शैक्षिक नेतृत्व का अर्थ
जीवन में प्रत्येक क्षेत्र में नेतृत्व की आवश्यकता होती है। अन्य क्षेत्रों के समान शिक्षा का क्षेत्र भी समाज कल्याण में अत्यन्त सहायक सिद्ध होता है। शैक्षिक क्षेत्र में योग्य नेतृत्व प्राप्त होने पर शिक्षा का स्तर उच्च दिशा में विकसित होता चला जाता है।
अतः शिक्षा जगत में सुधार करने हेतु शिक्षा-पद्धति में परिवर्तन एवं संशोधन करने के साथ-साथ सुदृढ़ नेतृत्व की भी आवश्यकता होती है। आधुनिक युग में शिक्षा का क्षेत्र दिन-प्रतिदिन व्यापक होता जा रहा है। शैक्षिक क्षेत्र में, निदेशक, उपनिदेशक, विद्यालय निरीक्षक, प्रधानाध्यापक, विभागाध्यक्ष एवं कुछ वरिष्ठ शिक्षकों को प्रशासक के रूप में अपने-अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना पड़ता है। शैक्षिक क्षेत्र में प्रशासकों को ही नेता के रूप में स्वीकार किया जाता है।
अतः इन समस्त व्यक्तियों को शिक्षा एवं विद्यालया से सम्बन्धित समस्याओं की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए। शिक्षण पद्धति, पाठ्य-पुस्तक, पाठ्यक्रम, अध्यापक-व्यवहार इत्यादि की भी प्रशासकों को समुचित जानकारी होनी चाहिए। अतः व्यक्ति एक सफल एवं उत्तम प्रशासक बनने हेतु शैक्षिक नेतृत्व की शक्ति को प्राप्त करता है। अन्य क्षेत्रों के समान शैक्षिक क्षेत्र में शैक्षिक नेतृत्व की परम आवश्यकता होती है। शैक्षिक नेतृत्व आकर्षक, प्रभावी एवं अनेक गुणों से युक्त होना चाहिए।
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शैक्षिक नेतृत्व के अर्थ को स्पष्ट करते हुए एक विद्वान् ने लिखा है कि, "शैक्षिक प्रशासन के क्षेत्र में किसी विशेष व्यक्ति का सहकर्मियों के हृदय को जीतने वाला व्यवहार, जो व्यक्तिगत एवं प्राप्त गुणों पर आधारित होता है, शैक्षिक नेतृत्व कहलाता है।" शैक्षिक नेतृत्व में, बौद्धिक कुशाग्रता, कल्पना, नैतिक जागरूकता, आत्मनिर्भरता, आदर्श चरित्र, सन्तुलित स्वभाव, जनसम्पर्क, लोकप्रियता, प्रभावशली शारीरिक गठन, उत्तरदायित्व निर्वाह, संयम, सेवा-भावना, सहयोग में विश्वास, भावात्मक स्थायित्व, नियमों एवं कानूनों का ज्ञान, सर्जनात्मक योग्यता की अधिकता, समस्याओं से अवगत होना, व्यक्तियों की पहचान इत्यादि विभिन्न गुणों का होना आवश्यक है, क्योंकि शैक्षिक नेतृत्व पर ही विद्यालयों के प्रशासन एवं पर्यवेक्षण से सम्बन्धित विभिन्न कार्यों की संफलता आधारित होती है।
शैक्षिक नेतृत्व के मार्ग में बाधाएँ
1. शिक्षा विभाग के नियमों एवं कानूनों की अधिकता
शिक्षा विभाग के नियमों एवं कानूनों की अधिकता भी शैक्षिक नेतृत्व के मार्ग में बाधक बनी हुई है। शिक्षा अधिकारियों द्वारा समय-समय पर असंख्य आदेश, नियम एवं निर्देश निकाले जाते हैं। शैक्षिक नेताओं पर इन सभी नियमों, निर्देशों एवं आदेशों का अंकुश लगा रहता है। विभाग के नियमों की कठोरता के कारण शैक्षिक नेता अपनी इच्छानुसार कोई भी कार्य नहीं कर सकता। इन सबके परिणामस्वरूप शैक्षिक नेता को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
