संविधान सभा का निर्माण : Samvidhan Sabha Ka Nirman

प्रत्येक स्वतन्त्र राष्ट्र का अपना एक संविधान होता है जिसके आधार पर उस देश की शासन व्यवस्था संचालित होती है। संविधान देश की राजनीतिक व्यवस्था का बुनियादी स्वरूप निर्धारित करता है। संविधान राज्य की व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की स्थापना, उनकी शक्तियों तथा दायित्वों का सीमांकन करता है। यह जनता तथा राज्य के बीच सम्बन्धों का विनियमन भी करता है।

    प्रत्येक संविधान, उस देश के आदर्शों, उद्देश्यों एवं मूल्यों का दर्पण होता है। संवैधानिक विधि देश की सर्वोच्च विधि होती है, तथा देश की सभी विधियाँ इसी पर आधारित होती है। संविधान, एक जड़ दस्तावेज नहीं होता है वरन् यह निरन्तर पनपता रहता है। वर्षों से चली आ रही परम्पराएँ भी देश के संविधान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

    संविधान का अर्थ 

    राज्य के संविधान की परिभाषा लिखित तथा साथ ही अलिखित नियमों एवं विनियमों के निकाय के रूप में की जा सकती है जिनके द्वारा सरकार का गठन होता है और वह कार्य करती है। संविधान को उन नियमों का संग्रह कहा जा सकता है जिनके अनुसार शासन की शक्तियाँ शासितों के अधिकार तथा दोनों के बीच सम्बन्ध समायोजित होते हैं। संविधान एक वैधानिक उपकरण है जिसे भिन्न-भिन्न नामों जैसे- 'राज्य के नियम', 'शासन का उपकरण', 'देश का मौलिक कानून', 'राज्य व्यवस्था का आधारभूत विधान', 'राष्ट्र राज्य की आधारशिला' आदि से जाना जाता है। 

    के. सी. व्हेयर (K.C. Wheare) के अनुसार, "संविधान शब्द का प्रयोग सामान्य रूप में राजनीतिक विषयों की साधारण चर्चा में कम-से-कम दो अर्थों में किया जाता है। प्रथम, इसका प्रयोग देश के शासन की सम्पूर्ण व्यवस्था अर्थात् उन नियमों का वर्णन करने के लिए किया जाता है जो शासन को स्थापित तथा विनियमित अथवा प्रभावित करते हैं। ये नियम इस भाव में अंशत: वैधानिक होते हैं कि कानून के न्यायालय उन्हें मानते तथा लागू करते हैं। तथा द्वितीय, वे आंशिक रूप में अवैध या विधानेत्तर होते हैं जो ऐसे व्यवहारों, प्रथाओं अथवा परम्पराओं का रूप ग्रहण कर लेते हैं जिन्हें न्यायालय कानून के रूप में मान्यता प्रदान नहीं करते, परन्तु शासन को विनियमित करने में वे उनसे कम प्रभावी नहीं होते जिन्हें सटीक शब्दों में कानून के नियम कहा जाता है। विश्व के अधिकांश देशों में शासन की व्यवस्था इन वैधानिक तथा अवैधानिक नियमों के इस मिश्रण से निर्मित होती है तथा नियमों के इस संचय को 'संविधान' कहा जा सकता है।"

    संविधान की परिभाषायें  

    संविधान की कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

    जेम्स मैकइंतोश (James Macintosh) के अनुसार, "संविधान उन लिखित अथवा अलिखित मौलिक कानूनों का संग्रह है जो उच्चतर अधिकारियों के सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिकारों तथा प्रजा के सर्वाधिक अनिवार्य विशेषाधिकारों को विनियमित करते हैं।"

    न्यायमूर्ति कूले (Justice Cooley) के अनुसार, "संविधान राज्य का वह मौलिक कानून है, जो उन सिद्धान्तों से युक्त होता है जिन पर शासन स्थापित किया जाता है, जो प्रभुसत्ता सम्पन्न शक्ति के विभाजन को विनियमित करता है तथा यह निर्देश देता है कि इन शक्तियों में से प्रत्येक को किन लोगों को सौंपना है तथा किस ढंग से ऐसा करना है।"

