राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 क्या है : [National Education Policy 1968]

कोठारी आयोग (1964-66) ने अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को 29 जून, 1966 को प्रस्तुत की। इसके लगभग 9 माह बाद भारत सरकार ने 5 अप्रैल, 1967 को संसद सदस्यों की एक समिति का गठन किया और इस समिति को तीन कार्य सौपे-पहला कोठारी आयोग के सुझावों पर गम्भीरता से विचार करना, दूसरा राष्ट्रीय शिक्षा नीति का ड्राफ्ट तैयार करना और तीसरा प्राथमिकताओं के आधार पर उसके क्रियान्वयन की रूपरेखा तैयार करना। इस संसद समिति ने कोठारी आयोग के सुझावों का गम्भीरता से अध्ययन किया और उसके बाद उसके सुझावों के बारे में अपना अभिमत सरकार को प्रस्तुत किया। 

समिति ने सर्वप्रथम शिक्षा द्वारा राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने पर बल दिया। इसके बाद सामाजिक समानता की प्राप्ति के लिए आयोग द्वारा प्रस्तावित सामान्य विद्यालय (Common School) को पड़ौस विद्यालय (Neighbourhood School) के रूप में स्वीकार किया। समिति ने भाषा नीति, कार्यानुभव, चरित्र निर्माण, विज्ञान शिक्षा एवं शोध और शैक्षिक अवसरों की समानता पर विस्तार से विचार प्रकट किए और शिक्षा के सभी स्तरों में गुणात्मक सुधार (Qualitative Improvement) पर बल दिया। उसने केन्द्र और राज्य सरकारों के शैक्षिक उत्तरदायित्व निश्चित किए और अन्त में प्राथमिकताओं के आधार पर भावी कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की। समिति की यह रिपोर्ट 1968 में संसद के शीतकालीन अधिवेशन में प्रस्तुत की गई। संसद में इस पर लम्बी चर्चा हुई और राष्ट्रीय शिक्षा नीति को अन्तिम रूप दिया गया। 24 जौलाई, 1968 को सरकार ने इसकी विधिवत् घोषणा की।

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राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 के मूल तत्व

कोठारी आयोग की रिपोर्ट पर आधारित यह शिक्षा नीति पूर्ण आकार के केवल 9 पृष्ठों में प्रस्तुत की गई है। इसके मूल तत्वों को निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध किया जा सकता है-

1. शिक्षा राष्ट्रीय महत्व का विषय है 

इस शिक्षा नीति में शिक्षा को राष्ट्रीय महत्व का विषय माना गया है और यह स्वीकार किया गया है कि शिक्षा द्वारा ही लोकतन्त्र को सुदृढ़ किया जा सकता है; स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृत्व, न्याय, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों का विकास किया जा सकता है; राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ किया जा सकता है; उत्पादन में वृद्धि और राष्ट्र का आर्थिक विकास किया जा सकता है और राष्ट्र का सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में आधुनिकीकरण किया जा सकता है। 

2. शिक्षा की व्यवस्था केन्द्र एवं राज्य सरकारों का संयुक्त उत्तरदायित्व है 

भारत एक गणतन्त्र राज्य है। इसमें कुछ विषय केवल केन्द्र के अधीन हैं और कुछ विषय केवल राज्य सरकारों के अधीन हैं और कुछ विषय ऐसे हैं जो केन्द्र एवं राज्य सरकारों दोनों के अधीन हैं। इस शिक्षा नीति में शिक्षा की व्यवस्था करना केन्द्र और राज्य सरकारों का संयुक्त उत्तरदायित्व घोषित किया गया है। केन्द्र के शैक्षिक उत्तरदायित्व हैं- राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण करना, केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और राष्ट्रीय महत्व की शिक्षा संस्थाओं का प्रबन्ध करना, उच्च स्तर को विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा और अनुसन्धान का स्तर मान निश्चित करना, विदेशों में शैक्षिक एवं सांस्कृतिक समझौते करना, राज्यों को शैक्षिक नेतृत्व प्रदान करना और उनके शैक्षिक कार्यक्रमों के सम्पादन हेतु आर्थिक सहायता देना। और प्रान्तीय सरकारों के शैक्षिक उत्तरदायित्व हैं-केन्द्रीय शिक्षा नीति के अनुसार राज्य स्तर पर शिक्षा को नियोजित करना, उसके लिए वित्त व्यवस्था करना, शैक्षिक प्रशासनिक ढाँचे पर नियन्त्रण रखना और विभिन्न स्तरों की शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखना।

