सार्जेन्ट योजना का सामान्य परिचय
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद हर देश के सामने नई समस्याएँ थीं, नई चुनौतियाँ थीं, हमारे देश भारत के सामने भी। यहाँ हम केवल अपने देश की तत्कालीन शैक्षिक समस्याओं की चर्चा करेंगे। पहली बात तो यह है कि युद्ध के दौरान हमारी सरकार शिक्षा की तरफ पूरा ध्यान नहीं दे सकी थी जिसके कारण शिक्षा का विस्तार और उन्नयन दोनों रुक गए थे।
बोर्ड ने आदेश का पालन किया और एक योजना तैयार की। कुछ विद्वान इसी आधार पर इसे 'केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड रिपोर्ट' कहते हैं। क्योंकि यह योजना युद्धोत्तर भारत के लिए बनाई गई थी इसलिए कुछ विद्वान इसे 'युद्धोत्तर शिक्षा विकास योजना' कहते हैं। चूंकि उस समय केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड के अध्यक्ष सर जॉन सार्जेन्ट (Sir John Sargent) थे और यह योजना उन्हीं की अध्यक्षता में तैयार की गई थी इसलिए अधिकतर विद्वान इसे उन्हीं के नाम पर 'सार्जेन्ट योजना' कहते हैं।
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सार्जेन्ट योजना का कार्यक्षेत्र
सरकार ने केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड से यह अपेक्षा की थी कि-
- वह सम्पूर्ण देश की प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सरकारी तथा गैरसरकारी शिक्षा की स्थिति का गहराई से अध्ययन करे।
- वह यह भी देखे कि देश में जन शिक्षा, विकलांगों को शिक्षा, स्त्री शिक्षा, औद्योगिक एवं प्रौद्योगिक शिक्षा और शिक्षक शिक्षा की क्या स्थिति है।
- वह यह भी देखे कि सरकार ने अब तक नियुक्त शिक्षा समितियों और आयोगों के किन सुझावों का क्रियान्वयन किया है और भारतीय शिक्षा के संख्यात्मक एवं गुणात्मक विकास में उनका क्या प्रभाव पड़ा है।
- वह शिक्षा की भावी योजना में सरकार (प्रशासन) की भूमिका सुनिश्चित करे।
- वह यह भी बताए कि उसके द्वारा प्रस्तावित योजना कितने समय में पूरी होगी और उस पर अनुमानित व्यय कितना होगा।
सार्जेन्ट योजना रिपोर्ट
सार्जेन्ट महोदय की अध्यक्षता में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने तत्कालीन भारतीय शिक्षा (सरकारी और गैरसरकारी) का सर्वेक्षण किया, अब तक नियुक्त शिक्षा समितियों और आयोगों के प्रतिवेदनों का अध्ययन किया और यह देखा-समझा कि उनके किन सुझावों का किस सीमा तक पालन किया गया है और उनका क्या प्रभाव पड़ा है। इसके बाद बोर्ड के सदस्यों ने इस सब पर एक साथ बैठकर विचार-विमर्श किया और युद्धोत्तर भारत के लिए एक सम्पूर्ण शिक्षा योजना तैयार की और 1944 में हो इसे सरकार के सामने प्रस्तुत कर दिया।
अतः साजेंन्ट रिपोर्ट 12 भागों में विभाजित है। इसमें पूर्व प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक की पूरी रूपरेखा प्रस्तुत की गई है और शिक्षा के अन्य अंगों पर भी प्रकाश डाला गया है और उनके सम्बन्ध में सुझाव दिए गए हैं। रिपोर्ट के अन्त में यह भी स्पष्ट किया गया है कि इस योजना को पूरा करने में लगभग 40 वर्ष का समय लगेगा और इस पर लगभग 313 करोड़ रुपये व्यय होंगे।
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सार्जेन्ट योजना के सुझाव और सिफारिशें
सार्जेन्ट योजना में पूर्व प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक के प्रशासन एवं स्वरूप के बारे में एक स्पष्ट रूपरेखा तैयार की गई थी। यहाँ उस सबका क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत है।
