योग का अर्थ (Meaning of Yoga)
भारतीय आध्यात्मिक साधना की परम्परा के अनुसार 'योग' शब्द एक और साध्य, मंजिल, तक्ष्य आदि सन्दर्भों का वाचक है वहीं दूसरी ओर यह साधन, मार्ग, उपाय आदि सन्दभों का भी वाचक है। भारतीय दर्शन का अन्तिम लक्ष्य मुक्ति की प्राप्ति है और उसके लिए योग दर्शन, बौद्ध दर्शन तथा जैन दर्शन में क्रमशः कैवल्य, निर्वाण तथा मोक्ष शब्दों का प्रयोग हुआ है।
यह तात्पर्य की दृष्टि से समान ही है पर उसकी व्याख्या व अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से हुई है। साध्य की साम्यता होते हुए भी प्रत्येक दर्शन अपने भीतर कुछ विशिष्टताओं को संजोए हुए है। साध्य को समझाने व प्राप्त करने के लिए अपने-अपने दृष्टिकोण से साधनों का उपयोग हुआ है। इसलिए उसी के अनुरूप योग की परम्पराओं/शाखाओं का विकास हो गया जैसे- पतंजलि योग, बौद्ध योग, जैन योग आदि।
लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भी अनेक विधाएँ हों इसलिए योग के भी अनेक प्रकार हो जाते हैं; जैसे- ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्मयोग, राजयोग, लय योग आदि। पाश्चात्य देशों में भी अस्तित्व, स्व याय मूल तथ्य को समझने के लिए गहनता से विचार किया जा रहा है। ये शब्द 'फ्रायड' के 'इंगो' से परे सामान्य चेतना स्तर के आगे के धरातल की ओर इंगित करते हैं। भारतीय योग विधा में 'स्व' का तात्पर्य आत्मा या परम सत्ता लिया जाता है।
आत्म-साक्षात्कार, स्व-बोध या विशुद्ध चेतना का अनुभव, योग अर्थात् साधना की विभिन्न प्रविधियों द्वारा किया जाता है। जो विशुद्ध चेतना है, आत्मा है वही, आत्मा है वही परमात्मा है, जो पिण्ड में है। वही ब्रह्माण्ड में है जो एक में है, सर्वत्र है। इस धरातल पर एकत्व (Oneness) प्राप्ति ही मजिल है, यही योग का वास्तविक तात्पर्य है।
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योग की परिभाषाएँ (Definitions of Yoga)
संस्कृत व्याकरण के अनुसार- "योग शब्द का निर्माण संस्कृत व्याकरण की 'युज' धातु से हुआ है जिसका अभिप्राय जोड़ना, समन्वय करना, मिलाना अथवा भावनात्मक एकता लाना होता है।"
वेदान्त के मतानुसार- 'संयोग योग इत्युक्तो जीवात्मा परमात्मनः', 'योग याज्ञवल्क्यम्।" जीवात्मा और परमात्मा की एकता का अनुभव करने का नाम ही योग है।" योग का उद्देश्य है- ब्रह्मस्वरूप अवस्था।
सांख्य के मतानुसार- "हम जब भी स्वयं को जड़ पदार्थ से अलग कर आत्मचेतना में लीन होते हैं तब हमारे अन्दर विस्तृत ज्ञान और व्यापक शक्ति का जन्म होता है। धीरे-धीरे साधक की वृत्ति ब्रह्माकार होती है और मन अन्तर्मुख होकर देशकाल से अलग जीवन के क्षेत्र में पदार्पण कर जाता है। वह नित्य शुद्ध मुक्त स्वभाव परमात्मा कालान्तर के समय में चेतना में लीन हो जाता है।"
उपनिषदों के अन्तर्गत- "कठोपनिषद् में पाँच ज्ञानेन्द्रियों का मन सहित आत्मा में स्थिर होकर बैठना जहाँ बुद्धि भी कोई कार्य नहीं करती है। वह अवस्था परमगति कहलाती है।"
महर्षि पतंजलि के अनुसार- "चित्त की वृत्तियों का निरोध करना योग है।" योगश्चित्तवृत्ति- निरोधः।
भगवद्गीता के अनुसार- "योग कष्टों तथा दुःखों से मुक्ति की स्थिति है। योगाभ्यास मन को स्थिर करता है जिससे व्यक्ति स्वयं अपना निरीक्षण करता है और स्वयं में ही आनन्दित होता है।"
प्रो. रामहर्ष सिंह के अनुसार- "योग का अर्थ मनुष्य के व्यक्तित्व के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक पक्षों का एकीकरण है साथ ही मनुष्य का उसके द्वारा समन्वय योग है।"
डॉ. राधाकृष्णन् के अनुसार- "अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को एक जगह इकट्ठा करना, उन्हें सन्तुलित करना और बढ़ाना।"
