वर्धा शिक्षा योजना क्या है, खैर समिति और आचार्य नरेन्द्र देव समिति प्रथम- Full Information

वर्धा शिक्षा योजना क्या है

अंग्रेजों की द्वैध शासन प्रणाली से भारतीय सन्तुष्ट नहीं थे, वे उसकी समाप्ति की माँग कर रहे थे। समय की नब्ज पहचानते हुए ब्रिटिश संसद ने 1935 में 'भारत सरकार अधिनियम 1935' (Government of India Act, 1935) पास किया। यह अधिनियम 1937 में लागू किया गया। इस अधिनियम से भारत में द्वैध शासन की समाप्ति हुई और प्रान्तों में स्वशासन स्थापित हुआ। उस समय भारत 11 प्रान्तों में विभाजित था। इन 11 प्रान्तों में से 7 प्रान्तों में कांग्रेस मन्त्री मण्डल बने और एक नए युग की शुरुआत हुई।

वर्धा शिक्षा योजना क्या है, खैर समिति और आचार्य नरेन्द्र देव समिति प्रथम
उस समय राष्ट्र का नेतृत्व गाँधी जी के हाथों में था। उन्होंने 11 अगस्त, 1937 के अखबार में प्रान्तीय सरकारों को 7 से 14 वर्ष के बच्चों की शिक्षा का भार अपने ऊपर लेने का सुझाव दिया। उसके बाद उन्होंने 2 अक्टूबर, 1937 के हरिजन में लिखा कि प्राथमिक शिक्षा 7 वर्ष या इससे अधिक समय की हो और इसमें अंग्रेजी को छोड़कर वे सब विषय पढ़ाए जाएँ जिन्हें मैट्रीकुलेशन (हाई स्कूल) परीक्षा के लिए पढ़ाया जाता है। साथ ही किसी हस्तशिल्प अथवा उद्योग को अनिवार्य रूप से पढ़ाया सिखाया जाए। गाँधी जी के इन विचारों से देश में एक नई शैक्षिक क्रान्ति का शुभारम्भ हुआ।

अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन, वर्धा

22-23 अक्टूबर, 1937 को वर्धा में 'मारवाड़ी शिक्षा मण्डल' की रजत जयन्ती मनाई जाने वाली थी। श्री मन्नारायण अग्रवाल, इसके आयोजक थे। गाँधी जी ने उन्हें इस अवसर पर एक शिक्षा सम्मेलन का आयोजन करने का सुझाव दिया। अग्रवाल साहब ने इस अवसर पर भारत के सातों कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों के  शिक्षा मन्त्रियों और देश के चोटी के शिक्षाशास्त्रियों, विचारकों और राष्ट्रीय नेताओं को आमन्त्रित किया और 'अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन' का आयोजन किया। इसे 'वर्धा शिक्षा सम्मेलन' भी कहा जाता है। इस सम्मेलन का सभापतित्व स्वयं गाधी जी ने किया था।

और पढ़ें-  आचार्य नरेन्द्र देव समिति द्वितीय 1952-53 

सभापति पद से बोलते हुए गाँधी जी ने अपने शैक्षिक विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने तत्कालीन शिक्षा को अपव्ययपूर्ण और हानिप्रद बताया। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा के सम्बन्ध में 7 मूलभूत बातें कहीं। पहली यह कि देश में 7 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था हो। दूसरी यह कि यह शिक्षा सभी के लिए समान हो। तीसरी यह कि यह शिक्षा देश को ग्रामीण जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप हो। चौथी यह कि इसमें भाषा, गणित आदि की शिक्षा के साथ-साथ बच्चों को सफाई, स्वास्थ्य रक्षा, भोजन के नियम और माता-पिता के कार्यों में हाथ बंटाने की शिक्षा दी जाए। 

यह भी पढ़ें-

पाँचवी यह कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। छठी यह कि इसमें कृषि और भारतीय हस्त कौशलों की शिक्षा दी जाए। और सातवीं तथा अन्तिम यह कि समस्त शिक्षा हस्तकौशलों के माध्यम से दी जाए और शिक्षा को स्वावलम्बी बनाया जाए। उन्होंने इस बात पर बहुत बल दिया कि स्कूलों में होने वाले उत्पादन से स्कूलों का व्यय निकलना चाहिए और इस शिक्षा को प्राप्त करने के बाद बच्चे अपनी जीविका कमाने योग्य होने चाहिए। 

अतः गाँधी जी के इन विचारों पर खुलकर चर्चा हुई और अन्त में निम्नलिखित प्रस्ताव पारित हुए-

(1) राष्ट्र के 7 से 14 आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की जाए। 

(2) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो।

(3) शिक्षा किसी हस्तकौशल के माध्यम से दी जाए।

(4) इस स्तर का पाठ्यक्रम बच्चों की अपनी आवश्यकताओं के आधार पर बनाया जाए।

(5) यह शिक्षा स्वावलम्बी हो, स्कूलों में होने वाले उत्पादन से शिक्षकों के वेतन का भुगतान किया जा सके।

और पढ़ें-  साजेंन्ट योजना क्या है | साजेंन्ट योजना 1944 | साजेंन्ट योजना के सुझाव और सिफरिसें |

डॉ० जाकिर हुसैन समिति, 1937

अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन, वर्धा में प्रस्तावित राष्ट्रीय शिक्षा योजना को अन्तिम रूप देने के लिए जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ० जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इसे 'जाकिर हुसैन समिति' कहा जाता है। समिति ने अपनी रिपोर्ट दो भागों में प्रस्तुत की। प्रथम रिपोर्ट दिसम्बर, 1937 में प्रस्तुत की। इसमें वर्धा शिक्षा योजना के सिद्धान्त, पाठ्यक्रम, प्रशासन और निरीक्षण कार्य पर प्रकाश डाला गया था। दूसरी रिपोर्ट अप्रैल, 1938 में प्रस्तुत की। इसमें आधारभूत हस्तकौशलों से पाठ्यक्रम के अन्य विषयों का सहसम्बन्ध स्थापित करने पर प्रकाश डाला गया था। समिति ने इस योजना को बुनियादी तालीम (Basic Education) का नाम दिया।

