किसी भी देश का संविधान एक दिन की उपज नहीं होता है। संविधान एक ऐतिहासिक विकास का परिणाम होता है। भारतीय संविधान के आधुनिक विकसित रूप को समझने के लिए उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझना आवश्यक है। इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ही संवैधानिक विकास के चरण की संज्ञा दी गई है। भारत में संवैधानिक परम्परा का विकास अंग्रेजों के भारत में आवागमन से ही हुआ। भारतीय संविधान के ऐतिहासिक विकास का काल 1600 ई. से प्रारम्भ होता है। इसी वर्ष ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की गई।
भारतीय संवैधानिक विकास के चरण
भारतीय संवैधानिक विकास के चरण को हम निम्नलिखित भागों में विभाजित कर सकते हैं-
(1) ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना-
16वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में महारानी एलिजाबेथ का शासन था। इस काल को इंग्लैण्ड के इतिहास में स्वर्णयुग कहा जाता है। अंग्रेजों ने समुद्री यात्राएँ करना आरम्भ कर दिया। ठीक उसी समय भारत की अपार धन-सम्पत्ति की खबर इंग्लैण्ड में पहुंची तो अंग्रेजों ने भारत में व्यापार करने के लिए 1600 ई. में एक कम्पनी ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की जोकि एक व्यापारिक समूह था। इसकी स्थापना महारानी इल एलिजाबेथ के एक राजलेख द्वारा की गई, जिसे 1600 ई. का राजलेख कहा जाता है।
ब्रिटिश सरकार ने भारत के साथ व्यापार करने का एकाधिकार प्राप्त किया और व्यापार की रक्षा के लिए यूरोपीय कम्पनियों ने भारत में किलेवन्दी करना तथा सेना रखना शुरू कर दिया। अपनी सैनिक शक्ति के बल पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारतीय रियासतों के राजनीतिक एवं आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने लगी। 1775 ई. में प्लासी का युद्ध, 1764 में बक्सर युद्ध तथा 1765 ई. में इलाहाबाद की सन्धि से कम्पनी ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा में अपनी हुकूमत कायम की।
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कम्पनी ने भारत के प्रत्येक व्यापारिक स्थानों में अपने व्यापारिक केन्द्र एवं कारखानों की स्थापना की। भारत में कम्पनी का सर्वप्रथम व्यापारिक केन्द्र सूरत था। सूरत में कारखाने की स्थापना करने की अनुमति मुगल बादशाह जहाँगीर से प्राप्त हुई। इस काल में अंग्रेजों ने भारत में अपने व्यापारिक केन्द्र की स्थापना भारतीय शासकों की अनुमति से की थी। धीरे-धीरे कम्पनी का व्यापारिक दृष्टिकोण बदलने लगा और वह भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने का विचार करने लगी। भारत में कम्पनी को आर्थिक और राजनीतिक सफलताओं को ध्यान में रखते हुए ब्रिटेन ने यह आवश्यक समझा कि भारत में उसके क्रियाकलापों को नियन्त्रण करने के लिए विधियाँ या संचालन के लिए नियमों का निर्माण किया जाये।
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(2) 1726 का राज लेख
इस राजलेख द्वारा कलकत्ता, बम्बई और मद्रास प्रेसीडेंसियों के गवर्नर एवं उसकी परिषद को विधि बनाने की शक्ति प्रदान की गई। अब तक विधि बनाने की शक्ति कम्पनी के इंग्लैण्ड स्थित निदेशक बोर्ड में निहित थी। वे लोग भारत की परिस्थितियों से बिल्कुल अनजान होते थे। इस प्रकार 1726 के राजलेख ने भारत-स्थित कम्पनी की संस्कार, गवर्नर जनरल की परिषद को उपनियम, नियम और अध्यादेशों को पारित करने का प्राधिकार प्रदान किया और उल्लंघन करने वालों को दण्डित करने की शक्ति प्रदान की।
(3) 1773 का रेग्यूलेटिंग अधिनियम-
दीवानी अनुदान के फलस्वरूप कम्पनी बंगाल, बिहार और उड़ीसा राज्यों की वास्तविक शासक बन गई। प्रदेशों का वास्तविक प्रशासन कम्पनी के हाथों में आ जाने पर उसकी शक्ति में विस्तार हुआ और इसकी बागडोर कम्पनी के सेवकों को दी गई जिन्हें कम वेतन मिलता था। इन सेवकों ने इस अवसर का भरपूर लाभ उठाया और भारतवासियों का शोषण करने लगे। उनके अन्दर एक ही धुन रहती थी कि भारत को कैसे लूटकर अधिक से अधिक धन को अपने इंग्लैण्ड ले जा सकें।
इस प्रकार कम्पनी के कर्मचारी अधिक से अधिक धन को एकत्रित कर रहे थे। इस बात की इंग्लैण्ड सरकार को भनक लगी और कम्पनी के मामलों की जाँच के लिए ब्रिटिश संसद ने एक गोपनीय समिति की नियुक्ति की। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कम्पनी के प्रशासन में अनेक त्रुटियाँ दिखाईं। इन त्रुटियों में सुधार करने के लिए गोपनीय समिति की सिफारिश पर ब्रिटिश संसद ने सन् 1773 ई. को रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित किया।
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(4) एक्ट ऑफ सेटेलमेंन्ट, 1781-
