ऋग्वेद आर्यों का प्राचीनतम ग्रन्थ माना जाता है। इसमें लगभग 1028 सूत्र हैं जो कि 10 मण्डलों में विभाजित हैं। ऋग्वेद से ही हमें आर्यों के प्रारम्भिक जीवन की पूरी जानकारी प्राप्त होती है। इसी वेद से ऋग्वैदिक सभ्यता के सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक जीवन की पूर्ण जानकारी प्राप्त होती है-
वैदिक काल की (ऋग्वेदकालीन) सामाजिक दशा
ऋग्वैदिक आर्यों की सामाजिक दशा की जानकारी ऋग्वेद से मिलती है। ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि इस काल के आर्यों ने भ्रमणकारी जीवन का परित्याग कर सामाजिक जीवन का विकास कर लिया था। अब उनके जीवन में स्थायित्व आ गया था। समाज का संगठन हो गया था।
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सामाजिक संगठन की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार थीं-
(1) पारिवारिक जीवन
आर्यों के समाज की आधारभूत इकाई परिवार थी। ऋग्वेदकालीन परिवार पितृसत्तात्मक था अर्थात् किसी भी परिवार का मुखिया उस परिवार का सर्वाधिक आयु वाला पुरुष होता था। वह पितामह, पिता, चाचा, बड़े पुत्र में से कोई भी हो सकता था। परिवार के मुखिया का सम्पूर्ण परिवार पर पूर्ण अधिकार होता था तथा अन्य सदस्यों को उसकी आज्ञा का पालन करना आवश्यक था। तत्कालीन समाज में जन व धन की सुरक्षा के लिए सामूहिक परिवार (Joint Family) की व्यवस्था परम आवश्यक थी। परिवार में गृह-पत्नी का विशिष्ट महत्व एवं आदर था। गृह-पत्नी पर घरेलू कार्यों का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व होता था। पुत्र न होने पर गोद लेने की प्रथा का भी प्रचलन था। परिवार में कभी-कभी सास (Mother-in- law) के रहने का भी उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। अतिथि का अत्यधिक आंदर-सत्कार करने की प्रथा थी।
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(2) भोजन एवं पेय
ऋग्वेदकालीन व्यक्तियों के भोजन में दूध का विशेष महत्व था। दूध तथा उससे बनने वाली अन्य वस्तुओं (घी, पनीर) का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता था। अनाज को पीसकर उसमें घी अथवा मक्खन मिलाकर केक की तरह प्रयोग में लाया जाता था। सब्जियों एवं फलों को भी खाया जाता था। भोजन मात्र शाकाहारी ही नहीं माँसाहारी भी होता था। प्रायः भेड़, बकरी व बैल का गोश्त भूनकर ही लोग खाते थे। गाय को पवित्र मानकर उसका गोश्त नहीं खाया जाता था। ऋग्वेद में यद्यपि मदिरा-पान को 'धार्मिकता एवं अपराध-प्रेरक' (Leading people to crime and godlessness) बताया गया है, परन्तु मदिरा-पान का अत्यधिक प्रचलन था।
(3) वेश-भूषा एवं प्रसाधन
ऋग्वैदिक आर्यों की वेश-भूषा साधारण थी। आर्य सूती, ऊनी व रंग-बिरंगे कपड़े पहनते थे। मृग छाल का भी प्रयोग किया जाता था। आयर्यों की पोशाक में प्रारम्भ में प्रमुख दो वस्त्र होते थे। 'वास' (Vasas) जो शरीर के नीचे के भाग पर पहना जाता था, दूसरे शब्दों में, वास की एक प्रकार से धोती से तुलना की जा सकती है। दूसरा 'वस्त्र' अधिवास' (Adhivasa) होता था जो शरीर के ऊपरी भाग पर पहना जाता था। बाद में एक अन्य वस्त्र 'नीवी' (Nivi) का भी प्रयोग होने लगा था। नीवी को 'वास' के नीचे पहनते थे। विवाह के अवसर पर वधू एक विशेष वस्त्र धारण करती थी जिसे 'वधूय' (Vahuya) कहते थे। आभूषण स्त्री व पुरुष समान रूप से धारण करते थे।
