बाजार विभक्तिकरण से आप क्या समझते हैं? | Bajaar Vibhaktikaran Se Aap Kya Samajhate Hain

बाजार विभक्तिकरण का अर्थ 

किसी वस्तु के सम्पूर्ण बाजार को ग्राहकों की विशेषताओं, प्रकृति अथवा विक्रय क्षेत्रों के आधार पर विभिन्न उप-बाजारों या खण्डों में विभक्त करना ही बाजार विभक्तीकरण कहलाता है।

बाजार विभक्तीकरण की अवधारणा इस तथ्य पर आधारित है कि वस्तुओं के बाजार समजातीय होने के बजाय विजातीय होते हैं। किसी वस्तु के दो उपभोक्ताओं या क्रेताओं के स्वभाव, गुण, रुचि, आदत, आय, क्रय करने का ढंग आदि में असमानता या एकरूपता नहीं होती। ग्राहकों को इन लक्षणों के आधार पर कुछ खण्डों में विभक्त किया जा सकता है। 

प्रत्येक खण्ड के ग्राहकों की विशेषताएँ अन्य खण्ड के ग्राहकों से भिन्न भिन्न होती हैं और प्रत्येक खण्ड के ग्राहकों की कुछ विशेषताएँ अथवा लक्षणों में समानता पाई जाती है। इस प्रकार बाजार विभक्तीकरण से आशय बाजार को समजातीयता के आधार पर विभिन्न खण्डों में विभक्त करने से है। बाजार विभक्तीकरण से प्रत्येक खण्ड के ग्राहकों को सन्तुष्ट करने के लिये पृथक् पृथक् प्रभावी विपणन कार्यक्रम बनाये जा सकते हैं।

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बाजार विभक्तिकरण की परिभाषायें

बाजार विभक्तीकरण की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

कन्डिफ और स्टिल के अनुसार-"ग्राहकों को उनके गुणों जैसे आय, आयु, शहरीकरण की स्थिति, जाति या नीति वर्गीकरण, भौगोलिक स्थिति या शिक्षा के अनुसार समूह बनाने को बाजार विभक्त कहते हैं।"

फिलिप कोटलर के अनुसार-"ग्राहकों के समजातीय उपवर्गों में बाजार के उप-विभाजन को बाजार विभक्तीकरण कहते हैं जिससे किसी भी उपवर्ग को चा जा सके और विशिष्ट विपणन मिश्रण के साथ बाजार लक्ष्य बनाकर उस तक पहुँचा जा सके।"

विलियम जे. स्टेण्टन के अनुसार-"बाजार विभक्तीकरण से अभिप्राय किसी उत्पाद के सम्पूर्ण विजातीय बाजार को अनेक उप-बाजारों या उप-खण्डों में इस प्रकार विभक्त करने से है कि प्रत्येक उप-बाजार या उप-खण्ड में सभी महत्वपूर्ण पहलुओं में समजातीयता हो।"

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि बाजार विभक्तिकरण ग्राहकों की विशेषताओं के आधार पर बाजार का उप-विभाजन है ताकि प्रत्येक सजातीय ग्राहक समूह की विशिष्टताओं को ध्यान में रखते हुए प्रभावपूर्ण विपणन व्यूह रचना तैयार की जा सके।

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बाजार विभक्तीकरण के उद्देश्य

बाजार विभक्तीकरण के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

(1) अन्तरानुसार ग्राहकों का पता लगाना

बाजार में सभी क्रेता एक समान नहीं होते अर्थात् उनमें पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। यह अन्तर उनकी रुचि, स्वभाव, आदत, आवश्यकता अथवा आय स्तर में विभिन्नता के कारण हो सकता है। इस अन्तर के कारण ही क्रेता वस्तुओं की माँग को प्रभावित करते हैं। बाजार विभक्तीकरण का प्रमुख उद्देश्य किसी वस्तु के विभिन्न क्रेताओं अथवा ग्राहकों में जो अन्तर पाया जाता है, उसका पता लगाना है जिससे कि उत्पाद का निर्माता या विक्रेता अपनी विपणन क्रियाओं को ग्राहकों के विभिन्न उपवर्गों के अनुसार निर्धारित एवं समायोजित कर सके।

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(2) विपणन क्रियाओं का निर्धारण

ग्राहकों के अन्तर के आधार पर ही ग्राहकों को विभिन्न उपवर्गों में बाँट दिया जाता है और फिर संस्था इन उपवर्गों के अनुसार अपनी विपणन क्रियाएँ निर्धारित करती हैं। यहाँ यह स्मरणीय तथ्य है कि संस्था के लिए अनिवार्य नहीं है कि वह एक वस्तु के विभिन्न उप-बाजारों या उप-खण्डों के लिए वस्तु का निर्माण करे। वह एक उप-बाजार या उप-खण्ड को चुन सकती है या कुछ खण्डों या सभी खण्डों के लिए अपनी विपणन क्रियायें विकसित कर सकती है। यह तथ्य संस्था के साधनों और विपणन क्रियाओं के विस्तार पर निर्भर करता है।

