राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग)
स्वतन्त्र होते ही हमने अपने देश की शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए प्रयास शुरु किए। इस सन्दर्भ में भारत सरकार का पहला बड़ा कदम था 'विश्वविद्यालय आयोग' (राधाकृष्णन् कमीशन) की नियुक्ति। इस आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रशासन, संगठन और उसके स्तर को ऊँचा उठाने सम्बन्धी अनेक ठोस सुझाव दिए। उसके कुछ सुझावों का क्रियान्वयन भी किया गया, उससे उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कुछ सुधार भी हुआ, परन्तु वह सब हाथ नहीं लगा जिसे हम प्राप्त करना चाहते थे। शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार का दूसरा बड़ा कदम था 'माध्यमिक शिक्षा आयोग' (मुदालियर कमीशन) की नियुक्ति।
राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग) के उद्देश्य एवं कार्यक्षेत्र
भारत सरकार ने आयोग की नियुक्ति के उद्देश्य के सन्दर्भ में यह घोषणा की कि ''आयोग भारत सरकार को शिक्षा के राष्ट्रीय स्वरूप और उसके सभी स्तरों एवं पक्षों के सम्बन्ध में सामान्य सिद्धान्तों एवं नीतियों के विषय में सुझाव देगा।'' इसी उद्देश्य को आयोग ने अपने प्रतिवेदन में इस प्रकार व्यक्त किया है- ''यह आयोग सरकार को शिक्षा सम्बन्धी नीतियों, शिक्षा के राष्ट्रीय प्रतिमानों एवं शिक्षा के हर क्षेत्र में विकास की सम्भावनाओं पर विचार करने और अपनी सलाह सरकार को देने के लिए गठित किया गया है।''
इस उद्देश्य की दृष्टि से आयोग का कार्यक्षेत्र पूरे देश की तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण कर उसमें सुधार के लिए सुझाव देना था।
अतः उसके इस कार्यक्षेत्र को और अधिक स्पष्ट रूप में इस प्रकार समझाया जा सकता है-
(1) तत्कालीन भारतीय शिक्षा प्रणाली का गहराई से अध्ययन करना, उसके प्रति व्याप्त असन्तोष के कारणों का पता लगाना और उसमें सुधार के लिए सुझाव देना।
(2) पूरे देश के लिए शिक्षा के आयोजन और प्रशासन सम्बन्धी नीति तत्त्व निश्चित करना और इस सम्बन्ध में सरकार को सुझाव देना।
(3) पूरे देश के लिए समान शिक्षा प्रणाली प्रस्तावित करना, ऐसी शिक्षा प्रणाली जो देश के सर्वोत्मुखी (सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक) विकास में सहायक हो और यह प्रणाली ऐसी हो जो भारतीय शिक्षा के परम्परागत गुणों को सुरक्षित रखते हुए वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति करे और भविष्य के निर्माण में सहायक हो।
(4) पूरे देश में किसी भी स्तर की किसी भी प्रकार की शिक्षा के प्रसार एवं उसमें गुणात्मक सुधार के लिए उपायों की खोज करना और इस सम्बन्ध में सरकार को सुझाव देना।
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राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग) का प्रतिवेदन
आयोग ने इस बड़े कार्य को सम्पन्न करने के लिए दो विधियों का अनुसरण किया-पहली निरीक्षण एवं साक्षात्कार और दूसरी प्रश्नावली। निरीक्षण एवं साक्षात्कार के लिए आयोग ने कार्यकारी दल (Working Groups) बनाए जिन्होंने अपना-अपना कार्य शुरु किया। इन दलों ने देश के विभिन्न प्रान्तों का दौरा किया, उनके अनेक विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों को देखा और उनके छात्रों, शिक्षकों और प्रशासकों से साक्षात्कार किया। इसी के साथ-साथ उन्होंने अनेक शिक्षाविदों से भेंट की और उनसे विचार-विमर्श किया और मुख्य तथ्यों को लेखबद्ध किया।
दूसरी विधि जिसका आयोग ने अनुसरण किया वह थी प्रश्नावली । आयोग ने शिक्षा की विभिन्न समस्याओं से सम्बन्धित एक लम्बी प्रश्नावली (Questionnaire) तैयार की और उसे शिक्षा से जुड़े विभिन्न वर्ग के लगभग 5000 व्यक्तियों के पास भेजा, इनमें से 2400 व्यक्तियों ने इसे भरकर लौटाया। आयोग ने इस प्रश्नावली का सांख्यिकीय विवरण तैयार किया। इसके बाद आयोग ने इन दोनों विधियों से प्राप्त सुझावों पर विचार-विमर्श किया और अन्त में 29 जून, 1966 को अपना प्रतिवेदन 'शिक्षा एवं राष्ट्रीय प्रगति' (Education and National Development) शीर्षक से भारत सरकार को प्रेषित किया।
यह प्रतिवेदन 692 पृष्ठों का एक वृहत् दस्तावेज है जो तीन खण्डों में विभाजित हैं। प्रथम खण्ड में 6 अध्याय हैं जिनमें सभी स्तरों की शिक्षा व्यवस्था के पुनर्निर्माण का सामान्य विवेचन किया गया है: राष्ट्रीय लक्ष्य एवं शिक्षा का स्वरूप, संरचनात्मक पुनर्संगठन, शिक्षकों की समृद्धि, विद्यालयों में प्रवेश सम्बन्धी नीति और शिक्षा के अवसरों की समानता की चर्चा की गई है।
द्वितीय खण्ड में 11 अध्याय हैं जिनमें शिक्षा के विभिनन स्तरों एवं वर्गों का अलग-अलग विवेचन किया गया है; विद्यालयी शिक्षा, उच्च शिक्षा, कृषि शिक्षा, व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा और प्रौढ़ शिक्षा की विभिन्न समस्याओं का विवेचन किया गया है। तृतीय खण्ड में केवल 2 अध्याय हैं जिनमें शिक्षा आयोजन एवं प्रशासन और अर्थव्यवस्था के स्वरूप पर चर्चा की गई है। अन्त में सभी अध्यायों में वर्णित समस्याओं और उनके समाधानों को संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है।
और पढ़ें- वर्धा शिक्षा योजना क्या है, खैर समिति और आचार्य नरेन्द्र देव समिति प्रथम- Full Information
राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग) के मुख्य सुझाव
राष्ट्रीय शिक्षा आयोग ने तत्कालीन भारतीय शिक्षा का समग्ररूप से अध्ययन किया और उसके सम्बन्ध में अपने सुझाव दिए। आयोग को मूलधारण है कि शिक्षा राष्ट्र के विकास का मूल आधार है। उसने अपने प्रतिवेदन का शुभारम्भ ही इस वाक्य से किया है-''देश का भविष्य उसकी कक्षाओं में निर्मित हो रहा है।'' आयोग के प्रतिवेदन के सम्बन्ध में दूसरा मुख्य तथ्य यह है कि इसमें शिक्षा की कुछ समस्याओं का विवेचन तो समग्र रूप से किया गया है; जैसे-शिक्षा के राष्ट्रीय लक्ष्य, शिक्षा की संरचना, शिक्षकों की स्थिति, शैक्षिक अवसरों की समानता, कृषि शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, स्त्री शिक्षा और प्रौढ़ शिक्षा और कुछ समस्याओं का विवेचन स्तर विशेष की शिक्षा के सन्दर्भ में किया गया है; जैसे-विद्यालयी शिक्षा के उद्देश्य, पाठयक्रम और शिक्षण विधियाँ आदि और उच्च शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षण विधियाँ आदि। आयोग के इन सब सुझावों को हम निम्नलिखित क्रम में देख-समझ सकते हैं।
शिक्षा के प्रशासन, वित्त एवं नियोजन सम्बन्धी सुझाव
हमारे देश में शिक्षा के तत्कालीन प्रशासनिक ढाँचे की नींव अंग्रेजों ने रखी थी। स्वतन्त्र भारत में उसमें परिवर्तन किया जाना आवश्यक था। अंग्रेज सरकार हमारी शिक्षा पर बहुत कम व्यय करती थी, इसे भी बढ़ाना आवश्यक था। नियोजन के अभाव में तो कोई उद्देश्य अथवा लक्ष्य प्राप्त किया ही नहीं जा सकता। आयोग ने इन तीनों के सम्बन्ध में रचनात्मक सुझाव दिए।
शिक्षा के प्रशासन सम्बन्धी सुझाव
(1) शिक्षा को राष्ट्रीय महत्त्व का विषय माना जाए और उसकी राष्ट्रीय नीति घोषित की जाए। इसके लिए यदि आवश्यक हो तो केन्द्र सरकार 'नेशनल एजूकेशन एक्ट' बनाए और प्रान्तीय सरकारें 'स्टेट एजूकेशन एक्ट' बनाएँ।
(2) केन्द्रीय शिक्षा मन्त्रालय में शिक्षा सलाहकार और शिक्षा सचिव के पदों पर सरकारी, गैरसरकारी, भारतीय शिक्षा सेवा और विश्वविद्यालयों में से योग्यतम व्यक्तियों का चयन किया जाए।
(3) केन्द्रीय शिक्षा मन्त्रालय के सांख्यिकीय विभाग को सुदृढ़ किया जाए।
(4) 'भारतीय शिक्षा सेवा' में उन व्यक्तियों का चयन किया जाए जिन्हें शिक्षण कार्य का अनुभव हो।
(5) केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (CABE) को और अधिक अधिकार दिए जाएँ।
(6) राष्ट्रीय शिक्षा अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद (NCERT) को अखिल भारतीय स्तर पर विद्यालयी शिक्षा का भार सौंपा जाए।
(7) शिक्षा प्रशासकों और शिक्षकों के बीच स्थानान्तरण की व्यवस्था की जाए।
और पढ़ें- भारतीय शिक्षा आयोग (हण्टर कमीशन), 1882 | [Indian Education Commission, 1882]
शिक्षा के वित्त सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने स्पष्ट किया कि 1965-66 की अपेक्षा 1985-86 में छात्रों की संख्या कम से कम दूनी हो जाएगी और प्रति छात्र व्यय 12 रु० के स्थान पर 54 रु० हो जाएगा, इसलिए शिक्षा बजट में प्रति वर्ष वृद्धि करनी आवश्यक है। इस सम्बन्ध में उसने निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) केन्द्र सरकार अपने बजट में शिक्षा के लिए कम से कम 6 प्रतिशत का प्रावधान करे।
(2) राज्य सरकारें भी अपने बजटों में शिक्षा के लिए और अधिक धनराशि आवंटित करें।
(3) राज्यों में स्थानीय संस्थाओं (ग्राम पंचायतों और नगरपालिकाओं) को उनके क्षेत्र की प्राथमिक शिक्षा संस्थाओं का वित्तीय भार सौंपा जाए।
(4) व्यक्तिगत स्रोतों से अधिक से अधिक धन प्राप्त किया जाए।
(5) शिक्षा हेतु आय के स्रोत बढ़ाने के उपायों की खोज की जाए, इस क्षेत्र में अनुसन्धान किए जाएँ।
शिक्षा के नियोजन सम्बन्धी सुझाव
यूँ तो शिक्षा के क्षेत्र में नियोजन का आरम्भ सार्जेन्ट योजना, 1944 में हो गया था परन्तु वह बड़ी दीर्घकालीन (40 वर्षीय) योजना थी। 1951 में हमारे देश में पंचवर्षीय योजनाओं का श्री गणेश हुआ। शिक्षा के क्षेत्र में भी पंचवर्षीय नियोजन प्रारम्भ हुआ, परन्तु इस नियोजन में अनेक खामियाँ थी। आयोग ने इसमें सुधार हेतु निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) शैक्षिक नियोजन केन्द्रीय और प्रान्तीय स्तर पर अलग-अलग किया जाए।
(2) विद्यालयी शिक्षा का नियोजन स्थानीय निकाय और राज्य सरकारें मिलकर करें और उच्च शिक्षा का नियोजन प्रान्तीय और केन्द्रीय सरकारें मिलकर करें।
(3) शैक्षिक नियोजन वर्तमान और भविष्य की माँगों के आधार पर किया जाए; राष्ट्रीय, प्रान्तीय और उसके बाद स्थानीय आधार पर प्राथमिकताओं का वर्गीकरण किया जाए और उनके आधार पर सभी कार्यक्रम नियोजित किए जाएँ।
(4) शैक्षिक नियोजन इस प्रकार किया जाए कि 7 से 14 आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जा सकेः माध्यमिक शिक्षा 70 प्रतिशत बच्चों के लिए पूर्ण शिक्षा हो सके और शेष 30 प्रतिशत मेधावी छात्र-छात्राएँ उच्च शिक्षा में प्रवेश ले सकें।
(5) शैक्षिक नियोजन करते समय इस बात का ध्यान रखा जाए कि कुल शिक्षा बजट राशि का 2/3 सामान्य शिक्षा पर व्यय हो और 1/3 उच्च शिक्षा पर व्यय हो।
(6) शैक्षिक नियोजन में अपव्यय एवं अवरोधन को रोकने के लिए विशेष प्रावधान किया जाए।
(7) शैक्षिक नियोजन में शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ उसमें गुणात्मक सुधार के लिए व्यवस्था की जाए।
और पढ़ें- शिमला सम्मेलन, 1901, भारतीय विश्वविद्यालय आयोग, 1902 और कर्जन शिक्षा नीति, 1904
शिक्षा की संरचना सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने पूरे देश के लिए निम्नांकित शिक्षा संरचना का प्रस्ताव रखा-
1. पूर्व प्राथमिक शिक्षा- 1 से 3 वर्ष अवधि की।
2. निम्न प्राथमिक शिक्षा- 4 से 5 वर्ष अवधि की। कक्षा 1 में प्रवेश की न्यूनतम आयु 6 वर्ष ।
3. उच्च प्राथमिक शिक्षा- नं० 2 के क्रम में 4 या 3 वर्ष अवधि की।
4. (a) माध्यमिक शिक्षा (सामान्य वर्ग)- 2 वर्ष अवधि की।
(b) माध्यमिक शिक्षा (व्यावसायिक वर्ग)- 2 या 3 वर्ष अवधि की।
5. (a) उच्चतर माध्यमिक शिक्षा (सामान्य वर्ग)- 2 वर्ष अवधि की।
(b) उच्चतर माध्यमिक शिक्षा (व्यावसायिक वर्ग)- 2 या 3 वर्ष अवधि की।
6. (a) स्नातक शिक्षा (कला, विज्ञान, वाणिज्य)- 3 वर्ष अवधि की।
(b) स्नातक शिक्षा (इंजीनियरिंग एवं मेडिकल)- 3 या 4 वर्ष अवधि की।
7. परास्नातक शिक्षा (सभी विभाग)- 2 या 3 वर्ष अवधि की।
8. अनुसन्धान कार्य- 2 या 3 वर्ष अवधि का।
विशेष
(1) सामान्य शिक्षा (प्राथमिक एवं माध्यमिक) की कुल अवधि 10 वर्ष होनी चाहिए।
(2) उच्चतर माध्यमिक शिक्षा की अवधि सामान्य वर्ग की 2 वर्ष और व्यावसायिक वर्ग की 2 से 3 वर्ष होनी चाहिए।
(3) विद्यालय संकुलों (School Complexes) का यथा शीघ्र निर्माण किया जाए। एक संकुल में एक माध्यमिक स्कूल और उसके निकटवर्ती सभी प्राथमिक स्कूल हों।
(4) प्रथम सार्वजनिक परीक्षा 10 वर्ष की सामान्य शिक्षा समाप्त करने पर होनी चाहिए।
शिक्षा के उद्देश्य, लक्ष्य अथवा कार्य सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने शिक्षा को राष्ट्र के विकास का मूल आधार माना है। उसने राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में शिक्षा के 5 उद्देश्य, लक्ष्य अथवा कार्य निश्चित किए और इन्हें पंचमुखी कार्यक्रम की सर दी। आयोग ने इनमें से प्रत्येक की प्राप्ति के लिए अनेक अन्य कार्य भी निश्चित किए। यहाँ इस पंचमुखी कार्यक्रम का वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है।
पंचमुखी कार्यक्रम