शिक्षा के प्रशासन सम्बन्धी सुझाव
बोर्ड की सम्मति में शिक्षा की व्यवस्था करना केन्द्रीय सरकार और प्रान्तीय सरकारों का संयुक्त उत्तरदायित्व होना चाहिए।
अतः इस सन्दर्भ में उसने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- उच्च शिक्षा एवं उच्च औद्योगिक शिक्षा का प्रशासन अखिल भारतीय स्तर पर हो अर्थात् इसका उत्तरदायित्व पूर्णरूप से केन्द्रीय सरकार पर हो और शेष शिक्षा का उत्तरदायित्व प्रान्तीय सरकारों पर हो।
- शैक्षिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रान्तीय सरकारों को केन्द्रीय स्रोत से पर्याप्त आर्थिक सहायता दी जाए।
- केन्द्र में एक सशक्त शिक्षा विभाग की स्थापना की जाए जो सम्पूर्ण देश की शिक्षा में सामंजस्य स्थापित करे।
- केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड के अधिकार एवं कार्यक्षेत्र में वृद्धि की जाए।
- प्रान्तीय स्तर पर भी सशक्त शिक्षा विभागों की स्थापना की जाए।
- प्रान्तीय सरकारों को अक्षम स्थानीय निकायों से शिक्षा की व्यवस्था अपने हाथों में ले लेनी चाहिए।
- केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों के शैक्षिक कार्यक्रमों में तालमेल होनी चाहिए।
पूर्व प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
बोर्ड की सम्मति में किसी भी देश को शिक्षा योजना में शिशु शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। इस सन्दर्भ में उसने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- भारत में 3 से 6 वर्ष के बच्चों के लिए शिशु विद्यालय (Nursery Schools) खोले जाएँ। प्रारम्भ में यह व्यवस्था कम से कम 10 लाख बच्चों के लिए की जाए।
- जिन नगरों में शिशुओं की संख्या अधिक है वहाँ अलग से शिशु विद्यालय खोले जाएँ। कम संख्या वाले क्षेत्रों में इन्हें प्राथमिक विद्यालयों के साथ जोड़ा जाए।
- शिशु शिक्षा निःशुल्क हो।
- इस स्तर पर बच्चों को सामान्य ज्ञान के साथ-साथ सद्व्यवहार और सामाजिक बोध को शिक्षा दी जाए।
- शिशु विद्यालयों में केवल महिला अध्यापिकाओं की नियुक्ति की जाए। ये अध्यापिकाएँ विशेष प्रशिक्षण प्राप्त होनी चाहिए।
- शिशु विद्यालयों में शिशुओं की उपस्थिति अनिवार्य नहीं होनी चाहिए, पर उनके अभिभावकों को उन्हें नियमित रूप से विद्यालय भेजने के लिए अभिप्रेरित अवश्य किया जाए।
प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
बोर्ड ने प्राथमिक स्तर के लिए बेसिक शिक्षा को स्वीकार किया, परन्तु कुछ परिवर्तनों के साथ उसने प्राथमिक शिक्षा को किसी आधारभूत शिल्प के माध्यम से दी जाने को सिद्धान्ततः स्वीकार किया परन्तु साथ ही यह कहा कि प्राथमिक शिक्षा को आत्मनिर्भर बनाने की बात नहीं सोचनी चाहिए क्योंकि बच्चों द्वारा उत्पादित वस्तुएँ उपयोगी नहीं होतीं, उन्हें बेचा नहीं जा सकता। और प्राथमिक शिक्षा के सम्बन्ध में उसने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- 6 से 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए 8 वर्षीय अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
- प्राथमिक शिक्षा को दो स्तरों में बाँटा जाए- जूनियर बेसिक (6 से 11 वर्ष अर्थात् कक्षा 1 से 5 तक) और सीनियर बेसिक (11 से 14 वर्ष अर्थात् कक्षा 6 से 8 तक)।
- प्राथमिक शिक्षा में अपव्यय रोकने के लिए उसे अनिवार्य बनाना आवश्यक है।
- प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने के लिए उपस्थिति निरीक्षक अधिकारियों (Attendance Officers) की नियुक्ति की जाए।