1781 का एक्ट ऑफ सेटेलमेन्ट रेग्यूलेटिंग अधिनियम की त्रुटियों को दूर करने के लिए पारित किया गया। इस एक्ट में कलकत्ता की सरकार को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया।
(5) 1784 का पिट्स इण्डिया एक्ट-
1781 का एक्ट ऑफ सेटेलमेण्ट के लागू होने के बाद भी कम्पनी के प्रशासन में सुधार नहीं हो सका। अत: ब्रिटिश संसद ने कम्पनी के ऊपर अपना नियन्त्रण बढ़ाने के लिए 1784 ई. में पिट्स इण्डिया एक्ट को पारित किया। इस अधिनियम में ब्रिटिश संसद ने व्यापारिक और राजनीतिक क्रियाओं को अलग कर दिया। इस अधिनियम ने व्यापारिक कार्यों का प्रबन्ध कम्पनी के निदेशकों के हाथ में ही रहने दिया, किन्तु इसके ऊपर राजनीतिक नियन्त्रण एवं निरीक्षण के लिए एक बोर्ड ऑफ कंट्रोल की स्थापना की। इस प्रकार भारतीय उपनिवेश के दो शासक हो गए।
(6) भारत सरकार अधिनियम, 1858-
पिट्स इण्डिया एक्ट 1784 को जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्थापित किया गया, वह पूरी न हो सकी। बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल कम्पनी के ऊपर अपना नियन्त्रण नहीं रख सका। कम्पनी की सरकार एक गैर-जिम्मेदार सरकार की तरह काम करने लगी। ब्रिटिश संसद भी उक्त भारतीय व्यवस्था को अच्छा नहीं समझती थी। इसी समय जब परिस्थितियाँ कम्पनी के विरुद्ध थीं, 1857 की क्रान्ति हुई, जिसने कम्पनी के शासन को पूरी तरह से समाप्त कर दिया। इंग्लैण्ड के तत्कालीन प्रधानमन्त्री पामर्सटन ने संसद के समक्ष कम्पनी का शासन समाप्त करने के लिए जो विधेयक प्रस्तुत किया था, उसमें कम्पनी प्रशासन की विभिन्न त्रुटियों की ओर इशारा किया और इसी दौरान संसद में भारत सरकार अधिनियम, 1858 पारित किया गया। 1858 के इस अधिनियम ने भारत के शासन को कम्पनी के हाथों से सम्राट को हस्तान्तरित कर दिया।
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(7) भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892-
इस अधिनियम द्वारा केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान परिषदों की सदस्य संख्या को बढ़ा दिया। केन्द्र विधान परिषद में कम-से-कम 10 और अधिक-से-अधिक 16 अतिरिक्त सदस्य थे। परिषद के भारतीय सदस्यों को वार्षिक बजट पर बहस करने और सरकार से प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया। लेकिन परिषद के अध्यक्ष को में भारतीय सदस्यों द्वारा प्रश्न को स्वीकृत या अस्वीकृत करने का अधिकार था।
(8) भारत सरकार अधिनियम, 1919-
इस अधिनियम ने प्रान्तों में एक उत्तरदायी सरकार की स्थापना तो अवश्य की, लेकिन इस सिद्धान्त को केन्द्रीय सरकार में लागू नहीं किया गया। केन्द्रीय सरकार ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी बनी रही। इस अधिनियम में संघ सूची में वर्णित सभी विषयों पर विधि बनाने का अधिकार केन्द्रीय विधानमण्डल को प्राप्त था। इस अधिनियम ने द्वैध शासन की स्थापना की।
(9) भारत सरकार अधिनियम, 1935-
1935 का भारत सरकार अधिनियम भारत में उत्तरदायित्वपूर्ण शासन की स्थापना के मार्ग में सन् 1919 के भारत सरकार अधिनियम के बाद दूसरा महत्वपूर्ण कदम था। यह एक बहुत लम्बा व जटिल अधिनियम था। इसमें 321 अनुच्छेद तथा 10 अनुसूचियाँ थीं। वर्तमान में भारतीय संविधान का ढाँचा 1935 के अधिनियम पर आधारित है। इस अधिनियम के अन्तर्गत सर्वप्रथम संघात्मक सरकार की स्थापना की गई। पिछले सभी अधिनियमों के अन्तर्गत स्थापित सरकारों का स्वरूप एकात्मक था। भारतीय रियासतें तथा कुछ प्रान्तों को संघ में शामिल होने को सहमत थी, मिलाकर बनाया गया। इस इस अधिनियम के द्वारा प्रान्तों में एक उत्तरदायित्वपूर्ण सरकार की स्थापना की और शासन की शक्ति जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथ में आ गई।
(10) भारतीय संविधान की रचना-
कैबिनेट योजना के अनुसार नवम्बर, 1946 को संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव किया गया। कुल 296 सदस्यों में से 211 में से 211 सदस्य काँग्रेस के चुने गये और 73 मुस्लिम लीग के तथा शेष खाली रहे। संविधान बनाने के लिए जब संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसम्बर, 1946 को हुई तो उसके समक्ष अनेक चुनौतियाँ थीं। एक तरफ वे सीमाएँ थीं जिन्हें कैबिनेट योजना ने लगाया था और दूसरी तरफ मुस्लिम लीग ने यह निर्णय लिया कि वह संविधान सभा की बैठक में सम्मिलित नहीं होगी। इन सबसे विचलित हुए बिना हमारे संविधान निर्माता अपने कर्तव्य-पथ पर साहस के साथ खड़े रहे। अगस्त, 1947 में स्वतन्त्रता अधिनियम पारित होने पर वे सभी परिसीमाएँ भी समाप्त हो गईं जो कैबिनेट प्रतिनिधिमण्डल द्वारा संविधान सभा पर लगाई गई। 1947 के अधिनियम पारित होने पर संविधान सभा एक सम्प्रभु निकाय बन गई और अब वह भारत के लिए कैसा भी संविधान बना सकती है।
Nice post sir jee
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