजों में सामान्य स्कूल कॉलिजों की अपेक्षा अधिक छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की जाए।

(9) उच्च शिक्षा स्तर पर निर्धन और मेधावी छात्रों, विशेषकर विज्ञान एवं तकनीकी वर्ग के छात्रों को ऋण छात्रवृत्तियाँ दी जाएँ।

(10) दूर-दराज में रहने वाले छात्रों को सवारी सुविधा अथवा छात्रावास सुविधा प्रदान की जाए।

(11) स्त्रियों को पुरुषों की भाँति किसी भी प्रकार की शिक्षा सुलभ कराई जाए, स्त्री-पुरुषों की शिक्षा के प्रसार के भारी अन्तर को दूर किया जाए।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 के प्रस्ताव

केन्द्र सरकार ने कोठारी आयोग के उपर्युक्त सुझावों के आधार पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 में निम्नलिखित घोषणाएँ की-

(1) ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों में और अधिक स्कूल-कॉलिज खोले जाएंगे और इन क्षेत्रों के बच्चों और युवकों को सभी स्तरों की शिक्षा सुलभ कराई जाएगी।

(2) देश में सामान्य विद्यालय प्रणाली (Common School System) लागू की जाएगी अर्थात् एक क्षेत्र में रहने वाले सभी वर्गों के बच्चे एक प्रकार के स्कूल में पढ़ेंगे, एक साथ पढ़ेंगे।

(3) पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और कबीलों के बच्चों की शिक्षा को विशेष व्यवस्था की जाएगी और इनको आवश्यक आर्थिक सहायता दी जाएगी।

(4) मन्द बुद्धि और विकलांग बच्चों के लिए अलग से विद्यालय खोले जाएँगे।

(5) बालिकाओं की शिक्षा का प्रसार किया जाएगा।

(6) पब्लिक स्कूलों में निम्न एवं निर्धन वर्ग के बच्चों के लिए स्थान आरक्षित किए जाएँगे और उनके लिए निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाएगी।

(7) शिक्षा के सभी स्तरों पर निम्न वर्ग के बच्चों को आर्थिक सहायता दी जाएगी।

(8) शिक्षा के सभी स्तरों पर छात्रवृत्तियों में वृद्धि की जाएगी।

(9) विशेष योग्यता एवं क्षमता वाले छात्रों के लिए विशेष छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की जाएगी।

इस शिक्षा नीति पर अमल होना शुरु ही हुआ था कि केन्द्र में जनता दल की सरकार बन गई। इस सरकार ने 1979 में अपनी शिक्षा नीति की घोषणा की। इस नीति में से कक्षा 8 तक की शिक्षा की कक्षा 1 व्यवस्था को प्रथम वरीयता दी गई और द्वितीय वरीयता प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था को दी गई। साथ ही दीन-हीनों की शिक्षा व्यवस्था का वायदा किया गया, परन्तु इस दिशा में काम बहुत कम किया गया। 1986 में युवा प्रधानमन्त्री श्री राजीव गाँधी ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की। इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शैक्षिक अवसरों की समानता के सन्दर्भ में लगभग वही निर्णय लिए गए जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 में लिए गए थे। कुछ निर्णय इसके अपने थे। यहाँ उन सबका वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के प्रस्ताव

(1) एक निश्चित कार्य योजना के अन्तर्गत सर्वप्रथम कक्षा 1 से कक्षा 5 तक की शिक्षा अनिवार्य एवं निःशुल्क की जाएगी और उसके बाद कक्षा 6 से 8 तक की शिक्षा अनिवार्य एवं निःशुल्क की जाएगी और यह लक्ष्य 1995 तक प्राप्त कर लिया जाएगा। 

(2) पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और कबीलों आदि उपेक्षित वर्ग के बच्चों की शिक्षा की विशेष व्यवस्था की जाएगी।

(3) उपेक्षित वर्ग के बच्चों को आर्थिक सहायता दी जाएगी, इनके लिए विशेष छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की जाएगी।

(4) मन्द बुद्धि और विकलांग बालकों के लिए अलग से स्कूल खोले जाएँगे।

(5) माध्यमिक स्तर पर गति निर्धारक विद्यालय (Pace Making Schools) खोले जाएँगे, इनमें उपेक्षित क्षेत्रों (ग्रामीण) और उपेक्षित वर्ग (अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति) के मेधावी छात्रों के लिए आवासीय निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाएगी।

(6) पब्लिक स्कूलों और कैपीटेशन फीस वाले उच्च शिक्षा महाविद्यालयों में निर्धन एवं मेधावी छात्रों के लिए स्थान आरक्षित किए जाएँगे और इन्हें निःशुल्क शिक्षा दी जाएगी।

