सूर्य नमस्कार
मनुष्य आदिकाल से रोगों से मुक्ति पाकर 100 वर्षीय स्वस्थ जीवन जीने के लिए संघर्षरत है। इस हेतु व्यायाम की अनेक पद्धतियाँ प्रचालत हैं। वर्तमान में भारतीय योग विज्ञान को विश्व ने मान्यता प्रदान की है तथा करोड़ों लोगों ने इसको अपनाकर लाभ उठाया है। योग विज्ञान में सूर्य नमस्स्कार का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है, योग गुरु स्वामी रामदेव ने कहा है कि "सूर्य नमस्कार आसनों का राजा है।" सूर्य नमस्कार भारतीयों के लिए पूर्व परिचित सर्वांग सुन्दर व्यायाम है व शरीर को स्वस्थ रखने के लिए पूर्वजों ने इसे अनमोल धरोहर बताया है।
सूर्य नमस्कार सात आसनों की एक मलिका है। सूर्य नमस्कार करने से शरीर को स्थिरता प्राप्त होती है तथा सुख व आनन्द का अनुभव प्राप्त होता है। योगासनों के समान ही सूर्य नमस्कार निरामय एवं दीर्घायु प्रदान करता है। सूर्य नमस्कार के साथ प्राणयाम को संयुक्त करने से यह एक उत्तम योग क्रिया सिद्ध होती है। साथ ही मन्त्रों के उच्चारण का विधान होने से शारीरिक के साथ-साथ मानसिक शक्तियों में भी वृद्धि होती है। आजकल की भाग-दौड़ एवं स्पर्धात्मक जीवन शैली में व्यायाम के लिए समय निकाल पाना सम्भव नहीं हो पाता है।
और आज के समय में कम्प्यूटर के सामने घण्टों बैठना, फास्ट फूड, कार्य या पढ़ाई का तनाव आदि के कारण अनेक रोग अल्पायु में ही घेरते चले जा रहे हैं। इन सबसे छुटकारा पाने के लिए प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करना एक रामबाण इलाज है। छत्रपति शिवाजी के गुरु, समर्थ गुरु रामदास प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करते थे। अन्य व्यायाम पद्धतियों को तुलना में एकांगी विकास के स्थान पर सूर्य नमस्कार से सम्पूर्ण शरीर का आसनों के माध्यम से व्यायाम व विकास हो जाता है, शरीर स्वस्थ्य व निरोगी रहता है, निरोगी काया मनुष्य का पहला सुख है।
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सूर्य नमस्कार के फायदे
क्रीड़ा भारती ने सूर्य नमस्कार से होने वाले लाभों का वैज्ञानिक व व्यवस्थित अध्ययन किया है। इसको नियमित करने से विद्यार्थियों को स्मरण शक्ति बढ़ जाती है तथा खिलाड़ियों का प्रदर्शन सुधर जाता है। इन फायदों को क्रीड़ा भारती ने सूचीबद्ध किया है। सूर्य नमस्कार शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक बल बढ़ाता है। प्रतिदिन आराधना के भाव से सूर्य नमस्कार करने से अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। जीवन दीर्घायु होता है, बुढ़ापा नहीं सताता है, शरीर स्वस्थ रहता है, स्नायु, पाचन, रक्त, श्वसन आदि सारे तन्त्र सही प्रकार से कार्य करते हैं, ग्रन्थियों में शक्ति का संचार, प्राणों को सशक्त बनाता है, मन एकाग्रचित होता है, आत्म-विश्वास बढ़ता है, आस्तिक भावना बढ़ती है, नेत्र ज्योति बढ़ती है, अनावश्यक जमा चर्बी कम होने से मोटापा कम होता है, सूर्य नमस्कार स्त्रियों के लिए भी अत्यन्त लाभकारी है।
सूर्य नमस्कार करने से व्यक्ति सब कुछ भूलकर शरीर को हल्का अनुभव करता है, जिसे 'फ्लोस्टेट' कहते हैं। इस हेतु व्यक्ति को निष्ठा एवं श्रद्धा से आराधनों के भाव से प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करना आवश्यक है। इसमें जाति, धर्म, पंथ इत्यादि का बंधन आड़े नहीं आना चाहिए जैसा कि कुछ समय पूर्व समाचार पत्रों में कुछ व्यक्ति विशेष लोगों ने इस पर टिप्पणियाँ की थीं।