योगवंशिका के अनुसार- "मोंक्खेण जोयणाओं सत्वो विवहारों जोगो। आचार्य हरिभद्र के अनुसार मोक्ष से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने मोक्ष के उपाय रूप को ज्ञान वर्धक और चरित्रात्मक कहा है।"
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योग की विशेषताएँ (Characteristics of Yoga)
विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गयी योग की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(i) योग द्वारा मन की चंचलता पर अंकुश लगाने में मदद मिलती है। इस तरह योग इन्द्रियों को वश में करने का साधन है।
(ii) योग मोक्ष प्राप्त करने का साधन है।
(iii) योग शक्ति अर्जित करने का साधन है।
(iv) योग एकाग्रता में सहायक होता है।
(v) योग व्यक्ति को स्वयं का ज्ञान कराकर परमात्मा से मिलने का मार्ग प्रशस्त करने का साधन है।
(vi) योग जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कुशलतापूर्वक कार्य करने की योग्यता व शक्ति प्रदान करने का साधन है।
(vii) योग द्वारा व्यक्ति को अपनी आन्तरिक शक्ति का बोध होता है।
(viii) योग द्वारा व्यक्ति के ज्ञान में वृद्धि होती है तथा वह विवेकशील बनता है।
(ix) योग मनुष्य की इच्छा शक्ति और मन को नियन्त्रित रखने में सहायक है।
(x) योग से हमें आध्यात्मिक एकत्व (Spiritual oneness) प्राप्त होता है।
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योग के मुख्य उद्देश्य एवं लक्ष्य (Aims and Objectives of Yoga)
योग के मुख्य उद्देश्य (Main Aims of Yoga)
योग के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
1. शारीरिक उद्देश्य (Physical Aims)- योग का उद्देश्य व्यक्ति का शारीरिक विकास व यौगिक क्रियाओं में मानवीय शरीर के सभी अंग सुचारु रूप से कार्य करने लगते हैं, जिससे अंगों का विकास होता है। श्वसन क्रिया, पाचन शक्ति तथा माँसपेशियों में जब हलचल आती है तो इनकी कार्यक्षमता बढ़ती है व नई शक्ति का संचार होता है। माँसपेशियाँ लचीली, सुन्दर व मजबूत बनती हैं तथा कठोर परिश्रम से भी शीघ्र थकावट महसूस नहीं होती है।
2. मानसिक उद्देश्य (Mental Aim)- मनुष्य जब दैनिक कार्यों से थक जाता है तब मानसिक रूप से पूरी तरह शिथिल हो जाता है तो ऐसे समय में आरामदायक आसन जैसे- मकरासन, श्वासन आदि के द्वारा मानव अपने मस्तिष्क को पुनः तरोताजा बना लेता है।
3. सामाजिक उद्देश्य (Social Aim)- योग से शारीरिक व मानसिक विकास के साथ-साथ सामाजिक विकास में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। योग मानव को ऊँच-नीच अमीरी-गरीबी से निकालकर एक श्रेष्ठ इन्सान बनने में सहायता देता है। योग क्रियाओं में जब विभिन्न जातियों व समूहों के व्यक्ति आपस में मिलते हैं तो उनमें सामाजिकता की भावना जागृत होती है। अतः हम कह सकते हैं कि सामाजिक विकास भी योग का एक मुख्य उद्देश्य है अतः इसकी पालना भी ईमानदारी से होनी चाहिए।
4. संवेगात्मक उद्देश्य (Emotional Aim)- प्रत्येक व्यक्ति आज अपने मन एवं आत्मा की शान्ति चाहता है। आज मनुष्य अनेक समस्याओं से घिरा हुआ है जिसके कारण स्वभाव में चिड़चिड़ापन व क्रोध पैदा होना स्वाभाविक है। मानव सफलता-असफलता यश-अपयश, निन्दा-प्रशंसा, सुख-दुख, प्रत्येक अवस्था में अपने मन का सन्तुलन बनाए रखता है। छोटी-छोटी समस्याओं के आने पर वह अपना आपा नहीं खोता तथा धैर्य व शांत स्वभाव के साथ ऐसी स्थिति में भी अपना कार्य जारी रखता है।
5. चारित्रिक उद्देश्य (Characteristics Aim)- योग में व्यक्ति को श्रेष्ठ आचरण अपनाने पर बल दिया जाता है क्योंकि एक अच्छे चरित्र का मालिक ही परमात्मा के ज्यादा निकट होता है। योग में ध्यानात्मक आसनों के द्वारा व्यक्ति में अच्छे चारित्रिक गुणों का विकास होता है। एक योग करने वाला व्यक्ति सत्यवादी, परोपकारी, ईमानदार व दूसरों की मदद को सदैव तत्पर रहता है।