(3) ग्राहकों की विशेषताओं की जानकारी

बाजार विभक्तीकरण के अध्ययन से संस्थाओं को यह पता चल जाता है कि प्रत्येक उप-बाजार या उप-खण्ड के ग्राहकों की क्या-क्या विशेषताएँ हैं ताकि वे इनके आधार पर अपनी विपणन क्रियाओं के लिए प्रभावी विपणन कार्यक्रम बनाने में सफल हो सकें।

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बाजार विभक्तिकरण के कारण

विपणन नियोजन, विपणन कार्यक्रम एवं विपणन व्यूह रचना के निर्धारण के लिए बाजार विभक्तिकरण एक अनिवार्य तकनीकी है। प्रायः निम्न कारणों से बाजारों के विभक्तिकरण की प्रक्रिया को अपनाया जाता है-

1. एक उपक्रम की उत्पाद पंक्ति में निरन्तर वृद्धि के कारण उपक्रम को नये उत्पाद के क्रय हेतु प्रभावित करने के लिए बाजार विभक्तिकरण की प्रक्रिया को अपनाना होता है।

2. बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा के कारण भी ग्राहकों का समूहीकरण अनिवार्य हो गया है। 

3. लागत को न्यूनतम करने के लिए उत्पाद को विक्रेताओं की माँग के साथ समायोजित करना अनिवार्य होता है।

4. ग्राहकों की रुचि के अनुसार उत्पाद करने से ग्राहकों की क्रय-शक्ति में वृद्धि होती है।.

5. विक्रय सम्वर्धन के लिए भी बाजार विभक्तिकरण एक अनिवार्य प्रक्रिया है।

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बाजार विभक्तिकरण का महत्व

बाजार विभक्तिकरण के महत्व को निम्न प्रकार समझाया जा सकता है-

(1) उपयुक्त उत्पाद पंक्ति का चयन

बाजार विभक्तिकरण के द्वारा ऐसी उत्पाद पंक्ति का चयन करने में सुविधा रहती है, जो सभी ग्राहक समूहों की आवश्यकता की सन्तुष्टि कर सके। बाजार विभक्तिकरण के विश्लेषण से प्रत्येक समूह की वस्तु सम्बन्धी आवश्यकता का पता लगाया जाता है और उत्पाद पंक्ति में उन वस्तुओं को शामिल किया जाता है, ताकि ग्राहक समूहों की आवश्यकता की सन्तुष्टि हो सके।

(2) सुदृढ़ एवं प्रभावी विपणन कार्यक्रम तैयार करना

बाजार विभक्तीकरण के अन्तर्गत सम्पूर्ण बाजार को विभिन्न उप-खण्डों में विभाजित किया जाता है। अतः प्रत्येक उपखण्ड के लिए पृथक् पृथक् सुदृढ़ एवं प्रभावी विपणन कार्यक्रम तैयार किए जा सकते हैं क्योंकि प्रत्येक उप-खण्ड का अध्ययन करके उसी के अनुरूप विपणन कार्यक्रम बनाया जा सकता है। ऐसा कार्यक्रम उस स्थिति की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होता है जिसमें कि सम्पूर्ण बाजार के लिए ही विपणन का कार्यक्रम बनाया गया हो।

(3) विपणन अवसरों की खोज करना

बाजार विभक्तीकरण का अध्ययन करके विपणन अवसरों का पता लगाया जा सकता है क्योंकि इसके द्वारा हम प्रत्येक उप-खण्ड के ग्राहकों की विशेषताओं, रुचियों एवं आवश्यकताओं का अध्ययन कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त हमें उन बाजार खण्डों का ज्ञान आसानी से हो जाता है जिनमें कि बिक्री की मात्रा कम होती है। ऐसे बाजार खण्डों का अध्ययन करके बिक्री की कमी के कारणों का पता लगाया जाता है और फिर उनको सुधारने के लिए प्रयत्न किये जा सकते हैं।

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(4) साधनों का सर्वोत्तम उपयोग 

बाजार विभक्तीकरण के द्वारा संस्था अपने साधनों का सर्वोत्तम उपयोग करने में सफल हो सकती है। विभिन्न बाजार खण्डों की आवश्यकताओं के अनुसार अपनी विपणन क्रियाओं को समायोजित कर सकती है। जिन बाजार खण्डों में विपणन सम्भावनायें कम हैं उनसे विपणन बजट भी कम रखा जाता है और इसके विपरीत जिन बाजार खण्डों में विपणन सम्भावनाएँ अधिक हैं उनके लिए बजट बनाना चाहिए। प्रकार बाजार विभक्तीकरण के अध्ययन से संस्था अपने साधनों का सर्वोत्तम उपयोग कर सकती है और अनावश्यक बर्बादी से बच सकती है।

(4) प्रतिस्पर्धा में सहायक

संस्था बाजार विभक्तीकरण के द्वारा विभिन्न खण्डों में प्रतिस्पर्धियों की नीतियों का अध्ययन करके उसके प्रत्युत्तर में अपनी प्रभावी विपणन रीति-नीतियाँ निर्धारित कर सकती है। अतः बाजार विभक्तीकरण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में सहायक सिद्ध होती है।