    जार्ज जैलिनेक (George Jellinek) के अनुसार, "संविधान न्यायिक नियमों का समूह है जो राज्य के सर्वोच्च अंगों, उनकी उत्पत्ति की शैली, उनके पारस्परिक सम्बन्ध, उनकी कार्यवाही के क्षेत्र तथा अन्ततः राज्य के साथ सम्बन्ध में उनमें से प्रत्येक के मौलिक स्थान को निर्धारित करते हैं।"

    भारत का संविधान एक विस्तृत दस्तावेज है। यह विश्व का अद्वितीय और विशालतम संविधान है। इसकी संरचना सन् 1946 में मन्त्रिमण्डलीय मिशन योजना के अन्तर्गत गठित संविधान सभा द्वारा की गयी है।

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    संविधान सभा का अर्थ

    साधारणतः संविधान निर्मात्री सभा उस सभा को कहते हैं जो किसी देश के संविधान का निर्माण करती हैं। आधुनिक युग में संविधान निर्माण का कार्य नागरिक प्रायः एक विशेष रूप से गठित प्रतिनिधिक संविधान सभा द्वारा करते हैं। संविधान सभा विश्व की 17वीं तथा 18वीं शताब्दी की महान क्रान्तियों की देन है। इन महत्वपूर्ण प्रजातान्त्रिक क्रान्तियों के परिणामस्वरूप यह अनुभव किया जाने लगा कि शासन के मौलिक कानूनों का निर्माण नागरिकों की एक विशिष्ट प्रतिनिधि सभा द्वारा किया जाना चाहिए।

    यद्यपि संविधान सभा के विचार का उदय सर्वप्रथम इंग्लैण्ड में हुआ, जहाँ के सामन्तवादियों और सर हेनरी मेन ने इस विचार का प्रतिपादन किया, परन्तु इस सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप में सर्वप्रथम अमेरिका एवं फ्रांस में ही अपनाया गया। साधारण शब्दों में संविधान सभा उस सभा को कहते हैं जो किसी देश के संविधान का निर्माण करती है। यह किसी देश के संविधान का ढाँचा तैयार करने के लिए विशेष रूप से गठित नागरिकों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों का एक संगठन है। 

    एनसाइक्लोपीडिया ऑफ सोशल साइंसेज के अनुसार, "यह एक ऐसी प्रतिनिध्यात्मक संस्था होती है जिसे नवीन संविधान पर विचार करने और अपनाने या विद्यमान संविधान में महत्वपूर्ण परिवर्तन करने के लिए चुना गया।" इस प्रकार संविधान सभा जनता द्वारा चुनी गई उस संस्था को कहा जाता है जो देश के लिए नए संविधान का निर्माण करती है।

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    संविधान सभा के सिद्धान्त का विकास

    भारतीय संविधान सभा का विकास वास्तव में भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना से प्रारम्भ होता है। सन् 1600 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का निर्माण करके अंग्रेजों ने व्यापार करने के उद्देश्य से भारत में प्रवेश किया था। प्रारम्भ में कम्पनी का उद्देश्य व्यापारिक था, लेकिन बाद में राजनीतिक होने लगा। 1757 के प्लासी के युद्ध तथा 1764 के बक्सर के युद्ध के पश्चात् भारत में धीरे-धीरे ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन स्थापित होने लगा और सन् 1850 तक लगभग सम्पूर्ण भारत ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आधिपत्य में आ गया। सन् 1857 की क्रान्ति के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन का अन्त होकर सन् 1858 में भारत का प्रशासन ब्रिटिश संसद के हाथ में आ गया।

    भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन और संविधान सभा की माँग में घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। संविधान सभा की माँग एक प्रकार से राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की माँग थी, क्योंकि राष्ट्रीय स्वतन्त्रता का यह स्वाभाविक अर्थ था कि भारत के लोग स्वयं अपने राजनीतिक भविष्य का निर्णय करें। संविधान सभा के सिद्धान्त का दर्शन सर्वप्रथम सन् 1895 के 'स्वराज्य विधेयक' में होता है। यह विधेयक बाल गंगाधर तिलक के निर्देशन में तैयार किया गया था। सन् 1922 में महात्मा गाँधी ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि, "भारतीय संविधान भारतीयों की इच्छानुसार ही होगा।" होमरूल आन्दोलन की अंग्रेजी नेती श्रीमती ऐनी बेसेन्ट ने भी माँग की कि भारत के संविधान का निर्माण भारतीयों द्वारा ही होना चाहिए। 