- जूनियर बेसिक शिक्षा का रूप क्रियात्मक होना चाहिए।
- जूनियर बेसिक स्तर पर अंग्रेजी का अध्ययन अनिवार्य न किया जाए।
- जूनियर बेसिक विद्यालयों में सहशिक्षा होगी।
- जूनियर बेसिक विद्यालयों में जहाँ तक सम्भव हो महिला शिक्षिकाओं की नियुक्ति की जाए।
- जूनियर बेसिक विद्यालयों में अध्यापक-छात्र अनुपात 1: 30 होना चाहिए।
- सीनियर बेसिक शिक्षा में उन्हीं बच्चों को प्रवेश दिया जाए जो उच्च शिक्षा प्राप्त करने की स्थिति में न हों: उच्च योग्यता एवं क्षमता के बच्चों को माध्यमिक स्कूलों की कक्षा 6 में प्रवेश दिया जाए।
- सीनियर बेसिक स्तर को पाठ्यचर्या ऐसी हो जिसके द्वारा बच्चों को सामान्य जीवन जीने योग्य बनाया जा सके, किसी स्थानीय हस्तकौशल में प्रशिक्षित किया जा सके।
- सीनियर बेसिक स्कूलों में सामूहिक क्रियाओं को विशेष महत्त्व दिया जाए।
- इस स्तर पर अंग्रेजी की शिक्षा के सम्बन्ध में निर्णय लेने का अधिकार प्रान्तीय सरकारों को होगा, वे परिस्थितिनुसार निर्णय ले सकेंगी।
- सीनियर बेसिक विद्यालय लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग होंगे।
- सीनियर बेसिक विद्यालयों में शिक्षक-छात्र अनुपात 1:25 होना चाहिए।
- प्राथमिक स्तर पर बाह्य परीक्षाएँ नहीं होनी चाहिएँ, विद्यालयों द्वारा ही परीक्षा ली जाएँ।
- उत्तीर्ण छात्र-छात्राओं को प्रमाण-पत्र दिए जाएँ।
माध्यमिक शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
बोर्ड ने शिक्षा के इण्टरमीडिएट (कक्षा 11 और 12) स्तर को समाप्त कर उसके प्रथम वर्ष (कक्षा 11) को माध्यमिक शिक्षा में जोड़ने और द्वितीय वर्ष (कक्षा 12) को स्नातक शिक्षा में जोड़ने का सुझाव दिया और इस प्रकार माध्यमिक शिक्षा को प्राथमिक और उच्च शिक्षा के मध्य की कड़ी बना दिया। उसने इस नई माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में अग्रलिखित सुझाव दिए-
- माध्यमिक शिक्षा 6 वर्षीय (11 से 17 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए अर्थात् कक्षा 6 से 11 तक) होगी ।
- माध्यमिक शिक्षा की कक्षा में जूनियर प्राथमिक शिक्षा उत्तीर्ण बच्चों में से केवल औसत से ऊँची योग्यता के बच्चों को ही प्रवेश दिया जाएगा जो कुल के 20% के लगभग होंगे। शेष 80% छात्रों को सीनियर बेसिक स्कूलों की कक्षा में प्रवेश दिया जाएगा।
- हाईस्कूल दो प्रकार के होंगे- साहित्यिक (Academic) और प्राविधिक (Technical)। साहित्यिक स्कूलों में कला और विज्ञान की शिक्षा दी जाएगी और प्राविधिक स्कूलों में व्यावसायिक विषयों की।
- दोनों प्रकार के स्कूलों में प्रथम तीन वर्षीय पाठ्यक्रम (कक्षा 6 से 8 तक) समान रहेगा।
- आगे के तीन वर्षीय पाठ्यक्रम (कक्षा 9 से 11 तक) में कुछ विषय समान रहेंगे; जैसे- मातृभाषा, अंग्रेजी, गणित, विज्ञान, अर्थशास्त्र, कृषि और शारीरिक शिक्षा और कुछ विषय अलग-अलग होंगे।
(ii) प्राविधिक स्कूलों में काष्ठ कला, धातु कला, वास्तुकला, चर्मकार्य, साधारण इन्जीनियरिंग, ड्राइंग, वाणिज्य, बुक कीपिंग, शार्टहैण्ड, टाइप राइटिंग, एकाउन्टैन्सी और व्यापार पद्धति ।
- दोनों प्रकार के विद्यालय में बालिकाओं के लिए गृह विज्ञान की सुविधा उपलब्ध होगी।
- माध्यमिक स्तर को पाठ्यचर्या केवल उच्च शिक्षा में प्रवेश की दृष्टि से ही विकसित न की जाए, यह अपने में पूर्ण इकाई होनी चाहिए।
- दोनों प्रकार के माध्यमिक स्कूलों में अंग्रेजी अनिवार्य होनी चाहिए।
- माध्यमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषाएँ) होनी चाहिए।