(5) विपणन क्रियाओं का मूल्यांकन

बाजार विभक्तीकरण के द्वारा प्रत्येक उप-खण्ड के लिए पृथक् विपणन कार्यक्रम बनाया जा सकता और उसके बाद विपणन क्रियाओं की प्रभावशीलता का आसानी से मूल्यांकन किया जा सकता है कि अन्य विपणन क्रियायें किस' बाजार उप-खण्ड में ज्यादा सफल रही हैं और किन-किन बाजार उपखण्डों में विपणन क्रियाएँ -असफल रही हैं। जिन बाजार उप-खण्ड में विपणन क्रियाएँ असफल रही हैं, उनके लिए भावी विपणन कार्यक्रम में जरूरी परिवर्तन किए जा सकते हैं।

बाजार विभक्तिकरण के विभिन्न ढंग अथवा विधियाँ 

जब कभी किसी उत्पाद या सेवा सम्बन्ध में बाजार में दो या दो से अधिक क्रेता हों तो वह विभक्त किया जा सकता है क्योंकि प्रत्येक विक्रेता की प्रकृति एवं विशेषताएँ अन्य ग्राहकों से भिन्न होती हैं। सामान्य रूप से बाजार विभक्तिकरण के निम्न दो मुख्य ढंग हैं- 

  1. प्रत्येक व्यक्तिगत क्रेता को एक वर्ग या खण्ड मानना एवं 
  2. क्रेताओं के व्यापक वर्ग या खण्ड बनाना।

(1) प्रत्येक व्यक्तिगत क्रेता को एक वर्ग या खण्ड मानना

बाजार विभक्तिकरण के इस ढंग के अन्तर्गत एक उत्पाद के बाजार को उतने ही वर्गों या खण्डों (Segments) में विभाजित किया जाता है जितने कि उस उत्पाद के क्रेता होते हैं। इस तरीके में यह मानकर चला जाता है कि प्रत्येक ग्राहक स्वयं में एक बाजार है क्योंकि प्रत्येक ग्राहक की आवश्यकताएँ एवं रुचियाँ अद्वितीय होती हैं। वास्तव में, देखा जाए तो बाजार विभक्तिकरण का यह एक आदर्श ढंग है क्योंकि इसके अन्तर्गत विपणनकर्ता प्रत्येक ग्राहक की आवश्यकताओं और रुचियों का अध्ययन करके उसके लिए सर्वोत्तम विपणन कार्यक्रम तैयार कर सकता है परन्तु यह व्यावहारिक नहीं है क्योंकि प्रायः एक उत्पाद के अनेक ग्राहक होते हैं और उन सबके लिए पृथक् पृथक् बाजार खण्ड बनाना सम्भव नहीं होता। जहाँ उत्पाद के ग्राहक बहुत कम संख्या में होते हैं, वहाँ विपणनकर्ता द्वारा इस ढंग का प्रयोग सम्भव है, जैसे- वायुयान या जहाज उद्योग में। प्रायः वायुयानों एवं जहाजों के क्रेता बहुत ही कम होते हैं, अतः प्रत्येक ग्राहक के लिए एक पृथक् बाजार खण्ड बनाया जा सकता है, जैसे- यदि किसी जहाजी उद्योग में केवल आठ क्रेता हों तो सम्पूर्ण बाजार को क्रेताओं की संख्या के अनुसार आठ भागों में बाँटा जा सकता है।

(2) क्रेताओं के व्यापक वर्ग या खण्ड बनाना 

एक विपणनकर्ता के लिए प्रत्येक ग्राहक का व्यक्तिगत रूप से अध्ययन करना अत्यन्त कठिन होता है- अतः विपणनकर्ता प्रायः क्रेताओं के व्यापक वर्ग बनाने के ढंग का अधिक प्रयोग करते हैं। इसके अन्तर्गत एक विशिष्ट प्रकार के प्राहकों को एक बाजार खण्ड में रखा जाता है जो कि अन्य बाजार खण्डों से पृथक् माना जाता है। उदाहरण के लिए, यदि विपणनकर्ता को यह ज्ञात हो कि विभिन्न आयु वर्ग के क्रेताओं में उत्पाद रुचि के सम्बन्ध में भिन्नता है तो वह अपने बाजार को आयु के आधार पर, जैसे बच्चे, किशोर, युवा और प्रौढ़ आदि में विभक्त कर सकता है। ऐसी अवस्था में बाजार के केवल चार ही वर्ग या खण्ड होंगे, भले ही ये बच्चे, किशोर, युवा और प्रौढ़ किसी भी आयु, किसी भी धर्म या किसी भी राज्य के क्यों न हों। यदि विपणनकर्ता चाहे तो इन खण्डों को उप-खण्डों में विभक्त कर सकता है।