6. आध्यात्मिक उद्देश्य (Spritual Aim)- योग का मुख्य उद्देश्य है व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास करना। यौगिक क्रियाओं व आसनों जैसे ध्यानात्मक आसन, अर्द्धपद्मासन, पद्मासन, सुखासन, वज्रासन आदि व्यक्ति को गहन ध्यान की तरफ ले जाते हैं तथा इस दशा में व्यक्ति स्वयं को परमात्मा के अधिक समीप समझता है। इस गुण से ओतप्रेत व्यक्ति शीघ्र ही स्वयं को परमात्मा के साथ जोड़ लेता है। प्राचीन समय में ऋषि-मुनि व महान् योगी यौगिक क्रियाओं व योगासनों द्वारा ही आत्मा को परमात्मा में लीन कर लेते थे। योग की शक्ति जो मनुष्य को आध्यात्मिक रूप से इतना मजबूत बना देती थी कि उन पर प्रकृति की विपदाओं का भी असर नहीं पड़ता था।
7. अनुशासनात्मक उद्देश्य (Diciplinary Aim)- इस क्रिया के अन्तर्गत योग शरीर की इन्द्रियों तथा मन को अनुशासनबद्ध करता है। जीवन की गतिविधियों, आहार-विहार तथा आचारणों को नियमित एवं अनुशासित रखने के लिए योग आवश्यक है।
8. राष्ट्रीय उद्देश्य (National Aim)- योग द्वारा नागरिकों में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करता है। योग राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण में पूर्णतः सहयोग करता है। योग खेल-कूद तथा प्रतिस्पर्धाओं में राष्ट्र को गौरव दिलाने में सहयोग प्रदान करता है।
उपर्युक्त उद्देश्यों के द्वारा योग व्यक्ति के व्यवहार में समस्त प्रकार के वांछनीय परिवर्तन लाने की उचित व सकारात्मक भूमिका निभा सकता है। योग के द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास इसे मोक्ष प्राप्ति की ओर ले जा सकता है।
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योग के उद्देश्य (Objectives of Yoga)
जिस प्रकार यात्रा किसी एक निश्चित स्थान को ध्यान में रखकर की जाती है तथा यात्रा करने वाला एकाएक निश्चित स्थान पर नहीं पहुँच सकता है। सर्वप्रथम वह एक पड़ाव पर व ऐसे ही रास्ते पार कर अपने निश्चित स्थान पर पहुँचा जाता है।
योग के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक उद्देश्य निम्न हैं-
1. रहन-सहन व्यवस्थित रखना व कार्य ठीक ढंग से करने का तरीका अपनाना- शरीर व मन को शक्तिशाली बनाने के लिए प्राणी को अपना रहन-सहन व कार्य व्यवहार को ठीक ढंग से करना चहिए। व्यक्ति के कर्मों का उसके मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि व्यक्ति अपने कार्यों को सिद्धान्तों व नियमानुसार नहीं करता है तो उसका मन भी शान्त एवं स्थिर नहीं रह सकेगा। व्यक्ति को अपना रहन-सहन व खान-पान सादा रखना चाहिए। इससे योग के लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है।
2. शरीर की कुशलता एवं प्रबलता- मानव को शाररिक रूप से स्वस्थ व तन्दुरुस्ता होना चाहिए अगर ऐसा नहीं होगा तो मानव न तो शारीरिक कार्य और न ही मानसिक कार्य अच्छी तरह से कर पाएगा। "स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है।" मन को उच्च अवस्था में पहुँचाने के लिए शरीर को शक्तिशाली बनाना अत्यन्त जरूरी है। इसकी प्राप्ति हठ योग से की जा सकती है।
3. मानसिक स्थिरता- व्यक्ति को अपने मन को वश में रखना चाहिए। जब तक मन व्यक्ति के वश में नहीं आता तब तक व्यक्ति मन को शक्तिशाली नहीं बना सकता तथा अपना ध्यान भी एक स्थान पर एकाग्र नहीं कर पाता है तथा अपने कार्यों में असफल हो जाता है। योग का लक्ष्य मन को स्थिर करना है। मानसिक स्थिरता की प्राप्ति 'राजयोग' द्वारा की जा सकती है।