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सूर्य नमस्कार करने की विधि / पद्धति
सूर्य नमस्कार का अर्थ है भगवान सूर्य की वन्दना करना। यह अत्यन्त प्राचीन व्यायाम पद्धति है। इसमें सुबह-सुबह पूर्व दिशा में खड़े होकर शान्त चित्त से भगवान सूर्य नारायण की स्तुति करते-करते सूर्य नमस्कार किया जाता है। सूर्य नमस्कार की कई अवस्थाएँ हैं। वास्तव में ये विभिन्न प्रकार के आसनों का सम्मिलित रूप ही सूर्य नमस्कार कहलाता है।
सूर्य नमस्कार की विभिन्न अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं-
दक्षासन (सावधान की स्थिति)
यह सूर्य नमस्कार की प्रथम अवस्था है। इस अवस्था में शरीर को गर्दन, हाथों व पैरों को सीधा तना हुआ रखते हैं। इस अवस्था में दृष्टि, नासिका और दोनों हथेली जाँघ से लगी हुई व दोनों एड़ियाँ मिली हुई होती हैं। इस अवस्था में कुछ समय सीधे खड़े होकर ध्यान को नासिका पर केन्द्रित करते हैं।
(1) नमस्कारासन (प्राणामासन)- दक्षासन की स्थिति में खड़े रहते हुए ही दोनों हाथों को इस प्रकार जोड़ते हैं कि अंगूठे सीने को स्पर्श करें। सीना बाहर की ओर निकला हुआ व पेट अन्दर की ओर धँसा हुआ रखें। फेफड़ों को श्वाँस से फुलाते हैं व दृष्टि सामने की ओर रखते हैं। शरीर गर्दन व सिर एक सीध में तने हुए रखते हैं। अब मुँह बन्द करके श्वाँस को अन्दर खींचकर निडरी सम्भव हो अन्दर ही रखते हैं।
उपर्युक्त दोनों स्थितियों में रीढ़ की बीमारियाँ नहीं होतीं, आत्मविश्वास बढ़ता है, बाजू व कंधे की माँसपेशियाँ मजबूत बनती हैं। फल प्राप्ति मन्त्र- आदित्यस्य नमस्कारन्, ये कुर्वन्ति दिने दिने। आयुः प्रज्ञा बल वीर्यम्, तेजसू तेपाच जायते।
(2) पूर्वोत्तान आसन- रीढ़ को पीछे झुकाने से उत्पन्न होने वाले तनाव से रीढ़ की हड्डी मजबूत होती है। तोंद नहीं निकलती है। लम्बा श्वाँस लेने से फेफड़े उत्तेजित होकर अधिक कार्यक्षम बनते हैं। इसे नमस्कारासन की मुद्रा से दोनों हाथों को ऊपर उठाकर पूरे शरीर को पीछे की ओर खींचते हैं। आँखें खुली एवं आकाश को और देखती हुई होती हैं। जितना सम्भव हो हाथों व शरीर को पीछे की ओर तानते हुए झुकाते हैं। साथ-साथ सीने को झुकाते हैं व सामने की ओर निकालते हैं।
(3) हस्तपादासन (पादहस्तासन)- इस स्थिति में पीठ की सभी माँसपेशियों का उत्तम व्यायाम होता है। पंजों को जमीन पर टिकाने से कलाइयों का व्यायाम होता है। इस आसन को करने से गुदाँ को सक्रियता बढ़ती है। इसमें पर्वतासन की मुद्रा में दोनों हाथों को सीधा रखते हुए धीरे-धीरे नीचे सामने की ओर झुकाते हैं। शरीर व हाथों को सामने की ओर नीचे झुकाते समय घुटने बिल्कुल सीधे रहते हैं। अब दोनों हाथों की हथेलियों को इस प्रकार जमाते हैं कि हाथ की अंगुलियाँ एक-दूसरे को स्पर्श करें। दोनों हाथ पैरों को समानान्तर रखते हैं। अब नाक व ललाट को घुटनों से स्पर्श कराकर नाक से ध्वनियुक्त श्वाँस लेते हैं। इस मुद्रा में कुछ समह ही ठहरते हैं।
(4) एक-पाद प्रसरणासन (तोलासन)- इस स्थिति में रीढ़ की हड्डी सीधी तनी हुई रहती है। पूरे शरीर का वजन कंधे व कलाई पर होने से उसकी ताकत में वृद्धि होती है। हस्तपादासन में रहते हुए हो दायाँ पैर इस प्रकार पीछे की ओर ले जाते हैं कि उस पैर का घुटना व अंगुलियाँ फर्श को स्पर्श करें। बाएँ और के घुटने को बाई बगल के आगे लाते हैं। इस क्रिया में पैर अच्छी तरह दबाना चाहिए। अब सिर को ऊपर उठाकर जितना अधिक ऊपर की ओर देख सकें, उतना ऊपर की ओर देखते हैं और साथ-साथ कमर को झुकाते हैं और श्वाँस को रोककर रखते हैं।
