व्यापारिक (वाणिज्यिक) सन्नियम अर्थ, परिभाषा एवं क्षेत्र - Business Regulatory Framework

व्यापारिक (वाणिज्यिक) सन्नियम 

बी. एन. राय महोदय के अनुसार-"भारतीय व्यापारिक सन्नियम मुख्यत: इंग्लैण्ड के व्यापारिक सन्नियम की ही नकल है।" 

सन्नियम क्या है? 

राज्य द्वारा समाज में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए, मानवीय आचरण तथा व्यवहारों को व्यवस्थित, नियमित एवं नियन्त्रित करने के उद्देश्य से राज्य द्वारा जो नियम एवं उप-नियम बनाये जाते हैं, उन्हें ही हम 'सन्नियम' कहते हैं। तथा बदलते हुए सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्य में सन्नियम को भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न रूप में देखते हैं। उदाहरण के लिए, यदि सामान्य नागरिक के लिए यह पालन किये जाने वाले नियमों का समूह है, तो वकील के लिए जीवनयापन का साधन (पेशा), न्यायाधीश के लिए निर्देशात्मक सिद्धान्त। समाजशास्त्री के लिए यदि सामाजिक नियन्त्रण का आधार है तो विधायकों के लिए यह वह सन्नियम है जिसे उन्होंने बनाया है। वास्तविकता यह है कि सन्नियम आज हमारे जीवन का एक अनिवार्य अंग बन गया है जिसकी पग-पग पर हमें आवश्यकता पड़ती है, जो हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्द कोष के अनुसार- "किसी समुदाय अथवा समाज के उपयुक्त नियमन के लिए अथवा जीवन में सही आचरण के लिए सत्ता द्वारा बनाये गये नियम ही सन्नियम (कानून) है।" 

ऑस्टिन के शब्दों में- "सन्नियम आचरण के वे नियम है जो प्रभुसत्ता द्वारा प्रभावित एवं प्रवर्तित किये जाते हैं।"

न्यायमूर्ति सालमण्ड के अनुसार- "सन्नियम से आशय राज्य द्वारा मान्य एवं प्रयुक्त उक्त सिद्धान्तों के समूह से है जिनको वह न्यायिक प्रशासन के लिये उपयोग में लाता है।"

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व्यापारिक सन्नियम का अर्थ 

व्यापारिक सन्नियम समाज के लोगों की व्यापारिक क्रियाओं से सम्बन्धित है। यह सन्नियम की वह शाखा है जोकि विभिन्न व्यापारिक अथवा व्यावसायिक सौदों से सम्बन्धित व्यापार अथवा वाणिज्य में लागू होती है अथवा सम्बन्धित है। विस्तृत अर्थ में अगर हम देखें, 'व्यापारिक सन्नियम' से अभिप्राय उन समस्त वैधानिक नियमों, परिनियमों, अधिनियमों एवं उपनियमों से है जो व्यापार के संचालन को नियमित एवं नियन्त्रित करने के उद्देश्य से प्रत्यक्ष रूप में लागू होते हैं।

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व्यापारिक सन्नियम की परिभाषायें

व्यापारिक सन्नियम की प्रमुख निम्नलिखित महत्वपूर्ण परिभाषाएं है जो इस प्रकार से हैं-

1. प्रोफेसर ए. के. सेन के अनुसार- "व्यापारिक सन्नियम के अन्तर्गत वे नियम सम्मिलित हैं जो व्यापारियों, बैंकरों तथा व्यवसायियों के साधारण व्यवहारों पर लागू होते हैं और जो सम्पत्ति के अधिकारों एवं वाणिज्य में संलग्न व्यक्तियों के सम्बन्धों से सम्बन्धित है।"

2. एम. जे. सेठना (M. J. Sethna) के अनुसार- "व्यापारिक सन्नियम उन सारे सन्नियमों का समूह है जिसमे व्यापारिक सम्बन्धों तथा सभ्य समाज में रहने वाले मानव की वाणिज्यिक क्रियाओं से सम्बन्धित सिद्धान्तों का समावेश हो।"

3. प्रोफेसर एम. सी. शुक्ल के अनुसार- "व्यापारिक सन्नियम राजनियम की वह शाखा कही जाती है जो व्यापारिक सम्पत्ति के विषय में व्यापारिक व्यवहारों से उत्पन्न हुए व्यापारियों के अधिकारों एवं दायित्वों को निर्धारित करती है।"