यह भी पढ़ें-

शिमला सम्मेलन, 1901, भारतीय विश्वविद्यालय आयोग, 1902 और कर्जन शिक्षा नीति, 1904 

हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन, 1938

फरवरी, 1938 में हरिपुरा में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में डॉ० जाकिर हुसैन समिति की रिपोर्ट को प्रस्तुत किया गया। कांग्रेस ने इसे सर्वसम्मति से स्वीकार किया और साथ ही इसे सभी कांग्रेस शासित प्रदेशों में लागू करने का निर्णय लिया। आज इसे हिन्दी में वर्धा शिक्षा योजना, बुनियादी तालीम, बुनियादी शिक्षा और बेसिक शिक्षा कई नामों से जाना जाता है, परन्तु अंग्रेजी में बेसिक एजुकेशन ही कहा जाता है। उत्तर प्रदेश में इसे बेसिक शिक्षा का नाम दिया गया है, अतः हम इसे बेसिक शिक्षा के नाम से ही प्रस्तुत कर रहे हैं।

बेसिक शिक्षा

डॉ० जाकिर हुसैन द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार जो बेसिक शिक्षा हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में स्वीकार की गई, यहाँ उसका क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत है।

बेसिक शिक्षा की रूपरेखा

प्रारम्भ में बेसिक शिक्षा निम्नलिखित रूप में स्वीकार की गई थी-

(1) 7 से 14 आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की जाए।

(2) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो।

(3) सम्पूर्ण शिक्षा किसी आधारभूत शिल्प अथवा उद्योग पर आधारित हो। 

(4) शिल्प का चुनाव बच्चों की योग्यता और क्षेत्रीय आवश्यकताओं के आधार पर किया जाए।

(5) बच्चों द्वारा निर्मित वस्तुओं का उपयोग हो और उनसे आर्थिक लाभ किया जाए, स्कूलों का व्यय पूरा किया जाए।

(6) शिल्पों की शिक्षा इस प्रकार दी जाए कि उससे बच्चे जीविकोपार्जन कर सकें।

(7) शिल्पों की शिक्षा में आर्थिक महत्व के साथ-साथ उसके सामाजिक एवं वैज्ञानिक महत्व को स्थान दिया जाए।

और पढ़ें- राष्ट्रीय चेतना का विकास | राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन | गोखले बिल और शिक्षा नीति 1913

बेसिक शिक्षा के आधारभूत सिद्धान्त

बेसिक शिक्षा निम्ननिखित आधारभूत सिद्धान्तों पर विकसित की गई थी-

1. शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क बनाने का सिद्धान्त- गाँधी जी शिक्षा को मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की कि किसी भी बच्चे को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखना उसके अधिकार का हनन है, यह कार्य असत्य है और मानवीय कसौटी पर हिंसा है। उन्होंने सर्वप्रथम इस बात पर ही चल दिया कि राज्य को 7 से 14 आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए।

2. शिक्षा को आत्मनिर्भर अर्थात् सैल्फ सर्पोटिंग बनाने का सिद्धान्त- गाँधी जी के सामने सार्वभौमिक, अनिवार्य और निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा का प्रश्न था और उस समय राज्य के पास इसकी व्यवस्था करने के साधन नहीं थे। अतः उन्होंने स्कूलों में हस्तशिल्पों की शिक्षा अनिवार्य करने पर बल दिया। उनका अनुमान था कि बच्चों द्वारा उत्पादित वस्तुओं से स्कूलों का व्यय निकल सकेगा।

3. सत्य, अहिंसा और सर्वोदय का सिद्धान्त- गाँधी जी सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। वे समाज में होने वाले किसी भी प्रकार के शोषण को हिंसा मानते थे। और उस समय अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति सामान्य व्यक्तियों का शोषण कर रहे थे। तभी गाँधी जी ने सबके लिए समान शिक्षा के सिद्धान्त को स्वीकार किया, इसमें छोटे-बड़े का भेद नहीं होगा, कोई किसी का शोषण नहीं करेगा, सबको अपने उत्थान के समान अवसर प्राप्त होंगे।

4. शिक्षा को जीवन से जोड़ने का सिद्धान्त- उस समय अंग्रेजी शिक्षा का भारतीयों के वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं था। गाँधी जी ने शिक्षा को बच्चों के वास्तविक जीवन, उनके प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण और घरेलू एवं क्षेत्रीय उद्योग धन्धों पर आधारित कर उसे उनके वास्तविक जीवन से जोड़ने पर बल दिया।

और पढो-  माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर कमीशन) 1952-53 | Madhyamik Shiksha Aayog 1952-53

5. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा बनाने का सिद्धान्त- गाँधी जी ने स्पष्ट किया कि मातृभाषा पर बच्चों का स्वाभाविक अधिकार होता है, उसी के माध्यम से जन शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है। यही कारण है कि बेसिक शिक्षा में अभिव्यक्ति के आधारभूत माध्यम मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना सिद्धान्तः स्वीकार किया गया।

6. शिक्षा को हस्तकौशलों पर केन्द्रित करने का सिद्धान्त- शिक्षा को किसी हस्तकौशल अथवा उद्योग पर केन्द्रित करने के पीछे गाँधी जी के कई विचार थे। पहला यह कि वे बच्चों को कायिक श्रम का महत्व बताना चाहते थे। दूसरा यह कि वे बच्चों को स्वावलम्बी बनाना चाहते थे, उन्हें जीवीकोपार्जन करने योग्य बनाना चाहते थे। तीसरा यह कि वे सबका उदय करना चाहते थे। चौथा यह कि वे शिक्षा को गाँवों के जीवन से जोड़ना चाहते थे। और पाँचवा एवं अन्तिम यह कि वे शिक्षा को आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे, स्कूलों में होने वाले उत्पादन से स्कूलों का व्यय निकालना चाहते थे।