(7) स्त्री-पुरुषों की शिक्षा में कोई भेद नहीं किया जाएगा। स्त्रियों को पुरुषों की भाँति किसी भी प्रकार की शिक्षा-विधि, आयुर्विज्ञान, विज्ञान, तकनीकी और प्रबन्ध आदि के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। शैक्षिक अवसरों की समानता की प्राप्ति के लिए किए जा रहे कार्य हमारे देश में शैक्षिक अवसरों की समानता की प्राप्ति के लिए सरकार द्वारा निम्नलिखित कार्य किए जा रहे हैं-

(1) प्राथमिक शिक्षा (कक्षा 1 से कक्षा 8) के सार्वभौमीकरण के लए प्रयत्न किए जा रहे हैं।

(2) पिछड़ी, अनुसूचित और अनुसूचित जनजातियों के क्षेत्रों में प्राथमिक स्कूलों की स्थापना की जा रही है। साथ ही इन जातियों के बच्चों को पाठ्य पुस्तकें एवं अन्य शिक्षा सामग्री निःशुल्क प्रदान की जा रही है। इन्हें स्कूलों की ओर आकर्षित करने के लिए अनेक अन्य प्रोत्साहन भी दिए जा रहे हैं।

(3) शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े अल्पसंख्यकों के बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था की ओर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। इनके बच्चों को भी स्कूलों की ओर आकर्षित करने के लिए अनेक प्रोत्साहन दिए जा रहे हैं।

(4) लड़कियों के लिए अलग से उच्च प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालय स्थापित किए जा रहे हैं और उनके लिए अलग से छात्रवासों की व्यवस्था की जा रही है जिससे वे शिक्षा के अधिकार से वंचित न रहें।

(5) दूर दराज के क्षेत्रों में 10 बच्चों की संख्या पर शिक्षा गारन्टी केन्द्र खोले जा रहे हैं साथ ही चल स्कूल और आवासीय आश्रम स्कूल खोले जा रहे हैं।

(6) सरकार की ओर से स्थापित प्राथमिक स्कूलों के स्तर को उठाया जा रहा हैं। कुछ प्रान्तों में इस स्तर के स्कूलों में कम्प्यूटर शिक्षा शुरू कर दी गई है।

(7) प्रत्येक ब्लाक में कम से कम एक माध्यमिक विद्यालय स्थापित करने की योजना चालू की गई है। प्राथमिक स्तर के सर्व शिक्षा अभियान की तरज पर राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान चलाया जा रहा है।

(8) विकलांगों (मन्दबुद्धि, लंगड़े, लूले, अन्धे और बहरे) बच्चों एवं युवकों की शिक्षा की व्यवस्था की जा रही है।

(9) आवश्यकतानुसार महाविद्यालय और विश्वविद्यालय स्थापित किए जा रहे हैं और इनमें पिछड़ी, अनुसूचित एवं अनुसूचित जनजातियों के बच्चों के प्रवेश हेतु आरक्षण व्यवस्था है।

(10) सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के बच्चों को आर्थिक सहायता दी जा रही है जिससे वे किसी भी स्तर की शिक्षा प्राप्त कर सकें।

(11) निम्न वर्ग के मेधावी छात्रों को विशेष छात्रवृत्तियाँ दी जा रही हैं जिससे वे किसी भी स्तर की शिक्षा से वंचित न रहें।

(12) माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा स्तर पर दूर शिक्षा (पत्राचार शिक्षा एवं खुली शिक्षा) की व्यवस्था की जा रही है।

हमारी अपनी सम्मति

भारत में शैक्षिक अवसरों की समानता के सम्बन्ध में सरकार ने जो भी निर्णय लिए हैं, जो भी घोषणाएँ की हैं और जो भी कार्य किए हैं वे मूलतः वोट की राजनीति पर आधारित हैं; वायदे बड़े-बड़े और काम बहुत कम। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में जो वायदे किए गए, उनके लिए एक कार्य योजना भी बनी और आवश्यक धनराशि की कुछ व्यवस्था भी की गई, परन्तु भ्रष्टाचार के इस युग में हाथ बहुत कम लगा। हमारी अपनी दृष्टि से शैक्षिक अवसरों की समानता का आधार राजनैतिक न होकर शैक्षिक होना चाहिए और काल्पनिक न होकर वास्तविक होना चाहिए और इस आधार पर निम्नलिखित उपाय अधिक उपयुक्त एवं सार्थक होंगे-