4. कलकत्ता उच्च न्यायालय के अनुसार- "व्यापारिक वादों (Commercial suits) में व्यापारियों, बैंकरों तथा व्यवसायियों आदि के सामान्य निर्धारण व्यवहारों से उत्पन्न हुए वाद सम्मिलित होते हैं। इनके अतिरिक्त, व्यापारियों द्वारा प्रलेखों के माल के आयात-निर्यात, जहाजी यातायात, माल का स्थल, यातायात, बीमा, बैंकिंग, व्यापारिक एजेन्सी और व्यापारिक प्रथाओं तथा ऐसे व्यवहारों में उत्पन्न ऋणों से सम्बन्धित वाद भी इसी श्रेणी में आते हैं।"

5. ए. के. बनर्जी के अनुसार- "व्यापारिक अथवा वाणिज्यिक सन्नियम से आशय राजनियम के उस भाग से है जो व्यापार या वाणिज्य में संलग्न व्यक्तियों के मध्य हुए व्यवहारों से उत्पन्न कर्तव्यों एवं दायित्वों का वर्णन करता है।"

6. वैकटेसन (Venktesan) के अनुसार- "व्यापारिक सन्नियम, सन्नियम की उस शाखा का नाम है जो सामान्यतः व्यापारिक लेन-देनों में उत्पन्न हुए विवादों पर लागू होते हैं।"

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उपयुक्त परिभाषा

व्यापारिक सन्नियम की उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के पश्चात् इसके निष्कर्ष के रूप में उपयुक्त परिभाषा इन शब्दों में प्रस्तुत की जा सकती है- "व्यापारिक अथवा वाणिज्यिक सन्नियम से आशय सरकार द्वारा निर्धारित उन सन्नियमों से है जो कि व्यापारिक अथवा वाणिज्यिक क्रियाओ को नियमित एवं नियन्त्रित करते है। इन सन्नियमों के द्वारा व्यापार या वाणिज्य में संलग्न व्यक्तियों के मध्य हुए व्यवहारों से उत्पन्न कर्तव्यों, अधिकारों एवं दायित्वों को निश्चित किया जाता है।"

व्यापारिक सन्नियम का क्षेत्र

यदि देखा जाय तो व्यापारिक सन्नियम का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक है, क्योंकि यह सन्नियम केवल व्यापारियों एवं उद्योगपतियों पर ही लागू नहीं होता अपितु समाज के सभी व्यक्तियों पर लागू होता है। 

प्रोफेसर ए. के. सेन (Prof. A. K. Sen) के अनुसार, सुविधा की दृष्टि से निम्नलिखित शाखाओं को व्यापारिक सन्नियम में सम्मिलित किया जाता है-

  • अनुबन्ध अधिनियम, 
  • वस्तु विक्रय अधिनियम, 
  • साझेदारी अधिनियम, 
  • कम्पनी अधिनियम, 
  • बीमा अधिनियम, 
  • पेटेन्ट, ट्रेडमार्क एवं कॉपीराइट अधिनियम, 
  • थल द्वारा माल ले जाने से सम्बन्धित अधिनियम, 
  • वाणिज्य प्रतिभूतियों से सम्बन्धित अधिनियम, 
  • पंच निर्णय अधिनियम, 
  • बैंकिंग अधिनियम, 
  • विनिमय साध्य लेख-पत्र अधिनियम, 
  • दिवालिया अधिनियम, 
  • आवश्यक वस्तु अधिनियम, तथा 
  • एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार अधिनियम।
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व्यापारिक सन्नियम का इतिहास

व्यापारिक सन्नियम 'व्यापार रूढ़ि' (Law Merchant) की ही देन है। इंग्लैण्ड में तेरहवीं शताब्दी से पूर्व व्यापार रूढ़ि (Law Merchant) उन नियमों का संग्रह माना जाता था जो कि कॉमन लॉ (Common Law) से बिल्कुल भिन्न था। व्यापारियों के पारस्परिक व्यवहार इन्हीं रूढ़ियों के द्वारा प्रशासित होते थे। उनके विवादों का निर्णय मेलों और मण्डियों में एकत्रित व्यापारियों में से ही कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के समक्ष अथवा उन्हीं के पृथक् न्यायालयों द्वारा किया जाता था, जो कि पीपोण्डूस कोर्ट्स (Courts of Piepondrous) के नाम से प्रसिद्ध थीं और वे इन मामलों का निपटारा बड़ी लगन से किया करती थीं। इन न्यायालयों की अध्यक्षता ऐसे कुशल व्यापारियों द्वारा की जाती थी, जिन्हें व्यापारिक रूढ़ियों (Law Merchants) का पूर्ण ज्ञान होता था। और इन न्यायालयों के द्वारा किये गये फैसलों का पूर्ण सम्मान किया जाता था। उस समय की कार्य-विधि अत्यन्त सरल एवं संक्षिप्त थी।