एक औपचारिक मान्य रीति-नीति के रूप में बाजार विभक्तिकरण के विकास के कारण 

आधुनिक समय में बाजार विभक्तिकरण को एक विपणन रीति-नीति माना जाने लगा है। विलियम जे. स्टेण्टन ने बाजार विभक्तिकरण के विकास के निम्न कारणों का उल्लेख किया है-

  1. अनेक उत्पादों के लिए कुशल निर्माणी इकाई (Manufacturing Unit) के न्यूनतम आकार में कमी हो गई है, अतः समान उत्पादों (Indentical Items) के उत्पादन फेरे (Production Runs) अब उतने लम्बे होना आवश्यक नहीं है जितने कि पहले होते थे। 
  2. स्व-सेवा (Self-service) एवं इससे मिलती-जुलती अन्य लागत में कमो करने की विधियाँ अपनाने के लिए यह आवश्यक है कि उत्पादों को माँग से समायोजित किया जाए। 
  3. रुचि के अनुसार क्रय शक्ति (Discretionary Purchasing Power) में वृद्धि के फलस्वरूप ग्राहक सौदा खरीदने में अधिक सावधानी बरतने लगे हैं। सर्वथा अपनी रुचि के अनुकूल वस्तु प्राप्त करने के लिए ग्राहक कुछ अधिक देने के लिए भी तैयार हो जाता है। 
  4. उपभोक्ता के रुपये (Cosumer's Rupees) के लिए प्रतिस्पर्द्धा करने वाली वस्तुओं की किस्मों की संख्या बढ़ी है। 
  5. संवर्द्धन (Promotion) के कुछ समय पश्चात् विकास हेतु बाजार विभक्तिकरण आवश्यक हो जाता है क्योंकि सम्पूर्ण बाजार के लिए सामान्य संचालित विपणन कार्यक्रम घटते हुए प्रतिफल देने लगता है।

बाजार विभक्तिकरण के प्रति वैकल्पिक विपणन रीति-नीतियाँ

हम सभी इस बात से भली-भाँति अवगत हैं कि क्रेताओं में समानता नहीं पायी जाती है, अतः क्रेताओं की भिन्नता के अनुसार एक व्यवसायी अपनी विपणन रीति-नीति में भी अन्तर कर सकता है। बाजार विभक्तिकरण के सन्दर्भ में एक व्यवसायी के लिए निम्न तीन विपणन रीति-नीतियाँ उपलब्ध हैं- 

  1. अभेदित या भेदभाव-हीन विपणन रीति-नीति, 
  2. भेदित या भेदभावपूर्ण विपणन रीति-नीति एवं 
  3. संकेन्द्रित विपणन रीति-नीति ।

(1) अभेदित अथवा भेदभाव-हीन विपणन रीति-नीति

इस विपणन रीति-नीति के अन्तर्गत फर्म एक ही उत्पाद वस्तु प्रस्तुत करे और एक ही विपणन कार्यक्रम द्वारा सभी क्रेताओं को आकर्षित करने का प्रयास करती है। इसके अन्तर्गत ग्राहकों के मध्य अन्तर नहीं किया जाता और सभी के लिए एक ही विपणन कार्यक्रम, एक ही विज्ञापन माध्यम और एक ही ब्राण्ड एवं पैकिंग आदि का प्रयोग किया जाता है। ऐतिहासिक रूप से अधिकांश फर्मे अभेदित विपणन रीति-नीति का ही प्रयोग करती रही हैं। उदाहरण के लिए, कोकाकोला अनेक वर्षों तक एक ही स्वाद वाला और एक ही बोतल आकार में उपलब्ध रहा। इसी प्रकार सिगरेटों के सम्बन्ध में ब्राण्ड की भिन्नता के बावजूद सभी प्रकार की सिगरेटें समान लम्बी, सफेद कागज में लपेटी हुई और समान रूप से हल्के पैकटों में बन्द होती थीं और सभी सिगरेट निर्माता विज्ञापन में एक ही बात पर जोर देते रहे कि "धूम्रपान से आनन्द मिलता है।"

इसी प्रकार की रीति-नीति की अवस्था में फर्म बाजार के विभिन्न माँग वक्रों को मान्यता न देकर बाजार को सम्पूर्ण रूप में लेती है। इनमें लोगों की समान (Common) आवश्यकताओं पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है एवं उत्पाद का ऐसा आकार और कार्यक्रम तैयार किया जाता है जो अधिकांश ग्राहकों को अपील (Appeal) करे।

अतः इस रीति-नीति के प्रयोग से फर्म को निम्न लाभ प्राप्त होते हैं- 

  • इसके द्वारा फर्म को लागत मितव्ययिताओं की प्राप्ति होती है। इसके अन्तर्गत उत्पाद पंक्ति छोटी होती है क्योंकि एक ही उत्पाद का निर्माण किया जाता है अतः उत्पादन, स्कन्ध और यातायात लागतें न्यूनतम हो जाती हैं। वास्तव में, प्रमापीकरण और बड़ी मात्रा में उत्पादन (Mass Production) का निर्माण क्षेत्र में जो महत्व है, वही विपणन के क्षेत्र में अभेदित विपणन की रीति-नीति का है। 
  • इससे विज्ञापन लागत में पर्याप्त कमी होती है। एक ही प्रकार का विज्ञापन करने से विज्ञापन लागत में पर्याप्त कमी होना स्वाभाविक ही है। साथ ही, वस्तु का बड़े पैमाने पर विज्ञापन हो जाता है। 
  • इसके कारण विपणन अनुसन्धान व्ययों में मिव्ययिता आती है। 
  • उपक्रम के सामान्य व्ययों में पर्याप्त कमी हो जाती है।