4. भक्ति- व्यक्ति को निरन्तर भक्ति में लीन रहना चाहिए, भक्ति के द्वारा ही मानसिक व शारीरिक शक्तियों की आवश्यकता होती है वही भक्ति के द्वारा ही ऐसी अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है। भक्ति परमात्मा के ज्ञान के जानने में सहायक है। भक्ति योग का खास लक्ष्य है, जिसके माध्यम से व्यक्ति भय से दूर होता है।
5. सच की भावना- जब व्यक्ति को अपने जीवन की यथार्थता का ज्ञान हो जाता है तो वह स्वयं को क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार, द्वेष आदि बन्धनों से अपने को मुक्त कर लेता है। मनुष्य अपने मन को सन्तुलित कर सत्य का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करना श्रेष्ठ समझता है।
योग के उपर्युक्त उद्देश्यों को पाने के बाद ही हम योग के वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। बिना उद्देश्यों को प्राप्त किए हम योग के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। इनकी पूर्ति होने से योग के लक्ष्य स्वतः ही प्राप्त हो जाएँगे।
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योगाभ्यास के आवश्यक निर्देश
(i) योग करते समय एक आसन बिछाकर करना चाहिए जो कि कुश का या सूती हो।
(ii) योग प्रातः काल या भोजन पूर्व सायंकाल करना चाहिए।
(iii) योग करते समय मुख पूर्व दिशा में रहे।
(iv) योग सदैव आरामदायक कपड़ों में करना चाहिए।
(v) योग करने से पूर्व कक्ष में 10-15 मिनट पूर्व पहुँचना चाहिए।
(vi) योग के समय मौजे, चप्पल इत्यादि नहीं पहनने चाहिए।
(vii) योग सदैव शांत एवं शुद्ध वातावरण में करना चाहिए।
(viii) योग करते समय साधक को मोबाइल बन्द रखना चाहिए।
(ix) योग कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है अतः योग शान्त चित्त से करना चाहिए।
योग का महत्व (Importance of Yoga)
(1) शारीरिक, मानसिक एवं अध्यात्मिक सभी स्तरों को सन्तुलित करता है।
(2) शारीरिक दोषों को दूर कर शरीर को स्वस्थ रखना।
(3) तनाव प्रबन्धन को सही तरीके से करना।
(4) चित्र प्रसादन करना जिसके उपाय इस प्रकार हैं-
(i) मित्रता, (ii) करुणा-दुःखी, (iii) प्रसन्नता-पुण्य, (iv) उपेक्षा-दुष्ट व्यक्ति से।
(5) शरीर की आकृति को बनाये रखना।
(6) एकाग्रता को बनाए रखना तथा खेल के दौरान होने वाली घटनाओं से बचाव, चोटों से बचाव ।
(7) मैच के दौरान होने वाले तनाव का उचित प्रबन्धन।
योग के प्रकार (Types of Yoga)
योग का अर्थ है, जोड़ना या मिलना। अर्थात् योग अपने शाब्दिक अर्थ और उद्देश्यों को परमात्मा से मिलन की ओर संकेत करता है। आत्मा और परमात्मा के इस एकीकरण के लिए क्या-क्या उपाय किए जाएँ तथा कौन-सी विधि और साधन अपनाए जाएँ। इस बात को लेकर योगाचार्यों में काफी आपसी मतभेद रहे हैं। यह मतभेद वैसे ही हैं जैसे विभिन्न धर्मों की उपासना पद्धति या विभिन्न भारतीय दर्शनों द्वारा प्रतिपादित मोक्ष मार्ग को लेकर बने हुए हैं।
सभी धर्मों और दर्शनों के मार्ग अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु लक्ष्य सब का एक ही है ठीक उसी तरह जैसे सभी नदियाँ अपने-अपने मार्ग से चलती हुई अपने गन्तव्य समुद्र में पहुँच कर विलीन हो जभी हैं, उनका कोई अस्तित्व नहीं रहता। वैसे ही धर्माचार्यों द्वारा सुझाए गए सभी पय उसी परमात्मा की और ले जाते हैं। यही बात योगाचार्यों द्वारा प्रतिपादित अलग-अलग योग पद्धतियों पर लागू होती है।
अतः योग के मुख्य प्रकार निम्नलिखित हैं-
1. राजयोग आध्यात्मिक ज्ञान से अवगत करना।
2. भक्तियोग- ईश्वर के प्रति समर्पण।
3. हठयोग- शारीरिक तापमान को सन्तुलन करना।
4. मन्त्रयोग- मन्त्र उच्चारण करना एवं मन्त्र की ध्वनियों द्वारा परम तत्व की प्राप्ति करना।
5. कर्मयोग- कुशलतापूर्वक किया गया कर्म ही योग।
6. नादयोग- यह दो प्रकार का होता है-
