प्रस्तावना का अर्थ :
प्रत्येक संविधान के कुछ मुख्य लक्ष्य होते हैं, जिनकी ओर वह देश को ले जाना चाहता है। प्रस्तावना, संविधान निर्माताओं के विचार व उनकी मान्यताएँ स्पष्ट करती हैं तथा यह स्पष्ट करती है कि संविधान के द्वारा वे देश में किस राजनीतिक विचारधारा की व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं।
प्रस्तावना की परिभाषायें :
डॉ. ठाकुरदास भार्गव के अनुसार-"प्रस्तावना संविधान का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। यह विधान की आत्मा है। यह विधान की कुंजी है।"
डॉ. सुभाष कश्यप के अनुसार-"संविधान राष्ट्र का मूलभूत अधिनियम है। वह राज्य के विभिन्न अंगों का गठन कर उन्हें शरीर देता है, शक्ति देता है। उनके शरीर गठन के पीछे, अंगों की व्यवस्था के पीछे एक प्रेरणा होती है, एक आत्मा होती है जिसको शब्द रूप मिलता है प्रस्तावना में।"
सर्वोच्च न्यायालय ने प्रस्तावना पर विचार करते हुए 'बेरुबारी विवाद' में कहा है कि "प्रस्तावना संविधान के निर्माताओं के आशय को स्पष्ट करने वाली कुंजी है।"
प्रायः अधिकांश लिखित संविधानों की प्रस्तावना होती है, जो संविधान के स्वरूप कार्यप्रणाली तथा राजनीतिक व्यवस्था को प्रकट करती है।
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प्रस्तावना का महत्व :
संविधान की प्रस्तावना के महत्व निम्नलिखित हैं-
- प्रस्तावना शासन प्रणाली को स्पष्ट करती है। शासन का स्वरूप लोकतन्त्रात्मक होगा अथवा स्वेच्छाचारी तन्त्र, इसका आभास प्रस्तावना की मूल भावना से सहज ही लगाया जा सकता है।
- प्रस्तावना शासन के सिद्धान्तों को प्रकट करती है। शासन का लक्ष्य लोकहित की साधना होगा अथवा व्यस्त स्वार्थों की पूर्ति करना मात्र इसका अनुमान प्रस्तावना में निहित दर्शन से लगाया जा सकता है।
- राजनीतिक और नैतिक दृष्टि से प्रस्तावना शासन कर्त्ताओं के दायित्वों का बोध कराता है।
- जटिल परिस्थितियों में प्रस्तावना संविधान के ध्येयों को इंगित करती है।
- प्रस्तावना संविधान के संचालन में प्रकाश स्तम्भ का कार्य करती है।
- प्रस्तावना संविधान की कुण्डली है तथा सर्वश्रेष्ठ तत्वों का निचोड़ है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना :
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है-
"हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई. (मिती मार्ग शीर्ष शुक्ला सप्तमी, संवत् दो हजार छः विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियम और आत्मसमर्पित करते हैं।"
42वें संवैधानिक संशोधन (1976) के द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में कुछ और शब्दों तथा भावों को जोड़ा गया है। अब संविधान की प्रस्तावना निम्न प्रकार है-
"हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न, समाजवादी पंथ निरपेक्ष, लोक-तन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र का एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान-सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मसमर्पित करते हैं।"
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प्रस्तावना के मुख्य लक्षण :
डॉ. जे. आर. सिवाच के अनुसार प्रस्तावना को निम्न चार भागों में बाँटा जा सकता है-
1. संविधान के स्रोत (The Sources of the Constitution),
2. भारत की शासन व्यवस्था (Political Structure of India),
3. संविधान के लक्ष्य (Objective of the Constitution),
4. उसके अंगीकार करने की तिथि (The Date of its Adoption) |
1. स्रोत- प्रस्तावना द्वारा संविधान के स्रोत को स्पष्ट किया गया है क्योंकि इसके आरम्भ में ही कहा गया है कि इसका निर्माण करने वाले 'हम भारत के लोग' (We the people of India) हैं। इससे तीन बातों को स्पष्ट कर दिया गया है- प्रथम, अन्ततः प्रभुसत्ता लोगों में निहित है, द्वितीय, संविधान निर्माता जनता के प्रतिनिधि हैं तथा तृतीय, भारतीय संविधान भारतीय जनता की इच्छा का परिणाम है अर्थात् इसे भारत से बाहर की किसी सत्ता ने निर्मित नहीं किया, अपितु भारतीय जनता ने बनाया है।