7. ज्ञान को एक इकाई के रूप में विकसित करने का सिद्धान्त- यदि भौतिक दृष्टि से देखें तो शिक्षा का एक ही लक्ष्य होता है- मनुष्य को वास्तविक जीवन के लिए तैयार करना। तब पाठ्यचर्या के समस्त विषयों एवं क्रियाओं का सम्बन्ध मनुष्य के वास्तविक जीवन से होना चाहिए। इसी दृष्टि से गाँधी जी ने ज्ञान को पूर्ण इकाई के रूप में विकसित करने पर बल दिया था। उनके इसी विचार ने शिक्षण की सहसम्बन्ध विधि को जन्म दिया। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी ज्ञान पूर्ण इकाई होता है, उसे पूर्ण इकाई के रूप में ही विकसित करना चाहिए।

यह भी पढ़ें-

बेसिक शिक्षा के उद्देश्य

बेसिक शिक्षा का अर्थ है- बच्चों को आधारभूत ज्ञान एवं कौशल प्रदान करना, उन्हें सामान्य जीवन के लिए तैयार करना। इस हेतु बेसिक शिक्षा के अग्रलिखित उद्देश्य निश्चित किए गए-

1. शारीरिक एवं मानसिक विकास- गाँधी जी इस तथ्य से अवगत थे कि मनुष्य एक मनोशारीरिक प्राणी है इसलिए उन्होंने सर्वप्रथम उसके शारीरिक एवं मानसिक विकास पर बल दिया और तदनुकूल शिक्षा की पाठ्यचर्या का निर्माण करने पर बल दिया।

2. सर्वोदय समाज की स्थापना- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अतः शिक्षा द्वारा मनुष्य का सामाजिक विकास होना चाहिए। परन्तु गाँधी जी का सामाजिक विकास से एक विशिष्ट अर्थ था। वे एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे जिसमें कोई किसी का शोषण नहीं करेगा, सब एक-दूसरे से प्रेम करेंगे, सब एक-दूसरे का सहयोग करेंगे, सब एक-दूसरे की उन्नति में सहायक बनेंगे, सबका उदय होगा।

3. सांस्कृतिक विकास- उस काल में उच्च वर्ग के भारतीय पाश्चात्य संस्कृति के प्रशंसक होते जा रहे थे। तब गाँधीजी ने बड़े बलपूर्वक लिखा था कि यदि किसी स्थिति में पहुँचकर कोई पीढ़ी अपने पूर्वजों के प्रयासों से पूर्णतया अनभिज्ञ हो जाती है या उसे अपनी संस्कृति पर लज्जा आने लगती है तो वह नष्ट हो जातो है। इसलिए उन्होंने अपनी भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए बेसिक शिक्षा का विधान किया था।

4. चारित्रिक एवं नैतिक विकास- गाँधी जी चरित्र बल के महत्व को जानते थे। उनके साथियों ने भी शिक्षा द्वारा बच्चों के चरित्र निर्माण पर बल दिया। यह बेसिक शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य है।

5. व्यावसायिक विकास- गाँधी जी ने इस सम्बन्ध में दो बात कहीं पहली यह कि बच्चों को जो भी हस्तकौशल सिखाए जाएँ उनसे स्कूलों में इतना उत्पादन हो कि उसके विक्रय लाभ से स्कूलों का व्यय निकाला जा सके और दूसरी यह कि इन हस्तकौशलों अथवा उद्योगों को सीखने के बाद बच्चे अपनी जीविका कमा सकें। गाँधी जी ने आर्थिक अभावों से मुक्ति पाने के लिए इसे सबसे अधिक महत्व दिया। उनके सभी साथी उनके तर्क से सहमत थे।

6. नागरिकता का विकास- राष्ट्र को दृष्टि से व्यक्ति नागरिक कहा जाता है। किसी भी राष्ट्र के नागरिकों के लिए यह आवश्यक होता है कि वे राष्ट्र के नियमों का पालन करें, राष्ट्र के प्रति वफादार हों, अपने कर्तव्यों का पालन करें, अपने अधिकारों की रक्षा करें। किसी भी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का यह प्रमुख उद्देश्य होता है। बेसिक शिक्षा एक राष्ट्रीय शिक्षा योजना है, इसका यह उद्देश्य होना स्वाभाविक है।

7. आध्यात्मिक विकास- गाँधी जी के अपने शब्दों में, शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा के सर्वांगीण और सवर्वोत्कृष्ट विकास से है, तब स्पष्ट है कि गाँधी जी शिक्षा द्वारा मनुष्य का आध्यात्मिक विकास भी करना चाहते थे। पर इसके लिए वे किसी धर्म की शिक्षा दिए जाने के पक्ष में नहीं थे, वे सर्वधर्म समभाव द्वारा इसकी प्राप्ति पर बल देते थे।

और पढ़ें- राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग) 1964-66 | National Education Commission (Kothari Commission)

बेसिक शिक्षा की पाठ्यचर्या

बेसिक शिक्षा के उपर्युक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए निम्नांकित क्रियाप्रधान पाठ्यचर्या का निर्माण किया गया-

1. हस्तकौशल एवं उद्योग (कताई, बुनाई, बागवानी, कृषि, काष्ठ कला, चर्म कार्य, पुस्तक कला, मिट्टी का काम और मछली पालन आदि)।

2 . मातृभाषा

3. हिन्दुस्तानी (हिन्दी), उनके लिए जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है।