3. शिक्षा पर केन्द्रीय बजट का 6% व्यय किया जाएगा 

इस शिक्षा नीति में शिक्षा को राष्ट्रीय महत्व का विषय माना गया है इसलिए केन्द्रीय बजट में 6% शिक्षा पर व्यय करने का प्रस्ताव रखा गया है। दृष्टव्य है कि उस समय शिक्षा पर केन्द्रीय बजट का केवल 2.9% ही व्यय किया जा रहा था।

4. सम्पूर्ण देश के लिए 10 + 2 + 3 शिक्षा संरचना लागू की जाएगी 

पूरे देश में 10 + 2 + 3 शिक्षा संरचना लागू की जाएगी। प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा के लिए एक आधारभूत पाठ्यचर्या (Core Curriculum) तैयार की जाएगी, +2 पर स्थान विशेष की आवश्यकतानुसार पाठ्यचर्या निश्चित की जाएगी और इस स्तर पर 50% छात्रों को व्यावसायिक शिक्षा की ओर मोड़ने का प्रयत्न किया जाएगा। प्रथम स्नातक पाठ्यक्रम 3 वर्ष का होगा। प्रत्येक विश्वविद्यालय को अपने पाठ्यक्रम निश्चित करने की स्वतन्त्रता होगी परन्तु ये पाठ्यक्रम अन्तर्राष्ट्रीय मानदण्डों के आधार पर विकसित किए जाएँगे।

5. अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की जाएगी 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 45 के अनुसार 6 से 14 आयुवर्ग के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की जाएगी। यह प्रयत्न किया जाएगा कि प्रथम 5 वर्षों के अन्दर 6 से 11 आयुवर्ग के बच्चों की निम्न प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य एवं निःशुल्क हो जाए और अगले पाँच वर्षों में 11 से 14 आयु वर्ग के बच्चों की उच्च प्राथमिक शिक्षा भी अनिवार्य एवं निःशुल्क हो जाए। इस प्रकार 10 वर्षों के अन्दर अर्थात् 1978 तक इस लक्ष्य की प्राप्ति की जाएगी।

6. माध्यमिक शिक्षा का विस्तार एवं उन्नयन किया जाएगा

जहाँ माध्यमिक शिक्षा की माँग है वहाँ यह उपलब्ध कराई जाएगी। निकट भविष्य में 10 वर्षीय शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क किया जाएगा। इस स्तर पर बच्चों को राष्ट्र का इतिहास और संविधान के मूल तत्वों का सामान्य ज्ञान कराया जाएगा और व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था की जाएगी। इसमें गुणात्मक सुधार किया जाएगा।

7. माध्यमिक स्तर पर त्रिभाषा सूत्र लागू किया जाएगा 

प्राथमिक स्तर पर केवल मातृभाषा का अध्ययन अनिवार्य होगा, उच्च प्राथमिक (निम्न माध्यमिक) स्तर पर मातृभाषा तथा अन्य किसी भारतीय भाषा अथवा अंग्रेजी का अध्ययन अनिवार्य होगा और माध्यमिक स्तर पर इनके साथ किसी एक और राष्ट्रीय अथवा अन्तर्राष्ट्रीय महत्व की भाषा का अध्ययन अनिवार्य होगा।

8. भारतीय भाषाओं का विकास किया जाएगा 

राष्ट्रीय महत्व की सभी भाषाओं के शिक्षण की व्यवस्था की जाएगी और उनका विकास किया जाएगा। राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार किया जाएगा और संस्कृत की शिक्षा के लिए उचित कदम उठाए जाएंगे। 

9. प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा में कार्यानुभव एवं राष्ट्रीय सेवा को अनिवार्य किया जाएगा 