इसका निर्माण उस संविधान सभा द्वारा हुआ जिसमें जनता के प्रतिनिधि सम्मिलित थे परन्तु यहाँ कई प्रश्न उत्पन्न होते हैं कि क्या संविधान सभा के सदस्य जनता द्वारा इसी प्रयोजन के लिए चुने गये थे ? क्या उनका चयन वयस्क मताधिकार के आधार पर हुआ था? क्या वे जनता के वास्तविक प्रतिनिधि थे? क्या जनता का मत जानने के लिए संविधान को उसके सम्मुख प्रस्तुत किया गया था? भारत की जनता के यद्यपि संविधान के निर्माण में प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लिया, फिर भी परोक्ष रूप से इसके निर्माण में जनता का हाथ रहा है।
संविधान सभा में जनता के ही प्रतिनिधि थे जिनका परोक्ष रूप से चुनाव किया गया था। यद्यपि यह ठीक है कि संविधान सभा के प्रतिनिधि को केवल 13 प्रतिशत जनता ने ही चुना था, परन्तु इस कमी की पूर्ति के लिए जनता को नये संविधान में वयस्क मताधिकार प्रदान कर दिया गया है और जनता की प्रतिनिधि सभा भारतीय संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार प्राप्त है। इस प्रकार न केवल जनता ने इस संविधान को बनाया है, वरन् उसे इस संविधान में संशोधन करने का अधिकार प्राप्त है।
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2. संविधान के उद्देश्यों का ज्ञान- संविधान की प्रस्तावना के द्वारा, संविधान के पाँच उद्देश्यों और आदर्शों का उल्लेख किया गया है- न्याय, स्वतन्त्रता, समता, बन्धुत्व और राष्ट्रीय एकता। प्रथम, न्याय का अर्थ यह है कि राज्य का उद्देश्य एक या कुछ लोगों की भलाई न होकर समस्त जनता की भलाई करना होगा। संविधान सार्वजनिक पदों पर सभी नागरिकों को बिना भेद-भाव के नियुक्ति का प्रावधान रखा गया है। अस्पृश्यता का अन्त कर दिया गया है। राज्य के नीति निदेशक तत्वों का उल्लेख किया गया है।
द्वितीय, व्यक्ति को उसके विकास के लिए स्वतन्त्रता का अधिकार दिया गया है। तृतीय, 'समानता' का अर्थ सभी नागरिकों को उनको उन्नति के लिए प्रत्येक क्षेत्र में समान अवसर प्रदान करना है। चतुर्थ, 'बन्धुता' की वृद्धि का अर्थ सभी लोगों में भाई-चारे की भावना में वृद्धि करना है। भारत जैसे विशाल देश में जहाँ विभिन्न जातियाँ, धर्म व भाषा के लोग रहते हैं, वहाँ बन्धुता की भावना के द्वारा ही राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ किया जा सकता है। प्रस्तावना का उद्देश्य भारत में एक ऐसी शासन व्यवस्था लागू करना है जिसका आधार "लोकतन्त्रीय समाजवाद, धर्म निरपेक्षता तथा कल्याणकारी भावना।"
3. सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य- संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य घोषित किया गया है-
(i) सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न- भारत में 26 जनवरी, 1950 से 'अधिराज्य की स्थिति' (Domination of Status) समाप्त हो गई है। अब भारत स्वतन्त्र है। अपने आन्तरिक और बाह्य मामलों में भारत पूर्णतया स्वतन्त्र है। यद्यपि भारत आज भी राष्ट्रमण्डल (Common Wealth of Nations) का तथा संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य है, परन्तु इसमें भारत की 'सम्प्रभुता' (Democratic Republic) पर कोई आँच नहीं आती है। राष्ट्र मण्डल की सदस्यता भारत ने स्वेच्छा से ग्रहण की है और वह इसे कभी भी त्याग सकता है। राष्ट्रमण्डल की सदस्यता का कोई संवैधानिक महत्व नहीं है।
(ii) लोकतन्त्रात्मक- प्रस्तावना में भारत को एक लोकतन्त्रात्मक शासन घोषित किया गया है। भारतीय संविधान भारत में अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र की स्थापना करता है यह जनता को बिना किसी भेद-भाव के वयस्क मताधिकार प्रदान करता है।