1. शिक्षा की राष्ट्रीय नीति का पालन

देश में शैक्षिक अवसरों की समानता की प्राप्ति के लिए सबसे पहली आवश्यकता है कि सभी प्रान्तों में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का पूर्ण रूप से पालन हो। और राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा की संरचना, विभिन्न स्तरों की शिक्षा के उद्देश्य एवं पाठ्यक्रम, विभिन्न स्तरों पर विभिन्न वर्गों के बच्चों को दी जाने वाली आर्थिक सहायता और छात्रवृत्तियाँ आदि के विषय में स्पष्ट निर्देश हों। 

2. सामान्य, अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था

शैक्षिक अवसरों की समानता की प्राप्ति का सबसे पहला कदम एक निश्चित स्तर तक की शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क करना है। अभी हमारे देश में कक्षा 1 से कक्षा 8 तक की शिक्षा को सामान्य, अनिवार्य एवं निःशुल्क करने का प्रयत्न किया जा रहा है, भविष्य में प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क करना है। इससे देश के सभी बच्चों की सुप्त शक्तियों को जगाया जा सकेगा और फिर उनको उनकी बुद्धि और योग्यता के आधार पर आगे की शिक्षा सुलभ कराई जा सकेगी। यह कार्य जितनी शीघ्र किया जा सके प्रान्तीय सरकारों को उसके लिए सच्चे मन से प्रयत्न करना चाहिए।

3. आवश्यकतानुसार शिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था 

शैक्षिक अवसरों की समानता का प्रथम पहलू है, देश के सभी बच्चों एवं युवकों को बिना किसी भेदभाव के किसी भी स्तर की किसी भी प्रकार की शिक्षा समान रूप से सुलभ कराना। यह तभी सम्भव है जब देश के प्रत्येक क्षेत्र में वहाँ की जनसंख्या और माँग के आधार पर भिन्न-भिन्न स्तर के स्कूल एवं कॉलिजों की स्थापना की जाए। उसी स्थिति में सभी बच्चे और युवक स्कूल और कॉलिजों में प्रवेश पा सकेंगे। 

इस सन्दर्भ में हमारा एक निवेदन और है और वह यह कि सरकार वोट की राजनीति छोड़कर केवल एक ही बात पर बल दे कि देश में 1 किमी की दूरी के अन्दर प्राथमिक, 2-3 किमी० की दूरी के अन्दर उच्च प्राथमिक और 5 किमी० की दूरी के अन्दर माध्यमिक स्कूल स्थापित करे और इनमें सभी जाति एवं वर्गों के बच्चों को प्रवेश का अधिकार हो। और जहाँ तक उच्च शिक्षा की व्यवस्था की बात है, कम से कम प्रथम 10% मेधावी छात्र-छात्राओं की शिक्षा की व्यवस्था वह स्वयं करे, शेष के लिए स्ववित्त पोषित संस्थाओं को मान्यता देने में नियमों का कड़ाई से पालन करे।

4. शिक्षण संस्थाओं के स्तर में समानता 

आज हमारे देश में किसी भी स्तर की शिक्षण संस्थाओं के स्तर में भारी असमानता है। इस असमानता को समाप्त करने के लिए किसी भी स्तर की शिक्षण संस्थाओं के लिए न्यूनतम साधन (भवन, फर्नीचर, प्रयोगशाला, खेल के मैदान और शिक्षक आदि) निश्चित किए जाएँ और साथ ही उनके लिए न्यूनतम अधिगम स्तर (Minimum Level of Learning) निश्चित किए जाएँ और उनका कठोरता के साथ पालन किया जाए। इस क्षेत्र में सरकार को शिक्षण संस्थाओं को भवन, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, शिक्षण सामग्री और खेल सामग्री आदि के लिए आर्थिक सहायता देनी चाहिए, समय-समय पर विद्यालयों का निरीक्षण कराना चाहिए और न्यूनतम उपलब्धि न कर पाने वाली शिक्षण संस्थाओं के प्रधानाचार्य एवं शिक्षकों आदि को सेवामुक्त कर देना चाहिए। अब समय आ गया है जब अधिकार के साथ कर्तव्य अवश्य जोड़ा जाए।

5. मन्दबुद्धि और विकलांग बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था 