1. शिक्षा द्वारा उत्पादन में वृद्धि करना- आयोग ने राष्ट्र के विकास के लिए शिक्षा को उत्पादन परक बनाने पर बल दिया और इसके लिए निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) विज्ञान शिक्षा को प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर अनिवार्य किया जाए और इस शिक्षा का उपयोग उत्पादन कार्यों में किया जाए।
(2) कार्यानुभव (Work Experience) को विद्यालयी शिक्षा का अनिवार्य अंग बनाया जाए।
(3) माध्यमिक शिक्षा को व्यावसायपरक बनाया जाए।
(4) उच्च शिक्षा में कृषि विज्ञान और तकनीकी शिक्षा पर विशेष बल दिया जाए।
(5) विश्वविद्यालयों में विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में शोध कार्य को विकसित किया जाए।
2. शिक्षा द्वारा सामाजिक तथा राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करना- इस उद्देश्य अथवा लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए -
(1) सामान्य स्कूलों (Common Schools) की स्थापना की जाए जिनमें शिक्षा सबके लिए समान रूप से सुलभ हो और अच्छी शिक्षा आर्थिक आधार पर नहीं, योग्यता के आधार पर सुलभ हो।
(2) शिक्षा के सभी स्तरों पर समाज सेवा एवं राष्ट्र सेवा कार्य अनिवार्य हों।
(3) सभी संघीय भाषाओं का विकास किया जाए और राष्ट्रभाषा हिन्दी के विकास के लिए विशेष प्रयत्न किए जाएँ।
(4) विद्यालयों में ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन हो जिनसे बच्चों में सामाजिक समानता और राष्ट्रीय एकता का विकास हो।
3. शिक्षा द्वारा लोकतन्त्रीय मूल्यों का विकास करना- आयोग की दृष्टि में शिक्षा लोकतन्त्र की रीढ़ की हड्डी है, शिक्षा के अभाव में लोकतन्त्र सफल नहीं हो सकता। उसने देश के नागरिकों में लोकतन्त्रीय मूल्यों के विकास के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) 6 से 14 वर्ष तक के बालकों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
(2) सभी बच्चों को, बिना किसी भेदभाव के, शिक्षा के समान अवसर दिए जाएँ।
(3) माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा का समुचित विकास किया जाए और इन स्तरों पर युवकों को कुशल नेतृत्व का प्रशिक्षण दिया जाए।
(4) विद्यालयों में ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाए जिनसे बच्चों में लोकतन्त्रीय मूल्यों में आस्था उत्पन्न हो और वे तद्नुकूल व्यवहार करें।
(5) प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
4. शिक्षा द्वारा राष्ट्र का आधुनिकीकरण करना- राष्ट्र के आधुनिकीकरण से आयोग का तात्पर्य विज्ञान एवं तकनीकी के प्रयोग योग से से देश का आर्थिक विकास करने और जन साधारण के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने से है। इसके लिए उसने निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
(2) जन साधारण के शैक्षिक स्तर को ऊँचा उठाया जाए।
(3) उच्च स्तर पर विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा की उचित व्यवस्था की जाए।
(4) छात्रों में स्वतन्त्र चिन्तन और निर्णय लेने की शक्ति का विकास किया जाए।
5. शिक्षा द्वारा सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का विकास- करना इन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) सभी शिक्षण संस्थाओं में सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा अनिवार्य रूप में दी जाए।
(2) प्राथमिक स्तर पर इन मूल्यों की शिक्षा रोचक कहानियों के माध्यम से दी जाए।
(3) माध्यमिक स्तर पर शिक्षक-शिक्षार्थी विचार-विमर्श करें और अपने लिए मूल्यों का चयन करें।
(4) विश्वविद्यालय स्तर पर मूल्यों का सुदृढ़ीकरण किया जाए।
विद्यालयी शिक्षा के सन्दर्भ में सुझाव
भारतीय शिक्षा आयोग ने विद्यालयी शिक्षा के सन्दर्भ में जो सुझाव दिए उन्हें हम अग्रलिखित क्रम में देख-समझ सकते हैं-
विद्यालयी शिक्षा के प्रशासन एवं निरीक्षण सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने विद्यालयी शिक्षा के प्रशासन एवं विद्यालयों के निरीक्षण के सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) केन्द्र में 'राष्ट्रीय विद्यालयी शिष्ठा बोर्ड' (National Board of School Education) और 'भारतीय शिक्षा सेवा' (Indian Education Service) का गठन किया जाए।
(2) प्रत्येक राज्य में 'राज्य विद्यालयी शिक्षा बोर्ड' (State Board of School Education) और 'राज्य शिक्षा सेवा' (State Education Service) का गठन किया जाए।
(3) देश में अनेक प्रकार के विद्यालय हैं-सरकारी, गैरसरकारी, स्थानीय निकायों द्वारा संचालित, सहायता प्राप्त, गैर सहायता प्राप्त आदि। इनकी प्रबन्ध समितियाँ भिन्न-भिन्न प्रकार की हैं। आगामी 20 वर्षों में अर्थात् 85-86 तक इन सबको समाप्त कर 'सामान्य विद्यालय प्रवन्ध पद्धति' का विकास किया जाए और इनको प्रबन्ध समितियों में शिक्षा विभाग के व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व हो। जो विद्यालय प्रबन्ध समितियाँ विद्यालयों का उचित प्रबन्ध न कर सकें उन्हें भंग कर दिया जाए।
(4) विद्यालयों के नियमित निरीक्षण की व्यवस्था की जाए। निरीक्षण मण्डलों में जिला विद्यालय निरीक्षक और उनके साथ योग्य एवं अनुभवी व्यक्तियों को रखा जाए।
(5) प्रशासन से निरीक्षण कार्य को अलग रखा जाए-जिले के विद्यालयों का प्रशासन कार्य जिला विद्यालय बोर्ड के हाथों में हो और उनके निरीक्षण का कार्य 'जिला शिक्षा अधिकारी' के हाथों में हो, किन्तु दोनों में सहयोग होना चाहिए।
विद्यालयी शिक्षा की पाठ्यचर्या सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने सर्वप्रथम किसी भी स्तर की पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्त निश्चित किए और उसके बाद उन सिद्धान्तों के आधार पर पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक, उच्च प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या की रूपरेखा प्रस्तुत की। साथ ही त्रिभाषा सूत्र को संशोधित रूप में प्रस्तुत किया। यहाँ उस सबका वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है।
1. विद्यालयी पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्त
(1) विद्यालयी पाठ्यचर्या का निर्माण बेसिक शिक्षा के सिद्धान्तों (उत्पादन एवं सहसम्बन्ध आदि) के आधार पर किया जाए परन्तु किसी भी स्तर की शिक्षा को बेसिक शिक्षा न कहा जाए।
(2) प्राथमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या पूरे देश के लिए समान होनी चाहिए। यह सरल होनी चाहिए और इसमें मातृभाषा और पर्यावरण के अध्ययन पर विशेष बल दिया जाना चाहिए।
(3) माध्यमिक शिक्षा के लिए पूरे देश के लिए एक आधारभूत पाठ्यचर्या (core curriculum) होनी चाहिए।
(4) व्यावसायिक वर्ग की पाठ्यचर्या स्थान विशेष की आवश्यकताओं पर आधारित होनी चाहिए।
(5) माध्यमिक शिक्षा के सामान्य एवं व्यावसायिक, किसी भी वर्ग की पाठ्यचर्या अपने में पूर्ण इकाई होनी चाहिए।
(6) विशिष्टीकरण की व्यवस्था उच्च माध्यमिक स्तर पर ही की जाए।
2. पूर्व प्राथमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या की रूपरेखा
(1) खाने पहनने के कौशल
(2) सफाई
(3) बातचीत, सामाजिक व्यवहार
(4) खेल-कूद
(5) सृजनात्मक कार्य ।
3. प्राथमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या की रूपरेखा
(1) मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा)
(2) व्यावहारिक गणित
(3) भौतिक पर्यावरण का अध्ययन
(4) सृजनात्मक क्रियाएँ
(5) कार्यानुभव (सरल हस्त कार्य)
(6) समाज सेवा (आयु अनुसार)
(7) स्वास्थ्य शिक्षा (खेलकूद एवं व्यायाम) ।
4. उच्च प्राथमिक अथवा निम्न माध्यमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या की रूपरेखा
(1) मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा)
(2) हिन्दी अथवा अंग्रेजी
(3) गणित
(4) विज्ञान
(5) सामाजिक अध्ययन
(6) कला
(7) कार्यानुभव (शिल्प कार्य)
(8) समाज सेवा
(9) स्वास्थ्य शिक्षा (खेलकूद, शरीर विज्ञान)
(10) नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा (मानव धर्म पर आधारित)।
5. माध्यमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या की रूपरेखा
(1) मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा)
(2) हिन्दी अथवा कोई अन्य संघीय भाषा
(3) कोई यूरोपीय भाषा या कोई शास्त्रीय भाषा
(4) गणित
(5) सामान्य विज्ञान
(6) सामाजिक विज्ञान
(7) कला
(8) कार्यानुभव (कृषि कार्य आदि)
(9) समाज सेवा (स्थानानुसार)
(10) स्वास्थ्य शिक्षा
(11) नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा।
6. उच्चतर माध्यमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या की रूपरेखा (1) तथा (2)- अग्रांकित में से कोई दो भाषाएँ (i) कोई आधुनिक भारतीय संघीय भाषा (ii) कोई आधुनिक विदेशी भाषा (iii) कोई शास्त्रीय भाषा।
(3), (4) तथा (5)- अग्रांकित में से कोई तीन विषय (i) कोई तीसरी भाषा (ii) इतिहास (iii) भूगोल (iv) अर्थशास्त्र (v) तर्कशास्त्र (vi) मनोविज्ञान (vii) समाजशास्त्र (viii) कला (ix) भौतिकशास्त्र, (x) रसायनशास्त्र (xi) गणित (xii) जीव विज्ञान (xiii) भूगर्भशास्त्र (xiv) गृह विज्ञान ।
अतिरिक्त एवं अनिवार्य (6), (7) तथा (8)- (6) कार्यानुभव (7) समाज सेवा (8) स्वास्थ्य शिक्षा।
7. संशोधित त्रिभाषा सूत्र
आयोग ने प्रस्तावित त्रिभाषा सूत्र में संशोधन कर उसे निम्नलिखित रूप में लागू करने का सुझाव दिया-
(1) मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा अथवा प्रादेशिक भाषा),
(2) संघ की राजभाषा हिन्दी अथवा अंग्रेजी,
(3) कोई आधुनिक भारतीय भाषा या कोई आधुनिक यूरोपीय भाषा या कोई शास्त्रीय भाषा जो प्रथम दो में न ली गई हो।
विद्यालयी शिक्षा की शिक्षण विधियों सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने विद्यालयी शिक्षा की शिक्षण विधियों और माध्यम के सम्बन्ध में भी विस्तार से सुझाव दिए। यहाँ उन सबका वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है।
1. शिक्षण विधियों सम्बन्धी सुझाव
(1) शिक्षण विधियाँ लचीली होनी चाहिए, गतिशील होनी चाहिए और क्रिया प्रधान एवं रोचक होनी चाहिए।
(2) शिक्षकों को नवीन शिक्षण विधियों के प्रयोग के लिए प्रोत्साहन दिया जाए, इसके लिए कार्यशालाओं और संगोष्ठियों का आयोजन किया जाए।
(3) शिक्षकों को उचित निर्देशन सामग्री उपलब्ध कराई जाए।
(4) विद्यालयों को शिक्षण सम्बन्धी सहायक सामग्री उपलब्ध कराई जाए।
(5) शिक्षकों को शिक्षण सहायक सामग्री निर्माण करने का प्रशिक्षण दिया जाए और वे इनका निर्माण विद्यालयों की कार्यशालाओं में करें।
(6) आकाशवाणी के सहयोग से पाठों का प्रसारण किया जाए।
(7) शिक्षार्थियों के लिए पाठों का प्रसारण विद्यालय समय में किया जाए, शिक्षकों के लिए विद्यालयों समय से पहले अथवा बाद में किया जाए।
2. शिक्षा के माध्यम सम्बन्धी सुझाव
माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा अथवा राजभाषा) के माध्यम से दी जाए।
पाठ्यपुस्तकों सम्बन्धी सुझाव
(1) पाठ्यपुस्तकें तैयार करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक योजना बनाई जाए।
(2) पाठ्यपुस्तकों का निर्माण राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद (NCERT) द्वारा निर्धारित सिद्धान्तों के आधार पर किया जाए।
(3) राष्ट्रीय स्तर पर पाठ्यपुस्तकों के लेखन के लिए प्रतिभावान व्यक्तियों को पारिश्रमिक देकर प्रोत्साहित किया जाए।
(4) पाठ्यपुस्तकों का निर्माण, उनका परीक्षण और मूल्यांकन राज्य सरकारों का उत्तरदायित्व होना चाहिए।
(5) शिक्षा मन्त्रालय पाठ्यपुस्तकों, विशेषकर विज्ञान एवं तकनीकी की पाठ्यपुस्तकों के निर्माण हेतु एक स्वायत्त संस्था का गठन करे।
(6) प्रत्येक राज्य में पाठ्यपुस्तक समितियों का निर्माण किया जाए।
विद्यालयी शिक्षा में निर्देशन एवं परामर्श सम्बन्धी सुझाव
आयोग की दृष्टि में शैक्षिक निर्देशन एवं परामर्श का उद्देश्य छात्र-छात्राओं की शैक्षिक समस्याओं का समाधान करना होता है। ये समस्याएँ अनेक प्रकार की हो सकती हैं-विद्यालय में मन न लगना, कोई विषय समझ में न आना, विद्यालयी समाज में समायोजन न कर पाना आदि। जहाँ तक विषयों के चयन की बात है यह समस्या तो उच्चतर माध्यमिक स्तर के छात्रों की ही होती है। शैक्षिक निर्देशन एवं परामर्श द्वारा इन समस्याओं का समाधान किया जाता है। इस सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) छात्र-छात्राओं के लिए निर्देशन एवं परामर्श की व्यवस्था प्राथमिक स्तर से ही की जाए।
(2) माध्यमिक स्तर पर छात्रों को उनकी रुचि एवं योग्यता के आधार पर शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन एवं परामर्श दिया जाए।
(3) माध्यमिक स्तर पर शैक्षिक निर्देशन के द्वारा पिछड़े एवं प्रतिभावान छात्रों की पहचान हो जानी चाहिए।
(4) प्रत्येक जिले में कम से कम एक विद्यालय में शैक्षिक निर्देशन एवं परामर्श की विशेष व्यवस्था की जाए।
(5) 10 विद्यालयों पर एक निर्देशन एवं परामर्श अधिकारी की नियुक्ति की जाए।
(6) मार्गदर्शन कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की व्यवस्था राजकीय मार्गदर्शन ब्यूरो और प्रशिक्षण महाविद्यालयों में की जाए।