(4) मनोरंजन
जीवन के प्रति आयर्यों का स्वस्थ एवं आशावादी दृष्टिकोण था। वे जीवन को अधिक-से-अधिक सुखद तरीके से व्यतीत करना चाहते थे। रथदौड़, घुड़दौड़, शिकार, छूत, नृत्य एवं संगीत आदि आर्यों के मनोरंजन के प्रमुख साधन थे। उत्सव के अवसर पर स्त्री और पुरुष दोनों ही नृत्य और संगीत में भाग लेते थे। वीणा, मजीरे, ढोल, बाँसुरी, शंख आदि वाद्य-यन्त्रों से आर्य लोग भली भाँति परिचित थे। यद्यपि ऋग्वेद में जुआ को निन्दनीय कहा गया है, किन्तु फिर भी आर्य जुआ खेलकर अपना मनोरंजन किया करते थे।
(5) शिक्षा
ऋग्वेद में उपनयन संस्कार का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता यद्यपि इस संस्कार का उत्तर वैदिक काल में अत्यधिक महत्व था। विद्यार्थियों को गुरु के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजा जाता था। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य धार्मिक एवं साहित्यिक शिक्षा प्रदान करना था जिसके द्वारा आर्य-संस्कृति का प्रचार हो सके। ऋग्वैदिक काल में लोगों को लिखने का ज्ञान था अथवा नहीं, यह सन्देहास्पद है। अधिकांश विद्वानों का मत है कि ऋग्वैदिक लोगों को लिखने (writing) का ज्ञान नहीं था।
(6) औषधियों का ज्ञान
ऋग्वेद में चिकित्सकों का भी उल्लेख मिलता है जिन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। ऋग्वेद में प्रमुख बीमारी का नाम यक्ष्मा (Yakshma) बताया गया है। जड़ी-बूटियों का ही प्रमुखतया औषधियों के रूप में प्रयोग किया जाता था। शल्य-चिकित्सा (Surgery) का भी ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है।
(7) जाति प्रथा
ऋग्वैदिक समाज में वर्ण-व्यवस्था का अस्तित्व था अथवा नहीं, इसमें विद्वानों में परस्पर मतभेद है। परन्तु ऋग्वेद में कहीं भी वैश्य एवं शूद्र शब्द का प्रयोग नही किया गया है। जहाँ तक ब्राह्मण एवं क्षत्रिय शब्दों का प्रश्न है सम्भवतः इसका तात्पर्य मात्र यह था कि जो युद्धों में भाग लेते थे, उन्हें क्षत्रिय व पूजा-पाठ में लीन रहने वाले लोगों को ब्राह्मण कहा गया। अतः यदि यह मान भी लें कि ऋग्वैदिक काल में जाति प्रथा थी तो निश्चित रूप से यह जन्म पर नहीं वरन् कर्म पर आधारित थी।
(8) विवाह (Marriage)
ऋग्वैदिक युग में बाल-विवाह का प्रचलन नहीं था। तत्कालीन समाज में बहन व भाई, पिता एवं पुत्री तथा माँ व पुत्र का परस्पर विवाह निषेध था। ऋग्वेद में एक स्थान पर वर्णित है कि यमी अपने भाई यम से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए कहती है तो यम निम्न शब्दों में उसे समझाता है-"यमी, तुम किसी अन्य पुरुन का आलिंगन करो। जैसे लता वृक्ष का वेष्ठन करती है उसी प्रकार अन्य पुरुष तुम्हें आलिंगन करें। उसी के मन का तुम हरण करो, इसी में मंगल होगा।"