शिक्षा का उत्पादन से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा में कार्यानुभव अनिवार्य किया जाएगा और स्वावलम्बन पर बल दिया जाएगा। बच्चों में सामाजिकता की भावना विकसित करने और उनका चरित्र निर्माण करने के लिए समाज सेवा कार्य भी अनिवार्य किया जाएगा।

10. प्रतिभावान छात्रों की पहचान की जाएगी 

अल्पायु (प्राथमिक स्तर के बाद) में ही प्रतिभावान छात्रों की पहचान की जाएगी, उनको अपने विकास के उचित अवसर दिए जाएँगे, निर्धन छात्रों को आर्थिक सहायता दी जाएगी।

11. विश्वविद्यालयी शिक्षा का प्रसार एवं उन्नयन किया जाएगा 

उच्च स्तर पर छात्रों की बढ़ती हुई संख्या के आधार पर महाविद्यालयों में सांयकालीन कक्षाओं की व्यवस्था की जाएगी और विश्वविद्यालयों में अंशकालीन और पत्राचार पाठ्यक्रम चलाए जाएँगे। विश्वविद्यालयी शिक्षा के उन्नयन के लिए विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान की जाएगी, कुलपति पद पर प्रशासनिक अनुभव प्राप्त शिक्षाविदों को नियुक्त किया जाएगा, प्रथम स्नातक पाठ्यक्रमों में इण्टर पास छात्रों को प्रवेश दिया जाएगा और स्नातकोत्तर स्तर पर केवल योग्य छात्रों को ही प्रवेश दिया जाएगा।

12. कृषि, व्यावसायिक, तकनीकी एवं इन्जीनियरिंग शिक्षा की विशेष व्यवस्था की जाएगी

कृषि विज्ञान के सामान्य ज्ञान के लिए पॉलीटेक्निक विद्यालय खोले जाएँगे और उसके उच्च ज्ञान के लिए कुछ विश्वविद्यालयों में कृषि संकायों की स्थापना की जाएगी और प्रत्येक राज्य में कम से कम एक कृषि विश्वविद्यालय स्थापित किया जाएगा जो कृषि के क्षेत्र में अनुसन्धान कार्य के लिए विशेष रूप से उत्तरदायी होगा। व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा के स्तर को ऊँचा किया जाएगा और उन्हें औद्योगिक संस्थानों की माँगों के अनुसार विकसित किया जाएगा।

13. विज्ञान शिक्षा और वैज्ञानिक अनुसन्धान पर विशेष ध्यान दिया जाएगा 

आर्थिक विकास की गति तीव्र करने और भारतीय समाज का आधुनिकीकरण करने के लिए प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा में विज्ञान और गणित की शिक्षा अनिवार्य की जाएगी और विश्वविद्यालयी शिक्षा में विज्ञान की उच्च शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में शोध कार्य को प्राथमिकता दी जाएगी। साथ ही राष्ट्र के वैज्ञानिक शोध संस्थानों को पर्याप्त आर्थिक सहायता दी जाएगी।

14. उच्च स्तर की पाठ्यपुस्तकों का निर्माण किया जाएगा 

किसी भी स्तर की शिक्षा के लिए उच्च स्तरीय पुस्तकों का निर्माण किया जाएगा। इसके लिए विद्वान लेखकों को प्रोत्साहित किया जाएगा, उन्हें आर्थिक सहायता दी जाएगी। साथ ही योग्य लेखकों को पारिश्रमिक देकर उनसे अच्छी पुस्तकें तैयार कराई जाएँगी।

15. परीक्षा प्रणाली में सुधार किया जाएगा 

बाह्य परीक्षाओं के महत्त्व को कम किया जाएगा और आन्तरिक एवं सतत् मूल्यांकन की योजना बनाई जाएगी। माध्यमिक स्तर पर कक्षा 10 के बाद पहली सार्वजनिक परीक्षा होगी। किसी भी स्तर की परीक्षा को विश्वसनीय एवं वैध बनाया जाएगा। परीक्षा परिणामों में बाह्य और आन्तरिक मूल्यांकन के प्राप्तांक अलग-अलग दिखाए जाएँगे और श्रेणी के स्थान पर ग्रेड दिए जाएँगे।