4. व्यावहारिक गणित (नाप-तौल, अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित)

5. सामाजिक विषय (इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र एवं सामाजिक अध्ययन)

6. सामान्य विज्ञान (प्रकृति निरीक्षण, बागवानी, वनस्पति विज्ञान, प्राणी विज्ञान, रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान और गृह विज्ञान)

7. संगीत

8. चित्रकला

9. स्वास्थ्य विज्ञान (सफाई, व्यायाम एवं खेलकूद)

10. आचरण शिक्षा (नैतिक शिक्षा, सामाजिक और राष्ट्रीय उत्सवों का मनाना और समाज सेवा कार्य)

विशेष

  • इसमें सर्वाधिक महत्त्व हस्तकौशल एवं उद्योगों को दिया गया था। प्रारम्भ में इसके लिए 5 घण्टे 30 मिनट में से 3 घण्टे 20 मिनट प्रतिदिन का समय निश्चित किया गया था, बाद में यह समय घटा दिया गया।
  • कक्षा 5 तक सबके लिए समान पाठ्यचर्या। कक्षा 6 में छात्राएँ आधारभूत शिल्प में गृह विज्ञान ले सकती थीं। बाद में कक्षा 7 और 8 में वाणिज्य, संस्कृत और आधुनिक भारतीय शिक्षा की व्यवस्था भी की जाने लगी।
  • बेसिक शिक्षा की पाठ्यचर्या में धार्मिक शिक्षा को स्थान नहीं दिया गया है, केवल सर्वधर्मसम्मत नैतिक शिक्षा को ही स्थान दिया गया है।

बेसिक शिक्षा की शिक्षण विधि

बेसिक शिक्षा में परम्परागत कथन और पुस्तक प्रणाली के स्थान पर क्रियाप्रधान शिक्षण विधि पर बल दिया गया है। इस विधि की मुख्य विशेषताएँ हैं-

(1) बेसिक शिक्षा में क्रिया एवं अनुभवों को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है। बच्चों को प्रकृति का निरीक्षण करने और सामाजिक कार्यों में भाग लेने के अवसर दिए जाते हैं और इस प्रकार उन्हें स्वयं अनुभव द्वारा सीखने के अवसर दिए जाते हैं।

(2) बेसिक शिक्षा में समस्त विषयों एवं क्रियाओं को एक-दूसरे से सम्बन्धित करके पढ़ाया जाता है, इसे सहसम्बध विधि कहते हैं। प्रारम्भ में सहसम्बन्ध का आधार किसी हस्तकौशल अथवा उद्योग को ही रक्खा गया था, आगे चलकर प्राकृतिक पर्यावरण अथवा सामाजिक पर्यावरण को भी उसका आधार बनाए जाने की स्वीकृति दी गई। इस विधि में बच्चे वास्तविक परिस्थितियों में वास्तविक क्रियाओं में भाग लेते हुए वास्तविक ज्ञान एवं कौशल प्राप्त करते हैं और उस सबको एक पूर्ण इकाई के रूप में प्राप्त करते हैं।

(3) बेसिक शिक्षा में बच्चों को जीवन की वास्तविक क्रियाओं के माध्यम से वास्तविक ज्ञान कराया जाता है।

(4) बेसिक शिक्षा में मातृभाषा का ज्ञान भी स्वाभाविक रूप से कराया जाता है- पहले मौखिक भाषा (सुनना-बोलना) सिखाई जाती है उसके बाद लिखित भाषा (पढ़ना और लिखना) सिखाई जाती है।

(5) बेसिक शिक्षा में बच्चों को आत्माभिव्यक्ति के स्वतन्त्र अवसर प्रदान किए जाते हैं।

बेसिक शिक्षा में शिक्षक

डॉ० जाकिर हुसैन समिति ने इस बात पर बल दिया कि प्राथमिक स्तर पर पुरुष शिक्षकों के स्थान पर महिला शिक्षिकाओं को वरीयता दी जाए। साथ ही इस बात पर बल दिया कि प्राथमिक शिक्षक कम से कम मैट्रिक पास हों और शिक्षण प्रशिक्षण प्राप्त हों।

बेसिक शिक्षकों का प्रशिक्षण

प्रारम्भ में बेसिक शिक्षा के शिक्षकों के लिए दो प्रकार के प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई-एक तीन वर्षीय प्रशिक्षण की और दूसरी एक वर्षीय प्रशिक्षण की। तीन वर्षीय प्रशिक्षण उनके लिए जिन्हें प्राथमिक कक्षाओं को पढ़ाने का कोई अनुभव नहीं था या तीन वर्ष से कम का अनुभव था और एक वर्षीय प्रशिक्षण उनके लिए जिन्हें तीन वर्ष से अधिक का शिक्षण अनुभव था।

बेसिक शिक्षा में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा

गाँधी जी यह बात जानते थे कि विभिन्न धर्मों वाले इस देश में किसी एक धर्म की शिक्षा देना सभी को स्वीकार नहीं होगा। फिर इस बेसिक शिक्षा को अन्तिम रूप देने वाले भी विभिन्न धर्मावलम्बी थे। यही कारण है कि इसमें धार्मिक शिक्षा को स्थान न देकर सर्वधर्मसम्मत नैतिक शिक्षा देने की ही व्यवस्था की गई।

बेसिक शिक्षा का मूल्यांकन एवं गुण-दोष 

किसी वस्तु, विचार अथवा क्रिया का मूल्यांकन कुछ मूलभूत मानदण्डों के आधार पर किया जाता है। शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसका आयोजन समाज के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है, उसके हित साधन के लिए किया जाता है। तब बेसिक शिक्षा का मूल्यांकन भारतीय समाज के लिए उसकी उपयोगिता के आधार पर किया जाना चाहिए। इस कसौटी पर कसने पर बेसिक शिक्षा में निम्नलिखित गुण-दोष उजागर होते हैं-