(अ) आहत- दो चीजों के टकराने से जो आवाज निकलती है उसे आहत नाद कहते हैं।
(ब) अनाहत- बिना किसी के घर्षण से जो आवाज निकलती है उसे अनाहत नाद कहते हैं।
7. ज्ञानयोग- ज्ञान के द्वारा परम तत्व की प्राप्ति करना।
8. लय एवं कुण्डलिनि योग- सुप्त शक्तियों के जागरण द्वारा।
9. यन्त्रयोग- यन्त्र दर्शन द्वारा परम तत्व की प्राप्ति।
10. तन्त्रयोग- वृत्तियों के मार्गान्तरण व शक्ति के ऊर्ध्वारोहण द्वारा परम तत्व की प्राप्ति।
उपर्युक्त सभी योगों का विस्तारपूर्वक वर्णन निम्न प्रकार से है-
राजयोग (Raj Yoga)
राजयोग की अन्य योग विधाओं की भाँति आत्मा व परमात्मा के एकीकरण या मोक्ष प्राप्ति को अपने जीवन का परम उद्देश्य मानता है। राजयोग इस प्रकार की, एक ऐसी योग पद्धति का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें सभी अन्य योग पद्धतियों की आवश्यक बातों को सम्मिलित किया गया है। इसी कारण यह समन्वयवादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है। राजयोग को योग में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। इसलिए इसे योग का राजा भी कहा जाता है। यह-
(1) व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास व उन्नति को साथ लेकर चलने में विश्वास करता है।
(2) राजयोगी की मानसिक स्थिति और आध्यात्मिक अवस्था अन्य योगियों की अपेक्षा कुछ अधिक ऊँचे स्तर की होती है क्योंकि राजयोग, योग की पहली सीढ़ी न होकर अपेक्षाकृत काफी उच्च अवस्था है।
(3) हठ योग, मन्त्र योग, ज्ञान व भक्ति योग से निकला हुआ योगी ही राजयोग के मार्ग पर आरूढ़ होता है।
(4) मूलरूप से योग साधना का उद्देश्य चित्त की वृत्तियों का निरोध करना तथा उनके नियन्त्रण से है। सांसारिकता में लिप्त मन और चित्त वृत्तियाँ बार-बार भटक जाती हैं। आत्मा के ऊपर अज्ञान की अंधकार रूपी काली परत चढ़ी होती है। इन सबका निर्वाण कैसे किया जाए इसके लिए हठयोग को इसकी प्रथम सीढ़ी माना जाता है।
मोक्ष की प्राप्ति के लिए यह एक उत्कृष्ट मार्ग है जिसका राजस्थान के माउण्ट आबू में केन्द्र स्थापित है जिसका नाम प्रजापिता ब्रह्मकुमारी राज योग शिक्षण अष्टांग योग है जिसमें राजयोग का निःशुल्क शिक्षण दिया जाता है।
भक्तियोग (Bhakti Yoga)
(1) हिन्दू धर्म में ईश्वर प्राप्ति के तीन मार्ग बताए गए हैं-
1. ज्ञान, 2. कर्म, 3. भक्ति।
(2) भक्ति ईश्वर प्राप्ति का सबसे सरल व सुगम मार्ग है। परमात्मा के महात्म्य को जानकार उसके प्रति प्रेम भाव रखना व सर्वस्व ईश्वर को समर्पित कर देना ही भक्ति है। इस भक्ति से ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। ज्ञानी पुरुष तो परमात्मा की प्राप्ति के लिए परमात्म तत्व के ज्ञान को जानना आवश्यक मानते हैं। परन्तु ज्ञान प्राप्ति का मार्ग अत्यन्त दुर्गम व कष्टसाध्य है। यह सामान्य जन की पहुँच से परे है।
(3) एक भक्त अपने इष्ट देव पर अपने आप को समर्पित कर उसी की अर्चना या पूजा करता है।
(4) इसकी सीमा यह है कि अनेक बार भक्ति का वास्तविक प्रयोजन व अर्थ न समझकर भक्त अपने दैनिक जीवन के कार्य के लिए भी भगवान के सामने हाथ फैलाकर अपने पुरुषार्थ को गौण करता है। श्रम, सादगी व संयम की बात गौण होने से अकर्मण्यता, बेरोजगारी व पुरुषार्थहीनता की सम्भावना बढ़ती है।
हठयोग (Hath Yoga)
अवधारणा- हठयोग शब्द के सामान्य उपयोग के बावजूद इसके अर्थ के सम्बन्ध में बहुत भ्रान्ति है। हठ का शब्दार्थ प्रायः बल या शक्ति से लगाया जाता है। किन्तु यौगिक साहित्य के अनुसार हठ शब्द दो अक्षरों 'ह' और 'ठ' के संयोग से बना है। 'ह' (सूर्य) और 'ठ' (चन्द्र) का द्योतक है।