ऋग्वैदिक समाज में विवाह एक धार्मिक एवं पवित्र कार्य समझा जाता था। विवाह के बिना जीवन अपूर्ण माना जाता था। यज्ञ के समय पति एवं पत्नी दोनों का उपस्थित होना आवश्यक था। साधारणतः बालिकाएँ अपने पिता की आज्ञानुसार विवाह करती थीं, परन्तु साथ ही बालिकाएँ अपने पति को चुनने के लिए स्वतन्त्र थीं। साधारण वर्ग में एक पत्नी तथा उच्च एवं धनी वर्गों में बहुपत्नी प्रथा प्रचलित थी। सजातीय तथा अन्तर्जातीय दोनों प्रकार के विवाह प्रचलित थे। आजीवन अविवाहिता रहने वाली कन्याओं के भी उल्लेख मिलते हैं। ऐसी कन्याओं को अमाजू कहा जाता था। पुनर्विवाह का प्रचलन था, विधवा स्त्री अपने देवर या किसी अन्य से विवाह कर संकती थीं। 'पाणिग्रहण' और 'अग्नि परिक्रमा' ये दो विवाह के प्रमुख संस्कार थे।
(9) स्त्रियों की स्थिति
यद्यपि ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था, किन्तु इतना होने पर भी स्त्रियों को समाज में सम्माननीय स्थान प्राप्त था। स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी। विदुषी महिलाओं को समाज में उच्च स्थान प्राप्त था। घोषा, अपाल आदि इस काल की विदुषी महिलाएँ थीं। पत्नी के रूप में स्त्रियाँ धार्मिक आयोजनों एवं अनुष्ठानों में भाग लेती थीं। पत्नी के बिना धार्मिक अनुष्ठान अधूरा समझा जाता था। इस काल में स्त्रियों को सम्पत्ति का अधिकार प्राप्त नहीं था। स्त्रियाँ पर्दा नहीं करती थीं।
वैदिक काल की आर्थिक स्थिति
ऋग्वैदिककालीन आर्थिक स्थिति पर ऋग्वेद से व्यापक प्रकाश पड़ता है-
(1) कृषि
ऋग्वैदिककालीन अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि थी। सम्भवतः यह आर्यों की प्राचीन वृत्ति थी। हल तथा बैलों का प्रयोग खेती के लिए किया जाता था। ऋग्वेद में साँड़ द्वारा हल खाँचने, हल से बनी नालियों में बीज बोने, दराँती से फसल काटने आदि का उल्लेख मिलता है। भूमि की उर्वरकता बढ़ाने के उद्देश्य से खाद का भी प्रयोग किया जाता था तथा भूमि की सिंचाई की जाती थी। विभिन्न फसलों के लिए अलग-अलग ऋतुएँ निर्धारित थीं। प्रमुखतया एक वर्ष में दो फसलें उगाई जाती थीं।
(2) पशुपालन
पशुपालन आयर्यों की विशिष्ट वृत्ति थी। कृषि के लिए भी पशु-पालन में रुचि आवश्यक थी। ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर पशु- धन की वृद्धि के लिए देवताओं की आराधना की गयी है। पशुओं में गाय का विशिष्ट महत्व था तथा उसकी देखभाल की जाती थी। पशुओं के कानों पर निशान अंकित किया जाता था ताकि उसके स्वामी द्वारा उसकी देखभाल तथा उसकी पहचान की जा सके।
(3) आखेट
ऋग्वैदिक लोग जीवन निर्वाह व अपने पशुओं की रक्षा करने के लिए शिकार भी करते थे। शिकार के लिए धनुष-बाण का हो मुख्यतः प्रयोग किया जाता था। ऋग्वेद में निधापति (चिड़ीमार) का भी उल्लेख मिलता है जो जाल व फन्दों का प्रयोग करता था। सिंह आदि पकड़ने के लिए भूमि में गड्डे खोदे जाते थे। दासों एवं सेवकों के लिए मछली पकड़ना अथवा शिकार खेलना निषिद्ध था।
(4) लघु उद्योग
ऋग्वैदिक समाज में अनेक लघु उद्योग उन्नत स्थिति में थे। कला कौशल एवं दस्तकारी का भी आर्थिक व्यवस्था में प्रमुख योगदान था। बढ़ईगीरी तत्कालीन समाज में एक सम्मानित दृष्टि से देखी जाती थी क्योंकि बढ़ई युद्ध एवं दौड़ों के लिए रथ व परिवहन के प्रमुख साधन बैलगाड़ी का निर्माण करता था। ऋग्वेद में लुहार का भी उल्लेख मिलता है जो अस्त्र-शस्त्र, हल-फलक व घरेलू वर्तनों को बनाता था।