बेसिक शिक्षा के गुण

सच बात तो यह है कि सिद्धान्त रूप में तो यह योजना बड़ी उपयोगी नजर आती है परन्तु प्रयोग रूप में एकदम अनुपयुक्त रही है। इसके सिद्धान्तों को ही हम इसके गुण मान सकते हैं।

1. आत्मनिर्भर योजना- उस समय सरकार के पास अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करने के लिए पर्याप्त धन नहीं था। बेसिक शिक्षा को हस्तकौशलों पर आधारित कर उसके द्वारा उत्पादित वस्तुओं के विक्रय से स्कूलों का व्यय निकालने का विचार बड़ा उपयोगी लगता था। ऐसा नहीं हो पाया, यह दूसरी बात है।

2. मनुष्य के सर्वांगीण विकास पर बल- बेसिक शिक्षा में मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं चारित्रिक, व्यावसायिक और आध्यात्मिक विकास पर बल दिया गया है। यह बात दूसरी है कि हम इसके द्वारा इन सब उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं कर सके।

3. वास्तविक जीवन की तैयारी- उस समय हमारा देश ग्रामों का देश था इसलिए बेसिक शिक्षा में बच्चों को ग्रामीण उद्योग-कृषि एवं पशुपालन आदि और ग्रामीण हस्तकौशलों-कताई एवं बुनाई आदि की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाने की व्यवस्था की गई थी और यह आशा की गई थी कि इसे प्राप्त करने के बाद वे अपनी जीविका कमा सकेंगे। सिद्धान्तः यह है कि बात बहुत अच्छी है। परन्तु यह बात दूसरी है कि हम बेसिक शिक्षा द्वारा ऐसा नहीं कर सके।

4. भारतीयों के लिए आधारभूत पाठ्यचर्या- बेसिक शिक्षा भारतीयों के वास्तविक जीवन से सम्बन्धित है। इसमें मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिए समस्त आवश्यक विषयों और सामाजिक क्रियाओं को स्थान दिया गया है और सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें हिन्दुस्तानी (हिन्दी) को पूरे देश के बच्चों के लिए अनिवार्य किया गया है। काश हम ऐसा कर सके होते तो पूरा देश एक सूत्र में बंध गया होता।

5. वर्ग भेद की समाप्ति- हमारे देश में जाति, धर्म और श्रम आदि अनेक आधारों पर अनेक प्रकार के वर्ग हैं। बेसिक शिक्षा में सबके लिए समान शिक्षा और सबके लिए समान सेवा कार्य की व्यवस्था की गई है। इस सबसे वर्ग भेद यदि समाप्त नहीं होगा तो इसे कम तो किया ही जा सकता है।

6. शारीरिक एवं मानसिक श्रम के अन्तर की समाप्ति- उस समय अंग्रेज हमें थोड़ी सी अंग्रेजी सिखा कर बाबू बना देते थे, हमारा ओहदा ऊँचा कर देते थे। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मानसिक श्रम करने वाले शारीरिक श्रम करने वालों को हेय समझने लगे। बेसिक शिक्षा में सभी बच्चों के लिए हस्तकौशल अथवा उद्योग की शिक्षा और समाज सेवा कार्य अनिवार्य किए गए। जब सब श्रम करेंगे तो श्रम करने वालों को हेय कौन समझेगा। इससे वर्ग भेद की समाप्ति होनी चाहिए थी। यह बात दूसरी है कि ऐसा कुछ नहीं हो पाया। 

7. क्रियाप्रधान शिक्षण विधि- बेसिक शिक्षा में वास्तविक परिस्थितियों में वास्तविक क्रियाओं में भाग लेते हुए स्वयं के अनुभव से सीखने के अवसर दिए जाते हैं। यह सीखने की मनोवैज्ञानिक विधि है। इस प्रकार सीखा हुआ ज्ञान एवं कौशल स्थायी होता है।

8. समस्त ज्ञान एवं क्रियाओं में एकीकरण- बेसिक शिक्षा में ज्ञान और क्रिया को अभिन्न माना जाता है और पाठ्यचर्या के समस्त विषयों एवं क्रियाओं को किसी हस्तकौशल अथवा उद्योग अथवा प्राकृतिक पर्यावरण अथवा सामाजिक पर्यावरण के माध्यम से एक इकाई के रूप में विकसित किया जाता है। बेसिक शिक्षा में इसे समवाय विधि कहते हैं। यह शिक्षण की एक उपयुक्त विधि है।

9. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा- यूँ उस समय तक अंग्रेजों ने भी प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषाओं) को ही बना दिया था, परन्तु इसके साथ अंग्रेजी माध्यम के प्राथमिक स्कूल भी चल रहे थे। गाँधी जी ने केवल मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने पर बल दिया। तभी तो समानता आ सकती है।

10. विद्यालय और समाज में निकट का सम्बन्ध- अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली में विद्यालयों का भारतीय जन-जीवन से निकट का सम्बन्ध नहीं था। बेसिक शिक्षा में विद्यालयों और समाज के इस अन्तर को समाप्त किया गया। विद्यालयों में समाज की भाषा, समाज के हस्तकौशल, समाज के उद्योग, समाज के उत्सव और समाज की अन्य क्रियाओं को स्थान दिया गया। इससे विद्यालय और समाज में निकट का सम्बन्ध स्थापित हुआ।

Also Read.... प्राथमिक शिक्षा में अपव्यय और अवरोधन

बेसिक शिक्षा के दोष

सैद्धान्तिक दृष्टि से बेसिक शिक्षा के चाहे जितने गुण गिनाए जाएँ और चाहे जितनी उसकी प्रशंसा की जाए, परन्तु व्यावहारिक रूप में यह एकदम असफल रही है। अतः इसमें निम्नलिखित दोष हैं-