16. शिक्षकों के स्तर और शिक्षक प्रशिक्षण में सुधार किया जाएगा 

शिक्षा व्यवसाय की ओर योग्य युवकों को आकर्षित करने के लिए शिक्षकों के वेतनमान बढ़ाए जाएँगे और उनकी सेवा शर्तों को आकर्षक बनाया जाएगा। प्रत्येक स्तर के सरकारी एवं गैरसरकारी शिक्षकों के लिए राष्ट्रीय वेतनमान निश्चित किए जाएँगे और समान सेवा शर्तें निश्चित की जाएँगी। सभी शिक्षकों के लिए त्रिसूत्री लाभ योजना (जी० पी० एफ०, बीमा और पेंशन) तुरन्त लागू की जाएगी। 

शिक्षकों के संगठनों को मान्यता दी जाएगी; शिक्षकों को राजनीति में भाग लेने की स्वतन्त्रता होगी, वे चुनाव लड़ सकेंगे। साथ ही शिक्षण को प्रभावशाली बनाने हेतु शिक्षण प्रशिक्षण में सुधार किया जाएगा, उसके स्तर को उठाया जाएगा। इसके लिए विश्वविद्यालयों में 'शिक्षक शिक्षा विद्यालय' (School of Education) स्थापित किए जाएँगे और शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में शोध कार्य को भी बढ़ावा दिया जाएगा। 

पूर्णकालीन शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों में पूर्णकालीन शिक्षक प्रशिक्षण के साथ-साथ अन्तर्सेवा प्रशिक्षण (Inservice Training) की व्यवस्था की जाएगी, शिक्षकों को निरन्तर अद्यतन ज्ञान से परिचित कराया जाएगा और अद्यतन कौशलों में प्रशिक्षित किया जाएगा।

17. छात्र कल्याण योजनाएँ बनाई जाएँगी 

विद्यालयों में निःशुल्क मध्याह्न भोजन की व्यवस्था की जाएगी और महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में सस्ते जलपान गृहों की व्यवस्था की जाएगी। छात्रों के लिए छात्रावासों का निर्माण किया जाएगा और प्रत्येक स्तर पर छात्रवृत्तियों की संख्या बढ़ाई जाएगी। छात्रों को छात्र संघ बनाने की स्वीकृति दी जाएगी।

18. छात्रों के लिए खेल-कूद की उत्तम व्यवस्था की जाएगी 

शिक्षा के सभी स्तरों पर स्वास्थ्य लाभ हेतु खेल-कूदों की उत्तम व्यवस्था की जाएगी और खिलाड़ियों को प्रोत्साहन दिया जाएगा।

19. प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम को गति प्रदान की जाएगी 

शत प्रतिशत साक्षरता की प्राप्ति और उत्पादन में वद्धि हेतु प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम को और अधिक गति दी जाएगी। व्यापारिक एवं औद्योगिक संस्थानों में कार्यरत व्यक्तियों की प्रौढ़ शिक्षा का उत्तरदायित्व इन संस्थाओं पर होगा। शिक्षक और छात्र राष्ट्रीय सेवा कार्य के अन्तर्गत साक्षरता आन्दोलन में भाग लेंगे। विश्वविद्यालयों में विस्तार सेवा केन्द्रों की स्थापना की जाएगी और इनके द्वारा प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों को गति दी जाएगी। स्थान-स्थान पर सार्वजनिक पुस्तकालयों की व्यवस्था की जाएगी और आकाशवाणी और दूरदर्शन के प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों का विस्तार किया जाएगा।

20. सम्पूर्ण शिक्षा द्वारा भारतीय समाज का आधुनिकीकरण किया जाएगा 

प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा और प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों के द्वारा भारतीय समाज का आधुनिकीकरण किया जाएगा अर्थात् भारतीय जनता में अपनी संस्कृति की सुरक्षा के साथ-साथ वैज्ञानिक सोच उत्पन्न की जाएगी, उन्हें विज्ञान एवं तकनीकी के प्रयोग द्वारा उत्पादन में वृद्धि करने की ओर अग्रसर किया जाएगा और किसी भी विचार अथवा क्रिया के निरन्तर मूल्यांकन की ओर प्रवृत्त किया जाएगा।

