कम्पनी से आशय एवं परिभाषा
कम्पनी (COMPANY) शब्द लैटिन भाषा से लिया गया है, जिसमें 'COM' का आशय 'साथ-साथ' और 'PANY' का आशय 'रोटी' से है। प्रारम्भ में कम्पनी से आशय एक ऐसे व्यक्तियों के संघ से था जो अपनी रोटी या खाना एक साथ मिलकर खाते थे। इस खाने पर व्यवसाय सम्बन्धी बातें भी करते थे। आजकल कम्पनी से आशय व्यक्तियों के ऐसे समुदाय से है जिसमें संयुक्त पूँजी होती है।
सामान्य शब्दों में, कम्पनी का आशय लाभ के उद्देश्य से निर्मित कुछ व्यक्तियों की एक ऐच्छिक संस्था है जिसकी पूँजी हस्तान्तरणशील सीमित दायित्व वाले अंशों में विभाजित होती है और जिसका रजिस्ट्रेशन या समामेलन एक कृत्रिम व्यक्ति के रूप में कम्पनी अधिनियम के अधीन होता है।
(1) न्यायाधीश जेम्स के अनुसार- "कम्पनी का आशय किसी सामान्य उद्देश्य के लिए निर्मित बहुत से व्यक्तियों का एक संघ है।"
(2) न्यायाधीश लिण्डले के अनुसार- "कम्पनी का तात्पर्य ऐसे व्यक्तियों के एक संघ से है जो द्रव्य या द्रव्य के बराबर के अंशदान एक संयुक्त कोष में जमा करते हैं और उसका प्रयोग एक निश्चित उद्देश्य के लिए होता है। इस प्रकार संयुक्त कोष मुद्रा में प्रकट किया जाता है और वह कम्पनी की पूँजी होती है।"
(3) प्रो. हैने के अनुसार- "संयुक्त स्कन्ध प्रमण्डल व्यक्तियों के लाभोपार्जन के लिए बनाई गई एक ऐच्छिक संस्था है। जिसकी पूँजी हस्तान्तरणीय अंशों में विभक्त होती है और जिसका स्वामित्व ही सदस्य की शर्त होती है।"
(4) किम्बाल एवं किम्बाल के अनुसार-"कम्पनी स्वभाव से एक कृत्रिम व्यक्ति है जिसका निर्माण विधान द्वारा किसी विशेष उद्देश्य से किया जाता है। इसे केवल वही अधिकार एवं सुविधाएँ प्राप्त होती हैं जो इसे अधिनियम द्वारा प्रदान की जाती हैं।"
(5) भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1956 की धारा 3 (1) (i) के अनुसार- "कम्पनी का आशय इस अधिनियम के अधीन निर्मित कम्पनी अथवा किसी विद्यमान कम्पनी से है।"
(6) भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1956 की धारा 3 (1) (ii) के अनुसार- "विद्यमान कम्पनी से आशय किसी ऐसी कम्पनी से है जिसका निर्माण तथा रजिस्ट्री पिछले कम्पनी अधिनियमों में से किसी के भी अधीन की गई हो।"
उपरोक्त परिभाषाओं में कम्पनी के किसी न किसी तथ्य पर अवश्य प्रकाश डाला गया है किन्तु प्रो. एल. एच. हैने द्वारा दी गई परिभाषा में कम्पनी की सभी विशेषताओं का समावेश है। फिर भी कम्पनी की एक उचित परिभाषा निम्न प्रकार दी जा सकती है-
कम्पनी विधान द्वारा निर्मित एक कृत्रिम व्यक्ति है, जिसका समामेलन किसी विशेष उद्देश्य के लिए कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत होता है जिसके सदस्यों का दायित्व सीमित होता है, जिसका अस्तित्व सदस्यों से पृथक होता है, जो सार्वमुद्रा युक्त होती है तथा जिसके अंश हस्तान्तरणीय होते हैं।
कम्पनी की विशेषताएँ या लक्षण
एक संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी (प्रमण्डल) में निम्नलिखित लक्षण अथवा विशेषताएँ पायी जाती हैं-
(1) कानून द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति
कम्पनी एक कृत्रिम या बनावटी व्यक्ति है, जिसका निर्माण कम्पनी विधान के अन्तर्गत होता है। सामान्य व्यक्तियों की भाँति कम्पनी हाड़, माँस व खून का व्यक्ति नहीं है और न ही उसका जन्म माँ के गर्भ होता है। बनावटी व्यक्ति होते हुए भी कानून कम्पनी को एक वास्तविक या सजीव व्यक्ति की भाँति निम्नांकित अधिकार प्रदान करता है-
(i) जिस प्रकार किसी व्यक्ति को किसी सम्पत्ति का क्रय-विक्रय करने का अधिकार होता है, उसी प्रकार एक कम्पनी भी अन्य लोगों या संस्थाओं से क्रय-विक्रय कर सकती है।