(7) माध्यमिक विद्यालयों के शिक्षकों को अन्तर्सेवा कार्यक्रम (Inscrvice Programme) के अन्तर्गत निर्देशन एवं परामर्श के विषय में सामान्य जानकारी दी जाए।
विद्यालयी शिक्षा में मूल्यांकन सम्बन्धी सुझाव
आयोग की दृष्टि में शिक्षा के किसी भी स्तर पर मूल्यांकन की प्रक्रिया एक सतत् प्रक्रिया होनी चाहिए, किसी कक्षा के छात्रों का मूल्यांकन पूरे वर्ष चलना चाहिए और आन्तरिक मूल्यांकन को विशेष महत्त्व देना चाहिए। उसने विद्यालयी शिक्षा में मूल्यांकन सम्बन्धी निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) कक्षा 1 से 4 तक के छात्रों का मूल्यांकन केवल आन्तरिक हो, उन्हें योग्यता के आधार पर कक्षोन्नति दी जाए।
(2) प्राथमिक स्तर के अन्त में जिले स्तर पर बाह्य परीक्षा होनी चाहिए। इसकी व्यवस्था जिला शिक्षा अधिकारी करे।और वही उत्तीर्ण छात्रों को प्रमाणपत्र दे।
(3) कक्षा 10 के अन्त में पूरे प्रदेश में सार्वजनिक परीक्षा होनी चाहिए। इसकी व्यवस्था माध्यमिक शिक्षा बोर्ड करे। और वही उत्तीर्ण छात्रों को प्रमाणपत्र दे।
(4) लिखित परीक्षा को वस्तुनिष्ठ, विश्वसनीय और व्यावहारिक बनाने के लिए प्रयास किए जाएँ। इसके लिए निबंधात्मक, लघुउत्तरीय और वस्तुनिष्ठ, तीनों प्रकार के प्रश्न पूछे जाएँ।
(5) छात्र-छात्राओं की जिन उपलब्धियों का मापन एवं मूल्यांकन लिखित परीक्षाओं द्वारा सम्भव न हो, उनका मापन मौखिक एवं प्रायोगिक परीक्षाओं द्वारा किया जाए। इन्हें भी वस्तुनिष्ठ, विश्वसनीय और व्यावहारिक बनाया जाए।
(6) माध्यमिक स्तर पर लिखित परीक्षाओं के साथ मौखिक एवं प्रायोगिक परीक्षाओं का आयोजन किया जाए।
(7) आन्तरिक मूल्यांकन में संचयी अभिलेख (Cumulative Record) को महत्व दिया जाए।
(8) बाह्य परीक्षाओं के प्रश्नपत्र बनाने वाले शिक्षकों को प्रश्नों की रचना करने में प्रशिक्षित किया जाए।
(9) उत्तरों पर अंक देने को वस्तुनिष्ठ बनाने का प्रयत्न किया जाए।
(10) आन्तरिक और बाह्य परीक्षाओं के प्राप्तांक अलग-अलग दिखाए जाएँ।
(11) बोर्ड की परीक्षा में श्रेणी के स्थान पर ग्रेड प्रणाली का प्रयोग किया जाए।
विद्यालयी शिक्षा के प्रसार सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने विद्यालयी शिक्षा के भिन्न-भिन्न स्तरों के प्रसार (संख्यात्मक वृद्धि) के लिए विभिन्न सुझाव दिए।
1. पूर्व प्राथमिक शिक्षा के प्रसार सम्बन्धी सुझाव
(1) प्रत्येक राज्य के 'राज्य शिक्षा संस्थान' में 'राज्य पूर्व प्राथमिक शिक्षा केन्द्र' की स्थापना की जाए जो राज्य की पूर्व प्राथमिक शिक्षा के विस्तार के कार्यक्रम बनाए।
(2)प्रत्येक राज्य के प्रत्येक जिले में 'पूर्व प्राथमिक शिक्षा प्रसार केन्द्र स्थापित किए जाएँ जो अपने-अपने क्षेत्र में पूर्व प्राथमिक शिक्षा के प्रसार के लिए उत्तरदायी हों। ये केन्द्र पूर्व प्राथमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण और प्रशिक्षित शिक्षकों के लिए अभिनव पाठयक्रमों (Refresher Cources) की व्यवस्था भी करें।
(3) अधिक से अधिक प्राथमिक स्कूलों में पूर्व प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
(4) पूर्व प्राथमिक स्तर की व्यक्तिगत संस्थाओं को अनुदान दिया जाए और साथ ही उन्हें प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
(5) पूर्व प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था के लिए अल्पव्ययी विधियों की खोज की जाए।
2. प्राथमिक शिक्षा के प्रसार सम्बन्धी सुझाव
(1) 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों की संख्या बहुत अधिक तेजी से बढ़ रही है, उससे अधिक तेजी से प्राथमिक स्कूल खोले जाएँ और 85-86 तक 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों की अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त किया जाए।
(2) इस स्तर पर अपव्यय और अवरोधन सबसे अधिक होता है, उसे रोकने के उपाय किए जाएँ।
(3) ऐसे बच्चे जो किसी कारण प्राथमिक शिक्षा के बाद पढ़ने की स्थिति में नहीं है, उन्हें प्राथमिक स्तर पर ही किसी हस्तकार्य में निपुण किया जाए।
(4) सभी बच्चों को एक किमी की दूरी के अन्दर प्राथमिक और 3 किमी की दूरी के अन्दर उच्च प्राथमिक स्कूल उपलब्ध कराए जाएँ।
(5) जिन बच्चों को प्राथमिक शिक्षा के बाद पूर्णकालिक उच्च प्राथमिक शिक्षा सुलभ न हो उनके लिए अल्पकालिक शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
(6) 11 से 14 वर्ष के उन सभी बच्चों के लिए जिन्होंने किसी कारण प्राथमिक शिक्षा प्राप्त नहीं की है, 1 वर्षीय साक्षरता कक्षाएँ चलाई जाएँ।
(7) पिछड़ी, अनुसूचित और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों के लिए प्राथमिक विद्यालय खोले जाएँ।
(8) मन्द बुद्धि और विकलांग बच्चों के लिए अलग से स्कूल खोले जाएँ।
3. माध्यमिक शिक्षा के प्रसार सम्बन्धी सुझाव
(1) प्रत्येक जिले में आवश्यकतानुसार माध्यमिक शिक्षा के प्रसार की योजना बनाई जाए और उसे 10 वर्षों की अवधि में पूरा किया जाए।
(2) माध्यमिक स्तर पर होने वाले अपव्यय और अवरोधन को रोकने के उपाय किए जाएँ।
(3) प्रत्येक जिले में आवश्यकतानुसार माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना की जाए।
(4) व्यक्तिगत प्रयासों को प्रोत्साहन दिया जाए।
(5) जहाँ आवश्यक हो वहाँ अंशकालिक माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था की जाए, विशेषकर व्यावसायिक वर्ग की।
(6) सभी को माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर दिए जाएँ। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था के लिए विशेष योजनाएँ बनाई जाएँ।
(7) लड़कियों के लिए और अधिक माध्यमिक विद्यालय खोले जाएँ, दूर से आने वाली बच्चियों के लिए छात्रावास बनाए जाएँ, उनके लिए माध्यमिक स्तर की शिक्षा निःशुल्क की जाए और निर्धन छात्राओं को छात्रवृत्तियाँ दी जाएँ।
(8) सह शिक्षा के लिए जन मानस तैयार किया जाए।
विद्यालयी शिक्षा के उन्नयन सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने स्पष्ट किया कि केवल विद्यालयी शिक्षा के प्रसार से काम नहीं चलेगा, उसके स्तर में भी सुधार होना चाहिए और इस सन्दर्भ में उसने निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक और माध्यमिक, सभी स्तरों की शिक्षा के उद्देश्य सुस्पष्ट किए जाएँ।
(2) पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक और माध्यमिक, सभी स्तरों की शिक्षा की पाठ्यचर्या में सुधार किया और उनकी पाठ्यचर्या में आपस में सम्बन्ध स्थापित किया जाए।
(3) शिक्षण विधियों में सुधार किया जाए, विभिन्न स्तरों पर विभिन्न शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाए।
(4) सभी स्तरों की पाठ्यपुस्तकों में सुधार किया जाए।
(5) विद्यालयी स्तर पर शैक्षिक निर्देशन एवं परामर्श की व्यवस्था कीजाए।
(6) मूल्यांकन पद्धति में सुधार किया जाए।
(7) 'विद्यालय संकुलों' (School Complexes) का यथा शीघ्र निर्माण किया जाए। प्रत्येक विद्यालय संकुल के माध्यमिक और सभी प्राथमिक स्कूलों को अपना स्तर उठाने के लिए प्रेरित किया जाए।
विश्वविद्यालयी शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
इस आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा के सन्दर्भ में जो सुझाव दिए हैं उन्हें निम्नलिखित क्रम में देखा-समझा जा सकता है।
विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रशासन सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रशासन को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) का पुनर्गठन किया जाए। इसके कुल सदस्यों के 1/3 सदस्य विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधि होने चाहिए।
(2) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को और अधिक सशक्त बनाया जाए। इसे उच्च शिक्षा संस्थाओं को अनुदान देने के साथ-साथ उनके निरीक्षण का अधिकार भी दिया जाए और साथ ही उच्च शिक्षा का स्तर बनाए रखने का उत्तरदायित्व सौंपा जाए।
(3) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को विश्वविद्यालयों को उदारतापूर्वक अनुदान देना चाहिए, विशेषकर 'उच्च अध्ययन केन्द्रों' (Centres of Advanced Studies) की स्थापना हेतु ।
(4) कृषि, इंजीनियरिंग और चिकित्सा को उच्च शिक्षा की देख-रेख के लिए केन्द्र में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की भाँति अलग-अलग संस्थाएँ स्थापित की जाएँ।
(5) सभी विश्वविद्यालयों को 'अन्तर्विश्वविद्यालय परिषद' (Inter University Council) सदस्य बनाया जाए।
(6) सभी विश्वविद्यालयों को और अधिक स्वायत्तता प्रदान की जाए जिससे वे अपने शिक्षण और अनुसंधान कार्य में सुधार कर सकें।
(7) विश्वविद्यालयों के प्रशासन तन्त्र का पुनर्गठन किया जाए। इनकी कोर्टों में सदस्यों की संख्या 100 से कम की जाए। सदस्यों में 50% सदस्य विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि और 50% बाह्य सदस्य रखे जाएँ। इस कोर्ट को नियम बनाने का अधिकार दिया जाए।
(8) विश्वविद्यालयों की कार्यकारिणी परिषद में 15 से 20 सदस्य होने चाहिएँ और विश्वविद्यालय का कुलपति इसका अध्यक्ष होना चाहिए। इस परिषद को नियमानुसार क्रियान्वयन का अधिकार एवं उत्तरदायित्व होना चाहिए।
(9) विश्वविद्यालयों की शैक्षिक परिषदों में छात्रों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए। इन परिषदों को पाठ्यक्रम निर्माण और शैक्षिक विषयों पर निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए।
(10) विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के चुनाव में स्वतन्त्रता होनी चाहिए। इस पद के लिए ऐसे व्यक्तियों का चुनाव करना चाहिए जो शिक्षाशास्त्री हों और जिन्हें प्रशासन का अनुभव हो। या पद पूर्णकालिक और वैतनिक होना चाहिए। कुलपति का कार्यकाल 5 वर्ष होना चाहिए और उसकी सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष होनी चाहिए।
(11) विश्वविद्यालयों को पाठ्यक्रम निर्माण, शिक्षकों की नियुक्ति, छात्रों के चयन और अनुसंधान कार्य के क्षेत्र में स्वायत्तता होनी चाहिए।
(12) विश्वविद्यालयों के विभागाध्यक्षों को अपने-अपने विभागों की व्यवस्था करने की स्वतन्त्रता होनं चाहिए।
विश्वविद्यालयी शिक्षा के संगठन सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा की उचित व्यवस्था हेतु चार प्रकार की उच्च शिक्षा संस्थाओं के विकार पर बल दिया-सामान्य विश्वविद्यालय, वरिष्ठ विश्वविद्यालय, सामान्य महाविद्यालय और स्वायत्त महाविद्यालय साथ ही उसने नए विश्वविद्यालयों एवं वरिष्ठ विश्वविद्यालयों की स्थापना के सम्बन्ध में भी सुझाव दिए। यहाँ उन सबका वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत हैं।
1. नए विश्वविद्यालयों की स्थापना सम्बन्धी सुझाव
(1) नए विश्वविद्यालय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्वीकृति के बाद ही स्थापित किए जाएं।
(2) नए विश्वविद्यालय उन्हीं स्थानों पर स्थापित किए जाएँ जहाँ कोई विश्वविद्यालय न हो और जहाँ उनकी आवश्यकता हो।
(3) किसी भी नए विश्वविद्यालय की स्थापना तभी की जाए जब उससे उच्च शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने में सहायता मिले।
(4) जहाँ कई स्नातकोत्तर महाविद्यालय हों, उनको संगठित करके नए विश्वविद्यालय का रूप दिया जा सकता है।
2. वरिष्ठ विश्वविद्यालयों की स्थापना सम्बन्धी सुझाव
(1) कुछ विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर शिक्षा और शोध कार्य पर विशेष बल दिया जाए और उसे वरिष्ठ विश्वविद्यालय की संज्ञा दी जाए। प्रारम्भ में केवल 6 विश्वविद्यालयों को वरिष विश्वविद्यालयों के रूप में विकसित किया जाए।
(2) इन विश्वविद्यालयों का सम्पूर्ण वित्तीय भार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग पर हो ।
(3) इन विश्वविद्यालयों में अति मेधावी छात्रों को प्रवेश दिया जाए।
(4) इन विश्वविद्यालयों में छात्रवृत्तियों को विशेष व्यवस्था की जाए।
(5) इन विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर की जाए। इसके लिए योग्य शिक्षकों को अग्रिम वेतनवृद्धि दी जा सकती है।
(6) इन विश्वविद्यालयों में शिक्षकों को शोध कार्य के लिए विशेष सुविधाएँ दी जाएँ।
(7) इन विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा हेतु शिक्षकों का निर्माण किया जाए।
3. नए महाविद्यालयों की स्थापना सम्बन्धी सुझाव
(1) नए महाविद्यालयों को मान्यता देने के स्थान पर पुराने महाविद्यालयों का विस्तार किया जाए।
(2) एक महाविद्यालय में 500 से 1000 तक छात्र-छात्राएँ होने चाहिए।
4. स्वायत्त महाविद्यालयों की स्थापना सम्बन्धी सुझाव
(1) कुछ उत्तम श्रेणी के महाविद्यालयों को स्वायत्त महाविद्यालयों (Autonoms Colleges) के रूप में विकसित किया जाए।
(2) इन महाविद्यालयों को विश्वविद्यालयों की भाँति अपना पाठ्यक्रम बनाने और अपने छात्रों की परीक्षा लेने का अधिकार होगा, अन्य क्षेत्रों में ये सामान्य महाविद्यालयों की भाँति ही होंगे।