21. शैक्षिक अवसरों की समानता की प्राप्ति की जाएगी 

राष्ट्र के सभी बच्चों को जाति, लिंग, धर्म, स्थान आदि किसी भी आधार पर भेद-भाव किए बिना शिक्षा के समान अवसर प्रदान करना लोकतन्त्र की माँग है। इसकी पूर्ति के लिए समस्त बालकों की पहुँच के अन्दर की दूरी पर प्राथमिक स्कूल स्थापित किए जाएँगे। बालिकाओं और पिछड़े, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यक वर्ग के बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। पहाड़ी क्षेत्रों और कबीलों के बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था की जाएगी। शारीरिक दृष्टि से विकलांग और मानसिक दृष्टि से पिछड़े बच्चों के लिए अलग से विद्यालय स्थापित किए जाएँगे। प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क की जाएगी, माध्यमिक और उच्च शिक्षा स्तर पर निर्धन छात्रों को शुल्क मुक्ति दी जाएगी और छात्रवृत्तियाँ दी जाएँगी। पिछड़ी, अनुसूचित और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों को विशेष छात्रवृत्तियाँ दी जाएँगी।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 का मूल्यांकन अथवा गुण-दोष

किसी भी वस्तु, क्रिया अथवा विचार का मूल्यांकन कुछ आधारभूत मानदण्डों के आधार पर किया जाता है। शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है, अतः शिक्षा सम्बन्धी किसी भी नीति का मूल्यांकन समाज विशेष के लिए उसकी उपयोगिता के आधार पर किया जाना चाहिए। हमारा राष्ट्र एक लोकतन्त्रीय राष्ट्र है, इसकी अपनी कुछ मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। साथ ही यह एक विकासशील राष्ट्र है, इसकी दृष्टि से इसके अपने कुछ लक्ष्य हैं। 

अतः यदि हम इन सब आधारों पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 का मूल्यांकन करें तो उसमें निम्नलिखित गुण-दोष स्पष्ट होंगे-

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 के गुण

(1) शिक्षा को राष्ट्रीय महत्त्व का विषय माना गया है और उस पर केन्द्रीय बजट का 6% व्यय करने का प्रस्ताव किया गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में भी इसे स्वीकार किया गया है।

(2) सम्पूर्ण देश में समान शिक्षा संरचना 10 + 2 + 3 लागू करना स्वीकार किया गया है और प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा के लिए आधारभूत पाठ्यचर्या (Core curriculum) बनाने की बात कही गई है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में भी इसे स्वीकार किया गया है। यह संरचना शुरु हो गई है, इससे लाभ होने सुनिश्चित हैं।

(3) अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करने पर बल दिया गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में भी इस पर बल दिया गया है। इस लक्ष्य की ओर हम निरन्तर बढ़ भी रहे हैं।

(4) माध्यमिक शिक्षा के विस्तार के साथ-साथ उसके गुणात्मक सुधार पर बल दिया गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में भी इस पर बल दिया गया है और इन दोनों ही दिशा में हम बढ़ रहे हैं।

(5) भारतीय भाषाओं के विकास पर बल दिया गया है। विचार तो उत्तम है, यह बात दूसरी है कि इसके लिए प्रयत्न बहुत कम किया जा रहा है।

(6) प्रतिभावान छात्रों की पहचान कर उनकी शिक्षा की उचित व्यवस्था करना केन्द्रीय सरकार का उत्तरदायित्व माना गया है। इस दिशा में हमारे कदम उठ चुके हैं, परिणाम सन्तोषजनक हैं।

(7) विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ उसके गुणात्मक सुधार पर बल दिया गया है। यह बात दूसरी है कि इन दोनों ही क्षेत्रों में हमें कम सफलता मिली है।

(8) कृषि, व्यावसायिक, तकनीकी एवं इंजीनियरिंग की शिक्षा पर विशेष बल दिया गया है, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में भी इस पर बल दिया गया है। इसी के द्वारा देश का आर्थिक विकास किया जा सकता है। इस बीच इसके लिए कुछ प्रयास भी किए गए हैं।