- अध्यापकों का प्रशिक्षण, उनकी सेवा शर्ते और वेतनमान वही हों जो केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने पहले से ही निश्चित किए हैं।
- योग्य और निर्धन छात्रों को शुल्क मुक्ति दी जानी चाहिए परन्तु 50% छात्रों तक।
- अतिनिर्धन छात्रों को छात्रवृत्तियाँ दी जाएँ।
- इस स्तर पर बालक-बालिकाओं के लिए अलग-अलग विद्यालय होने चाहिए।
- विद्यालयों में अध्यापक-छात्र अनुपात 1: 20 होना चाहिए।
उच्च शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
बोर्ड ने सर्वप्रथम तो तत्कालीन विश्वविद्यालयों की उपलब्धियों की प्रशंसा की और उसके बाद उनके गिरते हुए स्तर के प्रति चिन्ता व्यक्त की। उसने विश्वविद्यालयी उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिए-
- महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों से इण्टरमीडिएट कक्षाएँ समाप्त कर दी जाएँ। इसका प्रथम वर्ष (कक्षा 11) माध्यमिक शिक्षा से जोड़ दिया जाए और द्वितीय वर्ष (कक्षा 12) स्नातक शिक्षा से जोड़ दिया जाए और स्नातक पाठ्यक्रम तीन वर्षीय कर दिया जाए।
- उच्च शिक्षा में प्रवेश के नियम कठोर किए जाएँ, ये ऐसे हों कि माध्यमिक शिक्षा उत्तीर्ण 15 छात्रों में से केवल 1 छात्र के अनुपात में ही प्रवेश ले सकें।
- उच्च शिक्षा का पाठ्यक्रम उपयोगी बनाया जाए और विश्वविद्यालयों में अनुसंधान को उचित व्यवस्था की जाए।
- विभिन्न विश्वविद्यालयों के कार्यों में एकरूपता लाने और उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप उन्हें अनुदान देने के लिए केन्द्र में विश्वविद्यालय अनुदान समिति (University Grants Committee) का गठन किया जाए।
- महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में योग्य प्राध्यापकों की नियुक्ति की जाए।
- महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों के वेतनमान और सेवाशतों में सुधार किया जाए।
- महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में छात्राओं की संख्या बहुत कम है. महिला छात्राओं को प्रवेश के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
- निर्धन छात्र-छात्राओं को आर्थिक सहायता दी जाए, लगभग एक तिहाई छात्र-छात्राओं को छात्रवृत्तियाँ दी जाएँ।
- शिक्षक-शिक्षार्थियों के बीच निकट का सम्पर्क स्थापित किया जाए। इसके लिए विश्वविद्यालयों में उपकक्षा प्रणाली (Tutorial System) की व्यवस्था की जाए।
औद्योगिक एवं तकनीकी शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
बोर्ड को सम्मति में औद्योगिक एवं तकनीकी शिक्षा, सामान्य शिक्षा से भिन्न है इसलिए इसका प्रशासन एवं संगठन अलग से होना चाहिए। इस सम्बन्ध में उसने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- देश में 'राष्ट्रीय तकनीकी शिक्षा परिषद' (National Council for Technical Education) की स्थापना की जाए। यह परिषद तकनीकी शिक्षा की नीति निर्धारण करेगी और विभिन्न प्रकार की तकनीकी संस्थाओं में समन्वय स्थापित करने का कार्य करेगी।
- देश के उद्योग एवं व्यवसाय के क्षेत्र में चार वर्ग के व्यक्तियों की माँग है- अर्द्धकुशल कर्मकार, कुशल कर्मकार, कनिष्ट अधिकारी और उच्च अधिकारी।
अतः इनके शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था निम्नलिखित रूप में की जाए-
(i) अर्द्धकुशल कर्मकार (Semi Skilled Labour)- के शिक्षण प्रशिक्षण की व्यवस्था सीनियर बेसिक स्कूलों में की जाये।