    सन् 1924 में पं. मोती लाल नेहरू ने ब्रिटिश सरकार के सम्मुख मंविधान सभा के गठन की माँग माँग प्रस्तुत की। इसके पश्चात् औपचारिक रूप मे संविधान सभा के विचार का प्रतिपादन एम. एन. राय ने किया और इस विचार को मूर्त रूप देने का कार्य पं. जवाहरलाल नेहरू ने किया। उन्हीं के प्रयासों से काँग्रेस ने औपचारिक रूप से घोषणा की थी, "यदि भारत को आत्मनिर्णय का अवसर मिलता है तो भारत के सभी विचारों के लोगों की एक प्रतिनिधि सभा बुलायी जानी चाहिए, जो सर्वसम्मत संविधान का निर्माण कर सके। सही संविधान सभा होगी।" इस समय तक संविधान के विचार ने पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त कर ली थी। 

    अतः अनेक प्रान्तीय विधान सभाओं एवं केन्द्रीय विधान मण्डल द्वारा इस प्रकार के प्रस्ताव पारित किए गए। 1936 ई. एवं सन् 1938 ई. में काँग्रेस अधिवेशनों में संविधान सभा के गठन की माँग को दोहराया गया। 1939 के काँग्रेस अधिवेशन में इस आशय का प्रस्ताव पारित किया गया कि, "एक स्वतन्त्र देश के संविधान का एकमात्र तरीका संविधान सभा होगी। केवल प्रजातन्त्र एवं स्वतन्त्रता में विश्वास न रखने वाले ही इसका विरोध कर सकते हैं।"

    यद्यपि ब्रिटिश सरकार भारतवासियों के संविधान सभा की माँग को स्वीकार करने के पश्च में नहीं थी, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध की आवश्यकताओं तथा राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों के प्रभाव के कारण उसे ऐसा करने के लिए विवश होना पड़ा। अत: अगस्त 1940 के प्रस्ताव में ब्रिटिश सरकार द्वारा कहा गया कि भारत का संविधान स्वभावतः स्वयं भारतवासी ही तैयार करेंगे। इसके पश्चात् 1942 की क्रिप्स मिशन योजना द्वारा ब्रिटेन ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि भारत में एक निर्वाचित संविधान सभा का गठन होगा, जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भारत के लिए संविधान तैयार करेगी, परन्तु भारतीयों द्वारा अन्य महत्त्वपूर्ण आधारों पर क्रिप्स मिशन योजना के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया। अन्त में सन् 1946 ई. की केबिनेट मिशन योजना के अन्तर्गत भारतीय संविधान सभा के प्रस्ताव को स्वीकार कर इसे व्यावहारिक रूप प्रदान किया गया।

    संविधान सभा का निर्माण

    केबिनेट मिशन योजना के अनुसार यह निश्चित किया गया कि भारतीय संविधान के निर्माण के लिए परोक्ष निर्वाचन के आधार पर एक संविधान सभा की स्थापना की जाए। इस संविधान सभा के कुल 389 सदस्य हों, जिनमें 292 ब्रिटिश प्रान्तों के प्रतिनिधि, 4 चीफ कमिश्नर क्षेत्रों के प्रतिनिधि एवं 93 देशी रियासतों के प्रतिनिधि हों। जुलाई, 1946 में संविधान निर्मात्री सभा के चुनाव हुए। संविधान सभा के लिए कुल 389 सदस्यों में से, प्रान्तों के लिए निर्धारित 296 सदस्यों के लिए ही चुनाव हुए।