5. अंशकालिक शिक्षा और पत्राचार पाठ्यक्रम सम्बन्धी सुझाव
(1) कुछ विश्वविद्यालयों द्वारा अंशकालिक शिक्षा और पत्राचार पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जाए।
(2) इस व्यवस्था के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अनुदान दे।
6. उच्च शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश सम्बन्धी सुझाव
(1) सभी विश्वविद्यालयों में प्रवेश समितियों का गठन किया जाए। ये समितियाँ प्रवेश नियमों का निर्माण करें और सभी सम्बद्ध संस्थाएँ इनका अनुपालन करें।
(2) उच्च शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश छात्र-छात्राओं की योग्यता, प्रवेश स्थान और शिक्षकों की संख्या के आधार पर दिए जाएँ।
(3) किसी भी प्रकार की स्नातकोत्तर शिक्षा में प्रवेश के नियम और भी अधिक कठोर होने चाहिएँ।
(4) शोध कार्य के लिए केवल उन्हीं व्यक्तियों का चयन किया जाए जो शैक्षिक योग्यता के साथ-साथ अति प्रतिभाशाली हों, अति परिश्रमी हों और जिनकी शोध में रुचि हो, प्रवृत्ति हो।
विश्वविद्यालयी शिक्षा के उद्देश्य सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने. भारतीय विश्वविद्यालयों के जो लक्ष्य निर्धारित किए हैं उन्हें ही हम उच्च शिक्षा के उद्देश्य मान सकते हैं। यहाँ उनका क्रमबद्ध उल्लेख प्रस्तुत है।
(1) नवीन ज्ञान की प्राप्ति एवं नए तथ्यों (सत्य) की खोज करना।
(2) पुराने ज्ञान एवं विश्वासों का मूल्यांकन करना।
(3) सामाजिक न्याय को प्रोत्साहन देना और मूल्यों का विकास करना।
(4) छात्रों और शिक्षकों में और उनके द्वारा समाज के व्यक्तियों में उचित मान्यताओं और दृष्टिकोणों का विकास करना।
(5) सामाजिक एवं सांस्कृतिक विभिन्नताओं को कम करना।
(6) प्रतिभाशाली युवकों को खोज करना और उन्हें अपनी प्रतिभाओं के विकास में सहायता करना।
(7) जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने की कुशलता और नेतृत्व शक्ति का विकास करना ।
(8) कृषि, चिकित्सा, विज्ञान, तकनीकी एवं अन्य क्षेत्रों के लिए कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों का निर्माण करना।
(9) राष्ट्रीय चेतना का विकास करना।
विश्वविद्यालयी शिक्षा के पाठ्यक्रम सम्बन्धी सुझाव
(1) स्नातक स्तर का पाठ्यक्रम तीन वर्ष का किया जाए और इस स्तर पर सामान्य और ऑनर्स दोनों प्रकार के पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जाए।
(2) स्नातक स्तर पर पाठ्यक्रम में नए-नए विषयों का समावेश किया जाए और छात्र-छात्राओं को विषयों के चयन हेतु पर्याप्त अवसर प्रदान किए जाएँ।
(3) स्नातक स्तर पर एक या दो विषयों में गहन अध्ययन आवश्यक हो।
(4) उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं और शास्त्रीय भाषाओं के अध्ययन को व्यवस्था की जाए।
(5) साथ ही विदेशी भाषाओं-अंग्रेजी और रूसी भाषा आदि की शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
उच्च स्तर पर शिक्षण में सुधार और शिक्षा के माध्यम सम्बन्धी सुझाव
1. शिक्षण में सुधार हेतु सुझाव
(1) उच्च शिक्षा संस्थाओं में शिक्षण प्रक्रिया में सुधार करने हेतु विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में एक विशेष समिति का गठन किया जाना चाहिए।
(2) छात्रों में रटने की प्रवृत्ति समाप्त की जानी चाहिए और चिन्तन की प्रवृत्ति का विकास किया जाना चाहिए।
(3) व्याख्यान के बाद उसको सामग्री को आत्मसात् करने के लिए समय दिया जानी चाहिए।
(4) कक्षा शिक्षण को कुछ कम करके उसके स्थान पर स्वाध्याय, विचार-विमर्श, समस्या-समाधान और लेखन को महत्व दिया जाए। इस हेतु सम्पन्न पुस्तकालयों और संगोष्ठी भवनों की उचित व्यवस्था की जाए।
(5) नए शिक्षकों की नियुक्ति ग्रीष्मावकाश में की जाए जिससे सत्र सुचारू रूप से चले।
(6) किसी शिक्षक को सत्र के बीच में संस्था छोड़ने की स्वीकृति न दी जाए।
(7) किसी भी शिक्षक को एक समय 7 दिन से अधिक का अवकाश न दिया जाए।
2. शिक्षा के माध्यम सम्बन्धी सुझाव
(1) स्नातक स्तर की शिक्षा क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से हो।
(2) स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा अंग्रेजी के माध्यम से दी जा सकती है।
(3) शिक्षकों को क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेजी भाषा, दोनों का ज्ञान होना चाहिए।
विश्वविद्यालयी शिक्षा में मूल्यांकन सम्बन्धी सुझाव
आयोग विश्वविद्यालयों की तत्कालीन परीक्षा प्रणाली से सन्तुष्ट नहीं था। उसने उसमें सुधार के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को ओर से एक 'केन्द्रीय परीक्षा सुधार यूनिट' बनाई जाए जो विश्वविद्यालयों की परीक्षा प्रणाली में सुधार हेतु सुझाव दे और नियम बनाए और इन निर्णयों से सभी विश्वविद्यालयों को अवगत कराए।
(2) बाह्य परीक्षाओं के स्थान पर आन्तरिक परीक्षाओं और सतत् मूल्यांकन को स्थान दिया जाए।
(3) उच्च शिक्षा संस्थाओं के शिक्षकों को सेमीनारों और कार्यशालाओं के माध्यम से मूल्यांकन की नवीन और उन्नत विधियों से अवगत कराया जाए।
(4) परीक्षकों को अधिक से अधिक 500 उत्तर पुस्तिकाएँ दी जाएँ।
(5) परीक्षकों को उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन हेतु कोई पारिश्रमिक न दिया जाए।
विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रसार सम्बन्धी सुझाव
आयोग उस समय उच्च शिक्षा के प्रसार से सन्तुष्ट था। उसने उसके प्रसार को रोककर उसके उन्नयन पर अधिक बल दिया।
विश्वविद्यालयी शिक्षा के उन्नयन सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने उच्च शिक्षा के प्रशासन, संगठन, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षण, माध्यम और मूल्यांकन के सम्बन्ध में जो भी सुझाव दिए हैं वे उसके स्तर को ऊँचा उठाने की दृष्टि से ही दिए हैं। उन्हें हम संक्षेप में इस प्रकार क्रमबद्ध कर सकते हैं।
(1) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को और अधिक सशक्त किया जाए, उसे और अधिक अधिकार दिए जाएँ, उसे और अधिक उत्तरदायित्व सौंपे जाएँ। वह उच्च शिक्षा के स्तर के लिए उत्तरदायी हो।
(2) विश्वविद्यालयों के प्रशासन तन्त्र में सुधार किए जाएँ, उन्हें और अधिक स्वायत्तता प्रदान की जाए।
(3) कुछ उच्च श्रेणी के महाविद्यालयों को स्वायत्त महाविद्यालयों में विकसित किया जाए, उन्हें उच्च शिक्षा के स्तर को उठाने के अवसर प्रदान किए जाएं।
(4) कुछ विश्वविद्यालयों को वरिष्ठ विश्वविद्यालयों में विकसित किया जाए। इनमें स्नातकोत्तर शिक्षा और शोध कार्य की विशेष व्यवस्था की जाए।
(5) उच्च शिक्षा में केवल मेधावी, योग्य और परिश्रमी छात्रों को प्रवेश दिया जाए।
(6) उच्च शिक्षा का उद्देश्य सुस्पष्ट किया जाए, इसका मुख्य उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों में उच्च ज्ञान की प्राप्ति, राष्ट्र को विशेषज्ञों की पूर्ति और नए-नए तथ्यों (सत्य) की खोज होना चाहिए।
(7) उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम को व्यापक और अद्यतन बनाया जाए। स्नातक स्तर का पाठ्यक्रम 2 वर्षीय के स्थान पर 3 वर्षीय किया जाए और जिन विषयों में आवश्यक हो उनमें स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम को भी 2 वर्षीय के स्थान पर 3 वर्षीय किया जाए।
(8) उच्च कक्षाओं में शिक्षण इस प्रकार किया जाए कि छात्र-छात्राएँ रटने के स्थान पर समझने की ओर बढ़ें। इसके लिए व्याख्यान के साथ-साथ स्वाध्याय और विचार-विमर्श को बढ़ावा दिया जाए।
(9) उच्च शिक्षा संस्थाओं में शिक्षार्थियों के प्रवेश के नियम कठोर होने चाहिएँ, ऐसे कि योग्यतम छात्र-छाताएँ ही प्रवेश पा सकें।
(10) उच्च शिक्षा संस्थाओं में शिक्षकों की नियुक्ति राष्ट्रीय स्तर पर होनी चाहिए। अति योग्य व्यक्तियों को अग्रिम वेतन वृद्धि भी दी जा सकती है।
(11) विश्वविद्यालयी परीक्षा एवं मूल्यांकन प्रणाली में सुधार किया जाना चाहिए। बाह्य मूल्यांकन के स्थान पर आन्तरिक और सतत् मूल्यांकन को अधिक महत्व देना चाहिए।
कृषि शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने स्पष्ट किया कि भारत एक कृषि प्रधान देश है, अतः यहाँ कृषि शिक्षा की व्यवस्था प्राथमिक स्तर से ही शुरु कर देनी चाहिए। साथ ही उसने कृषि शिक्षा की पूरी रूप-रेखा भी प्रस्तुत की जिसे निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध किया जा सकता है।
विद्यालयी स्तर पर कृषि शिक्षा
(1) प्राथमिक स्तर पर कृषि सम्बन्धी सामान्य जानकारी को पाठ्यचर्या का अनिवार्य अंग बनाया जाए।
(2) माध्यमिक स्तर पर जूनियर कृषि विद्यालयों की स्थापना का विचार त्याग दिया जाए।
(3) माध्यमिक स्तर पर कृषि को कार्यानुभव का महत्त्वपूर्ण अंग बनाया जाए।
(4) उच्चतर माध्यमिक स्तर पर कृषि विषय में विशिष्टीकरण की व्यवस्था की जाए।
पॉलिटेक्नीक स्तर पर कृषि शिक्षा
(1) माध्यमिक शिक्षा उत्तीर्ण सामान्य छात्रों के लिए प्रत्येक प्रान्त में पर्याप्त पॉलिटेक्निक कॉलिज खोले जाएँ और इनमें आवश्यतानुसार कृषि शिक्षा की भी व्यवस्था की जाए।
(2) ऐसे पॉलिटेक्नीक कॉलिज जिनमें कृषि शिक्षा की व्यवस्था हो, उन्हें कृषि विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध किया जाए।
(3) इन कॉलिजों का कृषि शिक्षा सम्बन्धी पाठ्यक्रम ऐसा हो जिसे पूरा करने के बाद सामान्य छात्र कृषि कार्य कुशलतापूर्वक कर सकें और योग्य छात्र उच्च कृषि शिक्षा में प्रवेश पा सकें।
(4) इन कॉलिजों में कृषकों और कृषि में विशेष रुचि रखने वाले व्यक्तियों के लिए सघन एवं संक्षिप्त कार्यक्रम चलाए जाएं।
महाविद्यालय स्तर पर कृषि शिक्षा
(1) अभी और नए कृषि महाविद्यालय न खोले जाएँ अपितु वर्तमान कृषि महाविद्यालयों की दशा सुधारी जाए।
(2) प्रत्येक कृषि महाविद्यालय के पास कम से कम 200 एकड़ कृषि योग्य भूमि का फार्म होना चाहिए।
(3) कुछ कृषि महाविद्यालयों में कृषि स्नातक पाठ्यक्रम के स्थान पर उच्च कृषि तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
(4) सभी कृषि महाविद्यालयों का हर पाँच वर्ष बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद द्वारा संयुक्त रूप से निरीक्षण किया जाए।
विश्वविद्यालय स्तर पर कृषि शिक्षा
(1) प्रत्येक प्रान्त में कम से कम एक शिक्षण कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना की जाए और इसमें स्नातक एवं परास्नातक शिक्षा और कृषि में अनुसन्धान कार्य की उत्तम व्यवस्था की जाए। साथ ही कृषि प्रसार कार्यक्रमों की व्यवस्था की जाए।
(2) प्रत्येक कृषि विश्वविद्यालय में कम से कम 1000 एकड़ कृषि योग्य भूमि का फार्म होना चाहिए।
(3) प्रथम स्नातक पाठ्यक्रम कक्षा 10 के बाद 5 वर्ष का और कक्षा 12 के बाद 3 वर्ष का हो। इसमें सैद्धान्तिक शिक्षण की अपेक्षा प्रायोगिक कार्य पर अधिक बल दिया जाए।
(4) उपाधि प्रदान करने से पूर्व फार्म पर एक वर्ष कृषि कार्य करना अनिवार्य हो।
(5) कृषि विश्वविद्यालयों में 25% छात्रों को छात्रवृत्तियाँ दी जाएँ।
अन्य कृषि संस्थानों में कृषि शिक्षा
(1) भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान (IARI), भारतीय पशु अनुसन्धान संस्थान (IVRI) और राष्ट्रीय डेरी अनुसन्धान संस्थान (NDRI) भी अपने-अपने क्षेत्र में परास्नातक शिक्षा की व्यवस्था और शोध कार्य के लिए उत्तरदायी हों।
(2) भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान (IARI) कृषि शिक्षा के विस्तार और उन्नयन के लिए भी उत्तरदायी हो।
व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने सबसे अधिक बल शिक्षा को उत्पादन से जोड़ने पर दिया। उसकी सम्मति में माध्यमिक शिक्षा का व्यावसायीकरण करने से शिक्षा और उत्पादन में सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। पॉलिटेक्निक और इंजीनियरिंग कॉलिजों की तो इस क्षेत्र में विशेष भूमिका है, परन्तु इन सबमें सुधार की आवश्यकता है।
माध्यमिक व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
(1) माध्यमिक शिक्षा का व्यावसायीकरण किया जाए और 20 वर्ष के अन्दर अर्थात् 1985-86 तक माध्यमिक स्तर पर 25% और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर 50% छात्रों को व्यावसायिक वर्ग में लाया जाए।
(2) जूनियर टेक्नीकल स्कूलों को टेक्नीकल हाई स्कूलों में बदल दिया जाए।
(3) नए पॉलिटेक्निक कॉलिज केवल औद्योगिक क्षेत्रों में ही खोले जाएँ।
(4) ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित पॉलिटेक्नीक कॉलिजों में कृषि और कृषि से सम्बन्धित उद्योगों की शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
(5) पौलीटैक्निक कॉलिनों में महिलाओं की रुचि के उद्योगों की शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
(6) विद्यालयी शिक्षा पूरी करने वाले इच्छुक छात्र-छात्राओं के लिए अंशकालिक, पत्राचार, सैंडविच और लघु व्यावसायिक एवं तकनीकी पाठ्यक्रमों की सुविधा में वृद्धि की जाए।
