शैक्षिक पर्यवेक्षण के प्रकार
पर्यवेक्षण का उद्देश्य और उसका दर्शन अनेक परिवर्तनों से होकर निकला है। अपनी आरम्भिक अवस्था में पर्यवेक्षण, निरीक्षण तक सीमित था, विकास क्रम के आधार पर पर्यवेक्षण के निम्न रूप हैं-
1. सुधारात्मक पर्यवेक्षण
इस प्रकार के पर्यवेक्षण में शिक्षकों के दोषों को ढूँढ़ना ही मुख्य उद्देश्य होते हैं। पर्यवेक्षक शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को कमियाँ तलाश करने, उसके छिद्रों व अनियमितताओं का पता लगाने की कोशिश करता रहता है। परन्तु ऐसा किसी सकारात्मक दृष्टि से नहीं किया जाता है। पर्यवेक्षक अधिकारी या प्रधानाचार्य को सम्बन्धित अध्यापकों की रिपोर्ट या सूचना दे देता है। आपसी प्रेम व विश्वास का वातावरण उत्पन्न किए बगैर आख्या रूप में या आलोचनात्मक रूप में दिए गए निर्देशों का शिक्षकों की दक्षता में विकास करने हेतु कोई विशेष योगदान नहीं होता।
2. निरोधात्मक पर्यवेक्षण
इस प्रकार के पर्यवेक्षण में पर्यवेक्षक के पास व्यापक अनुभव होता है। वह ऐसी परिस्थितियाँ विकसित करने पर बल देता है, जिनमें गलतियाँ होने की सम्भावनाएँ न रहें। यह पर्यवेक्षण शिक्षकों में भी दूर-दर्शिता व कल्पनाशीलता विकसित करने तथा पूर्व नियोजित ढंग से कार्य करने की क्षमता बढ़ाने पर विशेष बल देता है।
3. सृजनात्मक पर्यवेक्षण
इस प्रकार का पर्यवेक्षण शिक्षकों को स्वतन्त्र चिन्तन के ििलए प्रेरित करता है। पर्यवेक्षण का यह रूप अधिक मानवीय तथा वैज्ञानिक भी है। शिक्षकों को स्वतः आत्म-मूल्यांकन के द्वारा अपने दोषों का पता लगाने, उनका विश्लेषण करने व उन्हें दूर करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। यह पर्यवेक्षण का आदर्श रूप है जो शिक्षकों के आत्मविश्वास में वृद्धि करता है उन्हें आत्मनिर्भर बनाता है।
4. प्रजातान्त्रिक पर्यवेक्षण
पर्यवेक्षण का यह रूप प्रजातान्त्रिक विशेषताओं से पूर्ण है, सामूहिक नियोजन, स्वतन्त्र विचाराभिव्यक्ति, व्यक्तिगत विभिन्नताओं को मान्यता, प्रजातान्त्रिक नेतृत्व तथा मानवीय सम्बन्धों के विकास जैसे गुण इस प्रकार के पर्यवेक्षण में दिखायी देते हैं।
5. हस्तक्षेप सहित पर्यवेक्षण
इस प्रकार के पर्यवेक्षण में वस्तुतः पर्यवेक्षण की प्रक्रिया सम्पन्न होती ही नहीं है। पर्यवेक्षक को भूमिका निर्वाह करने वाला शिक्षक, शिक्षण-अधिगम दशाओं में विकास एवं सुधार हेतु कुछ नहीं करता। यदि कोई शिक्षक अपना विकास करना चाहता है तो वह स्वतन्त्र है। सम्भवतः धारणा यह रहती है कि जो कुछ चल रहा है, वह ठीक है। अथवा शिक्षक स्वयं ही समय के साथ-साथ सब कुछ सीख कर पर्याप्त कुशलता हासिल कर लेंगे। ऐसा पर्यवेक्षक सरसरी निगाह से निरीक्षण करता हुआ कुछ औपचारिकताएँ पूरी कर लेता है।
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6. प्रतिरोधात्मक या दमनात्मक पर्यवेक्षण
यह धारणा अहस्तक्षेप की धारणा से भिन्न थी। यह पर्यवेक्षण का परम्परागत रूप है। पर्यवेक्षण के इस प्रकार के अन्तर्गत शिक्षकों को हीन व पर्यवेक्षक को महान माना जाता है। निरन्तर कर्मचारियों या अध्यापकों पर कड़ी निगाह रखी जाती है तथा आतंक भय का वातावरण बनाये रखा जाता है। इसमें पर्यवेक्षक स्वयं को सर्वज्ञ मानता है। कार्य सम्पन्न करने के सर्वोत्तम तरीके क्या हैं इस बारे में वह कुछ निश्चित धारणाए. बना लेता है तथा सभी को उन निश्चित दरों पर चलने के लिए बाध्य करता है।