दाहिनी नासिका की प्राण शक्ति को सौर शक्ति अथवा 'ह' शक्ति कहते हैं। बाईं नासिका को प्राण शक्ति को चन्द्रशक्ति अथवा 'ठ' शक्ति कहते हैं। इन दोनों शक्तियों का प्राणायाम द्वारा जब सुषुम्ना में प्रवेश अथवा संयोग कराया जाता है तब कुण्डलिनी जागृत होती है। यह हठयोग का लक्ष्य है। इससे शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक तीनों शक्तियों का सन्तुलन प्राप्त होता है।
कुण्डलिनी जागृत होकर मूलाधार से उठकर क्रमशः आज्ञाचक्र इत्यादि मागों से सहस्रदल चक्र में पहुँचती है। इसे शक्ति का शिव से मिलन अथवा हठ योग का परम लक्ष्य माना गया है। अर्थात् हठ योग का प्रारम्भ भगवान शिव से है जो कि शरीर शुद्धि पर सर्वप्रथम जोर देता है, जैसे- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, न्यौली, कपालभाँति।
हठ का अर्थ (Meaning of Hath)
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ह |
ठ |
पिंडला नाडी सूर्य उर्जा गर्म प्रकृति दाहिनी नासिका प्राण वायु श्वास दिन गर्मी शिव ब्रम्ह पुरुष |
इड़ा नाडी चन्द्र उर्जा ठण्डी प्रकृति बायीं नासिका अप्राण वायु (अपान) प्रश्वास रात सर्दी शक्ति जीव स्त्री |
ऐतिहासिक धारणाएँ (Historical Traditions)
(1) शिव आराध्य देव से पार्वती जी ने मनु की समस्याओं को हल करने हेतु एक ग्रन्थ की रचना करने को कहा तब भगवान शिव ने अपनी शक्तियों द्वारा हठ योग की रचना की जिसमें पार्वती ने अपने ब्रह्म का ज्ञान उसमें डालकर इसे पृथ्वी पर भेजा।
(2) स्वामी स्वात्माराम जी को स्वतन्त्र हठयोग का प्रतिपादक माना जाता है। इन्होंने आज से लगभग साढ़े पाँच से साढ़े छः सौ वर्ष पूर्व एक योग ग्रन्थ की रचना की जो हठ योग के नाम से जाना जाता है। यह हठयोग नाथ सम्प्रदाय से जुड़ा है। ये भगवान शिव को अपना आराध्य देव मानते हैं। बाबा बालकनाथ, गुरु गोरखनाथ, गुरु वैद्यनाथ इत्यादि इसी सम्प्रदाय से सम्बन्धित योगी हैं।
(3) स्वामी स्वात्माराम जी के द्वारा 1350 से 1650 ई. के बीच लिखा गया ग्रन्थ हठयोग प्रदीपिका के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार हठयोग प्रदीपिका के माध्यम से 'चतुरंग योग' की एक नई पद्धति का आविष्कार हुआ जिसे जन-जन ने अपनाया।
(4) एक हजार ई. के आसपास नाथ सम्प्रदाया में गोरखनाथ का उदय हुआ जिन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखकर एक हठयोग सम्प्रदाय की स्थापना की तब से अब तक इसी हठयोग की धारा पूरे विश्व में प्रवाहित हो रही है।
कर्मयोग (Karma Yoga)
(1) आज जिस अर्थ में कर्म योग प्रचलित है वह निष्काम कर्म व सेवा का मार्ग है जो कि संस्कृत के क्रु धातु से बना है।
(2) साधक निष्पृह होकर स्व के साथ सर्व आत्म कल्याण के लिए कार्य करता है जिससे व्यक्ति में अदृष्ट ना दिखने वाली छिपी (Hidden Power) होती है।
(3) इस युग में महात्मा गाँधी, आचार्य श्री तुलसी, श्री विनोबा भावे इसके उदाहरण हैं। यह पुरुषार्थ स्वतन्त्रता व स्वावलम्बन का मार्ग है।
(4) इनकी सीमा यह है कि इनमें सामान्य साधक उसका प्रतिफल तथा पद नाम, यश, कीर्ति, सिद्धि आदि की कामना करने लगता है। यह वृत्ति आपसी टकराव का कारण बनती है। निष्काम भाव, कर्त्तव्य भाव, ऋण मुक्ति भाव, दायित्व भाव, सेवा भाव आदि उदात्त भावनाओं का कर्म के साथ जुड़ने से कर्म योग की सीमाएँ विस्तृत बनती हैं।
मन्त्र योग (Mantra Yoga)
मन्त्र की साधना चेतना को परिष्कृत करती है। इसमें किसी बीजाक्षर, मन्त्र या वाक्य का बार-बार पुनरावर्तन किया जाता है। विधिवत् लयबद्ध पुनरावर्तन को जाप कहते हैं। इसमें ध्वनि के उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता है। मन्त्र से व्यक्ति का मन स्थिर होने लगता है। मन्त्र में उन ध्वनियों का उपयोग होना चाहिए जिनसे मन परमात्मा में लयलीन हो जाए। एक ही ध्वनि को लम्बे समय तक करने की सलाह दी जाती है।