(7) माध्यमिक (व्यावसायिक वर्ग) और पॉलिटेक्नीक कॉलिजों के पाठ्यक्रम अपने आप में पूर्ण होने चाहिए, ऐसे कि इनको पूर्ण करने के बाद छात्र-छात्राएँ यथा व्यवसायों में लग सकें और इच्छुक छात्र-छात्राएँ उच्च व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा में प्रवेश पा सकें।
(8) इन पाठ्यक्रमों में सैद्धान्तिक ज्ञान की अपेक्षा व्यावहारिक प्रशिक्षण पर अधिक बल दिया जाए।
(9) इन संस्थाओं में केवल यथा उद्योगों में अनुभव प्राप्त शिक्षकों की नियुक्ति की जाए।
(10) माध्यमिक व्यावसायिक विद्यालयों और पॉलिटेक्नीक कॉलिजों में होने वाले अपव्यय को रोका जाए। यह तभी सम्भव है जब इनके पाठ्यक्रम उपयोगी हों, रोजगारपरक हों।
उच्च इंजीनियरिंग शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
(1) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की भाँति केन्द्रीय तकनीकी शिक्षा संस्थान (Central Technical Education Institude, CTEI) का गठन किया जाए जो उच्च तकनीकी शिक्षा के लिए उत्तरदायी हो।
(2) नए इंजीनियरिंग कॉलिजों की स्थापना मानव शक्ति की माँग के आधार पर की जाए।
(3) इंजीनियरिंग के उन कॉलिजों में जो उच्च स्तर की शिक्षा प्रदान नहीं कर रहे हैं, सुधार किया जाए। घटिया किस्म के इंजीनियरिंग कॉलिजों को बन्द कर दिया जाए।
(4) जहाँ आवश्यक हो, पत्राचार पाठ्यक्रम शुरु किए जाएँ।
(5) इंजीनियरिंग कॉलिजों के पाठ्यक्रमों को अद्यतन बनाया जाए। इनमें विमान तकनीकी, नक्षत्र विज्ञान, रासायनिक तकनीकी आदि नए पाठ्यक्रम शुरु किए जाएँ।
(6) इंजीनियरिंग कॉलिजों में सैद्धान्तिक ज्ञान की अपेक्षा व्यावहारिक प्रशिक्षण पर अधिक बल दिया जाए।
(7) व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए औद्योगिक संस्थानों का सहयोग लिया जाए।
(8) इंजीनियरिंग कॉलिजों में केवल विज्ञान वर्ग से उच्चतर माध्यमिक शिक्षा प्राप्त योग्य छात्र-छात्राओं को प्रवेश दिया जाए। इंजीनियरिंग की इलेक्ट्रॉनिक आदि शाखाओं में बी० एस-सी० (गणित वर्ग) उत्तीर्ण अभ्यार्थियों को वरीयता दी जाए।
(9) इन्जीनियरिंग के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में केवल उन्हीं छात्र-छात्राओं को प्रवेश दिया जाए जो इंजीनियरिंग की स्नातक शिक्षा प्राप्त करने के बाद किसी उद्योग में 1 वर्ष कार्य कर चुके हों।
(10) इंजीनियरिंग कॉलिजों के शिक्षकों को अपने-अपने क्षेत्र के अद्यतन ज्ञान से अवगत कराने के लिए 'ग्रीष्मकालीन संस्थानों' (Summer Institutes) की व्यवस्था की जाए।
विज्ञान शिक्षा एवं अनुसन्धान सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने स्पष्ट किया कि देश के आर्थिक विकास, उसकी सुरक्षा और उसके आधुनिकीकरण के लिए विज्ञान की शिक्षा अति आवश्यक है और साथ ही इस क्षेत्र में निरन्तर अनुसंधान करने की आवश्यकता है। आयोग ने देश में विज्ञान शिक्षा के विकास (प्रसार एवं उन्नयन) के सम्बन्ध में अग्रलिखित सुझाव दिए -
(1) राष्ट्रीय विज्ञान संस्थान (National Institute of Science) का पुनर्गठन किया जाए। यह विज्ञान शिक्षा के विस्तार एवं उन्नयन के लिए उत्तरदायी हो।
(2) विकसित देशों में राष्ट्रीय आय का 2 प्रतिशत से भी अधिक वैज्ञानिक शोधों पर व्यय किया जाता है, हमारे देश में केवल 0.03 प्रतिशत ही व्यय किया जाता है। अतः इस धनराशि को बढ़ाया जाए।
(3) विज्ञान की शिक्षा प्रारम्भिक कक्षाओं से ही शुरु की जाए और इसके लिए क्षेत्रीय भाषाओं में वैज्ञानिक शब्दावली का विकास किया जाए।
(4) विज्ञान में दो वर्षीय स्नातकोत्तर शिक्षा के अतिरिक्त एक वर्षीय विशेष पाठ्यक्रमों की व्यवस्था को जाए, जिनमें विज्ञान की अद्यतन जानकारी दी जाए।
(5) विज्ञान के स्नातक, स्नातकोत्तर और विशेष पाठ्यक्रमों में सुधार किया जाए, उन्हें अद्यतन बनाया जाए। ये अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के होने चाहिए।
(6) विश्वविद्यालयों में विज्ञान के क्षेत्र में अनुसन्धान की उचित व्यवस्था की जाए। ये अनुसन्धान कार्य अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के होने चाहिए।
(7) विज्ञान एवं गणित को उच्च शिक्षा हेतु उच्च अध्ययन केन्द्रों (Centres of Advanced Studies) की स्थापना की जाए। इनकी स्थापना के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग आवश्यक आर्थिक सहायता दे।
(8) प्रत्येक विज्ञान कॉलिज और विश्वविद्यालय में विज्ञान की शिक्षा और शोध कार्य के लिए अच्छे स्तर की प्रयोगशालाओं की व्यवस्था की जाए।
(9) अनुसन्धानकर्ताओं को आर्थिक सहायता दी जाए, विदेश जाने की सुविधाएँ दी जाएँ।
(10) विज्ञान की शिक्षा हेतु योग्य एवं अनुभवी शिक्षक नियुक्त किए जाएँ।
(11) इन शिक्षकों को विज्ञान के क्षेत्र की अद्यतन जानकारी देने हेतु ग्रीष्मकालीन संस्थानों (Summer Institutes) की व्यवस्था की जाए।
(12) विदेशी वैज्ञानिकों और विदेशों में कार्यरत भारतीय वैज्ञानिकों को व्याख्यान हेतु आमन्त्रित किया जाए। कुछ अतिरिक्त प्रतिभा के व्यक्तियों को एक से तीन वर्ष तक के लिए विजिटिंग प्रोफेसर नियुक्त किया जाए।
(13) विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र-छात्राओं के मूल्यांकन में सैद्धान्तिक परीक्षा की अपेक्षा प्रायोगिक कार्य को अधिक महत्व दिया जाए।
(14) विज्ञान के सर्वोत्तम पाठ्यक्रमों को पूरा करने वाले छात्रों का मूल्यांकन उनके वर्ष भर के प्रायोगिक कार्यों के आधारों पर किया जाए।
शिक्षक स्तर और शिक्षक शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने स्पष्ट किया कि शिक्षा के क्षेत्र में सबसे अधिक एवं महत्त्वपूर्ण भूमिका शिक्षकों की होती है। उसने शिक्षण व्यवसाय की ओर योग्य व्यक्तियों को आकर्षित करने के लिए शिक्षकों के सामाजिक और आर्थिक स्तर को ऊँचा उठाने पर बल दिया और शिक्षकों के शिक्षण कौशल को उन्नत करने के लिए शिक्षक शिक्षा में सुधार हेतु सुझाव दिए। यहाँ उनका क्रमबद्ध उल्लेख प्रस्तुत है।
शिक्षक स्तर सम्बन्धी सुझाव
शिक्षकों के स्तर उठाने सम्बन्धी सुझावों को नोन वगों में विभाजित किया जा सकता है- वेतनमान सम्बन्धी, नियुक्ति एवं पदोन्नति सम्बन्धी और सेवाशर्तों सम्बन्धी ।
1. वेतनमान सम्बन्धी सुझाव
(1) केन्द्र सरकार सभी स्तरों के शिश्वकों के न्यूनतम वेतनमान निर्धारित करे। आयोग ने सभी स्तर के शिक्षकों के उच्च वेतनमान प्रस्तावित भी किए। ये वेतनमान उस समय पर्याप्त थे, परन्तु आज के मंहगाई के युग में अपर्याप्त हो गए हैं। इसलिए उनका उल्लेख करना व्यर्थ है।
(2) सरकारी और सहायता प्राप्त गैरसरकारी, सभी शिक्षण संस्थाओं के शिक्षकों के वेतनमान समान हो।
(3) सभी सरकारी एवं सहायता प्राप्त गैरसरकारी शिक्षकों को सरकारी कर्मचारियों के समान मंहगाई भत्ता दिया जाए।
(4) प्रति 5 वर्ष बाद शिक्षकों के वेतनमान पुनर्निरीक्षित हों।
2. नियुक्ति एवं पदोन्नति सम्बन्धी सुझाव
(1) किसी भी स्तर के शिक्षकों की न्यूनतम योग्यता बढ़ाई जाए और उनके चयन की विधियों में सुधार किया जाए।
(2) शिक्षकों के पदों पर योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति की जाए। इस हेतु अति योग्य व्यक्तियों को अग्रिम वेतन वृद्धि और अतिरिक्त प्रतिभा के व्यक्तियों को उच्च वेतनमान भी दिए जा सकते हैं।
(3) सभी स्तरों पर महिला शिक्षकों की नियुक्ति को प्रोत्साहन दिया जाए।
(4) अपने पदों पर कार्यकुशलता का परिचय देने वालों को अग्रिम वेतन वृद्धि दी जाए।
(5) पदोन्नति का आधार वरीयता के स्थान पर योग्यता एवं कुशलता होना चाहिए।
(6) विशेष योग्यता प्राप्त शिक्षकों को आगे के शिक्षा स्तर के लिए चुना जाए। प्राथमिक स्कूल के माध्यमिक स्कूलों के लिए; माध्यमिक स्कूल के महाविद्यालयों के लिए और महाविद्यालयों के विश्वविद्यालयों के लिए।
3. सेवाशर्तों सम्बन्धी सुझाव
(1) सभी सरकारी और सहायता प्राप्त गैरसरकारी शिक्षकों की सेवाशर्तें समान होनी चाहिए।
(2) सभी सरकारी एवं सहायता प्राप्त गैरसरकारी शिक्षकों के लिए, 'त्रिमुखी लाभ योजना' (जी० पी० एफ० बीमा और पेंशन) लागू होनी चाहिए।
(3) ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने वाले शिक्षकों को आवास सुविधा दी जाए और शिक्षिकाओं को आवास सुविधा के साथ-साथ विशेष भत्ता भी दिया जाए।
(4) बड़े नगरों में कार्य करने वाले शिक्षकों को मकान किराया भत्ता दिया जाए।
(5) विश्वविद्यालयों के 50 प्रतिशत और उनसे सम्बद्ध महाविद्यालयों के 25 प्रतिशत शिक्षकों को आवास सुविधा दी जाए।
(6) सभी शिक्षकों को 5 वर्ष में एक बार देश भ्रमण हेतु किराया भत्ता (LTC) दिया जाए।
(7) शिक्षकों की सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष की जाए। स्वस्थ एवं कर्मठ व्यक्तियों की सेवानिवृत्ति आयु 65 वर्ष तक बढ़ाई जा सकती है।
(8) शिक्षकों के लिए शिक्षण कार्य के घण्टे निश्चित करते समय उनके द्वारा किए जाने वाले अन्य विद्यालयी कार्यों को ध्यान में रखा जाए।
(9) व्यक्तिगत ट्यूशन पर नियन्त्रण किया जाए।
(10) शिक्षकों को अपनी व्यावसायिक योग्यता बढ़ाने के अवसर प्रदान किए जाएँ।
(11) शिक्षा मन्त्रालय द्वारा शिक्षकों को दिए जाने वाले राष्ट्रीय पुरस्कारों में वृद्धि की जाए।
शिक्षक शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने सर्वप्रथम तत्कालीन शिक्षक शिक्षा के दोषों को उजागर किया और फिर उन्हें दूर करने के सुझाव प्रस्तुत कर उसके उन्नयन का मार्ग प्रशस्त किया। यहाँ उस सबका वर्णन प्रस्तुत है।
1. शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम में अलगाव (Isolation)- आयोग ने स्पष्ट किया कि उस समय दोनों स्तर को शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाएँ एवं उनके कार्यक्रम सामान्य शिक्षा संस्थाओं और उनके कार्यक्रमों से भिन्न थे, कुछ अलग-थलग से थे। उसने उनमें क्रमिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) प्रत्येक राज्य में 'राज्य शिक्षक शिक्षा बोर्ड' (State Board of Teacher Education) की स्थापना की जाए जो सभी स्तर के शिक्षकों के प्रशिक्षण एवं उनके कार्यक्रमों के लिए उत्तरदायी हो।
(2) सभी राज्यों में कॉम्प्रीहेन्सिव कॉलिजों की स्थापना की जाए और इनमें सभी स्तर के शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए।
(3) सभी शिक्षण प्रशिक्षण संस्थाओं को 'शिक्षक प्रशिक्षण कॉलिज' कहा जाए।
(4) स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर शिक्षाशास्त्र विषय को एक पृथक अनुशासन (Discipline) के रूप में स्थान दिया जाए, परन्तु इसका पाठ्यक्रम शिक्षणशास्व (Pedagogy) से भिन्न होना चाहिए।
(5) कुछ चुने हुए विश्वविद्यालयों में 'शिक्षा स्कूल' (School of Education) स्थापित किए जाएँ जिनमें शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम चलाए जाएँ और साथ ही शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में अनुसन्धान कार्य चलाए जाएँ।
(6) प्रत्येक शिक्षक शिक्षा संस्था में 'प्रसार सेवा विभाग' (Extension Service Department) स्थापित किए जाएँ जो अपने क्षेत्र के स्कूलों और उनके शिक्षकों की समस्याओं पर मिलकर कार्य करें।
(7) शिक्षण अभ्यास के लिए मान्यता प्राप्त स्कूल ही चुने जाएँ और चुने हुए स्कूलों को राज्य द्वारा 'सहकारी स्कूल' (Cooperating Schools) की मान्यता दी जाए और इन्हें साज-सज्जा हेतु विशेष सहायता अनुदान दिया जाए।
(8) समय-समय पर शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं और सहकारी स्कूलों में शिक्षकों का आदान-प्रदान किया जाए।
2. शिक्षक शिक्षा के स्तर में गिरावट- आयोग ने देखा कि उस समय प्राथमिक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं और माध्यमिक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं, दोनों का स्तर बहुत निम्न था, इनसे निकलने वाले प्रशिक्षित शिक्षकों को वह सब नहीं आता था जो उन्हें आना चाहिए था। शिक्षक शिक्षा में गुणात्मक सुधार के लिए आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए।
(1) प्राथमिक शिक्षक प्रशिक्षण के स्तरमान को बनाए रखने का उत्तरदायित्व 'राज्य शिक्षक शिक्षा बोर्ड' (State Board of Teacher Education) का होना चाहिए और माध्यमिक शिक्षक प्रशिक्षण के स्तरमान को बनाए रखने का उत्तरदायित्व विश्वविद्यालयों का होना चाहिए।
(2) प्राथमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण की अवधि 2 वर्ष होनी चाहिए और माध्यमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण की अवधि बहरहाल 1 वर्ष हो रहे परन्तु आगे चलकर इसे भी 2 वर्ष का कर देना चाहिए। एक वर्ष में कार्य दिवसों की संख्या कम से कम 230 दिन होनी चाहिए।
(3) शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रमों का पुनर्निर्माण किया जाए, यह ऐसा हो कि शिक्षा सम्बन्धी सम्प्रत्यों को स्पष्ट करे और शिक्षा एवं शिक्षण सम्बन्धी समस्याओं को समझने एवं उनका समाधान करने की सूझ-बूझ उत्पन्न करे।
(4) शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं में प्रायः व्याख्यान विधि से शिक्षण किया जाता है; विचार-विमर्श और विचारगोष्ठी विधियों को विशेष रूप से प्रयोग किया जाए।