निष्कर्ष

उपर्युक्त लाभों के बावजूद यह रीति-नीति दीर्घकाल तक सफल नहीं हो पाती। यही कारण है कि प्रारम्भ में इस रीति-नीति को प्रयोग करने वाली फर्मे प्रतिस्पर्द्धा के बढ़ने पर इसे छोड़ने के लिए बाध्य हो जाती हैं। वास्तव में, आधुनिक समय में विभिन्न ग्राहक वर्गों की आवश्यकताओं में काफी भिन्नता होती है और किसी उत्पाद द्वारा उन्हें अधिक समय तक पूरा करना सम्भव नहीं होता। किसी भी वस्तु के लिए यह आसानी से सम्भव नहीं है कि वह बच्चों, युवा, प्रौढ़, धनी, निर्धन, शिक्षित, अशिक्षित आदि सभी को अपील कर सके।

(2) भेदित विपणन रीति-नीति

इस रीति-नीति के अन्तर्गत फर्म बाजार के सभी खण्डों (Segments) को ध्यान में रखकर भिन्न-भिन्न उत्पादों का निर्माण करती है। दूसरे शब्दों में, इसके अन्तर्गत बाजार को सम्पूर्ण रूप से नहीं देखा जाता तथा ग्राहक वर्गों की विशेषताओं के अनुसार उसे विभिन्न खण्डों में विभक्त किया जाता है और तत्पश्चात् सभी खण्डों के लिए पृथक् पृथक् उत्पादों का निर्माण किया जाता है। इस रीति-नीति का प्रयोग विक्रय को बढ़ाने और प्रत्येक बाजार खण्ड की वैकल्पिक विपणन रीति-नीतियाँ

आधुनिक समय में भेदित विपणन रीति-नीति का अधिकाधिक प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए, सिगरेटें अब भिन्न-भिन्न लम्बाई की बनने लगी हैं। एक ही ब्राण्ड की सिगरेट फिल्टर्ड या अनफिल्टर्ड (Filtered or Unfiltered) बनाई जाने लगी हैं। भारत में गोल्डन टोबेको कम्पनी लि., मुम्बई कई प्रकार के ब्राण्ड नामों के अन्तर्गत सिगरेट बनाने और विक्रय का कार्य करती है- पनामा, न्यूडील, टार्गेट (Target), एसक्वायर, डाइमण्ड, गेलार्ड, ताजमहल, गोल्डफ्लेक, ताज एवं सैनिक। इसी प्रकार हिन्दुस्तान लोवर लि., मुम्बई अनेक ब्राण्ड नामों में में नहाने के साबुनों का निर्माण एवं विक्रय करता ता है, जैसे- लक्स, रेक्सोना, लाइफबॉय, लिरिल, पीयर्स, लक्स सुप्रीम आदि। यही नहीं, औद्योगिक फमें भी, अब विभिन्न प्रकार के ग्राहकों की विविध आवश्यकताओं के अनुरूप उत्पाद बना रही हैं।

निष्कर्ष

यह सही है कि अभेदित विपणन रीति-नीति की तुलना में भेदित विपणन रीति-नीति द्वारा कुल बिक्री में वृद्धि की जा सकती है परन्तु साथ ही साथ इसके प्रयोग से उत्पाद संशोधन लागत, उत्पादन लागत, प्रशासनिक लागत्, प्रवर्तन लागत आदि भी बढ जाती है। यह रीति-नीति विक्रय-अभिमुखी तो है परन्तु इसका लाभ-अभिमुखी होना इस बात पर निर्भर करता है कि बढ़ी हुई लागतों की तुलना में विक्रय में किस अनुपात में वृद्धि होती है।

(3) संकेन्द्रित विपणन रीति-नीति

उपर्युक्त दोनों रीति-नीतियों में फर्म द्वारा सम्पूर्ण बाजार क्षेत्र पर ध्यान दिया जाता है परन्तु कुछ फर्मे एक तीसरी रीति-नीति का भी प्रयोग करती हैं जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण बाजार के स्थान पर किसी एक बाजार भाग या कुछ भागों पर की सम्पूर्ण विपणन शक्ति केन्द्रित की जाती है। यह रीति-नीति उस समय अधिक उपयुक्त रहती है, जबकि फर्म के वित्तीय साधन सीमित हों। 