"तस्य वाकः प्रणवः । तज्जपस्तदर्थ भावनम्।"
पतंजलि योग सूत्र के अनुसार, ईश्वर का वाचक प्रणव ओंकार है। इसका जप करते हुए अन्त में इसके अर्थ अर्थात् परमात्म रूप हो जाना इसका मुख्य उद्देश्य है। चित्त की निर्मलता के अभाव में केवल शक्ति की उपासना, अहंकार, दुरुपयोग, लोकैषणा व लौकिक कामनाओं का साधन बन जाता है। मन्त्र योग में इस स्थिति में बचाव के लिए योग्य गुरु के अनुशासन में रहने व गोपनीयता के साथ साधना के बचाव करने का विधान प्राप्त होता है। साधक के साधन/पथ से भ्रमित होने की सम्भावना रहती है। इसमें गोपनीयता के साथ साधना का बचाव करने का विधान प्राप्त होता है।
उदाहरण- (1) बौद्धों में मणिः पद्मेऽमं,
(2) जैनों में नमस्कार महामन्त्र, अर्हम्।
लय योग (Laya Yoga)
इसके अनुसार मानव पिण्ड के मूलाधार स्थित चतुर्दल पदम चक्र में कुण्डलिनी नामक शक्ति सुप्तावस्था में रहती है। अविद्या के असर से यह शक्ति अर्द्धजागृत होकर अधोमुखी होती है व विषय वासना को उत्तेजित करती है। इसमें शरीर व मन पर कठोर अनुशासन किया जाता है। इसका अभ्यास परिपक्व व योग्य साधक के नेतृत्व में ही उपयोगी रहता है। अन्यथा यह साधना शरीर व मन को व्याधिग्रस्त व विक्षिप्त भी कर सकती है। मुख्यतः इसमें ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण किया जाता है। इसमें चित्त शारीरिक चेतना से मुक्त होकर परम चेतना में विलीन हो जाता है।
साधना परिपक्व दशा में मानव पिण्ड के मूलाधार में स्थित यही कुण्डलिनी शक्ति मेरुदण्ड के अन्तर में स्थित ब्रह्मनाड़ी से होती हुई षट्चक्रों को भेदकर मस्तिष्क में स्थित सहस्र दल कमल में अवस्थित परब्रह्म शिव तत्व में लीन हो जाती है। इस प्रकार शिव में शक्ति का लय कर मुक्ति प्राप्त करने की विस्तृत यौगिक साधना को लय योग कहते हैं।
नाद योग (Nad Yoga)
स्थिति- पद्मासन या सिद्धासन लगाकर ज्ञान मुद्रा की स्थिति में बैठें। सिर का पिछला भाग गर्दन और रीढ़ की हड्डी एक सीध में हो। कोहनियाँ मुड़ी हुई, आँखें हल्की मुंदी हुई, चेहरे पर प्रसन्नता।
विधि- पहले कुछ क्षण श्वास को शान्त कर स्वाभाविक स्थिति में लाएँ। मन व चित्त को एकाग्र करें। लम्बा गहरा श्वास भरें। श्वास को सहस्त्र चक्र से भर मूलाधार चक्र तक ले जाएँ। ओउम् के उच्चारण को दो भागों में बाँटना है। दोनों भागों में लय एक ही रहे। ध्यान को पूर्णतया अपनी ध्वनि पर केन्द्रित करें। अब स्वर में मधुरता लाते हुए आधे भाग में 'ओ' की ध्वनि मूलाधार चक्र से सुषुम्ना नाडी में छोड़कर अनाहत चक्र तक काल्पनिक तार बनाते हुए आएँ। यहाँ मुख को बन्दकर 'म' की ध्वनि भ्रमर की तरह करते हुए सहस्रार चक्र तक ले जाकर पूरा श्वास छोड़ दें। इस ध्वनि को अधिक से अधिक लम्बा करने का अभ्यास करें।
लाभ- यह नादयोग है जो मन व नाड़ी संस्थान को शान्त करता है। इसमें एकाग्रता, आती है और सुषुम्ना नाड़ी प्रभावित होती है। आज्ञाचक्र को जागृत करने में नाद योग सहायता करता है।
ज्ञान योग (Gyan Yoga)
(1) यह आध्यात्मिक व प्रज्ञा का मार्ग है।
(2) मिथ्यात्व व अज्ञान के अन्धकार को भेदकर 'स्व' विशुद्ध चेतना या परम तत्व का बोध कराते हैं।
(3) ज्ञान योग की साधना स्वाध्याय और ध्यान मार्ग द्वारा सम्पन्न होती है।
(4) "ऋते ज्ञानान्मुक्तिः" तत्व ज्ञान के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है।
(5) प्रायः ज्ञान को वे ही लोग अपनाते हैं जिनकी बुद्धि तीक्ष्ण होती है व केवल जिज्ञासु ही ज्ञान मार्ग में तत्पर हो सकते हैं।
यन्त्र योग (Yantra Yoga)
जिस प्रकार से मन्त्र योग में शब्द और ध्वनियों से चेतना को प्रभावित किया जाता है वैसे ही यन्त्र योग में दृश्य व आकृति द्वारा चेतना को प्रभावित व विकसित किया जाता है। यन्त्र को खुली आँखों से या बन्द आँखों से मानसिक रूप से देखा जाता है। जैसा कि हम अनेक यन्त्र-श्री यन्त्र आदि का नाम सुनते हैं। अलग-अलग यन्त्रों की अलग-अलग शक्ति होती है।