(5) शिक्षण अभ्यास को इन्टर्नशिप का रूप दिया जाए।
(6) माध्यमिक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं में प्रशिक्षणार्थियों को उन्हीं स्कूली विषयों में शिक्षण अभ्यास कराया जाए जिनका अध्ययन उन्होंने स्नातक स्तर पर अवश्य किया हो।
(7) शिक्षण अभ्यास एवं अन्य प्रायोगिक कायों के आन्तरिक मूल्यांकन को वस्तुनिष्ठ बनाया जाए।
(8) प्राथमिक शिक्षक शिक्षा संस्थाओं के प्राध्यापकों की न्यूनतम शैक्षिक योग्यता एम० ए०, एम० एस-सी० अथवा एम० कॉम० के साथ बी० एड० अथवा बी० ए० बी० एस-सी० अथवा बी० कॉम के साथ एम० एड० होनी चाहिए और माध्यमिक शिक्षक शिक्षा संस्थाओं के प्राध्यापकों की न्यूनतम शैक्षिक योग्यता एम० ए० एम० एस-सी तथा एम० काम के साथ एम० एड० होनी चाहिए। पी० एच० डी० उपाधि प्राप्त अभ्यर्थियों को वरीयता दी जानी चाहिए।
(9) शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण योग्य छात्र-छात्राओं को प्रवेश दिया जाए और योग्य व्यक्तियों को इस ओर आकर्षित करने के लिए शिक्षक प्रशिक्षण निःशुल्क किया जाए और प्रशिक्षणार्थियों को छात्रवृत्तियाँ दी जाएँ।
(10) एम० एड० के पाठ्यक्रम उन्हीं संस्थाओं में शुरू किए जाएँ जिनमें योग्य प्राध्यापक हों, उच्च स्तर के पुस्तकालय हों और अन्य सब साज-सज्जा उपलब्ध हो। एम० एड० का पाठ्यक्रम 1 वर्ष 6 माह का अर्थात् कम से कम 345 कार्य दिवस का होना चाहिए।
3. शिक्षक प्रशिक्षण का असन्तुलित प्रसार- आयोग ने देखा कि कुछ राज्यों में शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाएँ आवश्यकता से अधिक थीं और कुछ में कम। इस सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) प्रत्येक राज्य अपने क्षेत्र में शिक्षकों की वर्तमान और भविष्य की माँग के आधार पर प्राथमिक शिक्षक प्रशिक्षण और माध्यमिक शिक्षक प्रशिक्षण कॉलिजों की स्थापना करे ।
(2) कार्यरत अप्रशिक्षित शिक्षकों के लिए अंशकालिक पाठ्यक्रम और पत्राचार पाठ्यक्रम की सुविधाओं का विस्तार किया जाए।
4. अन्तर्सेवा प्रशिक्षण का अभाव- आयोग ने देखा कि उस समय देश में कार्यरत प्रशिक्षित शिक्षकों को नए-नए शैक्षिक प्रयोगों एवं तकनीकी से अवगत कराने हेतु अन्तर्सेवा प्रशिक्षण (Inservice Training) की बहुत कम व्यवस्था थी। इस सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) किसी भी स्तर के शिक्षकों के लिए हर पाँच वर्ष बाद अन्तर्सेवा प्रशिक्षण को व्यवस्था की जाए।
(2) अन्तर्सेवा प्रशिक्षण की व्यवस्था शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं के साथ-साथ विश्वविद्यालयों में भी की जाए।
(3) जहाँ सम्भव हो वहाँ ग्रीष्मकालीन संस्थाओं में भी शिक्षकों के अन्तर्सेवा प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए।
स्त्री शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
आयोग की सम्मति में बच्चों के चरित्र निर्माण, परिवारों की उन्नति और राष्ट्रीय मानव संसाधनों के विकास के लिए स्त्रियों की शिक्षा पुरुषों की शिक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण है। उसने इस बात पर बल दिया कि स्त्री शिक्षा के प्रसार एवं उन्नयन के लिए विशेष प्रयास किए जाने चाहिए। आयोग के स्त्री शिक्षा सम्बन्धी सुझावों को अग्रलिखित रूप में क्रमबद्ध किया जा सकता है-
शिक्षा संस्थाओं की स्थापना
(1) बालिकाओं के लिए, 20 वर्षों के अन्दर, इतने प्राथमिक विद्यालय खोले जाएँ कि सभी बालिकाओं को प्राथमिक शिक्षा सुलभ हो सके।
(2) बालिकाओं के लिए, 20 वर्षों के अन्दर, कम से कम इतने माध्यमिक विद्यालय खोले जाएँ कि इस स्तर पर पढ़ने वाले बालक-बालिकाओं का अनुपात 2: 1 हो जाए।
(3) जहाँ महिलाओं की उच्च शिक्षा की अधिक माँग हो वहाँ अलग से महिला महाविद्यालय स्थापित किए जाएँ।
(4) स्त्रियों के लिए पत्राचार पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जाए।
(5) प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों में स्त्रियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाए।
पाठ्यक्रम सुविधा
(1) शिक्षा के किसी भी स्तर का पाठ्यक्रम बालक-बालिकाओं के लिए समान होना चाहिए, परनु माध्यमिक स्तर के पाठ्यक्रम में बालिकाओं के लिए गृह विज्ञान की अलग से व्यवस्था की जानी चाहिए।
(2) लड़कियों को लड़कों की भाँति किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर होने चाहिए।
आर्थिक सहायता
(1) स्त्री शिक्षा के प्रसार के लिए उदारतापूर्वक आर्थिक सहायता दी जाए।
(2) बालिकाओं के लिए माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा निःशुल्क की जाए।
(3) उच्च शिक्षा में बालिकाओं के लिए विशेष छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की जाए।
(4) दूर से आने वाली छात्राओं को निःशुल्क वाहन सेवा सुलभ कराई जाए।
(5) जहाँ आवश्यक हो वहाँ छात्राओं के लिए कम खर्चीले छात्रावासों की व्यवस्था की जाए।
प्रौढ़ एवं समाज शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने प्रौढ़ शिक्षा को बहुत व्यापक रूप में लिया है और उसके लिए एक व्यापक योजना प्रस्तुत की है। प्रौढ़ शिक्षा सम्बन्धी विचारों एवं सुझावों को चार वर्गों में बाँटा जा सकता है-
प्रौढ़ शिक्षा का स्वरूप
आयोग ने प्रौढ़ शिक्षा के अन्तर्गत चार कार्यक्रम प्रस्तावित किए-
(1) निरक्षर प्रौढ़ों को साक्षर बनाना।
(2) साक्षर प्रौढ़ों को साक्षर बनाए रखना।
(3) अल्पशिक्षित प्रौढ़ों को आगे की शिक्षा के अवसर प्रदान करना।
(4) शिक्षित प्रौढ़ों के ज्ञान एवं कौशल में निरन्तर वृद्धि करना, उनके लिए सतत् शिक्षा की व्यवस्था करना।
प्रौढ़ शिक्षा का प्रशासन एवं संगठन
आयोग की सम्मति में केन्द्र और प्रान्तों में प्रौढ़ शिक्षा के लिए अलग से विभाग होने चाहिए। इस सम्बन्ध में उसने निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) केन्द्र में 'राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा बोर्ड' (National Board of Adult Education) का गठन किया जाए। इसका कार्य प्रौढ़ शिक्षा सम्बन्धी नीति और योजनाओं का निर्माण करना, केन्द्र व प्रान्तीय सरकारों को प्रौढ़ शिक्षा सम्बन्धी परामर्श देना, प्रौढ़ शिक्षा हेतु उपयुक्त साहित्य एवं सामग्री का निर्माण करना, प्रौढ़ शिक्षा की प्रगति का लेखा-जोखा रखना और प्रौढ़ शिक्षा सम्बन्धी शोध कार्य करना होना चाहिए और साथ ही विभिन्न संस्थाओं के प्रौढ़ शिक्षा सम्बन्धी कार्यों में सामंजस्य स्थापित करना होना चाहिए।
(2) केन्द्र की भाँति प्रत्येक प्रान्त में 'राज्य प्रौढ़ शिक्षा बोर्ड' (State Board of Adult Education) की स्थापना की जाए जो 'राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा बोर्ड' द्वारा निश्चित कार्यक्रमों के सम्पादन के लिए उनरदायी हों।
(3) जिले और ग्राम स्तरों पर 'प्रौढ़ शिक्षा समितियों' का गठन किया जाए जो अपने-अपने क्षेत्र में प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों के सम्पादन के लिए उत्तरदायी हों।'
(4) प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था के लिए पर्याप्त बजट रखा जाए।
(5) प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत स्वयं सेवी संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया जाए, उन्हें आर्थिक सहायता दी जाए और प्रौढ़ शिक्षा साहित्य एवं सामग्री उपलब्ध कराई जाए।
प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था
प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था हेतु आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) 15 से 310 आयु वर्ग के निरक्षर प्रौढ़ों की शिक्षा के लिए प्राथमिक विद्यालयों को सामुदायिक केन्द्र (Community Centre) बनाया जाए और यहाँ विद्यालयी समय से पहले अथवा बाद में प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम चलाए जाएँ।
(2) प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों में शिक्षक-शिक्षार्थियों, शिक्षित युवक-युवतियों और समाज सेवी संस्थाओं का सहयोग लिया जाए।
(3) प्रौढ़ शिक्षा के प्रसार एवं उन्नयन के लिए विश्वविद्यालयों का सहयोग लिया जाए, उनमें राजस्थान विश्वविद्यालय की भाँति प्रौढ़ शिक्षा विभाग खोले जाएं। ये विभाग प्रौढ़ शिक्षा हेतु साहित्य तैयार करें, शिक्षक तैयार करें और अन्य सामग्री तैयार करें। साथ ही प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम चलाएँ और इस क्षेत्र में शोध कार्य करें।
(4) ग्रामीण निरक्षर महिलाओं को साक्षर बनाने के लिए ग्राम सेविकाओं का सहयोग लिया जाए।
(5) सामान्य महिलाओं को साक्षर बनाने के लिए 'केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड' द्वारा संक्षिप्त पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जाए।
(6) प्रौढ़ शिक्षा के महत्त्व को स्पष्ट करने एवं उसका प्रसार करने के लिए जनसंचार के साधनों का प्रयोग किया जाए।
प्रौढ़ शिक्षा की निरन्तरता
आयोग ने स्पष्ट किया कि प्रौढ़ शिक्षा प्राप्त अधिकतर प्रौढ़ कुछ वर्षों बाद सब कुछ भूल जाते हैं इसलिए उनकी शिक्षा को कायम रखने की आवश्यकता है। इस हेतु उसने निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) प्रौढ़ों को साक्षर बनाने के बाद अनुसरण कार्यक्रम (Follow up Programme) चलाए जाएँ।
(2) पुस्तकालयों एवं वाचनालयों की व्यवस्था की जाए और साथ ही सचल पुस्तकालयों की व्यवस्था की जाए।
(3) इन पुस्तकालयों एवं वाचनालयों में क्षेत्र विशेष के व्यक्तियों की रुचि और आवश्यकतानुकूल साहित्य उपलब्ध कराया जाए।
(4) विद्यालयों के पुस्तकालयों एवं वाचनालय नवसाक्षर प्रौढ़ों के लिए उपलब्ध कराए जाएँ।
(5) कामगर प्रौढ़ों के लिए अल्पकालीन पाठ्यक्रम चलाए जाएँ।
(6) जो प्रौढ़ अल्पकालीन शिक्षा का लाभ न उठा पाएँ उनके लिए पत्राचार पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जाए।
(7) इच्छुक व्यक्तियों के लिए एक निश्चित समयान्तर से अभिनव पाठ्यक्रम (Refresher Courses) चलाए जाएँ।
(8) अल्प शिक्षित प्रौढ़ों को अपनी शैक्षिक योग्यता बढ़ाने और विद्यालयी छात्रों की भाँति डिप्लोमा एवं डिग्री प्राप्त करने हेतु अल्पकालीन पाठ्यक्रम चलाए जाएँ। ये पाठ्यक्रम तत्सम्बन्धी विद्यालयों में विद्यालयी समय से पहले अथवा बाद में अथवा ग्रीष्मावकाश में चलाए जाएँ।
(9) इन सब कार्यों के लिए जनसंचार के साधनों का प्रयोग किया जाए।
शैक्षिक अवसरों की समानता सम्बन्धी सुझाव
लोकतन्त्रीय समाज में सबको शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर होने चाहिए। आयोग ने देखा कि उस समय (1965-66) में हमारे देश मे शिक्षा के क्षेत्र में दो प्रकार की असमानताएँ थीं-एक शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर बालक-बालिकाओं को शिक्षा में असमानता और दूसरी उच्च वर्ग, पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति वर्ग और पिछड़े क्षेत्रों में रहने वालों की शिक्षा में असमानता। आयोग ने इन दो असमानताओं को दूर करने और सभी को शैक्षिक अवसरों को समानता सुलभ कराने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) कक्षा 1 से 8 तक की शिक्षा सभी के लिए निःशुल्क की जाए। चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-74) के अन्त तक कक्षा 1 से 5 तक की शिक्षा को निःशुल्क कर दिया जाए और पाँचवी पंचवर्षीय योजना (1974-79) के अन्त तक कक्षा 1 से कक्षा 8 तक की शिक्षा को निःशुल्क करने के लक्ष्य को प्राप्त किया जाए।
(2) प्राथमिक स्तर (कक्षा 1 से 5 तक) बच्चों को पाठ्यपुस्तके एवं लेखन सामग्री भी निशुल्क दो जाए।
(3) माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के निर्धन छात्रों को शुल्क मुक्त किया जाए।
(4) माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा स्तर पर बुक बैंक योजना चालू की जाए।
(5) माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा संस्थाओं के पुस्तकालयों में पाठ्यपुस्तकें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराई जाएँ।
(6) योग्य एवं निर्धन छात्रों को पुस्तकें खरीदने के लिए आर्थिक सहायता दी जाए।
(8) व्यावसायिक शिक्षक संस्थाओं में सामान्य शिक्षा संस्थाओं की अपेक्षा अधिक छात्रवृत्तियाँ दी जाएँ, विद्यालयी स्तर पर 30% छात्रों को और उच्च शिक्षा स्तर पर 50% छात्रों को।
(9) अत्यधिक कुशाग्र बुद्धि और प्रतिभावान छात्रों को विदेशों में अध्ययन के लिए छात्रवृत्तियाँ दी जाएँ।
(10) कुछ छात्रों, विशेषकर विज्ञान एवं तकनीकी के छात्रों को ऋण छात्रवृत्तियाँ दी जाएँ, जो वे आगे चलकर अपने वेतन में कटौती द्वारा लौटाएँ।
(11) कुछ छात्रों को अध्ययन काल में कुछ रोजगार देकर भी उनकी आर्थिक सहायता की जा सकती है।
(12) माध्यमिक स्तर तक की छात्रवृत्तियों का वित्तीय भार राज्य सरकारों पर होना चाहिए और उच्च स्तर के छात्रों को दी जाने वाली छात्रवृत्तियों का वित्तीय भार केन्द्र सरकार को वहन करना चाहिए।
(13) स्कूलों से दूर-दराजों में रहने वाले छात्र-छात्राओं को सवारी सुविधा प्रदान की जाए।