(ii ) कुशल कर्मकार (Skilled Craftsmen)- के शिक्षण-प्रशिक्षण को व्यवस्था उद्योगों के स्कूलों में की जाए। अतः इन स्कूलों में प्रवेश के लिए अभ्यार्थियों का कम से कम मिडिल पास होना जरूरी हो।
(iii) कनिष्ट अधिकारी एवं फारमैन आदि (Junior Executives and Foremen etc)- के शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था तकनीकी हाई स्कूलों में होनी चाहिए।
(iv) वरिष्ठ अधिकारी एवं अनुसंधानकर्ता (Chief Executives and Research Workers) के शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था तकनीकी महाविद्यालयों (Technical लॉस एन्ट Colleges), और विश्वविद्यालयों के तकनीकी शिक्षा विभागों (Deptts. of Technical Education) में को जानी चाहिए। इनमें माध्यमिक शिक्षा उच्च श्रेणी में पास करने वाले अभ्यार्थियों को प्रवेश दिया जाए।
- वाणिज्य शिक्षा दो भागों में विभाजित होनी चाहिए- बैंकिग एवं एकाउंटिंग (Banking and Accounting) और ऑडिटिंग (Auditing)।
- बोर्ड ने दो प्रकार के तकनीकी स्कूल और कॉलिज स्थापित करने का सुझाव दिया- पूर्णकालीन (Full Tune) और अल्पकालीन (Part Time)। पूर्णकालीन उन छात्र-छात्राओं के लिए जो किसी उद्योग अथवा व्यवसाय में कार्य करना चाहते हैं और अल्पकालीन उन व्यक्तियों के लिए जो किसी उद्योग अथवा व्यवसाय में कार्यरत है।
मन्द बुद्धि एवं विकलांग बालकों की शिक्षा
बोर्ड की सम्मति में मानसिक दृष्टि से पिछड़े और शारीरिक दृष्टि से विकलांग बालकों की शिक्षा का सबसे पहला उद्देश्य उनमें आत्मविश्वास पैदा करना करना और उन्हें आत्मनिर्भर बनाना होना चाहिए। इनको शिक्षा के सन्दर्भ में उसने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- मन्द बुद्धि, गूंगे-बहरे और अपंग बच्चों के लिए अलग-अलग विद्यालय खोले जाएं।
- इन विद्यालयों में विशेष प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षकों की नियुक्ति की जाए।
छात्र-छात्राओं के स्वास्थ्य सम्बन्धी सुझाव
बोर्ड की सम्मति में किसी भी शिक्षा योजना में बच्चों के स्वास्थ्य की रक्षा और उसके विकास की तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए। अतः इस सन्दर्भ में उसने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- विद्यालयों में स्वास्थ्य शिक्षा अनिवार्य हो।
- विद्यालयों का पर्यावरण स्वच्छ हो, कमरे बड़े हों और बैठने का फर्नीचर उपयुक्त हो।
- विद्यालयों में मध्याह्न भोजन की व्यवस्था हो।
- छात्रों के स्वास्थ्य की जाँच 6, 11 और 14 वर्ष की आयु पर की जाए।
- छात्रों के स्वास्थ्य सम्बन्धी सूचनाएँ छात्रों के संचित अभिलेखों (Cumulative Records) में अंकित की जाएँ।
- विद्यालयों में साधारण रोगों की चिकित्सा की निःशुल्क व्यवस्था हो।
- दुर्बल छात्रों पर विशेष ध्यान दिया जाए।
छात्र-छात्राओं के लिए मनोरंजनात्मक और सामाजिक क्रियाएँ
बोर्ड की सम्मति में छात्रों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए मनोरंजन आवश्यक है और उन्हें राष्ट्र का समर्पित नागरिक बनाने के लिए सामाजिक कार्य आवश्यक हैं।अतः इस सन्दर्भ में उसने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- जूनियर और सोनियर बेसिक स्कूलों में शारीरिक व्यायाम, उद्यान रख-रखाव, लोकनृत्य, लोकगीत, अभिनय और जूनियर रेडक्रास की व्यवस्था की जाए।
- हाई स्कूलों में इन सबके साथ-साथ वाद-विवाद और अन्तर्विद्यालय प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाए; समाज सेवा कार्यों का आयोजन हो।