फिलिप कोटलर के शब्दों में इसके अन्तर्गत फर्म "एक बड़े बाजार के छोटे भाग की बजाय एक या कुछ उप-बाजारों के बड़े भाग के लिए प्रयास करती है। अन्य शब्दों में, बाजार के अनेक भागों में अपनी शक्ति बिखरने के बजाय फर्म कुछ ही क्षेत्रों में अपनी शक्ति को केन्द्रित करती है जिससे एक अच्छी बाजार स्थिति प्राप्त की जा सके।"' भारत में अनेक संस्थाओं द्वारा इस नीति का पालन किया जा रहा है, जैसे- अनेक पुस्तक प्रकाशक सभी विषयों की पुस्तकें प्रकाशित न कर कुछ ही विषयों की पुस्तकों के प्रकाशन का कार्य करते हैं। कुछ प्रकाशक कॉलेज स्तर की पुस्तकें एवं कुछ स्कूल स्तर की पुस्तकों के प्रकाशन का कार्य करते हैं। उदाहरण के लिए, साहित्य भवन पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा) लि., आगरा ने पुस्तकों के प्रकाशन में वाणिज्य एवं अर्थशास्त्र के क्षेत्र में विशेषता प्राप्त कर ली है। इसी प्रकार हिन्दुस्तान लीवर लि. केवल बच्चों के लिए खाद्य सामग्री तैयार करता है।

निष्कर्ष 

इस रीति-नीति के प्रयोग से अनेक लाभ होते हैं, जैसे- एक बाजार खण्ड विशेष में फर्म की ख्याति काफी बढ़ जाती है क्योंकि उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं और विशेषताओं की सन्तुष्टि का पूरा-पूरा प्रयास किया जाता है। साथ ही, एक ही प्रकार का उत्पादन करने से उत्पादन लागत और वितरण लागत में भी पर्याप्त कमी हो जाती है लेकिन यह उल्लेखनीय है कि इस रीति-नीति का प्रयोग अत्यन्त जोखिमपूर्ण है। इस नीति के प्रयोग की अवस्था में संस्था का भविष्य एक विशिष्ट बाजार भाग पर निर्भर करता है। यदि गलती से बाजार भाग का सही चुनाव न हो तो संस्था का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है।

उपयुक्त विपणन रीति-नीति का चुनाव करना

एक फर्म द्वारा प्रयोग की जाने वाली तीनों वैकल्पिक विपणन रीति-नीतियों का उल्लेख करने के पश्चात् यह प्रश्न उठता है है कि इनमें से कौन-सी विपणन रीति-नीति अधिक उपयुक्त है ? तीनों ही रीति-नीतियों के अपने-अपने गुण-दोष हैं। व्यवहार में कभी-कभी एक रीति-नीति इतनी अति प्रबल (Over-whelming) होती है कि चुनाव का प्रश्न ही नहीं रहता। इसके विपरीत, कभी-कभी एक रीति-नीति इतनी अनुपयुक्त होती है कि को शेष दो रीति-नीतियों के मध्य ही चुनाव करना पड़ता है। एक फर्म की विपणन रीति-नीति के चुनाव फर्म को को निम्नांकित महत्वपूर्ण घटक प्रभावित करते हैं :

(1) कम्पनी संसाधन

निःसन्देह कम्पनी संसाधन विपणन रीति-नीति के को प्रभावित चुनाव  करते हैं। उदाहरण के लिए, यदि कम्पनी के साधन सीमित हैं तो उनके लिए संकेन्द्रित विपणन रीति-नीति का प्रयोग ही अधिक वांछनीय है। विशाल वित्तीय साधनों की अवस्था में कम्पनी भेदित या अभेदित विपणन रीति-नीति का प्रयोग कर सकती है।

(2) प्रतिस्पर्द्धा विपणन रीति-नीतियाँ

प्रतिस्पर्दी निर्माताओं द्वारा प्रयुक्त विपणन रीति-नीतियाँ भी फर्म के विपणन रीति-नीति के चुनाव को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए, यदि प्रतिस्पर्द्धा भेदित विपणन रीति-नीति का प्रयोग कर रहे हैं अर्थात् उन्होंने बाजार को अनेक खण्डों में विभक्त किया है तो ऐसी स्थिति में फर्म को भी भेदित विपणन रीति-नीति का ही प्रयोग करना पड़ेगा। यदि वह अभेदित विपणन का प्रयोग करती है तो उसे प्रतिस्पर्द्धा का सामना करने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ेगा। बाजार में तीव्र प्रतिस्पर्द्धा की अवस्था में भेदित या संकेन्द्रित विपणन रीति-नीति (Strategy) अधिक उपयुक्त है। इसके विपरीत, प्रतिस्पर्द्धा के अभाव में अभेदित विपणन रीति-नीति का भी प्रयोग किया जा सकता है।

(3) उत्पाद एकरूपता

विभिन्न निर्माताओं द्वारा बनायी जाने वाली वस्तुओं में पायी जाने वाली एकरूपता या भिन्नता भी विपणन रीति-नीति के चुनाव को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, यदि सभी निर्माताओं के उत्पाद में समानता या एकरूपता है तो फर्म द्वारा अभेदित विपणन रीति-नीति का प्रयोग किया जाता है, जैसे नमक। इसके विपरीत, कैमरा, घड़ी, कार, पंखे आदि उत्पादों की अवस्था में भेदित या संकेन्द्रित विपणन रीति-नीति का प्रयोग ही अधिक उपयुक्त है।