यन्त्र किसी धातु की प्लेट पर आकृति बनी होती है। धातु पर बनी आकृति तथा उसके गणितीय अंक शक्ति के स्रोत होते हैं। आकृति पर ध्यान लगाए रखने से एकाग्रता बढ़ती है तथा शक्ति अर्जित होती है। आज यन्त्र योग के बारे में इतनी जानकारी नहीं है कि आकृति से इतनी ऊर्जा का प्रवाह कैसे होता है? मन्त्र योग की तरह इससे भी शक्ति प्राप्त होती है तथा उसकी तरह ही इसकी समस्याएँ भी हैं।
तन्त्र योग (Tantra Yoga)
यह भी एक योग प्रणाली है जो मुख्यतः उत्तर भारत व तिब्बत में पाई जाती है। इसमें काम ऊर्जा के ऊर्ध्वारोहण की बात कही जाती है। इस योग में इच्छाओं विशेषतः यौन सम्बन्धी इच्छाओं के परिणाम का उद्देश्य रहता है। तन्त्र के अनुसार, इच्छा एक प्रकार की शक्ति है जिसे नष्ट नहीं किया जा सकता है। इच्छा शक्ति को ऊँचाई तक उठाकर परम तत्व को प्राप्त किया जा सकता है। तन्त्र योग प्रकृति के नियमों से ही प्रकृति पर विजय पाने का उपक्रम करता है।
जीवन में शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक या आधिभौतिक व्याधियों के अवसर पर सामान्यजनों का ध्यान तीन परम्परागत शब्दों पर जाता है- मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र। लोगों का विश्वास है कि इन तीनों में से किसी एक या उनके समुच्चय से संसार की सारी बाधाएँ मिट सकती हैं और सुख प्राप्त हो सकता है। इनमें से सभी पद्धतियों में मन्त्र शब्द बहुत प्रचलित है। ये तीनों शब्द एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं।
सम्भवतः एक-दूसरे के पूरक और घटक भी हैं। 'मन्त्र, तन्त्र और यन्त्र तीनों का अन्योन्य सम्बन्ध है लेकिन उनके लक्षणों में अन्तर है। जहाँ मन्त्र मानसिक क्रिया प्रधान है, वहाँ यन्त्र बीजाक्षरों एवं आकृक्तियों पर आधारित है। तन्त्र भौतिक क्रिया प्रधान है और सगुण उपासना के माध्यम से शक्ति को प्रबल किया जाता है।
फलत-
मन्त्र- मनो-भौतिक (मन-प्रधान शक्ति स्रोत)
तन्त्र- भौतिक (भौतिक क्रिया प्रधान शक्ति स्रोत) एवं
यन्त्र- मन्त्र एवं तन्त्र का अधिकरण है।
प्रार्थना (Player)
प्रार्थना हमारे पूरे व्यक्तित्व पर प्रभाव डालती है और मानसिक योग्यता को बनाए रखती है। प्रार्थना सभी धर्मों में अनेक प्रकार से की जाती है जिसके कारण प्रार्थी का आध्यात्मिकता (Spiritual) की ओर झुकाव बढ़ता है। अधिकतर प्रार्थनाएँ मन्त्रों के रूप में होती हैं। मन्त्र एकल (अकेला) शब्द अथवा शब्द समूह होता है जिसके बार-बार उच्चारण करने की आध्यात्मिकता की ओर लगाव बढ़ता है। 'ऊँ' शब्द सभी मन्त्रों में सबसे ज्यादा प्रचलित है जो कि सभी वेदों और उपनिषदों का सर्वमान्य तत्व है।
अतः इसके अनेक अर्थ निकलते हैं उनमें से सबसे प्रचलित भावार्थ या अर्थ "Welcome to be God" जिसके द्वारा कुछ समय के लिए व्यक्ति ईश्वर से जुड़ जाता है। प्रार्थना, गीत, श्लोक एवं मन्त्र आदि के रूप में की जाती है जिसके कारण पवित्र वातावरण का निर्माण होता है किसी भी अच्छे कार्य को शुरू करने से पूर्व सभी धर्मों में अपनी संस्कृति के अनुसार प्रार्थना की जाती है और यह विचार किया जाता है कि होने वाला कार्य मंगलमय हो।
प्रार्थना का महत्व (Importance of Prayer)
(i) जीवन को शान्तिमय बनाती है।
(ii) मन में आने वाले विकारों का सर्वनाश करती है।
(iii) मन में अहं (Ego) की भावना का नाश करती है।
(iv) भौतिक पदार्थों के प्रति आकर्षण समाप्त करती है।
(v) सद्गुणों का विकास करती है।
(vi) मन में एगाग्रता उत्पन्न करती है।
(vii) मनुष्य में दया, करुणा आदि की भावना पैदा करती है।