- महाविद्यालय और विश्वविद्यालय स्तर पर उनकी रुचि की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक क्रियाओं का आयोजन किया जाए और समाज सेवा कायों की व्यवस्था की जाए।
शिक्षक प्रशिक्षण सम्बन्धी सुझाव
इस योजना में शिशु और जूनियर बेसिक स्तर पर 1: 30, सीनियर बेसिक स्तर पर 1: 25 और हाई स्कूल स्तर पर 1:20 शिक्षक-छात्र अनुपात का सुझाव दिया गया था। बोर्ड ने अनुमान लगाया कि तब आगे आने वाले 40 वर्षों में अलग से 20 लाख प्राथमिक शिक्षक और 2 लाख माध्यमिक शिक्षकों की आवश्यकता होगी।
इस सन्दर्भ में उसने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- पूर्व प्राथमिक और जूनियर बेसिक स्कूलों के शिक्षकों के लिए 'जूनियर शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालयों' की स्थापना की जाए। इनमें प्रवेश के लिए न्यूनतम योग्यता मिडिल पास हो और यह प्रशिक्षण 2 वर्ष की अवधि का हो।
- सीनियर बेसिक स्कूलों के शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए 'सीनियर शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालयों' की स्थापना की जाए। इनमें प्रवेश की न्यूनतम योग्यता हाईस्कूल पास हो और इस प्रशिक्षण को अवधि 3 वर्ष हो ।
- माध्यमिक स्कूलों के शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालयों' की स्थापना की जाए। इनमें प्रवेश के लिए न्यूनतम योग्यता स्नातक पास हो और प्रशिक्षण अवधि 1 वर्ष हो ।
- सभी प्रकार के प्रशिक्षित शिक्षकों के लिए अभिनव पाठ्यक्रम (Refresher Courses) की व्यवस्था की जाए।
- जहाँ तक सम्भव हो सभी प्रकार के शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय और महाविद्यालय आवासीय होने चाहिए।
- शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालयों और महाविद्यालयों में प्रशिक्षणार्थियों से किसी प्रकार का शुल्क न लिया जाए।
- निर्धन प्रशिक्षणार्थियों को आर्थिक सहायता दी जाए।
- योग्य व्यक्तियों को शिक्षण व्यवसाय की ओर आकर्षित करने के लिए सभी स्तरों के शिक्षकों के वेतनमानों में वृद्धि की जाए।
- व्यक्तित्व के मापन की व्याख्या एवं विधियों का वर्णन
- व्यक्तिगत परामर्श क्या है ?
- व्यक्तित्व की अवधारणा क्या है?
प्रौढ़ शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
बोर्ड की सम्मति में 10 वर्ष से कम आयु के निरक्षर बच्चों को प्राथमिक शिक्षा की ओर आकर्षित करना चाहिए और 10 वर्ष से 40 वर्ष की आयु वर्ग के निरक्षर बच्चों, युवकों और प्रौढ़ों के लिए प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए।
इस सम्बन्ध में उसने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था का उत्तरदायित्व राज्य सरकारों का होना चाहिए।
- प्रौढ़ शिक्षा का उद्देश्य प्रौढ़ों को केवल साक्षर बनाना ही नहीं होना चाहिए, उन्हें व्यावहारिक एवं व्यावसायिक ज्ञान एवं कौशल प्रदान करना भी होना चाहिए।
- प्रौढ़ शिक्षा का कार्यक्रम क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुकूल होना चाहिए।
- 10 वर्ष से 16 वर्ष तक के निरक्षर लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र बनाए जाएँ।
- 17 से 40 वर्ष आयु के युवक एवं प्रौढ़ पुरुषों और महिलाओं के लिए ये केन्द्र समान हो सकते
- प्रारम्भ में प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र प्राथमिक विद्यालयों के भवनों और स्वास्थ्य केन्द्रों पर चलाए जाएँ, बाद में आवश्यकतानुसार इनका विस्तार किया जाए।
- प्रौढ़ शिक्षा की अवधि कम से कम 1 वर्ष हो।