अतः यह रूप निम्न कारणों से दोषपूर्ण माना गया है-
(अ) यह रूप इस बात में विश्वास करता है कि किसी कार्य के करने की कुछ सर्वोत्तम विधियाँ होती हैं जिन्हें पर्यवेक्षक ही जानते हैं और शिक्षकों को प्रदान कर सकते हैं। इस प्रकार यह रूप शिक्षा के प्रयोगात्मक पक्ष को अस्वीकार करता है।
(ब) यह प्रकार शिक्षकों के व्यक्तित्व निर्माण की दृष्टि से अत्यन्त दोषपूर्ण है। इसमें पुरोगामिता, मौलिकता और स्वतन्त्रता के स्थान पर दमन, नियन्त्रण और पराधीनता की प्रधानता है, जिसमें भावना-ग्रन्थियों का निर्माण होता है और व्यक्तित्व का विभाजन होता है।
(स) यह प्रकार शिक्षकों और पर्यवेक्षकों के सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न करता है। शिक्षकों में भय और अविश्वास पैदा होता है।
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7. जनतान्त्रिक पर्यवेक्षण
जनतान्त्रिक पर्यवेक्षण के सिद्धान्त की मूल धारणा इस बात पर आधारित है कि शिक्षा की क्रिया का नियोजन, कार्यान्वयन, व्यवस्थापन तथा मूल्यांकन विद्यालय के सम्पूर्ण कार्यकत्र्ताओं के द्वारा सामूहिक ढंग से होना चाहिए। इस सिद्धान्तानुसार सहयोग जितना अधिक प्राप्त होगा, पर्यवेक्षण उतना ही अच्छा होगा और फल की प्राप्ति उतनी ही अच्छी होगी। यह पर्यवेक्षण विद्यालय की परिस्थितियों से उत्पन्न शिक्षकों की समस्याओं का समाधान उन्हीं के सहयोग से करवाने पर बल देता है। इसमें आत्म-प्रकाशन, रचनात्मक तथा स्वतन्त्र चिन्तन एवं प्रयोगात्मक क्रियाओं की प्रधानता है। यह पर्यवेक्षण शुद्ध जनतान्त्रिक सिद्धान्तों पर आधारित है।
8. रचनात्मक पर्यवेक्षण
यह विचारधरा शिक्षा में मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों के विकास से प्रभावित है। इस धारणा के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में रचनात्मक शक्ति होती है। अतः पर्यवेक्षक का उत्तरदायित्व छात्रों व शिक्षकों की इस शक्ति को पहचानना तथा उसके विकास के लिए आवश्यक वातावरण का निर्माण करना है।
रचनात्मक पर्यवेक्षक को मुख्य विशेषताओं का वर्णन करते हुए श्री मेलकयोर ने लिखा है-
(i) यह शिक्षकों को अपने विकास के लिए कार्य करने को प्रोत्साहित करता है। उनमें आत्मविश्वास तथा आत्ममूल्यांकन की प्रेरणा पैदा करता है।
(ii) यह शिक्षकों को अपने विचार के अनुसार प्रयोग करने के मार्ग में बाधा नहीं डालता, यद्यपि उसकी कठिनाइयों पर दृष्टि रहती है।
(iii) रचनात्मक पर्यवेक्षण, शिक्षकों को उद्देश्य पाठ्यक्रम, पाठ्यवस्तु के संगठन, शिक्षण-विधि तथा मूल्यांकन की विधि के सम्बन्ध में स्वतन्त्र चिन्तन का अवसर प्रदान करता है।
(iv) यह शिक्षकों को अपने चिन्तनानुसार पर्यवेक्षकों के साथ स्वतन्त्रतापूर्वक सहयोग करने की प्रेरणा देता है।
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शैक्षिक पर्यवेक्षण व निरीक्षण में अन्तर
'पर्यवेक्षण व निरीक्षण' दोनों शब्दों में पारस्परिक अन्तर को स्पष्ट रूप से समझना अत्यन्त आवश्यक है। वास्तव में शब्दों के अर्थ में देशकाल तथा परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होता रहता है।