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2. विद्यालयों पर अशिक्षित व्यक्तियों का नियन्त्रण
हमारे देश में पूँजीपतियाँ, प्रभुता प्राप्त राजनीतिज्ञों इत्यादि द्वारा असंख्य विद्यालयों की स्थापना की गई है। प्रबन्ध के पद पर आसनी होने के कारण शैक्षिक नेताओं को इनके आदेशों का पालन कठोरतापूर्वक करना पड़ता है। अतः ऐसे प्रभार्थी व्यक्तियों के असंयमित व्यवहार एवं भाषण पर अंकुश लगाना नेता के लिए अत्यन्त कठिन कार्य होता है। इस स्थिति में सुधार करने के लिए अनुभवी, शिक्षित एवं समायोजन में विश्वास रखने वाले प्रबन्धक होने चाहिए, तभी शैक्षिक नेता अपने कार्यों को सहजता के साथ कर सकता है।
(3) शिक्षक एवं शिक्षार्थियों का मात्र अधिकारों के प्रति सचेत होना
आज हमारे देश में अधिकांश शिक्षक एवं शिक्षार्थी अपने अधिकारों के प्रति तो जागरूक हैं, लेकिन अपने कर्तव्यों की और वे कोई ध्यान नहीं देते शिक्षक संघ एवं ऊत्र संघ को बुरा नहीं माना जाता, लेकिन यदा-कदा संघ की यह भावना विनाशकारी भी हो जाती है। अनेक शिक्षक तो ऐसे होते हैं, जिनका सर्वप्रमुख उद्देश्य शिक्षण नहीं, वरन् शैक्षिक नेता का विरोध करना होता है। जबकि विद्यालय की उन्नति हेतु शैक्षिक नेता, शिक्षकों तथा शिक्षार्थियों का सहयोग आवश्यक है।
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4. धन एवं स्रोतों का अभाव
शैक्षिक नेतृत्व के मार्ग में अन्य महत्वपूर्ण बाधा है-धन एवं स्रोतों का अभाव। शैक्षिक नेता द्वारा विद्यालयों के विकास हेतु योजनाओं का निर्माण किया जाता है लेकिन धन के अभाव में ये योजनाएँ पूर्ण नहीं हो पातीं इसके अतिरिक्त धन के स्रोतों का भी नितास अभाव होता है। जिन शिक्षण संस्थाओं के आय के स्रोत बड़े होते हैं, वे ही संस्थाएँ चहुँमुखी उन्नति करने में सक्षम होती हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि धन एवं स्रोतों का अभाव शैक्षिक नेतृत्व के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है।
5. राजनीतिक दबाव
हमारे देश की अधिकांश शिक्षण संस्थाओं पर राजनीतिक दबाव पाया जाता है। शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की नियुक्ति, स्थानान्तरण, परीक्षाफल इत्यादि कार्यों में राजनीतिक नेताओं द्वारा सिफारिश भी की जाती है। कर्मियों को उनकी कार्य शिथिलता आदि का संकेत दिए जाने पर उसे रोकने हेतु राजनेताओं की शरण ली जाती है। यदा-कदा, सिद्धान्तों की अवहेलना एवं अनुचित दबाव के कारण शैक्षिक एवं राजनैतिक नेताओं के मध्य मतभेद हो जाता है। उपर्युक्त समस्त नीतियों एंव दबावों के कारण, नेता का मानसिक स्वास्थ्य असन्तुलित हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप विद्यालयों की प्रगति में बाधा उत्पन्न होती है।
6. पारस्परिक गुटबाजी
आज एक ही विद्यालय में कार्यरत शिक्षकों को अनेक गुटों में बरे हुए देखा जा सकता है। इस कारण अनेक प्रतिभाशाली छात्र भी कभी-कभी विद्यालय में प्रवेश प्राप्त नहीं कर पाते हैं। इसके मूल में स्वार्थ एवं गुटबन्दी सक्रिय रहती है।