(14) मानसिक रूप से पिछड़े और विकलांग बालकों की शिक्षा को समुचित व्यवस्था की जाए।
(15) पिछड़े वर्ग के बच्चों के लिए वर्तमान सुविधाओं को जारी रखा जाए और साथ ही उन्हें सामान्य छात्रों को दी जाने वाली सुविधाएँ दी जाएँ।
(16) कबीलों के बच्चों की शिक्षा के लिए चलित विद्यालयों की व्यवस्था की जाए। इसके लिए कबीलों के व्यक्तियों को ही शिक्षित एवं प्रशिक्षित कर शिक्षक नियुक्त किया जाए।
(17) लड़कियों को लड़कों के समान किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर सुलभ कराए जाएँ, उनके लिए आवश्यकतानुसार स्कूलों की व्यवस्था की जाए।
छात्र नामांकन और मानव शक्ति
आयोग ने स्पष्ट किया कि राष्ट्र के विकास के लिए मानव शक्ति का निर्माण आवश्यक है और मानव शक्ति के निर्माण के लिए शिक्षा का प्रसार आवश्यक है। परन्तु हमारे देश की स्थिति बड़ी नाजुक है-एक ओर सबके लिए शिक्षा के समान अवसर का नारा है और दूसरी ओर इस सबकी व्यवस्था के लिए संसाधन (वित्त) की कमी है। आयोग ने इस विषम परिस्थिति से निपटने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए-
(1) शिक्षा के महत्व को समझते हुए इस पर अधिक व्यय किया जाए। अभी (1965-66 में) शिक्षा पर केन्द्रीय बजट का केवल 2% व्यय किया जाता है, 1985-86 तक यह 6% किया जाए। प्रान्तीय सरकारें भी शिक्षा हेतु अधिक संसाधन जुटाएँ।
(2) शिक्षा के किसी भी स्तर पर छात्रों के प्रवेश सम्बन्धी राष्ट्रीय नीति का निर्धारण किया जाए।
(3) संविधान के आदेश का अनुपालन किया जाए और 6 से 14 आयुवर्ग के बच्चों की अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाए। जनसाधारण की निरक्षरता को दूर करने के लिए प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
(4) उच्च प्राथमिक स्तर अर्थात् निम्न माध्यमिक स्तर पर केवल इच्छुक छात्र-छात्राओं को प्रवेश दिया जाए।
(5) माध्यमिक स्तर पर केवल योग्य छात्रों को प्रवेश दिया जाए और इसके लिए चयन प्रवेश प्रणाली को अपनाया जाए और केवल योग्य छात्रों को ही प्रवेश दिया जाए।
(6) उच्च्च शिक्षा में केवल प्रतिभाशाली एवं अति योग्य छात्र-छात्राओं को प्रवेश दिया जाए और इसके लिए भी चयन प्रवेश प्रणाली को अपनाया जाए। इस स्तर पर प्रवेश के नियम कुछ इतने कठोर हों कि माध्यमिक शिक्षा उत्तीर्ण छात्रों में से केवल 5 से 15% छात्र-छात्राएँ ही प्रवेश पा सकें।
(7) प्रतिभाशाली छात्र-छात्राओं की खोज की जाए और उन्हें अपनी प्रतिभाओं का विकास करने के अवसर दिए जाएँ।
(8) कृषि, व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा में भी आवश्यकतानुसार ही प्रवेश दिए जाएँ।
(9) शिक्षित एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों के ज्ञान एवं कौशल (मानव शक्ति) को अद्यतन एवं उपयोगी बनाने के लिए सतत् शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
(10) भविष्य में किसी भी स्तर की किसी भी प्रकार की शिक्षा का विस्तार मानव शक्ति अर्थात् शिक्षित व्यक्तियों को रोजगार मिलने के अवसरों को ध्यान में रखकर किया जाए।
राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का मूल्यांकन एवं गुण-दोष
किसी भी वस्तु, विचार अथवा क्रिया का मूल्यांकन कुछ मूलभूत मानदण्डों के आधार पर किया जाता है। शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है अतः इससे सम्बन्धित किसी भी विचार का मूल्यांकन समाज विशेष की तत्कालीन परिस्थितियों और भविष्य की माँगों में उसकी उपयोगिता के आधार पर किया जाना चाहिए। इस आयोग के सुझावों का मूल्यांकन भारत की तत्कालीन (1965-66) परिस्थितियों एवं उसकी भविष्य की माँगों के आधार पर करने का तो अब कोई औचित्य है नहीं अतः हम उसका मूल्यांकन भारत की आज की परिस्थितियों और भविष्य की आवश्यकताओं के आधार पर ही करेंगे। हम यह भी देखेंगे कि उसके सुझावों से आधुनिक भारतीय शिक्षा को कितनी सही दिशा दी जा सकी है। इन मानदण्डों पर कसने पर उसमें निम्नलिखित गुण-दोष स्पष्ट होते हैं-
राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के गुण
1. नीति निर्धारक तत्त्वों का निर्माण
राष्ट्रीय शिक्षा आयोग ने शिक्षा को राष्ट्रीय महत्त्व का विषय बताया और उस पर बजट का 2% के स्थान पर 6% व्यय करने का सुझाव दिया। उसने केन्द्र में सशक्त प्रशासनिक ढाँचे और प्रान्तों में समान प्रशासनिक ढाँचे का सुझाव दिया और पूरे देश के लिए समान शिक्षा संरचना प्रस्तुत की। लोकतन्त्रीय भारत के लिए यह उत्तम सुझाव था। परिणामतः राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986, दोनों में पूरे देश के लिए समान शिक्षा संरचना घोषित की गई।
2. शिक्षा आयोजकों का मार्गदर्शन
राष्ट्रीय शिक्षा आयोग ने शैक्षिक आयोजन के महत्त्व को स्पष्ट किया और उसके मूल सिद्धान्त स्पष्ट किए। उसने स्पष्ट किया कि शैक्षिक आयोजन क्रमिक एवं समयबद्ध होना चाहिए, वर्तमान और भविष्य दोनों की माँगों के आधार पर होना चाहिए, राष्ट्रीय लक्ष्यों के आधार पर होना चाहिए और उपलब्ध संसाधनों के आधार पर होना चाहिए।
लोकतन्त्रीय भारत की मांग और उसकी आर्थिक स्थिति एवं संसाधनों की उपलब्धता के आधार पर आयोग ने 20 वर्षों के अन्दर 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों की अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करने, माध्यमिक स्तर पर प्रवेश लेने वाले 70% सामान्य बच्चों के लिए मध्यम स्तर को पूर्ण इकाई शिक्षा की व्यवस्था करने और शेष 30% बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए तैयार करने और इसमें से भी चुने हुए योग्य एवं सक्षम बच्चों के लिए उच्च शिक्षा की व्यवस्था करने का सुझाव दिया। यह सुझाव तब भी उत्तम था और आज भी उत्तम है।
3. शिक्षा के समयानुकूल व्यापक उद्देश्य
आयोग ने सर्वप्रथम शिक्षा के सामान्य उद्देश्य निश्चित किए उत्पादन में वृद्धि करना, सामाजिक समानता और राष्ट्रीय एकता की प्राप्ति करना, लोकतन्त्रीय मूल्यों का विकास करना, राष्ट्र की संस्कृति का संरक्षण करते हुए उसका आधुनिकीकरण करना और सामाजिक, नैतिक एवं ज आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करना। ये उद्देश्य तब भी समीचीन थे और आज भी समीचीन हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में इनमें राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति और जोड़ दी गई है।
4. प्राथमिक शिक्षा पर समग्र रूप से विचार
आयोग ने देश में 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करने पर बल दिया। साथ ही उसने प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य निश्चित किए, उसके लिए पाठ्यक्रम प्रस्तावित किया, इस स्तर पर शिक्षण की विधियों में सुधार के सुझाव दिए, इसके विस्तार एवं उन्नयन के लिए सुझाव दिए और इस स्तर पर होने वाले अपव्यय एवं अवरोधन को रोकने के लिए सुझाव दिए। उसके ये सुझाव तब भी उपयुक्त थे और आज भी उपयुक्त हैं। इसकी व्यवस्था में व्यक्तिगत प्रयासों को प्रोत्साहन देना भी आवश्यक है, अकेले सरकार के बूते अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा को व्यवस्था नहीं की जा सकती।
5. माध्यमिक शिक्षा के सन्दर्भ में समयानुकूल सुझाव
आयोग का यह सुझाव कि माध्यमिक शिक्षा 70% छात्रों के लिए पूर्ण शिक्षा होनी चाहिए भारत की जनसंख्या और संसाधनों की उपलब्धता की दृष्टि से तब भी सही सुझाव था और आज भी सही सुझाव है। इसके लिए उसने माध्यमिक शिक्षा को अपने में पूर्ण इकाई बनाने का सुझाव दिया और उसके व्यावसायीकरण का सुझाव दिया। इसे प्राप्त करने के बाद बच्चे अपनी जीविका कमा सकते हैं, सामान्य जीवन जी सकते हैं। अब किन बच्चों को किस प्रकार की माध्यमिक शिक्षा-सामान्य अथवा व्यावसायिक और व्यावसायिक में भी किस प्रकार की व्यावसायिक शिक्षा दी जाए इसके लिए उसने इस स्तर पर शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन एवं परामर्श की उचित व्यवस्था करने पर बल दिया है।
6. उच्च शिक्षा के विस्तार पर रोक और उन्नयन पर बल
आयोग ने देश के विभिन्न कार्य क्षेत्रों में उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों की माँग और उसकी व्यवस्था के लिए उपलब्ध संसाधनों की दृष्टि से उच्च शिक्षा के विस्तार को कम करने और उसके स्तर को उठाने पर बल दिया। उसका यह सुझाव तब (1965-66 में) भी उपयुक्त था और आज भी उपयुक्त है। बहुत से सामान्य छात्रों की उच्च शिक्षा पर व्यय करने से शिक्षित बेरोजगारी बढ़ती है और धन का अपव्यय होता है। इनके स्थान पर थोड़े से मेधावी छात्रों को उच्च शिक्षा देने से विभिन्न क्षेत्रों के लिए अति उत्तम, योग्य एवं सक्षम विशेषज्ञ प्राप्त होते हैं और सीमित संसाधनों में उत्तम उच्च शिक्षा की व्यवस्था होती है।
साथ ही उसने उच्च शिक्षा के स्तर को उठाने के लिए ठोस सुझाव भी दिए जिनमें विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान करना, उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम को विस्तृत एवं अद्यतन बनाना, नए-नए पाठ्यक्रमों (कम्प्यूटर आदि) को शुरुआत करना, केवल मेधावी एवं सक्षम छात्रों को प्रवेश देना, शिक्षकों का चयन राष्ट्रीय स्तर पर करना और सतत् मूल्यांकन प्रणाली को लागू करना, तब भी उपयुक्त थे और आज भी उपयुक्त हैं।
7. कृषि शिक्षा की उचित नीति एवं व्यवस्था
आयोग ने स्पष्ट किया कि भारत कृषि प्रधान देश है, इसकी 70% जनता कृषि पर निर्भर करती है। अतः इसका सामान्य ज्ञान तो सभी को होना चाहिए। फिर बागवानी एवं पशुपालन तो शहर में रहने वाले अन्य पेशों के व्यक्ति भी करते हैं। अतः इस सबकी सामान्य जानकारी प्राथमिक स्तर पर होना उचित ही है। उसका यह विचार कि माध्यमिक स्तर पर कृषि को कार्यानुभव में विशेष स्थान दिया जाए एक उपयुक्त विचार है। पॉलिटेक्नीक कॉलिजों में कृषि की शिक्षा की व्यवस्था और महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में कृषि को उच्च शिक्षा एवं शोध कार्य की व्यवस्था का सुझाव तो इस देश के लिए वरदान साबित हुआ है, उसके कारण ही हम आज खाद्यान के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हुए हैं। और इस सबकी तो आज भी उतनी ही उपयोगिता है। कृषि के क्षेत्र में शोध कार्य तो निरन्तर होना चाहिए।
8. माँग के अनुसार व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा
आयोग ने इस बात पर बल दिया कि देश के जिस क्षेत्र में जिस प्रकार के कुशल कर्मकार और उच्च स्तर के संगठनकर्ता एवं इजीनियर आदि की माँग हो, उस क्षेत्र में वैसी ही व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाए। साथ ही उसने इस शिक्षा में पाठ्यक्रम को अद्यतन बनाने पर बल दिया, इसकी संस्थाओं को साधन सम्पन्न करने पर बल दिया और सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ-साथ प्रायोगिक प्रशिक्षण पर बल दिया। उसके ये सुझाव तब भी उपयोगी थे और आज भी उपयोगी हैं।
9. विज्ञान शिक्षा एवं वैज्ञानिक शोधों पर बल
आयोग ने देश के आधुनिकीकरण के लिए विज्ञान शिक्षा की आवश्यकता स्पष्ट की। उसने विज्ञान को उच्च शिक्षा और वैज्ञानिक शोध कार्य पर और अधिक व्यय करने का सुझाव दिया। उसके इस सुझाव के अनुपालन से ही हमारा देश औद्योगिक क्षेत्र में उन्नति कर रहा है, स्पेस साइंस में हमारे कदम आगे बढ़ रहे हैं और परमाणु शक्ति में हम संसार की छठी शक्ति बन गए हैं। हमें इस दिशा में निरन्तर बढ़ना है।
10. शिक्षक स्तर एवं शिक्षक प्रशिक्षण सम्बन्धी उपयुक्त सुझाव
आयोग का यह मुझाव सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक है कि जब तक शिक्षकों का सामाजिक एवं आर्थिक स्तर नहीं उठाया जाता तब तक इस व्यवसाय की ओर योग्य व्यक्तियों को आकर्षित नहीं किया जा सकता। उसने शिक्षकों के वेतनमान बढ़ाने और उनकी सेवाशर्तों में सुधार करने के लिए सुझाव दिए। साथ ही उसने उनको शैक्षिक योग्यता और शिक्षण कुशलता बढ़ाने हेतु शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम में सुधार के लिए सुझाव दिए। उसके अधिकतर सुझावः जैसे-शिक्षकों के वेतनमानों में निरन्तर वृद्धि करना, उन्हें सरकारी कर्मचारियों की भाँति महँगाई भत्ता देना, उन्हें जी० पी० एफ, इन्श्योरेन्स और पेंशन का लाभ देना, शिक्षक प्रशिक्षण के लिए योग्य व्यक्तियों का चयन करना और शिक्षक प्रशिक्षण में व्यावहारिक प्रशिक्षण को अधिक महत्त्व देना, तब भी बहुत उपयोगी थे और आज भी बहुत उपयोगी हैं।
11. प्रौढ़ शिक्षा का व्यापक स्वरूप और उचित योजना