- एक प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र पर 25 से अधिक प्रौढ़ न रखे जाएँ।
- प्रौढ़ शिक्षा को रोचक बनाने के लिए दृश्य-श्रव्य साधनों का प्रयोग किया जाए।
- प्रौढ़ शिक्षा को प्रभावी बनाने के लिए प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों पर वाचनालय एवं पुस्तकालयों की व्यवस्था की जाए।
- प्रौढ़ शिक्षा की निरन्तरता हेतु सम्पूर्ण देश में 20 वर्षों के अन्दर जगह-जगह सार्वजनिक वाचनालयों एवं पुस्तकालयों की व्यवस्था की जाए।
सार्जेन्ट योजना का मूल्यांकन एवं गुण-दोष
किसी भी वस्तु, विचार अथवा क्रिया का मूल्यांकन कुछ आधारभूत मानदण्डों के आधार पर किया जाता है। सार्जेन्ट योजना एक शिक्षा योजना है, इसके मूल्यांकन का मानदण्ड इसकी उपयोगिता ही हो सकती है। अतः हमें यह देखना होगा कि इसने तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था को क्या दिशा दी, उसका क्या प्रभाव पड़ा और वह हमारे लिए कितनी उपयोगी साबित हुई।
अतः इस दृष्टि से इस योजना में निम्नलिखित गुण-दोष रहे-
सार्जेन्ट योजना के गुण
- सार्जेन्ट योजना बिटिश काल की पहली शिक्षा योजना है जिसे भारत की तत्कालीन आवश्यकताओं के अनुकूल बनाया गया था। यह सही अर्थों में राष्ट्रीय शिक्षा योजना थी।
- ब्रिटिश काल की यह पहली योजना है जिसमें शिक्षा के सभी स्तरों-पूर्व प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक और उसके सभी पक्षों-प्रशासन एवं संगठन आदि पर पूर्णरूप से विचार किया गया और उसका भावी कार्यक्रम बनाया गया।
- भारत में ब्रिटिश काल में अब तक जितना भी शैक्षिक चिन्तन हुआ था उसका मूल आधार यह था कि भारतीय यूरोपीय ऊँचाइयों को स्पर्श नहीं कर सकते। इस योजना के निर्माताओं ने भारतीयों को भारतीय पद्धति से यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान में परिपक्व कर यथा ऊँचाइयों तक पहुँचाने का मार्ग प्रशस्त किया।
- यह ब्रिटिश काल की पहली शिक्षा योजना है जिसे पूरा करने के लिए समय भी निश्चित किया गया 40 वर्ष और उसके लिए अनुमानित व्यय भी बताया गया जो 313 करोड़ रुपया है।
- इस योजना में केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों के शैक्षिक उत्तरदायित्व निश्चित किए गए और स्पष्ट किए गए।
- इस योजना में केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों के शैक्षिक कार्यों में तालमेल रखने के लिए केन्द्रीय शिक्षा विभाग की स्थापना का विचार प्रस्तुत किया गया।
- इस योजना में देश भर में व्यावसायिक निर्देशन केन्द्र और रोजगार कार्यालय खोलने का सुझाव दिया गया। इससे शिक्षित बेरोजगारी की समस्या हल होती है।
- यह भारत की सर्वप्रथम योजना है जिसमें पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क बनाने का सुझाव दिया गया है।
- इस योजना में माध्यमिक एवं उच्च और तकनीकी शिक्षा में सुधार के लिए ठोस सुझाव दिए गए हैं। इन स्तरों पर केवल योग्य छात्रों को प्रवेश देने का सुझाव सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है।
- यह पहली योजना है जिसमें मन्द बुद्धि एवं विकलांग बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था की बात कही गई है।
- इस योजना में शिक्षकों के प्रशिक्षण की पूरी योजना तैयार की गई है।
- यह भारत की पहली शिक्षा योजना है जिसमें प्रौढ़ शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया गया और उसकी व्यवस्था की योजना प्रस्तुत की गई।