    निर्वाचन के परिणामस्वरूप संविधान सभा में दलीय स्थिति निम्न प्रकार रही-

    काँग्रेस पार्टी

    202

    मुस्लिम लीग

    73

    निर्दलीय

    7

    एकतावादी मुस्लिम पार्टी

    3

    भारतीय ईसाई

    2

    कृषक प्रजा मुस्लिम

    1

    हिन्दू महासभा

    1

    अनुसूचित जाति फेडरेशन

    1

    एंग्लो इण्डियन

    1

    साम्यवादी

    1

    कुल योग

    292

    सिख समुदाय के चार स्थान रिक्त रहे क्योंकि सिख पथिक बोर्ड ने 15 जुलाई, 1946 को चुनावों का बहिष्कार कर दिया था।

    मुस्लिम लीग द्वारा संविधान सभा का बहिष्कार

    संविधान सभा के चुनावों के बाद मुस्लिम लीग ने अपनी कमजोर स्थिति देखकर संविधान सभा का बहिष्कार करने का निर्णय लिया। मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान की माँग पर अड़ गए। उन्होंने कहा कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान को अलग-अलग बनाया जाना ही साम्प्रदायिक समस्या का समाधान है। उन्होंने संविधान सभा के सत्र अनिश्चित काल तक स्थगित करने के लिए वायसराय से कहा। वायसराय ने उनकी माँग को स्वीकार नहीं किया और घोषणा की कि संविधान सभा का प्रथम सत्र 9 दिसम्बर, 1946 को होगा। 9 दिसम्बर, 1946 को नई दिल्ली में भारत की संविधान सभा का प्रथम सत्र आरम्भ हुआ। इसमें मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि सम्मिलित नहीं हुए थे।

    संविधान सभा की कार्य प्रणाली

    मुस्लिम लीग के बहिष्कार के बावजूद संविधान सभा भारत के विशाल बहुमत की वास्तविक प्रतिनिधि सभा थी और इसमें ऐसे अनुभवी तथा योग्य व्यक्ति थे, जिन पर किसी देश की संविधान सभा को गर्व हो सकता था। संविधान सभा की प्रथम बैठक 9 दिसम्बर, 1946 को हुई और इसी दिन डॉ. सच्चिदानन्द सिन्हा को सभा का अस्थायी अध्यक्ष बनाया गया। 11 दिसम्बर, 1946 की बैठक में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सभा का स्थायी अध्यक्ष चुना गया, जो अन्त तक अध्यक्ष बने रहे। 13 दिसम्बर, 1946 को पं. जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा के 'उद्देश्य प्रस्ताव' (Objective Resolution) प्रस्तुत किए, जिन्हें 23 जनवरी, 1947 को ही संविधान सभा पारित कर दिया। 

    संविधान सभा द्वारा पारित उद्देश्य प्रस्ताव के प्रमुख बिन्दु निम्नलिखित थे-

    1. भारत एक पूर्णतः स्वतन्त्र और प्रभुत्व सम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य होगा, जिसके द्वारा स्वयं अपने संविधान का निर्माण किया जाएगा। 

    2. वे क्षेत्र जो इस समय ब्रिटिश भारत कहलाते हैं, वे क्षेत्र जो भारतीय रियासतों के अन्तर्गत आते हैं तथा ब्रिटिश भारत व रियासतों से बाहर के वे क्षेत्र जो स्वतन्त्र प्रभुत्व सम्पन्न भारत में सम्मिलित होना चाहते हैं, सब मिलकर एक संघ कहलायेंगे। 

    3. ये तथाकथित क्षेत्र अपनी वर्तमान सीमाओं में अथवा संविधान द्वारा निर्धारित की गई सीमाओं में संविधान द्वारा की गई व्यवस्था के अनुसार स्वायत्तशाही इकाइयाँ होंगी। 

    4. भारतीय संघ और उसके अन्तर्गत विविध राज्यों में सम्पूर्ण प्रभुसत्ता का मूल स्रोत जनता होगी।

    5. विधि के अनुसार एवं सार्वजनिक नैतिकता के अधीन सब नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय भाषण अभिव्यक्ति, विश्वास, समुदाय निर्माण एवं कार्य की स्वतन्त्रता प्राप्त होगी।

    6. अल्पसंख्यक वर्गों, पिछड़ी जातियों व जनजातियों के हितों की रक्षा की समुचित व्यवस्था की जाएगी।