आयोग ने प्रौढ़ शिक्षा को बहुत व्यापक रूप में लिया है-निरक्षर प्रौढ़ों को साक्षर करना, साक्षर प्रौढ़ों को साक्षर बनाए रखना, साक्षर प्रौढ़ों को अपनी शैक्षिक योग्यता बढ़ाने के अवसर देना और विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत इच्छुक व्यक्तियों के लिए उनके क्षेत्र सम्बन्धी अद्यतम जानकारी देने हेतु अल्पकालिक शिक्षा की व्यवस्था करना। इस प्रकार उसने इसमें तत्कालीन प्रौढ़ शिक्षा और सतत् शिक्षा दोनों को सम्मिलित किया है। हमारी दृष्टि से किसी भी प्रगतिशील एवं विकासशील राष्ट्र के लिए यह बहुत आवश्यक होता है। साथ ही आयोग ने प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए ठोस सुझाव भी दिए: जैसे-प्रौढ़ शिक्षा में शिक्षित युवक-युवतियों, शिक्षक-शिक्षार्थियों, ग्राम सेविकाओं, समाज कल्याण विभाग और समाज-सेवी संगठनों का सहयोग लेना, विद्यालयों को सामुदायिक केन्द्र बनाना, विद्यालयी समय से पहले अथवा बाद में अल्पकालीन शिक्षा की व्यवस्था करना, पत्राचार पाठ्यक्रम की व्यवस्था करना, स्थाई पुस्तकालयों का निर्माण करना और सचल पुस्तकालयों की व्यवस्था करना।
12. शैक्षिक अवसरों की समानता पर बल
शैक्षिक अवसरों की समानता लोकतन्त्र की माँग है। आयोग ने इसके लिए बहुत बल दिया और इसकी प्राप्ति के लिए स्त्री-पुरुष सबके लिए समान पाठ्यक्रम, किसी भी पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिए सबके लिए समान विषय, निर्धन एवं योग्य छात्रों को आर्थिक सहायता, पिछड़ी, अनुसूचित, आदिवासी और पहाड़ी जातियों के बच्चों के लिए विशेष आर्थिक सहायता और प्राथमिक शिक्षा को निःशुल्क करने तथा माध्यतिक, उच्च एवं व्यावसायिक शिक्षा में छात्रवृत्तियों की व्यवस्था करने पर बल दिया। आयोग के ये सुझाव तब भी मानने योग्य थे और आज भी मानने योग्य है।
राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के दोष
1. अस्पष्ट प्रशासन
आयोग ने एक ओर तो केन्द्र को शिक्षा नीति एवं शिक्षा योजना बनाने क अधिकार दिया और इसे उच्च शिक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा और दूसरी ओर राज्य सरकारों को शैक्षिक आयोजन और अपनी आवश्यकता एवं संसाधन के अनुसार शैक्षिक नियोजन का अधिकार दिया, एक म्यान में दो तलवारे। उसने यह तो कहा कि केन्द्र सरकार अपने बजट का 6% शिक्षा पर व्यय करे परन्तु कैसे, इस विषय में को सुझाव नहीं दिया। उसने केन्द्र और प्रान्तीय सरकारों के शैक्षिक उत्तरदायित्व और शिक्षा पर किए जाने वाले व्यय के सम्बन्ध में भी अस्पष्ट सुझाव दिए हैं। तभी आज तक केन्द्र और राज्य सरकारें अपने अपने अनुसार कार्य कर रही हैं।
2. उलझी हुई शिक्षा संरचना
आयोग ने पूर्व प्राथमिक शिक्षा 1 से 3 वर्ष की अवधि की, प्राथमिक शिक्षा 4 या 5 वर्ष की अवधि की, उच्च प्राथमिक अथवा निम्न माध्यमिक शिक्षा 2 या 3 वर्ष की अवधि की माध्यमिक शिक्षा 2 या 3 वर्ष की अवधि की, स्नातक शिक्षा 3 वर्ष की अवधि की और स्नातकोत्तर शिक्षा 2 या 3 वर्ष की अवधि की प्रस्तावित की। पहली बात तो यह है कि यह शिक्षा संरचना अस्पष्ट और उलझी हुई है दूसरी बात यह है कि यह समान नहीं है। लोकतन्त्र की माँग है कि शिक्षा संरचना पूरे देश के लिए समान होनी चाहिए। तभी नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में 10+2+3 शिक्षा संरचना स्वीकार की गई है।
3. राष्ट्रीय शिक्षा के नाम पर पंचमेल खिचड़ी
इस आयोग में देश-विदेश के शिक्षाविज्ञ रखे गए थे, तब इसके सुझावों में पंचमेल खिचड़ी होना स्वाभाविक था। फिर ये सभी व्यक्ति उच्च शिक्षा से सम्बन्धित दे इसलिए प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के बारे में इनके विचारों में विविधता होना स्वाभाविक था। कहीं माध्यमिक शिक्षा के व्यावसायीकरण की बात कही गई है तो कहीं विशिष्टीकरण की बात उच्चतर माध्यमिक स्तर पर कही गई है, कहीं माध्यमिक स्तर पर त्रिभाषा सूत्र लागू करने की बात कही गई है तो कहीं इस स्तर पा अंग्रेजी, रूसी और फ्रेंच भाषाओं की शिक्षा की व्यवस्था की बात कही गई है। ऐसा लगता है राजनैतिक नेताओं की भाँति जब जैसा करना आवश्यक प्रतीत हुआ, कह डाला, उसके पीछे कोई ठोस सिद्धान्त नहीं रहा।
4. प्राथमिक स्तर पर शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन अनावश्यक
आयोग ने जब शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन एवं परामर्श पर सुझाव दिए तो कहा कि इसकी व्यवस्था प्राथमिक स्तर से ही होनी चाहिए। इस सन्दर्भ में सबसे पहली बात तो यह है कि हमारी सरकार अभी तक प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमीकरण तक नहीं कर पाई है, वह इस स्तर पर सब कुछ अनिवार्य है, तब शैक्षिक निर्देशन का प्रश्न ही नहीं उठता। तीसरी बात यह है कि अब इस स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था नहीं है इसलिए इस स्तर पर व्यावसायिक निर्देशन का भी प्रश्न नहीं उठता। और चौथी एवं अन्तिम बात यह है कि इस स्तर पर बच्चों को जो शैक्षिक समस्याएँ होती हैं; जैसे-देर से स्कूल आना, किसी विषय के अध्ययन अथवा कार्य के सम्पादन में रुचि न लेन गृह कार्य को समय से न करना, आदि के समाधान के लिए शिक्षकों को केवल एक ही मूलमन्त्र अपनाने के आवश्यकता है-प्रेम, सहानुभूति और सहयोग।
5. माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में विरोधी विचार आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के विषय में बड़े विरोधी विचार प्रस्तुत किए हैं। एक स्थान पर उसने सुझाव दिया है कि माध्यमिक शिक्षा में दो वर होंगे-साहित्यक और व्यावसायिक और सामान्य स्तर के 50 प्रतिशत छात्रों को व्यावसायिक वर्ग में प्रवेश दिय जाएगा जिसे प्राप्त करने के बाद वे अपनी रोजी रोटी कमा सकेंगे और शेष 50 प्रतिशत योग्य छात्रों को सामान वर्ग में प्रवेश दिया जाएगा जिसे प्राप्त कर वे उच्च शिक्षा में प्रवेश ले सकेंगे और दूसरे स्थान पर लिखा है। माध्यमिक शिक्षा 70 प्रतिशत छात्रों के लिए पूर्ण शिक्षा होगी। ये दो बातें एक साथ कैसे सम्भव होंगी। इस ही नहीं अपितु एक स्थान पर माध्यमिक शिक्षा के व्यावसायीकरण की बात कही गई है और दूसरे स्थान माध्यमिक स्तर की व्यावसायिक शिक्षा पॉलिटेक्नीक विद्यालयों में दी जाने की बात कही है।
6. दोषपूर्ण भाषा नीति
आयोग ने प्राथमिक स्तर पर केवल मातृभाषा और उच्च प्राथमिक अथवा निक माध्यमिक स्तर पर मातृभाषा के साथ संघीय भाषा (हिन्दी) अथवा संघ की सहभाषा (अंग्रेजी) की शिक्षा अनिवा करने की बात कही है। माध्यमिक स्तर पर त्रिभाषा सूत्र के अन्तर्गत तीन भाषाओं का अध्ययन अनिवार्य किया है और तीसरी भाषा के रूप में अंग्रेजी फ्रेंच, रूसी अथवा कोई शास्त्रीय भाषा का अध्ययन अनिवार्य किया है। यह त्रिभाषा सूत्र के मूल उद्देश्य के प्रतिकूल है। वही उसने यह विचार भी प्रस्तुत किया है कि अंग्रेजी भाषा की शिक्षा को उचित व्यवस्था की जाए। परोक्ष रूप में यह सब अंग्रेजी भाषा को बनाए रखने की नीति है। यह स्वतन्त्र भारत के लिए बड़ी घातक है।
7. वरिष्ठ विश्वविद्यालय एवं स्वायत्त महाविद्यालयों की स्थापना अनावश्यक
आयोग ने उच्च शिक्षा के उन्नयन के लिए अनेक सुझाव दिए। उसके अधिकतर सुझाव बड़े कारगर सिद्ध हुए हैं, परन्तु उसका यह विचार कि कुछ विश्वविद्यालयों को वरिष्ठ विश्वविद्यालयों में विकसित किया जाए और इनका स्तर अन्य विश्वविद्यालयों से उच्च हो, उच्च शिक्षा के स्तर के विषय में दोहरे मानदण्ड स्थापित करना है। अच्छा हुआ उसका यह सुझाव माना नहीं गया अन्यथा शेष विश्वविद्यालयों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता। इसी प्रकार उसने कुछ उच्च कोटि के महाविद्यालयों को स्वायत्त महाविद्यालय बनाने का सुझाव दिया। इसके परिणाम भी अच्छे नहीं निकले और इसे कुछ दिन बाद ही त्याग दिया गया।
8. शिक्षा के विस्तार के विषय में विरोधी विचार
आयोग ने जब विद्यालयी शिक्षा, उच्च शिक्षा और किसी भी प्रकार की विशिष्ट शिक्षा की चर्चा की तो उसके विस्तार और उन्नयन पर बल दिया। इसी प्रकार जब शैक्षिक अवसरों की समानता की बात कही तब सभी को किसी भी स्तर की किसी भी प्रकार की शिक्षा -सुलभ कराने की बात कही। परन्तु जब छात्र नामांकन और मानवशक्ति की चर्चा की तो संसाधनों की कमी उसके -सामने आ गई। और मजे की बात यह है कि सर्वप्रथम यह बात कही कि 6-14 आयु वर्ग के बच्चों के लिए न तो अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाए और उसके बाद यह बात कही कि उच्च प्राथमिक स्तर पर केवल इच्छुक छात्र-छात्राओं को प्रवेश दिया जाए। कितना विरोधाभास है इन दोनों सुझावों में।
9. शिक्षा के अन्य पक्षों के सम्बन्ध में भी विरोधी विचार
यदि आप आयोग के सुझावों पर समग्र रूप से विचार करें तो स्पष्ट होगा कि शिक्षा के अनेक अन्य पक्षों पर भी उसने विरोधी विचार प्रकट किए हैं। कहीं कहा है कि भविष्य में उच्च शिक्षा का माध्यम भी क्षेत्रीय भाषाएँ होंगी, तो कहीं कहा है कि विज्ञान एवं तकनीकी को उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही रहेगी। शिक्षकों के वेतन के सम्बन्ध में प्रारम्भ में कहा कि समान कार्य के लिए समान वेतन का सिद्धान्त लागू होगा और जब विभिन्न स्तर के शिक्षकों के वेतनमान प्रस्तावित किए तो महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में समान कार्य करने वालों के वेतनमान भिन्न-भिन्न प्रस्तावित किए।
और सबसे बड़ी विरोधी बात तो यह है कि आयोग ने जब किसी भी स्तर की किसी भी प्रकार की शिक्षा के विस्तार और उत्रयन की बात की तो उसके सामने संसाधनों की कमी कभी नहीं रही, यह भी होना चाहिए और वह भी होना चाहिए के सुझाव दिए। उस समय लगा कि भारत को कहीं से बड़ा खजाना हाथ लग गया है। परन्तु जब उसने छात्र नामांकन और मानव शक्ति पर विचार प्रकट किए तो लगा कि भारत के पास तो 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों की अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था के लिए भी संसाधन नहीं है। इस आयोग के प्रतिवेदन में साहित्यकारों की सी भाषा और राजनैतिक नेताओं के से झूठे वायदे अधिक हैं और वास्तविकता की धरातल पर दिए गए सुझाव कम हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का प्रभाव
राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1964-66) की सिफारिशों के आधार पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण किया गया और उसे 24 जौलाई, 1968 को घोषित किया गया। बस क्या था, राष्ट्रीय शिक्षा आयोग की सिफारिशों पर अमल किया जाने लगा। पूरे देश में 10+ 2+ 3 शिक्षा संरचना लागू करने के लिए प्रयत्न शुरु हुए, और एन. सी. ई. आर. टी. ने प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा के लिए आधारभूत पाठ्यचर्या तैयार की जिसमें त्रिभाषा सूत्र के आधार तीन भाषाओं का अध्ययन, देश के आधुनीकरण करने के लिए विज्ञान एवं गणित का अधययन और माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा की शुरुआत करने के लिए कार्यानुम को अनिवार्य किया गया। और कुछ प्रान्तों में इस आधार पर प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा की पाठ्यचर्या का निर्माण किया गया और उसे चालू किया गया। कुछ प्रान्तों में + 2 पर अनेक प्रकार के व्यावसायिक पाठ्यक्रम भी शुरु किए गए, यह बात दूसरी है कि उनमें सफलता नहीं मिली। उच्च शिक्षा में डिग्री कोर्स को तीन वर्षीय कर दिया गया। उच्च शिक्षाओ व्यावसायिक तकनीकी एवं प्रबन्ध शिक्षा के विस्तार के साथ-साथ उनके उन्नयन के लिए ठोस कदम उठाए, गर साथ ही शिक्षक शिक्षा में सुधार होने शुरु हुए और प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रमों को व्यापक बनाया गया। है आयोग ने शैक्षिक अवसरों की समानता के लिए जो सुझाव दिए उनका अनुपालन भी शुरु हुआ। और ह सन्दर्भ में दूसरी बड़ी बात यह है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 का निर्माण भी इसी आधार पर किया गया है।
निष्कर्ष
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आयोग का प्रतिवेदन शिक्षा का विश्वकोष है, उसमें भारतीर शिक्षा के समस्त पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है, परन्तु आयोग के अपने शब्दों में उसके सुझाव सर्वश्रेष्ठ औ अन्तिम नहीं है, विकास तो निरन्तर प्रक्रिया है, और यह बात अपने में एकदम सही है। आयोग के कुछ सुझाव तो ऐसे हैं जो भारत के लिए तब, 1965-66 में भी उपयोगी थे और आज 21वीं शताब्दी में भी उपयोगी है जैसे-शिक्षा को राष्ट्रीय महत्त्व का विषय मानना, शिक्षा पर बजट का कम से कम 6 प्रतिशत व्यय करना, 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करना, माध्यमिक शिक्षा को अर्थ में एक पूर्ण इकाई बनाना, उच्च शिक्षा में केवल प्रतिभाशाली छात्रों को प्रवेश देना और देश में विज्ञान शिक्ष एवं शोध कार्य पर विशेष ध्यान देना, आदि।
परन्तु उसके कुछ सुझाव अपने में अपूर्ण एवं अनुपयोगी है जैसे-पूरे देश के लिए समान शिक्षा संरचना प्रस्तुत न करना, माध्यमिक स्तर पर विदेशी भाषाओं-अंग्रेजी, रूसं और फ्रेंच आदि भाषाओं के अध्ययन पर परोक्ष रूप से बल देना और कुछ विश्वविद्यालयों को वरिष विश्वविद्यालयों में बदलना। पर कुछ भी हो राष्ट्रीय शिक्षा आयोग ने शिक्षा के क्षेत्र में एक नए युग का शुभारम किया, उसके आधार पर शिक्षा को राष्ट्रीय महत्त्व का विषय माना गया है, शिक्षा की राष्ट्रीय नीति घोषित के गई है और किसी भी स्तर की शिक्षा के प्रसार में कुछ तेजी आई और उसके उन्नयन की ओर कदम बढ़े हैं। तब आयोग के सभी सदस्य साधुवाद के अधिकारी है।