उत्तर वैदिककालीन सभ्यता
साधारणतः उत्तर वैदिक काल 1000-600 ई. पू. का माना जाता है। उत्तर वैदिक काल में आर्य सभ्यता का विस्तार अधिक भागों में हो गया था। कुरु, पांचाल, कोशल, काशी, मगध व बंग आदि साम्राज्यों की स्थापना भी उल्लेखनीय है। प्राचीन आर्यों का उत्तर-पश्चिमी भारत अब उपेक्षित हो गया था तथा आर्य संस्कृति का केन्द्र अब कुरुक्षेत्र बन गया था। अब विन्ध्याचल के मध्य का सम्पूर्ण भाग आर्यों के प्रभाव क्षेत्र में आ गया।
ऋग्वैदिक काल में सिर्फ ऋग्वेद की ही रचना की गई थी, किन्तु उत्तर वैदिक काल में शेष तीनों वेद (सामवेद, यजुर्वेद व अथर्ववेद), ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद् एवं आरण्यक की रचना हुई। इस युग में आर्यों की राजनीतिक, सामाजिक, ऑर्थिक एवं धार्मिक स्थिति में ऋग्वैदिक काल की तुलना में, बहुत अन्तर आ गया था।
अतः अध्ययन की सुविधा के दृष्टिकोण से इस युग की व्यवस्था को, निम्नलिखित शीर्षकों के आधार पर स्पष्ट कर सकते हैं-
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(1) ) राजनीतिक स्थिति
राजा यां सम्राट् का पद वंशानुगत होता था। राज्याभिषेक के अवसर पर राजसूय या अश्वमेध यज्ञ आयोजित होता था। राजा पद ग्रहण करने पर शपथ लेता था कि यदि वह प्रजा पर अत्याचार करेगा तो उसका स्वयं का लोक-परलोक व सन्तान नष्ट हो जाएगी। राजा पर सभा-समिति नियन्त्रण रखती थी कि वह निरंकुश न हो जाए। तत्कालीन राजनीति धर्माश्रित थी। राजा युद्ध का नेतृत्व करता था। राजा न्याय सम्बन्धी कार्य भी करता था। राजा को शासन में सहायता देने को 12 अधिकारी (जिन्हें 'रत्निन' कहते थे) होते थे। सभा समिति आय-व्यय, युद्ध व सन्धि आदि का निर्णय करती थी। 'ग्रामणी' ग्राम का सर्वोच्च पदाधिकारी होता था। उसके ऊपर देशग्रामी, विशगामी व शतगामी थे। सर्वोच्च अधिपति एक सहस्र ग्रामों का अधिपति होता था। राज्य की आय के मुख्य साधन भूमि तथा व्यापार कर थे।
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(2) सामाजिक स्थिति
इस काल में वर्णाश्रम व्यवस्था जटिल हो गई थी। अब चतुर्वर्ण, में कर्म नहीं, आनुवंशिकता का पुट आ गया था। स्त्रियों की दशा निम्न हो गई थी। उन्हें वह प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं रह गई जो ऋग्वैदिक काल में थी। उन्हें उपनयन का अधिकार नहीं रह गया। विवाह की प्रथा में कोई परिवर्तन नहीं आया। दहेज प्रथा प्रचलित थी। बहुविवाह व विधवा विवाह का प्रचलन था। जीवन को चार आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास में बाँटा गया। चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष थे।
इनकी प्राप्ति के लिए ही आश्रम व्यवस्था बनी। आर्यों की वेशभूषा तथा खानपान में परिवर्तन नहीं आया। यह ऋग्वैदिक काल के सदृश ही था। उत्तर वैदिक काल में शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन हुए। आध्यात्मिक एवं सांसारिक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना ही सम्भवत: शिक्षा का प्रमुख ध्येय था। उपनयन संस्कार के पश्चात् विद्यार्थी को गुरु के आश्रम में भेजा जाता था, जहां गुरु व शिष्य के मध्य सीधा सम्पर्क रहता था। गुरु अपने शिष्यों को वेद, उपनिषद, व्याकरण के अतिरिक्त व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा भी देता था।
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(3) आर्थिक स्थिति
इस काल में पर्याप्त आर्थिक उन्नति हुई, क्योंकि बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए कृषि व व्यवसाय में प्रगति आवश्यक हो गई। इस काल की आर्थिक स्थिति को निम्न शीर्षकों के आधार पर स्पष्ट कर सकते हैं-