    7. भारतीय क्षेत्र की अखण्डता, उसकी भूमि, उसके जल तथा वायु पर उसकी प्रभुसत्ता की रक्षा, न्याय एवं सभ्य राष्ट्रों की विधियों के अनुसार की जाएगी।

    8. यह प्राचीन देश विश्व में अपना अधिकार व सम्मानपूर्वक स्थान प्राप्त करेगा और विश्व शान्ति तथा मानव जाति के कल्याण में अपना पूर्ण एवं स्वैच्छिक योग देता रहेगा। उक्त उद्देश्य प्रस्तावों से स्पष्ट है कि संविधान सभा ने जनता की उन सभी आकांक्षाओं को पूर्ण करने का प्रयत्न किया है, जिनके लिए भारतवासी एक लम्बे समय से संघर्ष कर रहे थे उद्देश्य प्रस्ताव के महत्व के सम्बन्ध में पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि "इस प्रस्ताव में हमारी उन आकांक्षाओं को व्यक्त किया गया है, जिनके लिए हमने अनेक कठोर संघर्ष किए हैं। संविधान सभा इन्हीं उद्देश्यों के आधार पर हमारे संविधान का निर्माण करेगी।" श्री के. एम. मुन्शी ने कहा था कि "नेहरू का उद्देश्य सम्बन्धी प्रस्ताव भी हमारे प्रभुत्व सम्पन्न लोकतन्त्रीय गणराज्य को जन्मकुण्डली है।" भारतीय संविधान में 'उद्देश्य प्रस्ताव' का वही महत्व है जो अमेरिका संविधान में स्वतन्त्रता की घोषणा की है।

    संविधान सभा के सामने कठिनाइयाँ

    1. जनसंख्या की विशालता तथा अनेकता- संविधान सभा को विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के लिए संविधान बनाना था, जिसकी जनसंख्या उस समय लगभग 36 करोड़ थी। इतनी विशाल जनसंख्या के लोग भिन्न-भिन्न धर्म, जाति, संस्कृति और भाषा के थे। इस 'अनेकता में एकता' (Unity in Diversity) को स्थापित करना कोई सरल कार्य नहीं था।

    2. साम्प्रदायिकता- संविधान सभा के समक्ष एक गम्भीर समस्या साम्प्रदायिकता की थी। इस समस्या से ही देश का विभाजन हुआ था और विभाजन के बाद पृथक् निर्वाचन प्रणाली जैसे विचारों को समाप्त करना था और वह भी सभी वर्गों की सहमति से साम्प्रदायिकता यह समस्या हल नहीं हुई थी। संविधान निर्माताओं को का उचित समाधान करके ही देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को अक्षुण्ण रखा जा सकता है।

    3. देशी रियासतों की समस्या- लगभग 600 देशी रियासतों को स्वेच्छापूर्वक भारत संघ में सम्मिलित करके विश्व के समक्ष देश की एकता का चित्र प्रस्तुत करना संविधान सभा के लिए एक गुरुतर कार्य था। कैबिनेट मिशन योजना और माउण्टबेटन योजना के अन्तर्गत देशी रियासतों को यह निर्णय लेने का अधिकार दे दिया गया था कि वे अपनी इच्छानुसार स्वतन्त्र अस्तित्व बनाए रखें या भारत अथवा पाकिस्तान में सम्मिलित हो जाएँ। अखण्ड भारत के बहुत से नरेश लोकतान्त्रिक शासन पद्धति के भी विरुद्ध थे, क्योंकि इसमें उनके अधिकार सीमित हो जाते थे। इस प्रकार संविधान निर्माताओं को देशी रियासतों का भारत में विलय करने तथा उनमें लोकतान्त्रिक व्यवस्था स्थापित करने के लिए अथक परिश्रम करना पड़ा।

    4. संघ तथा इकाइयों के पारस्परिक सम्बन्ध की समस्या- संविधान सभा के सामने एक अन्य विकट समस्या संघ तथा विभिन्न इकाइयों के पारस्परिक सम्बन्धों के निश्चय की थी। संघ तथा इकाइयों के लिए एक ही संविधान की रचना की जानी थी।

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