क्रान्तिकारी सामाजिक आन्दोलन से क्या आशय है?

क्रान्तिकारी सामाजिक आन्दोलन

क्रान्तिकारी सामाजिक आन्दोलन

प्रारम्भिक काल में क्रान्तिकारी आन्दोलन प्रायः सुधार आन्दोलन के साथ ही है। हाँ वह अशान्ति जो इन्हें उत्पन्न करती है, कहीं अधिक विस्तृत और व्यापक होती है। जो इस प्रकार के आन्दोलन में भाग लेते हैं उनमें समाज में व्याप्त शक्ति एवं प्रमुख परम्पराओं का विरोध करने की तीव्रता बहुत अधिक होती है। क्रान्तिकारी आन्दोलन हमेशा सरकार के विरुद्ध होते हैं। इनमें लगभग युद्ध के समान प्रवृत्ति होती है। इनमें राजनीति सत्ताधारियों के विरुद्ध असन्तुष्ट तत्वों का संघर्ष पाया जाता है क्योंकि इसकी प्रकृति युद्ध जैसी होती है। इसलिए उनमें हिंसा का प्रयोग करने में संकोच नहीं किया है। किन्तु हिंसा का प्रयोग सदैव ही किया जाना आवश्यक नहीं होता। रक्तहीन कान्ति के अनेक उदाहरण इतिहास में मिलते हैं। इन उदाहरणों में सत्ताधारी समूह ने स्वेच्छा से क्रान्तिकारी समूह को शक्ति सौंपी है और आन्दोलन को आगे बढ़ने से रोक दिया।

परन्तु जब क्रान्तिकारी आन्दोलन में हिंसा का प्रयोग किया जाता है तब इसका स्वरूप साधारण उत्तेजक भीड़ की हिंसात्मक क्रियाओं से लेकर सैनिक कार्यवाही तक विस्तृत हो सकता है। जैसा कि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के गृह युद्ध अथवा सन् 1935-39 की स्पेन की क्रान्ति में हुआ है। हिंसा के अतिरिक्त एक क्रान्तिकारी आन्दोलन में अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु अन्य साधनों का प्रयोग किया जाता है, जैसे-नारेबाजी, कट्टर और कुशल नेतृत्व, सार्वजनिक भाषणबाजी, जनसंचार के साधनों का प्रयोग, घोषणा पत्रों का निर्माण, जटिल वैचारिकी का निर्माण आदि।

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एडवर्ड्स एवं ब्रिण्टन ने स्वतन्त्र रूप से एक क्रान्तिकारी आन्दोलन की विभिन्न अवस्थाओं का एक योजना-सूत्र तैयार किया है जिसको गैरो ने निम्न प्रकार व्यक्त किया है-

क्रान्तियाँ चेतना रूप से आयोजित निम्न विशेष अवस्थाओं के द्वारा विकसित होती हैं- 

(1) अशान्ति, 

(2) बुद्धिजीवियों का अपसरण, 

(3) किसी आर्थिक लाभ अथवा सामाजिक मिथ्या विचार का प्रादुर्भाव, 

(4) विस्फोट, 

(5) मध्यमार्गियों का शासन, 

(6) उग्रवादियों का उदय, 

(7) आतंक का छा जाना तथा 

(8) सामान्य स्थिति का लौटना एवं इसकी प्रतिक्रिया होना।

जब कोई क्रान्ति एक निश्चित बिन्दु पर पहुँच जाती है और एक पक्ष की दूसरी पक्ष पर विजय हो जाती है तब विरोधी दल के नेताओं का समाज में लोप हो जाता है। साधारण सी क्रान्तियों में नेताओं को देश से निकाल दिया जाता है, परन्तु अनेक क्रांतियों में इन्हें या तो जेल में डाल दिया जाता है या इनका वध कर दिया जाता है। क्रान्ति के सफल हो जाने पर समाज में प्रायः क्रान्तिकारी परिवर्तनों की एक श्रृंखला (A Series of Revolutionary Changes) शुरू हो जाती है जिनका उद्देश्य उन आवश्यकताओं की पूर्ति करना। होता है जिन्होंने क्रान्तिकारी आन्दोलन को उत्पन्न किया था। । किन्हीं ऐसे परिवर्तनों में शीघ्र ही संशोधन करने की आवश्यकता भी अनुभव होती है क्योंकि उनका पहले से कोई अनुभव नहीं था और वह अव्यावहारिक लगने लगते हैं।

क्रान्ति के नेतृत्व में भी कुछ वर्षों के उपरान्त परिवर्तन आने लगते हैं क्योंकि जो व्यक्ति क्रान्ति काल में अच्छे क्रान्तिकारी या सैनिक नेता हो सकते थे। वे आवश्यक रूप से शान्ति काल में अच्छे प्रशासक सिद्ध होने आवश्यक नहीं हैं।

यदि क्रान्ति सफल नहीं होती एवं इसके नेताओं का सफाया हो जाता है, तब भी यह सम्भव नहीं है कि सामाजिक परिवर्तन न हो और समाज परम्परागत रीति से ही चलता रहे। जिन उत्प्रेरकों ने क्रान्ति को जन्म दिया था। वह तब भी विद्यमान रहते हैं अतः जो पक्ष सफल होता है वह इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु तथा इन तत्वों के सन्तुष्ट करने के लिए अनेक सुधार लाता है। अन्तर केवल इतना है कि यह सुधारवादी परिवर्तन उतने क्रान्तिकारी नहीं होते जितने कि क्रान्तिकारी पक्ष के विजयी होने पर सम्भव हैं। यदि विजयी पक्ष आवश्यक परिवर्तन लाने में असमर्थ होता है और क्रान्ति के अंकुर लगे रहते हैं तब असफल शक्तियाँ पुनः संगठित होकर क्रान्ति कर बैठती हैं। स्पेन, लैटिन अमेरिका आदि अनेक देशों में  लगभग यही हुआ।

