संविधान सभा की आलोचनाएँ
अनेक आलोचकों द्वारा संविधान सभा के गठन, स्वरूप और कार्य प्रणाली के सम्बन्ध में निम्नलिखित आलोचनाएँ की हैं-
1. संविधान सभा एक निर्वाचित संस्था नहीं थी- संविधान सभा का निर्वाचन जनता द्वारा व्यापक मताधिकार के आधार पर नहीं किया गया था। इसके सदस्यों का निर्वाचन प्रान्तीय विधानसभाओं द्वारा किया गया था। आलोचकों का यह तर्क है कि संविधान सभा को जनता का 'जनादेश' प्राप्त नहीं था। जय प्रकाश नारायण ने कहा कि, "यह संविधान सभा अपने गठन में उस संविधान सभा से बहुत भिन्न है जिसकी रूपरेखा पं. नेहरू ने हमारे सामने रखी थी।"
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2. संविधान सभा एक प्रतिनिधिक संस्था नहीं थी- संविधान सभा की आलोचना में एक तर्क यह भी में दिया जाता है कि यह प्रतिनिधिक संस्था नहीं थी। लाई साइमन के अनुसार यह 'हिन्दुओं की एक संस्था' थी। भारत विभाजन के बाद मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों के संविधान सभा से अलग हो जाने के बाद हिन्दू प्रतिनिधियों का वर्चस्व स्थापित हो गया था। लेकिन संविधान सभा में सिख, पारसी, मुस्लिम, आंग्ल भारतीय, अनुसूचित जातियों और जन-जातियों को भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त था।
3. काँग्रेस की प्रधानता- ग्रेनविल ऑस्टिन का विचार है कि "एक दलीय देश में संविधान सभा निश्चित रूप से एक दलीय संस्था थी। संविधान सभा काँग्रेस थी और काँग्रेस भारत थी।"
संविधान सभा में काँग्रेस की प्रधानता थी। विभाजन के पूर्व संविधान सभा में काँग्रेसी सदस्यों का 69% प्रतिनिधित्व था, लेकिन विभाजन के बाद मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों के संविधान से अलग हो जाने के बाद काँग्रेसी सदस्यों का प्रतिनिधित्व बढ़कर 82% हो गया। इस आलोचना के परिपेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि उस समय काँग्रेस का स्वरूप केवल एक दल के रूप में नहीं था, काँग्रेस एक देश थी। काँग्रेस के नेता राष्ट्रीय आन्दोलन के अग्रणी नेता थे।
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4. संविधान सभा की प्रभुसत्ता के आगे प्रश्न चिह्न- संविधान सभा का गठन ब्रिटिश सरकार ने किया था, अतः वैधानिक रूप से उसे यह अधिकार था कि वह जब चाहे इसे भंग कर सकती है। इस तरह से संविधान सभा का अस्तित्व ब्रिटिश सरकार की कृपा पर निर्भर था। इसके अतिरिक्त केबिनेट मिशन योजना ने इसकी शक्तियों और अधिकारों पर विभिन्न सीमाएँ आरोपित कर दी थीं। इन तकों के आधार पर संविधान सभा के सम्प्रभु-स्वरूप के आगे स्वतः ही प्रश्न चिह्न लग जाते हैं। लेकिन इसके विपरीत डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पं. जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद और अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर आदि ने संविधान सभा के सम्प्रभु-स्वरूप का समर्थन करते हुए कहा कि जनता की सत्ता और शक्ति के कारण यह सत्ता सम्पन्न संस्था थी।
5. साम्प्रदायिक आधार पर गठन- संविधान सभा के गठन की आलोचना इस आधार पर भी की जाती है कि ऐसा करते समय साम्प्रदायिकता को आधार बनाया गया। प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं के सदस्य द्वारा साम्प्रदायिकता के आधार पर ही संविधान सभा के सदस्यों का निर्वाचन किया गया। यह एक विडम्बना ही मानी जाएगी कि हमारे जिन कर्णधारों द्वारा राष्ट्रीय आन्दोलन में साम्प्रदायिकता का घोर विरोध किया गया, उन्हीं के द्वारा संविधान सभा के गठन में साम्प्रदायिक आधार को मान्यता दी गई। ऐसा इसलिए किया गया कि संविधान सभा में किसी सम्प्रदाय विशेष का आधिपत्य नहीं हो जाए और सभी सम्प्रदाओं को प्रतिनिधित्व प्राप्त हो सकें।
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6. श्रमिकों, दस्तकारों और किसानों का उचित प्रतिनिधित्व नहीं- भारत जैसे विशाल देश की अधिसंख्य जनता श्रमिक और किसान वर्ग की है। अत: संविधान निर्माण प्रक्रिया में इस वर्ग को समुचित प्रतिनिधित्व दिया जाना आवश्यक था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। श्रमिकों और किसानों को नगण्य प्रतिनिधित्व मिला था, किन्तु संविधान निर्माता श्रमिकों, दस्तकारों और किसानों के हितों का संरक्षण करने के लिए कृत संकल्प थे। उन्होंने ऐसा करने के लिए ही संविधान में समाजवादी समाज की संरचना के सम्बन्ध में अनेक प्रावधान निश्चित किए थे।