- यह भारत की पहली शैक्षिक योजना है जिसमें शैक्षिक अवसरों की समानता की ओर कदम बढ़ाया गया था।
सार्जेन्ट योजना के दोष
- यह योजना बड़ी दीर्घकालीन योजना थी 40 वर्षीय।
- इस योजना को पूरा करने के लिए जिस धनराशि 313 करोड़ रुपये का अनुमान लगाया गया था, वह अपने में अपर्याप्त थी। फिर यह भी नहीं बताया गया कि उतनी बड़ी धनराशि का स्रोत क्या होगा।
- यह योजना उद्योग प्रधान देश इंग्लैण्ड की शिक्षा प्रणाली के आधार पर तैयार की गई थी, इसमें औद्योगिक एवं तकनीकी शिक्षा पर अधिक बल है जबकि भारत एक कृषि-प्रधान देश है, इसकी शिक्षा में सबसे अधिक बल कृषि शिक्षा पर होना चाहिए था।
- यूँ यह शिक्षा योजना अब तक की शिक्षा नीतियों में सबसे अधिक व्यापक है परन्तु फिर भी कुछ पक्ष अछूते रह गए जैसे-चिकित्सा शिक्षा, महिला शिक्षा और धार्मिक शिक्षा।
सार्जेन्ट शिक्षा योजना का प्रभाव
अब थोड़ा विचार करें इस योजना के प्रभाव पर। यह योजना भारत के लिए बड़ी उत्साहवर्द्धक थी। केन्द्रीय सरकार ने इसे प्राप्त करते ही इसके क्रियान्वयन हेतु पंचवर्षीय कार्यक्रम बनाने का आदेश दिया और प्रथम पंचवर्षीय शिक्षा योजना के पूरा करने के लिए 10 करोड़ रुपया देना भी स्वीकार किया। इतना ही नहीं अपितु उसने 40 वर्षोंय इस योजना को 16 वर्षों में पूरा करने की योजनाएँ बनाने के लिए भी आदेश दिया।
प्रथम पंचवर्षीय शैक्षिक योजना के अनुपालन में दिल्ली में 1945 में पौलीटैक्नीकल शिक्षा ब्यूरो (Bureav, of Polytechnical Education) और 1946 में विश्वविद्यालय अनुदान समिति (University Grant committee) की स्थापना की गई और शिक्षा के हर स्तर पर योजनाबद्ध कार्य शुरु हुए परन्तु किसी भी स्तर की शिक्षा की संतोषजनक प्रगति नहीं हो सकी।
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अतः यह तथ्य निम्नांकित तालिका में एक नजर में देखा-समझा जा सकता है। उसी बीच 1947 में हमारा देश स्वतन्त्र हो गया, हमने उसे अंग्रेजों द्वारा निर्मित शिक्षा योजना होने के कारण संका की दृष्टि से देखा और स्वतन्त्र भारत के लिए नए सिरे से शैक्षिक योजना बनाने के लिए प्रयास शुरु किए। इस सबका वर्णन स्वतन्त्र भारत में शिक्षा की प्रगति के अन्तर्गत किया गया है।
शिक्षा की प्रगति -1937 से 1947
वर्ष |
प्राथमिक |
माध्यमिक |
उच्च |
||||
स्कूलों की संख्या |
छात्रों की संख्या |
स्कूलों की संख्या |
छात्रों की संख्या |
वि.वि. की संख्या |
महाविद्यालयों की
संख्या |
छात्रों की संख्या |
|
1936-37 1946-47 |
112244 134866 |
10224288 10525943 |
13056 11907 |
2287872 2681981 |
17 19 |
366 433 |
126288 240000 |
उपसंहार
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ब्रिटिश सरकार ने पहली बार नेक इरादे से इस शिक्षा योजना का निर्माण कराया था। यह योजना अपने सही अर्थों में राष्ट्रीय शिक्षा योजना थी, परन्तु स्वतन्त्र होते ही हमने उसे शक की निगाह से देखना शुरु किया और स्वतन्त्र भारत के लिए नई शिक्षा योजना बनाने के लिए प्रयास शुरु किए। परन्तु हमने अभी तक कुछ नया कर पाया है, यह नहीं कहा जा सकता। यदि निष्पक्ष दृष्टि से देखा-समझा जाए तो हमारे देश में स्वतन्त्र होने के बाद जो कुछ भी शैक्षिक चिन्तन हुआ है उसका मूल आधार वुड का घोषणा पत्र (1854), भारतीय शिक्षा आयोग (1882), भारतीय विश्वविद्यालय आयोग (1902), कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग (1917), वर्धा योजना (1937) और साजेंन्ट योजना (1944) ही रहे हैं। तब हमें सार्जेन्ट योजनाकारों का शुक्रगुजार होना चाहिए।