समाज में क्रान्तिकारी सामाजिक आन्दोलनों का उदय असन्तोष एवं सामाजिक विघटनकारी दशाओं में होता है। फ्रांस और रूस की कान्तियाँ मानव-इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखी हुई है। 1917 के पूर्व रूस का जारशाही सही अर्थों में निरंकुश, उत्पीड़क एवं दमनकारी राज्य था। वहाँ की जनता में गरीबी, अज्ञानता, आर्थिक अराजकता तथा अन्धविश्वास चरम सीमा पर थे। वहाँ आन्दोलन की परिपक्व परिस्थितियों को देखते हुए बुद्धिजीवियों का ऐसा वर्ग विकसित हुआ, जिसने वर्ग संघर्ष की अग्नि को भड़का कर 1917 में सर्वहारा के अधिनायकत्व के अन्तर्गत नई व्यवस्था स्थापित की। इस प्रकार क्रान्तिकारी आन्दोलन परम्परा सामाजिक व्यवस्था को समाप्त करके उसके स्थान पर नई सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करता है और यह सामाजिक संस्थाओं में इतना परिवर्तन कर देता है कि परिवार, शिक्षा, धर्म, राज्य तथा सामाजिक एवं नैतिक आदर्श नियम मूल रूप से बहुत दूर निकल जाते हैं।

भारत में क्रान्तिकारी सामाजिक आन्दोलन यद्यपि पूर्णरूपेण सफल नहीं हो पाये हैं, तथापि यह कहना त्रुटिपूर्ण है कि यहाँ क्रान्किारी आन्दोलन हुए ही नहीं हैं। ही नहीं है। वस्तुतः भारत में बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध क्रान्तिकारी आन्दोलन राजद्रोहों, बलवों और विप्लवों के रूप में 'स्वतन्त्रता, समानता एवं बंधुत्व' के आदर्शों के आधार पर प्रारम्भ हो गये थे। प्रो. ए. आर. देसाई ने अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक सोशल बैकग्राउण्ड ऑफ इण्डियन नेशनेलिज्म में भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलनों की संक्षेप में व्याख्या की है। उन्होंने कहा है कि यूरोप के राष्ट्रों तथा रूसी क्रान्ति से प्रभावित होकर भारतीयों के एक वर्ग ने क्रान्तिकारी आन्दोलन को विकसित किया। बंगाल, पंजाब एवं महाराष्ट्र क्रान्तिकारी आन्दोलनों के प्रमुख गढ़ थे। लंदन, पेरिस और न्यूयार्क में भी भारतीय क्रान्तिकारियों ने आन्दोलन के केन्द्र खोले। इन केन्द्रों से क्रान्तिकारी साहित्य और अस्त्र-शस्त्र भारत में आते थे। क्रान्तिकारी लोग अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतारने लगे। इस समय क्रान्तिकारियों के प्रमुख लक्ष्य ये थे कि बड़े पैमाने पर अंग्रेजी नौकरशाही के लोगों की मौतों से एक तो अंग्रेजी नौकरशाही व्यवस्था छिन्न-भिन्न होने लगेगी और दूसरे शस्त्रों के विप्लव के लिए सहायक दशाएँ विकसित होंगी। इस क्रान्तिकारियों का यह भी कार्यक्रम था कि वे पूँजीपतियों, धनकुबेरों, सरकारी कोषागारों को लूट कर गुप्त क्रान्तिकारियों के जत्थों की सहायता करें, हथगोले एवं बम निर्माण के लिए प्रयोगशालाएँ स्थापित करें और गुप्त रूप से विदेशों से हथियार मगाएँ। उन्होंने सेना, किसानों तथा व्यापारियों में भी बलवे फैलाए। देश-विदेश में क्रान्तिकारी साहित्य एवं समाचार-पत्र प्रकाशित कर बाँटे। भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन को विकसित करने का श्रेय मुख्य तौर पर श्यामजी कृष्ण वर्मा, वी. डी. सावरकर, अरविन्द, वारिन्द्र घोष, हरदयाल आदि को है। इन्होंने क्रान्तिकारी आन्दोलनों को देश में विकसित करके राष्ट्रीय स्वतन्त्रता प्राप्त करनी चाही थी।

युवा इतिहासकार डॉ. के. के. शर्मा ने अपनी कृति लाइफ एण्ड टाइम्स ऑफ लाजपत राय में प्रभावपूर्ण ढंग से इस बात की पुष्टि की है कि लाजपत राय एक ऐसे राष्ट्रवादी नेता थे जो जीवनभर भारत के स्वराज्य के लिए संवैधानिक क्रान्तिकारी, असहयोग, आदि आन्दोलनों में सक्रिय रूप से भाग लेते रहे। वह क्रान्तिकारी आन्दोलनों में तिलक, अरविन्द घोष, विपिन चन्द्र पाल आदि क्रान्तिकारियों से कंधा मिलाकर चले। भारतीय राष्ट्रीय क्रान्तिकारी आन्दोलनों में 'लाल-बाल-पाल' (लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक और वी. सी. पाल) उग्र क्रान्तिकारियों के प्रतीक थे।

मानव इतिहास में गाँधी युग स्वर्ण अक्षरों में लिखा है। महात्मा गाँधी ने भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन को नई दिशा प्रदान की। उन्होंने हिंसा के स्थान पर अहिंसा (Non-Violence) को क्रान्तिकारी आन्दोलन का महत्वपूर्ण  साधन माना तथा वह व्यापारिक एवं दूरदर्शी राजनीतिज्ञ थे।

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