1. अपूर्ण योजना- यूँ तो इसे राष्ट्रीय शिक्षा योजना कहा जाता है परन्तु वास्तव में यह केवल अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की योजना ही है। फिर इसमें केवल ग्रामीण बच्चों की आवश्यकताओं का ध्यान रखा गया है, नगरीय बच्चों की आवश्यकताओं का नहीं।

2. उच्च शिक्षा से सम्बन्ध का अभाव- बेसिक शिक्षा 7 से 14 आयुवर्ग के बच्चों की शिक्षा है। इसकी पाठ्यचर्या केवल इसी आयु वर्ग के बच्चों की और वह भी ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाई गई है। इसका निर्माण करते समय इसका माध्यमिक और उच्च शिक्षा की पाठ्यचर्या से सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया, उसे उच्च शिक्षा का सही आधार नहीं बनाया गया। ऐसा लगता है कि इसके बाद बच्चे पढ़ेंगे ही नहीं। शिक्षा तो क्रमबद्ध रूप से चलनी चाहिए।

3. नगरीय क्षेत्रों के लिए अनुपयुक्त- यह माना कि उस समय भारत ग्रामों का देश था परन्तु प्राथमिक शिक्षा को पाठ्यचर्या को केवल ग्रामीण क्षेत्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति तक सीमित करना उपयुक्त नहीं है। नगरीय बच्चों के जीवन से इसका कोई सम्बन्ध न होना, इसका एक बड़ा दोष है। ऐसा लगता है कि बेसिक शिक्षा केवल भारत को निर्धन जनता के लिए ही बनाई गई है।

4. हस्तकौशलों पर अत्यधिक बल- बेसिक शिक्षा में सबसे अधिक बल हस्तकौशलों की शिक्षा पर दिया गया है। इसे पाठ्यचर्या का केन्द्रीय विषय बनाया गया है और इसी के माध्यम से अन्य सब विषयों एवं क्रियाओं की शिक्षा देने पर बल दिया गया है। जाकिर हुसैन समिति ने तो इसके लिए स्कूली समय के 5 घण्टे 30 मिनट में से 3 घण्टे 20 मिनट निर्धारित किए थे। ऐसा लगता है कि बेसिक शिक्षा के निर्माता भारत को हस्तकौशलों का देश बनाना चाहते थे। फिर स्कूली शिक्षा में किसी विषय अथवा क्रिया को आवश्यकता से अधिक महत्व देने का अर्थ है दूसरे विषयों एवं क्रियाओं को कम महत्व देना। उस स्थिति में बच्चों का सर्वांगीण विकास कैसे किया जा सकता है।

5. कच्चे माल की बरबादी- छोटे-छोटे बच्चों से उत्पादन की आशा करना कोरी कल्पना का विषय है। जो कुछ भी बच्चे स्कूलों में बनाते हैं, वह उपयोग करने योग्य नहीं होता, उसे बाजार में नहीं बेचा जा सकता। इस योजना में कच्चे माल की बरबादी के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगा।

6. समय और शक्ति का अपव्यय- प्राथमिक स्तर पर बच्चों को हस्तकौशलों में दक्षता प्रदान करना सम्भव नहीं। बेसिक शिक्षा में न तो बच्चों को किसी हस्तकौशल में दक्ष किया जा सका और न उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं से स्कूलों का व्यय निकाला जा सका। इसमें कच्चे माल की बरबादी के साथ-साथ बच्चों के समय और शक्ति का अपव्यय भी होता है।

7. शिक्षण विधि अस्वाभाविक- यूँ तो बेसिक शिक्षा में जिस प्रकार शिक्षण करने की बात कही गई है वह एक स्वाभाविक विधि है, मनोवैज्ञानिक विधि है, परन्तु जबरन समवाय करने में उसकी स्वाभाविकता और प्रभाविकता दोनों ही समाप्त हो जाती हैं। फिर पाठ्यचर्या के समस्त विषयों एवं क्रियाओं में एकीकरण करना और वह भी किसी हस्तकौशल, उद्योग, प्राकृतिक पर्यावरण अथवा सामाजिक क्रिया को केन्द्रीय विषय मानकर, कोरी कल्पना की बात है।

8. श्रृंखलाबद्ध शिक्षण असम्भव- अगर पाठ्यचर्या के कुछ विषयों एवं क्रियाओं को समन्वित रूप से विकसित करना सम्भव भी होता है तो दूसरी समस्या उपस्थित होती है, किसी विषय अथवा क्रिया को उसके तार्किक क्रम में प्रस्तुत करने की। समवाय विधि द्वारा क्रमबद्ध शिक्षण किया ही नहीं जा सकता। 

9. धार्मिक शिक्षा का अभाव- बेसिक शिक्षा को भारत की आधारभूत शिक्षा कहा जाता है और आश्चर्य की बात यह है कि इसमें भारतीय समाज के आधारभूत धर्म की शिक्षा को कोई स्थान नहीं दिया गया है, केवल नैतिक शिक्षा को स्थान दिया गया है। गाँधी जी को भय था कि धार्मिक शिक्षा के नाम पर कहीं द्वेष न फैल जाए। क्या कोई धर्म द्वेष की शिक्षा देता है।