श्री एन. बनर्जी के अनुसार, "लोकतन्त्र शब्द के प्रयोग की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि राजनीतिक दृष्टि से गणतन्त्र शब्द के पूर्व लोकतान्त्रिक विशेषण का प्रयोग करके किसी विशेष लाभ की प्राप्ति नहीं हो सकती थी।" परन्तु इसके विपरीत श्री के. एम. मुन्शी का विचार है कि "प्रजातन्त्र" विशेषण के अभाव में 'गणतन्त्र' भी अपना महत्व खो देता।"
अतः गणतन्त्र से पूर्व 'प्रजातन्त्र' शब्द का प्रयोग प्रस्तावना में किया गया है। जहाँ एक ओर, संविधान वयस्क मताधिकार प्रदान करता है वहाँ समय-समय पर चुनाव की व्यवस्था भी करता है और केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों में संसदीय प्रणाली की स्थापना करके कार्यपालिका को जनता के प्रतिनिधियों के प्रति पूर्ण रूप से उत्तरदायी बनाता है।
लोकतन्त्रवाद की दृष्टि से भारत, अमेरिका, ब्रिटेन व फ्रांस के समकक्ष है। रूस व चीन से भारत का शासन भिन्न है क्योंकि इन देशों में साम्यवादी (Communist) व्यवस्था होने के कारण केवल एक राजनीतिक दल का प्रभाव है। यद्यपि रूस व चीन भी अपने आपको लोकतन्त्र कहते हैं, परन्तु लोकतन्त्रवाद का स्वरूप भारत के लोकतन्त्रवाद से भिन्न है।
(iii) गणतन्त्र- गणतन्त्र शब्द के प्रयोग द्वारा संविधान में यह स्पष्ट किया गया है कि देश में किसी वंशानुगत (Hereditary) राजा का शासन नहीं होगा। देश का अध्यक्ष राष्ट्रपति होगा और वह जनता (या उसके द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों) द्वारा निश्चित अवधि के लिए चुना जायेगा। राष्ट्रपति अपनी शक्तियों का प्रयोग उन मन्त्रियों के परामर्श के अनुसार करेगा जो जनता के प्रतिनिधियों (लोक सभा) के प्रति उत्तरदायी होंगे। राजकीय पदों पर नियुक्ति का अवसर प्रत्येक नागरिक को होगा। राजकीय कर्मचारियों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर खाली परीक्षाओं द्वारा होगी न राज्य का प्रधान वंशानुगत होगा और न सैनिक न अन्य कर्मचारी ।
(iv) स्वतन्त्रता- प्रस्तावना में इस बात पर जोर दिया गया है कि राज्य समस्त नागरिकों को स्वतन्त्रता प्रदान करेगा। यहाँ स्वतन्त्रता से अभिप्राय नागरिक स्वतन्त्रता और राजनीतिक स्वतन्त्रता से है।
(v) धर्म निरपेक्ष राज्य- संविधान की प्रस्तावना भारत को एक धर्म निरपेक्ष राज्य के रूप में प्रकट करती है। प्रस्तावना में नागरिकों को विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता दी गई है। भारत का कोई भी नागरिक किसी भी धर्म का पालन व प्रचार कर सकता है।
(vi) समता- समता से अभिप्राय है कि अपने व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए प्रत्येक मनुष्य को समान अवसर उपलब्ध होने चाहिए। धन, जाति, वंश के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में अन्तर नहीं होना चाहिए। हमारे संविधान की प्रस्तावना में नागरिकों को स्थान और अवसर की ही समता प्रदान की गई है, जो अत्यन्त विस्तृत है।
(vii) राष्ट्रीय एकता- प्रस्तावना में राष्ट्रीय एकता पर बल दिया गया है। भाषा आदि की विविधता होते हुए भी भारत एक राष्ट्र है।
(viii) पृथकता वर्जित- संविधान की प्रस्तावना से यह स्पष्ट है कि यह संविधान भारतीय जनता ने अधिनियमित और अंगीकृत किया है, इसलिये कोई भी एक राज्य या समूह न तो संविधान को समाप्त कर सकता है और न संघ से पृथक् ही हो सकता है।
निष्कर्ष- निःसन्देह, "प्रस्तावना संविधान का अमूल अंग है और संविधान की कुँजी है।"
जहाँ संविधान की किसी अस्पष्ट धारा की व्याख्या करने की आवश्यकता हो, वहाँ यह प्रस्तावना सहायता करती है, मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शास्त्री ने "गोपालन बनाम मद्रास राज्य" के मुकदमें में कहा था कि "धारा 22 (5) की व्यवस्था की जो व्याख्या मैंने की है, उसका समर्थन संविधान को उत्कृष्ट रूप प्रदान करती है।"