'निरीक्षक' शब्द अत्यधिक प्रचलित है तथा अधिक सामान्य दशाओं के लिए प्रयुक्तं किया जाता है। 'निरीक्षक' शब्द सामान्यतः कुछ भ्रम, आशंका तथा आतंक को प्रकट करने वाला है जैसे आयकर निरीक्षक, पुलिस निरीक्षक, बिक्रीकर निरीक्षक आदि। किस घटना विशेष को आँखों से देखना और उसकी यथातथ्य रिपोर्ट प्रस्तुत करना निरीक्षक का कार्य होता है। निरीक्षक उन दशाओं या परिस्थितियों में सुधार लाने की दृष्टि से उनका अवलोकन नहीं करता अपितु वह सही-सही सूचनाएँ, आँकड़े या तथ्य एकत्र करके उन्हें रिपोर्ट के रूप में प्रेषित करने का ही कार्य मात्र करता है।
शिक्षा के क्षेत्र में, विशेष रूप से स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत के तथा अन्य देशों के शिक्षाविदों ने वैचारिक परिवर्तन के कारण यह अनुभव किया कि 'निरीक्षक' शब्द को जो अधिक संकुचित तथा भयोत्पादक लगता है शैक्षिक परिस्थितियों हेतु प्रयुक्त करना उचित एवं न्यायसंगत नहीं है।
स्वतन्त्रता से पूर्व भारतवर्ष की परिस्थितियों में विद्यालय निरीक्षक अध्यापकों तथा छात्रों के मन में आतंक उत्पन्न करता था वास्तव में उस समय विद्यालयों में निरीक्षण का कार्य अध्यापकों का दोष-वेक्षण करना ही समझा जाता था। उस समय निरीक्षक की स्थिति सचमुच ही भयावह तथा अधिकारिक होती थी।
वर्तमान समय में निरीक्षण के स्थान पर पर्यवेक्षण शब्द को अधिक उपयुक्त एवं तर्क संगत माना जाता है। पर्यवेक्षण में भी यद्यपि शिक्षण अधिगम से सम्बन्धित दशाओं का अवलोकन किया जाता है परन्तु ऐसा मात्र सूचना या तथ्य संकलित करके उन्हें आख्याबद्ध करके उच्चाधिकारियों को प्रेषित करने की दृष्टि से न किया जाकर उन दशाओं एवं परिस्थितियों में सुधार तथा विकास लाने के ध्येय से किया जाता है।
यह कार्य वैज्ञानिक एवं वस्तुनिष्ठ विधियों का प्रयोग करते हुए पूर्णतः पूर्वाग्रह मुक्त होकर निष्पक्ष तरीके से सम्पन्न किया जाता है, 'पर्यवेक्षण' के द्वारा अध्यापकों के व्यावसायिक विकास के द्वारा उनमें आत्मविश्वास की वृद्धि की जाती है। पर्यवेक्षक परामर्शदाता, मित्र तथा पथप्रदर्शक की भूमिका का निर्वाह करता है, माध्यमिक शिक्षा आयोग द्वारा निरीक्षक के स्थान पर 'पर्यवेक्षक' शब्द के प्रयोग का सुझाव दिया गया।
प्रो. एस. एन. मुखर्जी के अनुसार- यदि 'निरीक्षक' शब्द को जो पुलिस इन्सपेक्टर जैसी आतंककारी भावना का परिचायक है 'विद्यालय परामर्शदाता' अथवा 'विद्यालय की देखभाल करने वाला' शब्द में बदल दिया जाए तो सम्भवतः कुछ अधिक लाभ की आशा की जा सकती है।
इसके विपरीत कुछ विद्वानों का मत है कि भारतवर्ष की परिस्थितियों में केवल 'निरीक्षक' शब्द ही पूरी तरह उपयुक्त है। विदेशों में शैक्षिक क्षेत्र में जो मित्र भाव या परामर्शदाता का भाव अपनाया जाता है वह उनकी सभ्यता तथा संस्कृति के अनुकूल है। विदेशी वातावरण को भारतीय परिस्थितियों में ज्यों का त्यों नहीं अपनाया जा सकता। अतः इस विवाद में अधिक न उलझकर कि अमुक व्यक्तियों को क्या कहकर पुकारा जाए इस बात पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए कि वे किन कार्यों को सम्पन्न करते हैं तथा किस भावना के साथ सम्पन्न करते हैं।