(4) बाजार एकरूपता

इसे अन्य शब्दों में ग्राहक एकरूपता भी कहा जा सकता है। विपणन रीति का चुनाव इस बात पर निर्भर करता है कि ग्राहकों में कितनी समानताएँ हैं ? यदि वस्तु का प्रयोग करने वाले माहकों की आवश्यकताओं, रुचियों, प्रेरणाओं आदि में समानता है तो फर्म द्वारा अभेदित या भेदभावहीन विपणन रीति-नीति का प्रयोग किया जाना अधिक उपयुक्त है। इसके विपरीत, ग्राहक या बाजार एकरूपता के अभाव में भेदित या संकेन्द्रित विपणन रीति-नीति द्वारा बाजार प्रवेश में अधिक सुविधा रहती है।

(5) जीवनचक्र में उत्पाद की अवस्था या स्थिति

एक व्यक्ति के समान ही उत्पाद का भी एक जीवन चक्र होता है। प्रत्येक उत्पाद सामान्यतः प्रस्तुतीकरण, विकास, परिपक्वता, संतृप्ति, पतन तथा अप्रचलन की अवस्थाओं से गुजरता है। विपणन रीति-नीति का चुनाव इस बात पर निर्भर करता है कि उत्पाद उस समय अपने जीवन चक्र की किस अवस्था से गुजर रहा है। उदाहरण के लिए, प्रस्तुतीकरण की अवस्था में अभेदित विपणन रीति-नीति का प्रयोग अधिक उपयुक्त है। इसके विपरीत, विकास अवस्था में संकेन्द्रित विपणन रीति-नीति और संतृप्ति की अवस्था में भेदित विपणन रीति-नीति का प्रयोग अच्छा रहता है। अपेक्षाकृत नये उत्पाद के लिए अभेदित या संकेन्द्रित विपणन रीति-नीति और पुराने उत्पाद के लिए भेदित विपणन रीति-नीति अधिक उपयुक्त रहती है।

(6) सरकारी नीति

सरकारी नीति भी विपणन रीति-नीति के चुनाव को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए, यदि सरकार ने किसी उत्पाद के वितरण के विषय में कुछ निर्देश निर्गमित किये हैं तो निर्माता को उक्त निर्देशों के अनुसार ही उस उत्पाद के विपणन रीति-नीति का निर्धारण करना होगा अन्यथा सरकार उसके विरुद्ध कार्यवाही कर सकती है।

विभक्तिकरण चलों का प्रयोग अथवा बाजार विभक्तिकरण के उदाहरण

किसी उत्पाद के चल उक्त उत्पाद की विपणन रीति-नीति को निर्धारित करते हैं। चूँकि सभी विभक्तिकरण चल प्रत्येक बाजार के लिए उपयुक्त नहीं होते, अतः प्रत्येक फर्म को यह पता लगाना चाहिए कि सम्बन्धित बाजार के सम्बन्ध में कौन-से विभक्तिकरण चल अधिक उपयुक्त हैं। बाजार विभक्तिकरण करते समय उत्पादन के चलों का गहन अध्यगन किया जाना चाहिए, ताकि निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सके। इस सम्बन्ध में कुछ उदाहरण हम नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं:

(1) सिरदर्द की टिकिया (Aspirin) 

हम सभी जानते हैं कि सिरदर्द की टिकिया का प्रमुख उद्देश्य सिरदर्द अथवा बुखार को दूर करना है। इस प्रकार की टिकिया विभिन्न निर्माताओं द्वारा बनाई गई हैं, जैसे- भारत में 'एनासिन' एवं 'एस्पो' की टिकिया अलग-अलग निर्माताओं द्वारा बेची जाती है। इन दोनों के मध्य कटु प्रतियोगिता विद्यमान है। कुछ लोग तो इनका प्रतिदिन ही उपयोग करते हैं और इस प्रकार इसके आदी हो गये हैं। इसके विपरीत, कुछ लोग कभी-कभी ही इनका उपयोग करते हैं। इन टिकियों के निर्माता अनुसन्धान द्वारा इनका अत्यधिक उपयोग करने वालों, कभी-कभी उपयोग करने वालों एवं उनका उपयोग न करने वालों की भिन्नात्मक विशेषताओं का पता लगा सकते हैं और उसी के अनुसार अपनी विपणन रीति-नीति (Marketing Strategy) का निर्धारण कर सकते हैं।

(2) घड़ियाँ (Time-pieces)