सत्रहवीं शताब्दी तक उपर्युक्त प्रकार के न्यायालयपूर्ण  पूर्णरूप से लुप्त हो चुके थे, किन्तु उनके द्वारा विकसित रीति-रिवाजो को कॉमन लॉ (Common Law) ने ग्रहण कर लिया था एवं उनका विकास किया गया। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इंग्लैण्ड में वास्तविक रूप से व्यापारिक सन्नियम का विकास हुआ। ये रीति-रिवाजें आज भी इंग्लैण्ड के व्यापारिक सन्नियम का एक प्रमुख अंग मानी जाती हैं।

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भारत में व्यापारिक सन्नियम

सन् 1872 से पूर्व भारत में व्यापारिक सौदे पक्षकारों से सम्बन्धित सन्नियम (जैसे-हिन्दू लॉ, मुस्लिम लॉ आदि) से नियन्वित होते थे। सन् 1872 में भारतीय अनुबन्ध अधिनियम, 1872 बनाते समय प्रथम बार यह प्रयास किया गया था कि भारतीय व्यापारिक सन्नियम के एकरूपता वाले सिद्धान्तों को स्थापित किया जाय।

भारतीय व्यापारिक सन्नियम तो अधिकांशतः इंग्लैण्ड के व्यापारिक सन्नियम पर ही आधारित है। श्री बी. एन. राय के अनुसार, "भारतीय व्यापारिक सन्नियम मुख्यतः इंग्लैण्ड के व्यापारिक सन्नियम की ही नकल है।"

भारतीय व्यापारिक सन्नियम के स्रोत

यदि देखा जाय तो भारतीय व्यापारिक सन्नियम इंग्लैण्ड के व्यापारिक सन्नियम पर ही आधारित है। इसका कारण यह है कि भारतीय व्यापारिक सन्नियमों से सम्बन्धित अधिकतर अधिनियम अंग्रेजी शासन काल में ही निर्मित हुए है। कहीं-कहीं स्थानीय प्रथाओं एवं रूढ़ियों के आधार पर इनमें आवश्यक संशोधन कर दिये गये है। अतः प्रमुख विद्वानों के अनुसार भारतीय व्यापारिक सन्नियम के प्रमुख स्रोत निम्नलिखित है-

1. परिनियम अथवा संसद द्वारा निर्मित किये गये सन्नियम (Statutes)- वे सन्नियम जो कि किसी देश की संसद अथवा विधानसभा द्वारा निर्मित होते हैं, परिनियम अथवा संसद द्वारा निर्मित सन्नियम कहलाते हैं। भारतीय व्यापारिक सन्नियम के निर्माण में भारतीय संसद एवं विधानसभाओं का महत्त्वपूर्ण हाथ रहा है। उदाहरण के लिए, अनुबन्ध अधिनियम, वस्तु विक्रय अधिनियम, साझेदारी अधिनियम एवं कम्पनी अधिनियम आदि इसी प्रकार के अधिनियम है। इनमें से अधिकांश सर्वप्रथम इंग्लैण्ड की संसद में बनाये गये थे और भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल उनमें आवश्यक परिवर्तन करके यहाँ की संसद एवं विधानसभाओं ने उन्हें अधिनियम के रूप में पारित किया।

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2. अंग्रेजी कॉमन लॉ (English Common Law)- इंग्लैण्ड का 'कॉमन लॉ' नियमों का वह समूह है जिसका कि प्रमुख स्रोत सामान्य रूढ़िवादी प्रथाएँ एवं रीति-रिवाजें थीं। भारत में लेखबद्ध अधिनियमों की अपर्याप्तता के कारण हमको विवश होकर अंग्रेजी कॉमन लॉ का सहारा लेना पड़ता है। यदि किसी मामले में भारतीय व्यापारिक सन्नियम के प्रावधान अपर्याप्त हो, तो हमें अंग्रेजी व्यापारिक सन्नियम का सहारा लेना पड़ता है। 