(5) भूधरासन (पर्वतासन)- इस आसन को करने से शरीर में स्फूर्ति का संचार होता है। एक पाद प्रसरणासन की स्थिति से आगे दोनों हाथों को वहीं भूमि पर टिकाकर ही दूसरा पैर अर्थात् चायाँ पैर पीछे दाएँ पैर के साथ ले जाकर दोनों पैरों को जमाते हैं। इसमें सिरं, कमर और शरीर का पिछला भाग व कोहनियाँ एक सीध में व तने हुए रहते हैं। पूरा शरीर का वजन दोनों हथेलियों व दोनों पैरों के पंजों पर रखते हैं।
(6) अष्टांग प्राणिपादासन- इसमें पर्वतासन से आगे चलते हुए दोनों पैरों को धीरे-धीरे पीछे की ओर ले ले जाते हुए दोनों घुटने फर्श पर टिकाते हैं। सीने को फर्श से स्पर्श कराते हैं व नाक को फर्श से स्पर्श कराते हैं। पेट को भीतर खींचते हैं। सीना दोनों हाथों के बीच रखते हैं इससे बारबार लघुशंका (पेशाब) जाने की शिकायत दूर होती है।
(7) भुजंगासन- अष्टांग प्राणिपादासन से आगे चलते हुए दोनों जाँघों व घुटनों को फर्श पर टिकाते हैं व दोनों हथेलियों पर शरीर को ऊपर उठाते हैं व सीना आगे की ओर तानते हुए कमर को अधिक से अधिक गोलाकार में मोड़ते हैं तथा सम्भव ऊपर की ओर देखते हैं। अर्थात् शरीर भुजंग (सर्प) की तरह होता है। इस स्थिति में कंठमणी से लेकर जंघा तक सीने की तरफ खिंचाव होता है जिससे सीना, पेट, बाजू, जंघा व रीढ़ की हड्डियाँ मजबूत होती हैं। अतः उपर्युक्त आसनों की क्रियाओं के करने के बाद पुनः अब नमस्कारासन की स्थिति में आ जाते हैं।
शिक्षक और विद्यार्थी के जीवन में योग का महत्व
शिक्षक के जीवन में योग का महत्व
1. योग स्मृति और सीखने की क्षमता में वृद्धिकारक है- योग के अभ्यास में जब हम आसन और प्राणायाम करते हैं, हमारी श्वाँस लम्बी और गहरी हो जाती है। हम अपने ध्यान को एक निश्चित बिन्दु पर केन्द्रित करते हैं जब यह केन्द्रित मन अध्ययन के लिए प्रयोग किया जाता है तो यह विचारों और धारणाओं को भली-भाँति समझ लेता है। यह याद करने की सामग्री को और अधिक प्रभावपूर्ण ढंग से याद रख सकता है।
2. योग मानसिक सन्तुलन बनाए रखने में सहायक होता है- यदि हम कभी बहुत कठिन अध्ययन-अध्यापन करते हैं और प्रत्याशित परिणाम नहीं पाते हैं तब हमारा मन चिन्ता एवं उदासी में डूब जाता है। योग का निरन्तर अभ्यास हमें उदासी से मुक्त है। योग हमें सिखाता है कि कैसे हम आत्म-संलग्न होकर अच्छा से अच्छा करने की कोशिश कर सकते हैं।
3. योग, चिन्ता, तनाव एवं अन्य मनोविकारों को दूर करता है- विद्यालय में छात्रों को अध्यापन के दौरान अनेक प्रकार के तनाव एवं मानसिक उलझनों का सामना करना पड़ता है। यदि शिक्षक अपनी दैनिकचर्या में योग व्यायामों जैसे ध्यान को सम्मिलित कर लें तो इस प्रकार के अवांछित तनावों पर नियन्त्रण पाया जा सकता है। मानसिक एवं शारीरिक तन्त्रों को शान्त एवं सहज तरीके से कार्य करना तनावमुक्त जीवन का आधार है। योग ही एक ऐसा साधन है जिससे शिक्षक तनावों, चिन्ताओं एवं नकारात्मक सोच को दूर कर सकते हैं।
4. संवेगात्मक सन्तुलन में योग की भूमिका- शिक्षकों को सामाजिक सम्बन्धों के साथ भी स्वयं को समायोजित करना पड़ता है। छात्र-छात्राओं से, सहअध्यापकों से, मित्रों तथा अन्य सामाजिक सम्बन्धों से, सामाजिक परिवेश में मिलकर कार्य करना होता है। अपने चारों तरफ के लोगों से सम्बन्ध हमारे लिए सुख और दुख दोनों ही लेकर आते हैं। दूसरों के प्रति असहिष्णु होना और अनावश्यक चिड़चिड़ापन हमारे मन को दूषित करता है। हम दूसरों के प्रति अपनी प्रतिक्रिया के प्रति जागरूक हो सकते हैं और नकारात्मक परिस्थिति में भी सकारात्मक प्रति उत्तर की आदत उत्पन्न कर सकते हैं, यह संवेगात्मक सन्तुलन है। यह केवल योग के निरन्तर अभ्यास से ही प्राप्त किया जा सकता है।