(9) विज्ञान शिक्षा और वैज्ञानिक शोधों पर विशेष ध्यान देने की बात कही गई है। इस युग में किसी भी विकासशील देश के लिए इसकी अत्यधिक आवश्यकता है, यह एक अनिवार्यता है।

(10) किसी भी स्तर की परीक्षा प्रणाली में सुधार की बात कही गई है। सच बात यह है कि परीक्षा प्रणाली पर ही शिक्षा की सम्पूर्ण प्रक्रिया केन्द्रित होती है, यदि इसमें सुधार कर दिया जाता है तो शेष ढाँचे में अपने आप सुधार हो जाता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में भी मूल्यांकन में सुधार पर बल दिया गया है।

(11) शिक्षकों के स्तर को उठाने उनके वेतनमान बढ़ाने और सेवाशर्तों में सुधार करने पर बल दिया गया है। साथ ही शिक्षण प्रशिक्षण को प्रभावी बनाने पर बल दिया गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 से भी इस पर बल दिया गया है। शिक्षकों के वेतनमान बढ़े हैं, उनकी सेवाशर्तों में सुधार हुआ है और शिक्षण प्रशिक्षण के क्षेत्र में भी सुधार की प्रक्रिया शुरु हो गई है।

(12) छात्रों के कल्याण के लिए अनेक योजनाएँ प्रस्तुत की गई हैं, उनके लिए खेल-कूद की उचित व्यवस्था करने पर बल दिया गया है और खिलाड़ियों को प्रोत्साहन देने की बात कही गई है। इस दिशा में कुछ कार्य भी किए गए हैं।

(13) शत प्रतिशत साक्षरता की प्राप्ति और देश के आर्थिक विकास के लिए प्रौढ़ शिक्षा के महत्व को स्वीकार किया गया है और इसकी व्यवस्था करने पर बल दिया गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में भी इस कार्य पर बल दिया गया है पर इस दिशा में हमें सफलता बहुत कम मिली है।

(14) सम्पूर्ण शिक्षा द्वारा भारतीय समाज के आधुनिकीकरण पर बल दिया गया है। छात्रों में वैज्ञानिक सोच उत्पन्न करने और नागरिकों के जीवन स्तर को उठाने के लिए जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विज्ञान एवं तकनीकी के प्रयोग पर बल दिया गया है। इसे स्वीकार करने से देश का आर्थिक विकास हुआ है।

(15) और सबसे बड़ी और अन्तिम विशेषता यह है कि सभी को शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर प्रदान करने की पूरी योजना तैयार की गई है; पिछड़े, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यकों की शिक्षा की व्यवस्था करने पर विशेष बल दिया गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में भी इस पर बल दिया गया है। इस दिशा में निरन्तर प्रयास किए जा रहे हैं।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 के दोष

(1) इस नीति में केन्द्र और राज्य सरकारों के शैक्षिक उत्तरदायित्व तो निश्चित किए गए हैं पर ऐसे किसी अधिनियम की बात नहीं कही गई गई जिससे उन्हें अपने उत्तरदायित्व निर्वाह के लिए बाध्य किया जा सके। परिणाम यह है कि अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग चल रहा है।

(2) प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा के लिए जिस आधारभूत पाठ्यचर्या के निर्माण की बात कही गई है वह अति विस्तृत है और ऊपर से कार्यानुभव एवं राष्ट्र सेवा कार्यों की अनिवार्यता ने उसे बहुत बोझिल बना दिया है। जहाँ यह लागू कर दी गई है, छात्र इसके बोझ से दबे जा रहे हैं।

(3) माध्यमिक स्तर पर जिस त्रिभाषा सूत्र को लागू करना निश्चित किया गया है वह भी दोषपूर्ण है। प्रारम्भ में त्रिभाषा सूत्र का निर्माण पूरे देश में राष्ट्रभाषा हिन्दी की शिक्षा अनिवार्य करने के उद्देश्य से किया गया था। कोठारी आयोग द्वारा प्रस्तावित त्रिभाषा सूत्र में अहिन्दी क्षेत्रों के बच्चों को हिन्दी अथवा अंग्रेजी में से एक भाषा लेने की छूट है। यह त्रिभाषा सूत्र की मूल भावना अर्थात् मूल उद्देश्य के प्रतिकूल है। क्या हम रूस, जापान और चीन की भाँति अपनी राष्ट्रभाषा पर निर्भर नहीं कर सकते 