घड़ी का प्रमुख उद्देश्य सही समय का पता लगाना है। चाहे व्यक्ति विशेष हो अथवा कोई संस्था हो, सभी अपनी क्रियाओं के क्रम-विधान के लिए समय के माप पर निर्भर हैं। अतः सभी को इसकी आवश्यकता पड़ती है। इसीलिए विभिन्न प्रकार की समय-मापन युक्तियों का विकास किया गया है और जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार की घड़ियों का निर्माण किया गया है। मान लीजिए कि एक निर्माता सफरी घड़ियों के बाजार की जाँच करना चाहता है। इस सम्बन्ध में उसे पता लगाना होगा कि किस प्रकार के लोग यात्रा करते हैं, यात्रा के दौरान सफरी घड़ी की क्या भूमिका हो सकती है और क्या अन्य समय-मापन विधियाँ अच्छा स्थानापन्न नहीं हो सकती हैं? इस विश्लेषण से उसे एक ऐसी सफरी घड़ी बनाने का महत्व स्पष्ट हो जायेगा जिसमें विश्वसनीयता, मजबूती, चमकीलापन, गहरे रंग की सुइयाँ, आकर्षण, आकार, सस्ती आदि के गुण विद्यमान हों। इन गुणों पर ध्यान देते हुए घड़ी के बाजार को निम्न उप-बाजारों में विभक्त किया जा सकता है-वे प्राहक जो एक आकर्षक सफरी घड़ी के लिए अधिक कीमत देने को तैयार हैं और वे ग्राहक जो आकर्षण के इतने अधिक शौकीन नहीं हैं किन्तु कम कीमत देना चाहते हैं।

(3) बैंकिंग सेवाएँ (Banking Services)

एक बैंक का प्रमुख कार्य जनता के धन को अपने पास जमा करना एवं आवश्यकता के समय उसे उधार देना है। धन जमा करने पर वह ब्याज देती है और उधार देने पर ब्याज वसूली करती है। उधार देने की ब्याज की दर धन जमा करने की ब्याज की दर से अधिक होती है। इन दोनों ब्याज की दरों का अन्तर ही उसका लाभ होता है। इस कार्य के लिए एक बैंक को अपनी विपणन रीति-नीति निर्धारित करते समय इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि वह ऐसी हो जिससे अधिकाधिक लोग। उसमें अपना धन जमा करें। इसके लिए उसे विभिन्न प्रकार की आकर्षित करने वाली जमा योजनाओं को चालू करना चाहिए। इसी प्रकार उधार की मात्रा में वृद्धि के लिए बैंक अधिविकर्ष, नकद साख एवं ऋण आदि को प्रोत्साहित करना चाहिए।

(4) सिगरेट (Cigarettes)

भारत सहित विभिन्न देशों में सिगरेट का उपयोग व्यापक स्तर पर होता है। सिगरेट के बाजार का निम्न आधारों पर विभक्तिकरण किया जा सकता है-

(i) सिगरेट के प्रकार (Types of Cigarettes)- सिगरेट के प्रकार के आधार पर उसके बाजार निम्न चलों के आधार पर विभक्तिकरण किया जा सकता है- (अ) फिल्टर (Filter), (ब) साधारण (Simple), (स) बड़ा आकार (King Size), (द) छोटा आकार (Small Size)।

(ii) मूल्य (Price)- मूल्य के आधार पर सिगरेट के बाजार का निम्न आधार पर विभक्तिकरण किया सकता है-

(अ) उच्च मूल्य वाली सिगरेट (High Priced Cigarettes),

(ब) मध्यम मूल्य वाली सिगरेट (Medium Priced Cigarettes),

(स) निम्न मूल्य वाली सिगरेट (Low Priced Cigarettes),

(द) निम्नतम मूल्य वाली सिगरेट (Lowest Priced Cigarettes):

(5) रेफ्रीजरेटर्स (Refrigerators)

रेफ्रीजरेटर्स के बाजार का निम्न चलों के आधार पर विभक्तिकरण किया जा सकता है:

(i) भौगोलिक (Geographical)- भौगोलिक आधार पर रेफ्रीजरेटर्स के बाजार का निम्न चल के आधार पर विभक्तिकरण किया जा सकता है-

(अ) उत्तरी भारत (North India), (ब) पूर्वी भारत (East India), (स) दक्षिणी भारत (South India), (द) पश्चिमी भारत (West India)। 

(ii) रेफ्रीजरेटर्स के आकार के चल आधार पर (Size of Refrigerators)- (अ) 65 लीटर (65 Litres), (ब) 165 लीटर (165 Litres), (स) 286 लीटर (286 Litres) एवं (द) 300 लीटर (300 Litres) । 

(6) मोटर-गाड़ियाँ (Automobiles) 

मोटर गाड़ी का प्रमुख उद्देश्य परिवहन का साधन प्रदान करना है। बाजार में विभिन्न निर्माताओं द्वारा विभिन्न आकार, प्रकार एवं मूल्य की मोटर गाड़ियों का विपणन किया जाता है। इसका कारण यह है कि विभिन्न प्रकार की मानवीय आवश्यकताओं के अनुसार मोटर गाड़ियों का निर्माण करना पड़ता है। अतः मोटर गाड़ियों के निर्माताओं की विपणन नीति बाजार-धारणा के अनुरूप ही होनी चाहिए।

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