बेसिक शिक्षा का प्रभाव

अब थोड़ा विचार करें बेसिक शिक्षा के प्रभाव पर। इस बीच भारत में बेसिक शिक्षा की व्यवस्था की गई, उसे सफल बनाने के लिए खुले हाथों से धन भी व्यय किया गया और उसमें सुधार के लिए युद्ध स्तर पर प्रयत्न भी किए गए, परन्तु परिणाम दुर्भाग्यपूर्ण ही रहा। उत्तर प्रदेश में तो यह योजना सबसे पहले शुरु की गई थी और आज भी चालू है। परन्तु वास्तविकता यह है कि स्कूलों और विभागीय कार्यालयों में बेसिक शब्द का प्रयोग भर हो रहा है, न बेसिक पाठ्यचर्या है, न बेसिक क्राफ्टों के शिक्षण की व्यवस्था है और न समवाय विधि से शिक्षण होता है। इतना अवश्य है कि जो बच्चे बेसिक विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करते हैं वे अन्य स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के सामने अपने को हीन समझते हैं, और अनेक अर्थों में होन होते भी हैं। कहाँ साधन विहीन बेसिक स्कूल और कहाँ चमक-धमक के पब्लिक स्कूल ।

उपसंहार

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बेसिक शिक्षा सिद्धान्तः तो बड़ी उपयुक्त लगती है परन्तु प्रयोग रूप में एकदम असफल रही है। गाँधी जी ने सोचा था कि हस्तकौशलों एवं उद्योगों की शिक्षा से शिक्षा आत्मनिर्भर होगी और इसे प्राप्त करने के बाद बच्चे जीविकोपार्जन कर सकेंगे, परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ, केवल कच्चे माल की बरबादी हुई और समय, शक्ति और धन का अपव्यय हुआ। गाँधी जी ने सोचा था कि इससे वर्ग भेद समाप्त होगा, परन्तु वर्ग भेद और बढ़ गया। गाँधी जी ने सोचा था कि इससे श्रम का महत्व बढ़ेगा परन्तु ऐसा कुछ नही हुआ। परन्तु इस शिक्षा की कुछ बातें बड़ी उपयोगी हैं; जैसे- मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा और क्रिया द्वारा शिक्षा, ये तो किसी भी देश की शिक्षा के लिए उपयोगी हैं, हमारे देश की शिक्षा के लिए भी।

खैर समिति, 1938-39

बुड एवं ऐबट ने सामान्य एवं औद्योगिक शिक्षा के सम्बन्ध में अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को जून, 1937 में प्रस्तुत की थी। अभी सरकार इस पर कुछ निर्णय भी नहीं ले पाई थी कि दिसम्बर, 1937 में डॉ० जाकिर हुसैन समिति ने बेसिक शिक्षा के सम्बन्ध में अपनी रिपोर्ट कांग्रेस के सम्मुख प्रस्तुत की और कांग्रेस ने इसे अपने हरिपुरा अधिवेशन (फरबरी, 1938) में सर्वसम्मति से स्वीकार कर प्रान्तीय कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों के पास भेज दिया। केन्द्रीय सरकार के लिए अब यह आवश्यक हो गया था कि वह इन दोनों रिपोर्टों के आधार पर अपनी नई शिक्षा नीति का निर्माण करे। इस उद्देश्य से उसने बम्बई प्रान्त के तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री बी० जी० खैर की अध्यक्षता में दो समितियाँ नियुक्त कीं। खैर साहब की अध्यक्षता में बनी प्रथम समिति ने अपनी रिपोर्ट 1938 में प्रस्तुत की। 

इस समिति ने बेसिक शिक्षा के सम्बन्ध में अग्रलिखित सुझाव दिए-

  • बेसिक शिक्षा योजना को गाँवों से शुरू किया जाए।
  • यह शिक्षा 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए अनिवार्य की जाए। साथ ही 5 वर्ष की आयु के बच्चों को प्रवेश की छूट हो।
  • इस शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो।
  • इस शिक्षा में किसी बाह्य परीक्षा की व्यवस्था न की जाए।
  • शिक्षा पूरी करने के बाद बच्चों को विद्यालयों से प्रमाणपत्र दिए जाएँ।
  • जो बच्चे बेसिक स्कूलों से दूसरे प्रकार के प्राथमिक स्कूलों में जाना चाहें, उन्हें कक्षा 5 पास करने के बाद ही जाने दिया जाए।

समालोचना

यूँ उस समय केन्द्रीय सरकार ने खैर समिति के इन सुझावों का स्वागत किया था, परन्तु आज के भारत के सन्दर्भ में ये सारे सुझाव अर्थहीन हैं।

खैर साहब की अध्यक्षता में बनी द्वितीय समिति ने अपनी रिपोर्ट 1930 में प्रस्तुत की। इस समिति ने बेसिक शिक्षा के सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिए-

(1) बेसिक शिक्षा का 6 से 14 वर्ष तक का 8 वर्षीय पाठ्यक्रम दो भागों में बाँट दिया जाए।

  • जूनियर कोर्स 5 वर्ष (कक्षा 1 से 5 तक)
  • सोनियर कोर्स 3 वर्ष (कक्षा 6 से 8 तक)

(2) जो बच्चे किसी बेसिक विद्यालय से किसी अन्य प्रकार के विद्यालय में जाना चाहें उन्हें कक्षा 5 के बाद ही जाने दिया जाए।

(3) जो बच्चे जूनियर बेसिक शिक्षा उत्तीर्ण करने के बाद अन्य विद्यालयों में जाएँ उनका पाठ्यक्रम 5 वर्ष (कक्षा 6 से 10 तक) का हो और यह पाठ्यक्रम विविध हो, इसमें औद्योगिक विषयों का समावेश किया जाए।

(4) साथ ही यह पाठ्यक्रम ऐसा हो जिसे पूरा करने के बाद बच्चे उच्च शिक्षा में प्रवेश ले सकें।

समालोचना

केन्द्रीय सरकार ने द्वितीय खैर समिति के इन सुझावों को स्वीकार करते हुए बेसिक शिक्षा का पाठ्यक्रम 8 वर्षीय कर दिया और इसे दो भागों में बाँट दिया- कक्षा 1 से 5 तक (3 वर्षीय) और कक्षा 6 से 8 तक (3 वर्षीय)। आज भारत के अधिकतर प्रान्तों में यही संरचना लागू है और जहाँ तक प्रथम 10 वर्षीय (5+5) शिक्षा प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा में प्रवेश की बात है, वह तो अब अर्थहीन है- अब तो पूरे देश में 10+2+3 शिक्षा संरचना लागू है।