(4) कार्यानुभवों के लिए जिन ट्रेडों की सूची तैयार की गई है, पहली बात तो यह है कि उसके लिए अतिरिक्त धन की आवश्यकता होगी जिसे सरकार बजट बढ़ाने के बाद भी नहीं जुटा सकती और दूसरो बात यह है कि उन्हें सरलता से सुलभ भी नहीं कराया जा सकता। इसे जहाँ शुरु भी किया गया है वहाँ कच्चे माल की बर्बादी के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगा है।

(5) इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा के द्वार किसी भी इण्टर पास छात्र के लिए खोल दिए गए। परिणाम यह हुआ कि-महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में छात्रों का प्रवेश दबाव बढ़ा, छात्र अनुशासनहीनता बढ़ी, छात्र आक्रोस बढ़ा, शिक्षित बेरोजगारी बढ़ी और कुल मिलाकर समय, शक्ति और धन का अपव्यय हुआ।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 का प्रभाव

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 देश की पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति है जिसमें सम्पूर्ण देश के लिए शिक्षा नीति की घोषणा की गई। इस नीति का सर्वप्रथम प्रभाव तो यह पड़ा कि केन्द्र और प्रदेशों के शिक्षा बजटों में बढ़ोतरी शुरु हुई। दूसरा प्रभाव यह पड़ा कि देश में 10+2+3 शिक्षा संरचना स्वीकार की गई। यह बात दूसरी है कि प्रान्तों में इसे कुछ अपने-अपने तरीकों से लागू किया गया। एन. सी. ई. आर. टी. ने प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा की आधारभूत पाठ्यचर्या का निर्माण किया। 

कुछ प्रान्तों में इस आधार पर प्रथम 10 वर्षीय णठ्यचर्या का निर्माण भी किया गया और उसे लागू भी किया गया। कुछ प्रान्तों में +2 पर व्यावसायिक पाठ्यक्रम भी शुरु किए गए, यह बात दूसरी है कि ये पाठ्यक्रम असफल रहे। उच्च शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और शिक्षक शिक्षा, इन सबमें विस्तार किया गया। और विस्तार के साथ-साथ उनके उन्नयन के लिए प्रयास किए गए, यह बात दूसरी है कि इसमें सफलता अपेक्षाकृत कम ही मिली। 1969 में विश्वविद्यालयों एवं उनसे सम्बन्ध महाविद्यालयों में राष्ट्रीय सेवा योजना (NSS) की शुरुआत की गई। 

साथ ही प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रमों को व्यापक बनाया गया। इस नीति के अनुपालन में देश में सभी को शिक्षा के समान अवसर सुलभ कराने हेतु अनेक कदम उठाए हुए। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस नीति के बाद जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 घोषित की गई उसमें मूलरूप से इसी शिक्षा नीति का अनुमोदन किया गया है, उसी पर मोहर ठोकी गई है और इसमें जो कुछ नया है वह नीति सम्बन्धी नहीं, रोति सम्बन्धी है, इसकी कार्य योजना, 1986 और कार्य योजना. 1992 हैं।

उपसंहार

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 में वायदे तो बहुत अच्छे किए गए थे, परन्तु उन वायदों को पूरा करने के लिए न तो पूरी योजना तैयार की गई थी और न उसके लिए पर्याप्त धनराशि की व्यवस्था की गई थी। संसाधनों के अभाव में इस नीति का ईमानदारी से पालन नहीं किया जा सका । एक-दूसरे पर दोषारोपण अधिक और उपलब्धियाँ अपेक्षाकृत बहुत कम हुईं। परन्तु यह नीति थी देश के अनुकूल। यही कारण है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में इसी नीति का समर्थन किया गया है, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में जो थोड़ा बहुत अन्तर दिखाई देता है, वह केवल भाषाई अन्तर है और डिग्री का अन्तर है।

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