शिक्षा मानव का मूल अधिकार है, अतः देश के किसी भी व्यक्ति को इससे वंचित न रखा जाए। हम धनी, निर्धन, नगरीय, ग्रामीण और सभी जाति एवं धर्म के बच्चों को शिक्षा की समान व्यवस्था की बात कर चुके हैं, यहाँ हम मन्द बुद्धि और विकलांग बच्चों, विशेषकर गूंगे, बहरे और अन्धों की शिक्षा की बात कह रहे हैं। इनके लिए अलग से स्कूल-कॉलिजों की व्यवस्था की जाए और यह व्यवस्था जिला मुख्यालयों पर की जाए। इनमें विशेष प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षकों की नियुक्ति की जाए। इन छात्रों में जो छात्र निर्धन हों उन्हें आर्थिक सहायता दी जाए।

6. सामान्य शिक्षा सबके लिए और उच्च एवं विशिष्ट शिक्षा योग्यतानुसार 

शैक्षिक अवसरों की समानता का तकाजा है कि सामान्य शिक्षा बिना किसी भेदभाव के सबको अनिवार्य रूप से सुलभ कराई जाए और उच्च एवं विशिष्ट शिक्षा योग्यता के आधार पर सुलभ कराई जाए, न कि आर्थिक अथवा राजनैतिक दबाव के आधार पर। हम तो इस स्तर पर क्षेत्र, जाति, धर्म व लिंग के आधार पर प्रवेश में आरक्षण को शैक्षिक अवसरों को समानता के प्रतिकूल मानते हैं।

7. आर्थिक सहायता और छात्रवृत्तियों में एकरूपता 

देश के सभी प्रान्तों में किसी भी स्तर के छात्रों को आर्थिक सहायता अथवा छात्रवृत्तियाँ देने में एकरूपता होनी चाहिए। इस सम्बन्ध में एक सुझाव यह है कि किसी एक छात्र को किसी एक ही प्रकार की आर्थिक सहायता अथवा छात्रवृत्ति दी जाए। हाँ, उसे उनमें से अधिकतम लाभ की आर्थिक सहायता अथवा छात्रवृत्ति के चयन की छूट होनी चाहिए। उसी स्थिति में हम कह सकते हैं कि हमने देश में सभी बच्चों को शैक्षिक अवसरों की समानता प्रदान की है।

8. छात्रों के पर्यावरण में सुधार 

अभी तक हमने छात्रों के विद्यालयी पर्यावरण में समरूपता लाने की चर्चा की है, परन्तु वास्तविकता तो यह है कि बच्चों की शिक्षा में जितना प्रभाव विद्यालयी पर्यावरण का होता है उतना ही घरेलू पर्यावरण का होता है। घरेलू पर्यावरण को हम समान तो नहीं बना सकते, परन्तु इतना तो कर हो सकते हैं कि सभी घरों के प्रौढ़ों को साक्षर करें, उन्हें शिक्षा के महत्त्व से अवगत कराएँ। 

हम यह भी जानते है कि किसी भी देश का विकास उसकी प्रतिभाओं पर निर्भर करता है। अतः यह आवश्यक है कि निम्न घरेलू शैक्षिक पर्यावरण के मेधावी एवं प्रतिभावान छात्रों के लिए छात्रावासों की व्यवस्था करें, उन्हें उचित शैक्षिक पर्यावरण प्रदान करें। सरकार को प्रतिभावान छात्रों को शिक्षा पर विशेष ध्यान देना चाहिए और यह देखना चाहिए कि किसी भी कारण से वे अच्छी शिक्षा से वंचित न रहें।

9. विशेष

भारत में शैक्षिक अवसरों की समानता की प्राप्ति के सम्बन्ध में अन्तिम निवेदन यह है कि सरकार को वोट की राजनीति छोड़कर राष्ट्रहित में निर्णय लेने चाहिए, और राष्ट्र का हित इसमें है कि देश के सभी बच्चों को बिना किसी भेदभाव के एक निश्चित स्तर तक की शिक्षा अनिवार्य एवं निःशुल्क रूप से सुलभ कराई जाए और उच्च एवं विशिष्ट शिक्षा बिना किसी भेदभाव के केवल मेधावी छात्रों को सुलभ कराई जाए। उसी स्थिति में हम अपने सौमित साधनों का सदुपयोग कर सकेंगे, प्रतिभाओं का विकास कर सकेंगे और राष्ट्र का विकास कर सकेंगे। ईश्वर सबको सद्बुद्धि दे।

*** उपसंहार ***

शैक्षिक अवसरों का समानता लोकतन्त्र की माँग है। हमें प्रसन्नता है कि हमारा राज्य (केन्द्रीय एवं प्रान्तीय सरकारें और प्रशासन) देश के सभी बच्चों और युवकों को शिक्षा के समान अवसर सुलभ कराने के लिए प्रयत्नशील है, बस ईमानदारी से काम करने की आवश्यकता है।

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