आचार्य नरेन्द्र देव समिति-प्रथम (1939)

जिस समय जून, 1937 में वुड एवं ऐबट रिपोर्ट प्रस्तुत हुई और दिसम्बर 1937 में जाकिर हुसैन समिति रिपोर्ट प्रस्तुत हुई, उस समय तत्कालीन संयुक्त प्रान्त में कांग्रेस मन्त्रिमण्डल था। प्रान्तीय सरकार ने डॉ० जाकिर हुसैन समिति द्वारा प्रस्तावित बेसिक शिक्षा को प्रान्तीय सन्दर्भ में देखने-समझने और उसके आधार पर माध्यमिक शिक्षा के स्वरूप को निश्चित करने के लिए आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया जिसे आचार्य नरेन्द्र देव समिति-प्रथम के नाम से जाना जाता है। इस समिति के अन्य मुख्य सदस्य थे-डॉ० जाकिर हुसैन। सरकार ने इस समिति को प्रदेश में प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन के सम्बन्ध में अपने सुझाव देने को कहा। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट 1939 में ही प्रस्तुत कर दी। 

अतः इस समिति ने निम्नलिखित सुझाव दिए- 

(1) सभी माध्यमिक विद्यालयों (हाई स्कूल और इण्टरमीडिएट कॉलिजो) को माध्यमिक कॉलिजों में बदल दिया जाए। इनकी शिक्षा अवधि वर्ष (कक्षा 6 से 11) की हो। ये अपने में सुसंगठित पूर्ण इकाई हो।

(2) जूनियर बेसिक शिक्षा उत्तीर्ण छात्रों को माध्यमिक कॉलिजओं की कक्षा 6 में प्रवेश दिया जाए और सीनियर बेसिक उत्तीर्ण छात्रों को कक्षा 9 में।

(3) माध्यमिक शिक्षा का उद्देश्य बालकों को समाज का उपयोगी नागरिक बनाना होना चाहिए।

(4) माध्यमिक शिक्षा का स्तर ऊँचा उठाया जाए, इसके पाठ्यक्रम का निर्माण विशेषज्ञों द्वारा कराया जाए। समिति की सम्मति में इस स्तर पर भाषा, साहित्य, सामान्य ज्ञान, अंग्रेजी, समाज विज्ञान और विज्ञान विषय अनिवार्य होने चाहिए और गणित, कला और औद्योगिक, तकनीकी एवं वाणिज्य विषय ऐच्छिक होने चाहिए।

(5) छात्रों का चरित्र निर्माण करने, उनमें राष्ट्रीय प्रेम और समाज सेवा की भावना उत्पन्न करने और नेतृत्व क्षमता उत्पन्न करने के लिए विद्यालयों में वाद-विवाद, समाज सेवा कार्य और स्काउटिंग आदि की व्यवस्था की जाए।

(6) छात्रों को विद्यालयों में अवकाश के समय पढ़ने के लिए वाचनालयों की व्यवस्था की जाए।

(7) शिक्षा का माध्यम हिन्दुस्तानी हो।

(8) इस स्तर के लिए हिन्दुस्तानी में उच्च स्तरीय पाठ्य पुस्तकें तैयार की जाएँ।

(9) परीक्षा को केवल ज्ञानपरक ही नहीं अपितु आचार-विचार परक बनाया जाए।

(10) स्त्री शिक्षा के विकास के लिए प्रारम्भ से ही प्रयास किए जाएँ। बालिकाओं के लिए गृह विज्ञान विद्यालयों की स्थापना की जाए।

(11) शिक्षकों के प्रशिक्षण की उचित व्यवस्था की जाए। इसके लिए प्रान्त में एक आदर्श केन्द्रीय शिक्षा प्रशिक्षण संस्थान (Central Pedagogical Institute) खोला जाए।

(12) शिक्षकों को आर्थिक और सामाजिक दशा में सुधार किया जाए।

समालोचना

आज की दृष्टि से 6 वर्षीय (कक्षा 6 से 11 तक) माध्यमिक शिक्षा का सुझाव उपयुक्त नहीं था। इन सुझावों में माध्यमिक शिक्षा के केवल दो उद्देश्यों पर बल दिया गया है- एक उपयोगी नागरिकों का निर्माण और दूसरा बच्चों का चरित्र निर्माण। माध्यमिक शिक्षा तो बहुउद्देश्यीय होनी चाहिए। इस समिति ने माध्यमिक स्तर की पाठ्यचर्या के लिए अनिवार्य और ऐच्छिक विषयों को जो सूची बनाई थी, वह भी आज अर्थहीन हो गई है। हाँ, शिक्षा का माध्यम हिन्दुस्तानी बनाने और प्रान्त में शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए केन्द्रीय शिक्षा प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना का सुझाव बहुत अच्छा रहा। 

परन्तु इससे पहले कि ये सुझाव माने जाते 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया। अंग्रेजों ने इसमें भारत को भी धकेल दिया। इसके विरोध में सभी प्रान्तीय कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों ने त्यागपपत्र दे दिए, संयुक्त प्रान्त के मन्त्रिमण्डल ने भी। परिणाम यह हुआ कि समिति की सिफारिशे क्रियान्वित होने के बजाए फाइलों में दब गई। हाँ, जब 1944-45 में संयुक्त प्रान्त में पुनः कांग्रेस मन्त्रिमण्डल बना तो इस समिति के कुछ सुझावों को लागू किया गया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इन सब सुझावों पर पुनः विचार होने शुरु हो गए।

Post a Comment

Previous Post Next Post