ऋग्वेद में चर्मकार का भी उल्लेख है जो चमड़े को साफ करके धनुष को डोरियाँ, गोफिये, चर्मरज्जुएँ आदि बनाता था। स्त्रियाँ भी इस युग में अनेक कार्य करती थीं। स्त्रियों के द्वारा किये जाने वाले प्रमुख व्यवसायों में कपड़ा बुनना, सिलाई करना व घास की चटाई आदि बनाना उल्लेखनीय है। तत्कालीन समाज की उल्लेखनीय बात यह है कि उपर्युक्त किसी भी व्यवसाय को हीन नहीं समझा जाता था।
(5) व्यापार एवं वाणिज्य
ऋग्वैदिककाल में स्वदेशी एवं विदेशी दोनों प्रकार के व्यापार होते थे यद्यपि सौदा पटाने में झड़ी नाप-तौल होती थी, किन्तु एक बार सौदा तय हो जाने पर उसका निर्वाह किया जाता था। अधिक लाभ के लिए अन्य देशों से व्यापार करने का भी ऋग्वेद में वर्णन है। विदेशों से व्यापार करने के लिए व्यापारी समूह में जहाज में जाते थे।
वैदिककालीन धार्मिक दशा
ऋग्वेद में जिन देवताओं की पूजा-अर्चना एवं स्तुतियाँ मिलती हैं वे प्राकृतिक तत्वों में निहित शक्तियों के प्रतीक है। ऋग्वैदिककालीन ऋषि संसार में विभिन्न प्राकृतिक शोभाओं को देखकर प्रभावित हुए, व उनमें वे नैसर्गिक शक्तियों का अनुभव करते थे। इन नैसर्गिक शक्तियों को ऋषियों ने देवताओं की उपलब्धि मानकर देवताओं के विषय में उत्पन्न विभिन्न भावों को वाक्यों के रूप में परिणित कर दिया। इन पवित्र वाक्यों के द्वारा देवताओं की आराधना की जाने लगी।
(1) यज्ञ
ऋग्वेदकाल में अनेक यज्ञ प्रचलन में थे। यज्ञों का आयोजन घरों तथा सामूहिक रूप से भी किया जाता था। यज्ञों में राजा तथा प्रजा दोनों ही भाग लेते थे। यज्ञों में विभिन्न श्रेणी के पुरोहित होते थे। 'होता' मन्त्रोच्चारण' अध्वर्य' पूजा से सम्बन्धित हाथ के काम तथा 'उदमाता' सामवेद का गान करता था। यज्ञों का स्वरूप एवं पद्धति अत्यन्त जटिल थी। कभी-कभी यज्ञ में पशुबलि भी दी जाती थी।
(2) तप
ऋग्वेद काल में 'तप' अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हो गये थे। महीनों अथवा वर्षों तक एक ही मुद्रा में खड़े रहना, अल्प भोजन ग्रहण कर जीवन यापन करना, नुकीले काँटों पर पड़े रहना, सर्दियों में ठण्ड तथा गर्मियों में धूप में खड़े रहना आदि अन्य यातनाएँ तप की मुख्य क्रियाएँ थीं। ऋग्वेदकालीन लोगों के द्वारा पूजा एवं यज्ञ मुख्यतः कुछ न कुछ प्राप्त करने की अभिलाषा से ही किया जाता था। यज्ञ में पुरोहित का अत्यन्त प्रमुख एवं महत्वपूर्ण कार्य होता था तथा वे यज्ञ के लिए परम आवश्यक समझे जाते थे।
(3) देवताओं का वर्गीकरण
ऋग्वैदिककालीन लोग प्रकृति के उपासक थे जहाँ कहीं भी उन्हें किसी जीवित शक्ति का आभास हुआ वहीं उन्होंने एक देवता की सृष्टि कर दी। इसी कारण ऋग्वैदिककाल के प्रारम्भ में देवता प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक थे।
(4) धार्मिक दर्शन
यद्यपि ऋग्वेद में स्वर्ग एवं नरक का उल्लेख मिलता है तथापि ऋग्वैदिककालीन लोग मृत्यु के बाद क्या होता है इसकी परवाह नहीं करते थे। ऋग्वैदिककालीन लोग देवताओं को अपना मित्र समझते थे। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि देवता उनका अहित नहीं करेंगे इसलिए वे उनसे भयभीत नहीं होते थे।