(i) कृषि- आर्थिक व्यवस्था का मूलाधार कृषि थी। 24 बैलों से जोते जाने वाले हल का परिचय 'काठक संहिता' में मिलता है। जौ, गेहूँ, कन, तिल आदि की खेती होती थी। गोबर का खाद के रूप में प्रयोग होता था। खेती के तरीकों, बीज, फसल आदि के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण विकास हुआ था। किस ऋतु में कौन-सा अनाज बोया जाए, इस बात का भी उल्लेख मिलता है। फलों के भी बाग लगाए जाते थे। उपनिषदों के अनुसार आंधी-पानी, तुषारपात तथा टिड्डी दल कृषि को बहुत नुकसान पहुँचाते थे।
(ii) पशुपालन- इस क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति हुई। पशुपालन अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार या। अधिक-से-अधिक गायों का पालना वैभव की निशानी समझा जाता था। दुध के लिए गाय, हल जोतने के लिए बैल तथा रथों के लिए घोड़े पाले जाते थे। इसके अतिरिक्त बकरी तथा भेड़ों का भी पालन होता था। पशुओं एवं खेतों की सुरक्षा के लिए कुत्ते पाले जाते थे। लोग अब हाथी भी पालने लगे थे।
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प्राचीन भारतीय शिक्षा | Ancient Indian Education(iii) उद्योग-धन्धे- इस काल में व्यवसायों की संख्या बढ़ गई थी। मछुआ, सारथि धीवर. गड़रिया, स्वर्णकार, रंगसाजों आदि का वर्णन 'वाजसनेयो संहिता' में मिलता है। समुद यात्रा के लिए नावों व जहाजों का भी उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त ज्योतिषी, वैद्य आदि का भी उल्लेख मिलता है, किन्तु इनको समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था। इस काल में लोगों को सोने व अयस (लोहा) की ही नहीं, वरन् चाँदी, ताँबा, टिन, सीसे आदि धातुओं की भी जानकारी थी तथा वे उनका प्रयोग करते थे। इन धातुओं का आभूषण, हथियार तथा औजार बनाने में प्रयोग किया जाता था।
(iv) व्यापार- आर्यों ने सुदूर देशों से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किए। निष्क, शतमान, अष्टप्रद आदि मुद्राएँ प्रचलित थीं। व्यापारियों के अपने संगठन थे। व्यापार जल व स्थल, दोनों मार्गों से होता था। आन्तरिक व्यापार में भी यातायात के साधनों का विकास होने के कारण सामान बैलगाड़ियों, नावों आदि से ढोया जाने लगा था।
(4) धार्मिक स्थिति
इस काल में यज्ञों की महत्ता बढ़ने के प्रमाण मिलते हैं। यज्ञों को, प्रधानता से आर्यों के दृष्टिकोण में परिवर्तन आया। यज्ञ से रोगों का निवारण या शत्रु पर विजय प्राप्त हो सकती है, ऐसा विश्वास किया जाने लगा था। तप का महत्त्व बढ़ गया था तथा ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र साधन तप स्वीकार किया जाने लगा था। ऋग्वेद काल के देवता उत्तर वैदिक काल में भी पूजे जाते थे, परन्तु कुछ का महत्व बढ़ गया था। विष्णु अब स्वतन्त्र देवता हो गए थे। रुद्र या शिव को मंगलकारी माना जाने लगा था। पुनर्जन्म के सिद्धान्त की उत्पत्ति हुई। इसके अनुसार मरने के बाद पुनर्जन्म होता है तथा व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है। लोग जादू-टोना, भूत-प्रेत, मन्त्र-तन्त्र में अधिक विश्वास करने लगे थे।
निष्कर्ष
उत्तर वैदिक काल में ग्वैदिक काल की तुलना में प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति हुई तथा सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक ढाँचे में काफी बदलाव आ गया था। शिक्षा के नये केन्द्र स्थापित होने लगे। गुरु-शिष्य सम्बन्ध अत्यन्त पवित्र माना जाने लगा था। राज्यों में राष्ट्रीयता व नागरिकता की भावना का भी उदय हुआ। यद्यपि आर्य संस्कृति ने इस युग तक अत्यधिक उन्नति कर ली थी, किन्तु उत्तर वैदिककालीन संस्कृति ऋग्वैदिक संस्कृति की तुलना में भौतिकता की ओर अधिक अग्रसर थी। उत्तर वैदिक काल में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रगति धार्मिक क्षेत्र में हुई। सांस्कृतिक दृष्टिकोण से इस युग में भारतीय जीवन एवं विचारधारा ने वह मार्ग अपनाया, जिसका सदैव अनुगमन किया गया।