3. साम्य एवं न्याय-सिद्धान्त (Principles of Equity and Justice)- प्राचीन काल में, अन्य देशों की भाँति इंग्लैण्ड में भी राजा जनता की शिकायतो को सुनता व उन पर निर्णय दिया करता था। राजा के द्वारा दिये गये निर्णय को पूर्ण सम्मान प्राप्त था। इसके कुछ समय पश्चात् राजा इन शिकायतों को अपने चान्सलर को प्रेषित (refer) करने लगा। चान्सलर, (जोकि प्रायः पादरी होता था) इन शिकायतों का निबटारा कानून के कठोर नियमों के अनुसार न करके प्राकृतिक न्याय (Natural Justice), शुद्ध अन्तःकरण, स्वयं के सामान्य विवेक एवं समाज तथा माने जाने वाले उचित सिद्धान्तों के अनुसार किया करता था। चान्सलर द्वारा इस प्रकार जिन सिद्धान्तों का अनुसरण होता था, वही 'साम्य सिद्धान्त' (Principles of Equity) के नाम से प्रसिद्ध हुए।

अतः इंग्लैण्ड की भाँति भारत में भी, केवल उन दशाओं में, जहाँ साधारण सन्नियम न्यायपूर्ण हल प्रदान  करने में असफल होता है, न्यायालयों को न्याय के आधार पर निर्णय करने का अधिकार प्राप्त है।

4. भारतीय व्यापारिक रीति-रिवाज (Indian Mercantile Customs and Usages)- देश में प्रचलित रीति-रिवाजों ने भी व्यापारिक सन्नियमों को प्रभावित किया है। भारत के व्यापारिक क्षेत्र में प्रचलित हुण्डी के लेन-देन सम्बन्धी सन्नियम इसका ज्वलन्त उदाहरण है। इसी प्रकार भारतीय अनुबन्ध अधिनियम, 1872 की धारा 1 में यह लिखा हुआ है कि "इस अधिनियम के किसी भी प्रावधान से व्यापार में प्रचलित कोई भी रीति-रिवाज प्रभावित नहीं होगा जब तक कि वह इस अधिनियम के प्रावधानों के प्रतिकूल ही न हो।" इस प्रकार यह स्पष्ट है कि देश के रीति-रिवाजों का व्यापारिक सन्नियम पर गहरा प्रभाव पड़ा है।

5. आधारभूत न्यायिक निर्णय (Leading and Judicial Decisions)- उपर्युक्त महत्वपूर्ण स्रोतों एवं सिद्धान्तों के अतिरिक्त भारतीय न्यायालय प्रायः हाई कोर्ट (High Court) एवं सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के द्वारा दिये गये आधारभूत निर्णय (Leading Cases) का भी सहारा लेते हैं। उदाहरण के लिए, लालमन शुक्ला बनाम गौरी दत्त, मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष आदि के विवाद। अतः इनको भी भारतीय व्यापारिक सन्नियम का एक स्रोत माना जा सकता है।


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प्रश्न- सन्नियम क्या है ?
उत्तर- राज्य द्वारा समाज में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए, मानवीय आचरण तथा व्यवहारों को व्यवस्थित, नियमित एवं नियन्त्रित करने के उद्देश्य से राज्य द्वारा जो नियम एवं उप-नियम बनाये जाते हैं, उन्हें 'सन्नियम' कहते हैं।

प्रश्न- व्यापारिक सन्नियम की परिभाषा दीजिये ?
उत्तर- प्रोफेसर एम. सी. शुक्ल के अनुसार- "व्यापारिक सन्नियम राजनियम की वह शाखा कही जाती है जो व्यापारिक सम्पत्ति के विषय में व्यापारिक व्यवहारों से उत्पन्न हुए व्यापारियों के अधिकारों एवं दायित्वों को निर्धारित करती है।"

प्रश्न- भारतीय व्यापारिक सन्नियम का स्रोत क्या है ?
उत्तर- यदि देखा जाय तो भारतीय व्यापारिक सन्नियम इंग्लैण्ड के व्यापारिक सन्नियम पर ही आधारित है। इसका कारण यह है कि भारतीय व्यापारिक सन्नियमों से सम्बन्धित अधिकतर अधिनियम अंग्रेजी शासन काल में ही निर्मित हुए है।तथा कहीं-कहीं स्थानीय प्रथाओं एवं रूढ़ियों के आधार पर इनमें आवश्यक संशोधन भी कर दिये गये है।

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