5. कार्य में कुशलता- आत्म-अभिव्यक्ति और अभिवृद्धि के लिए कार्य या रोजगार को आनन्द के अवसर के रूप में देखना चाहिए। अपने कार्य को इस दृष्टिकेण से देखना कि इससे हम दूसरों को क्या देते हैं। उचित आसन, गहन श्वांस और सौम्यता से हाथ-पाँव को खींचना या फैलाना आपके कार्य-स्थल पर आपको तनावरहित व आराम से रहने में आपकी सहायता करेगा। एक क्षण का विराम और अपनी श्वाँस पर दृष्टि, तुरन्त आराम देता है। अपने काम में रचनात्मक होना अच्छा है। कार्य को करने के नये मार्ग ढूँढ़ने की कोशिश करिए। रोजमर्रा के कार्यों को सीखने में भी आनन्द प्राप्त करिए। गीता में कहा गया है कि फल की इच्छा किए बिना कार्य को श्रेष्ठ तरह से करने के कौशल को ही योग कहते हैं।
विद्यार्थी के जीवन में योग का महत्व
अनुशासित जीवन शैली, शान्त वातावरण तथा नियमित योग अभ्यास, ध्यान आदि ऐसे कारक हैं जो सभी मानसिक क्षमताओं के लिए लाभकारी होते हैं। विद्यार्थी जीवन में एक बात जो अक्सर देखने को मिलती है कि वे कुछ समय तक तो ध्यान केन्द्रित करते हैं, किन्तु अन्य समय में उनके विचार बिखरे होते हैं, उनका मन एक चीज से दूसरी चीजों पर भी भागता रहता है। ऐसे में संयोजन के लिए विद्यार्थियों को व्यायाम, ध्यान व एकाग्रता से सम्बन्धित ऐसी यौगिक क्रियाओं से जोड़कर रखना चाहिए जिसमें कौशल तथा रणनीतियों को सीखने व अभ्यास करने का अवसर मिले।
1. योग बालकों में आन्तरिक शान्ति प्रदान करता है, जिससे उनकी रचनात्मकता में वृद्धि होती है।
2. बच्चे प्रकृति तथा आस-पास के वातावरण में शान्ति के महत्व को समझते हैं। योग मानसिक स्पष्टता को बढ़ाता है तथा सम्पूर्ण जीवन क्रम को यथार्थ रूप में लाता है।
3. योग प्रतिशत तन्त्र को मजबूत तथा मन को ऊर्जावान बनाता है। इसी के साथ परिसंचरण एवं श्वसन तन्त्र के फिटनेस में सुधार करता है।
4. योग बालकों को एक समय में एक कार्य करने के लिए ध्यान केन्द्रित करने में मदद करता है। योग मन, शरीर व आत्मा के अलावा अन्य इन्द्रियों के बीच बेहतर समन्वय बैठाने में भी मदद करता है।
5. योग के नियमित अभ्यास से विद्यार्थियों के आवेग बेहतर तरीके के नियन्त्रित होते हैं।
6. इसके अतिरिक्त योगाभ्यास से विद्यार्थी मौजूद व्यस्त जीवनशैली की गति में भी आराम महसूस करते हैं तथा कुछ समय शान्त होकर आत्म-निरीक्षण एवं चिन्तन में मन को लगाने में अभ्यस्त होते हैं।
7. योगाभ्यास के द्वारा मस्तिष्क में ऑक्सीजन की मात्रा में बढ़ोत्तरी होती है। श्वसन व सन्तुलन में सुधार आता है, बालकों की अतिसक्रियता, आवेगशीलता तथा एकाग्रता स्तर के बेहतर नियन्त्रण में योगाभ्यास बहुत सहायक होता है।
8. किशोरावस्था को तूफानों एवं झंझावतों का काल कहा जाता है। इस समय शरीर में अनेक हार्मोनों से सम्बन्धित परिवर्तन भी होते हैं इन हार्मोनों के कारण किशोरों एवं kishoriyonके स्वभाव में भी गहन परिवर्तन आता है; जैसे-चिन्ता, चिड़चिड़ापन आदि क्रियाएँ उत्पन्न हो जाती हैं।
योग एवं आसन में विभिन्न शारीरिक मुद्राएँ बनानी होती हैं। प्राणायाम के द्वारा श्वसन पर फोकस करना होता है और ध्यान में मन को एकाग्र एवं शान्त करने का अभ्यास किया जाता है। इस तरह से यौगिक क्रियाएँ किशोर विद्यार्थियों के मन को सन्तुलित बनाए रखती हैं।