(ii) जिस प्रकार एक व्यक्ति को अन्य लोगों के साथ अनुबन्ध करने का अधिकार होता है। उसी प्रकार कम्पनी भी किसी व्यक्ति, संस्था से अनुबन्ध कर सकती है।
(iii) जिस प्रकार कोई व्यक्ति किसी प्रपत्र पर निजी हस्ताक्षर करता है और फिर उससे बाध्य होता है, ठीक उसी प्रकार कम्पनी अपने द्वारा निर्मित प्रपत्रों पर अपनी सार्वमुद्रा का प्रयोग करती है तथा उससे बाध्य भी होती है।
(iv) जिस प्रकार एक व्यक्ति अन्य व्यक्तियों पर वाद प्रस्तुत करने का अधिकार रखता है एवं अन्य व्यक्ति भी उस पर वाद प्रस्तुत कर सकते हैं, ठीक उसी प्रकार कम्पनी भी दूसरों पर वाद प्रस्तुत कर सकती है तथा अन्य पक्ष कम्पनी पर वाद प्रस्तुत कर सकते हैं।
(2) पृथक् वैधानिक अस्तित्व
कम्पनी अधिनियम के अनुसार समामेलन के पश्चात् कम्पनी का उसके सदस्यों से पृथक् अस्तित्व हो जाता है। वास्तव में इसकी रचना व्यक्तियों के एक संगठन का व्यक्तिगत तौर की अपेक्षा किसी क्रिया को अधिक सुविधापूर्वक संचालित करने के लिए की जाती है। पृथक् वैधानिक अस्तित्व के कारण कम्पनी के व्यक्तिगत अधिकार एवं कर्त्तव्य सदस्यों के व्यक्तित्व, अधिकार एवं कत्र्तव्यों से भिन्न होते हैं। इसी विशेषता के कारण कम्पनी व्यापार के संचालन सम्बन्धी कार्य कर सकती है। कम्पनी के सदस्य कम्पनी पर दावा प्रस्तुत कर सकते हैं। पृथक् अस्तित्व के कारण ही सदस्यों की व्यक्तिगत क्रियाओं का कम्पनी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
(3) स्थायी अस्तित्व
कानून के अनुसार कम्पनी का अस्तित्व उसके सदस्यों से पृथक् होता है। सदस्यों की क्रियाओं का कम्पनी के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सदस्यों के दिवालिया होने, मृत्यु होने अथवा कम्पनी में आने या जाने का कम्पनी पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। ब्लेकस्टोन ने कम्पनी की तुलना एक सदा प्रवाहित रहने वाली नदी से की है और कहा है कि कम्पनी एक ऐसा व्यक्ति है, जो कभी नहीं मरता, उप्सी प्रकार जैसे टेम्स नदी अभी भी वही नदी है यद्यपि उसका निर्माण करने वाले तत्त्व हर क्षण बदल रहे हैं।
(4) सार्व मुद्रा
सार्व मुद्रा कम्पनी के सामान्य अस्तित्व का प्रतीक है। अतएव कम्पनी को बाध्य करने के लिए प्रत्येक प्रलेख पर सार्व मुद्रा का लगाना आवश्यक है।
(5) सीमित दायित्व
प्रत्येक अंशधारी का दायित्व उसके द्वारा खरीदे गये अंशों के अंकित मूल्य तक ही सीमित होता है। हानि होने की दशा में कम्पनी के ऋणदाता अंशधारियों की निजी सम्पत्ति पर किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकते, जैसे-राम किसी कम्पनी के 10 अंश खरीदता है तथा प्रत्येक का अंकित मूल्य 10रु. है, तो ऐसी स्थिति में उससे 100 रु. से ज्यादा नहीं माँगे जा सकते।
(6) अंश-पूँजी एवं अंशधारी
कम्पनी की एक विशेषता यह है कि इसकी पूँजी कई छोटे-छोटे भागों में बँटी हुई होतो है। इन छोटे- छोटे हिस्सों को ही अंश कहते हैं। जो व्यक्ति इन अंशों को क्रय करते हैं वे कम्पनी के अंशधारी कहलाते हैं। वर्तमान समय में प्रत्येक सार्वजनिक कम्पनी में कम से कम 5 लाख रु. एवं निजी कम्पनी में । लाख रु. की पूँजी होना आवश्यक है परन्तु कला, विज्ञान एवं वाणिज्य के विकास के लिए बनाई गई कम्पनी में अंश-पूँजी का होना आवश्यक नहीं है।
(7) अंश हस्तान्तरण
साधारणतया कम्पनी के अंशधारी अपने अंशों का हस्तान्तरण करने का अधिकार रखते हैं। अर्थात् वे अपने अंशों का हस्तान्तरण किसी अन्य व्यक्ति के पक्ष में कर सकते हैं।
(8) अभियोग चलाने के अधिकार
कम्पनी अपने नाम से दूसरे पर अभियोग चलाने का अधिकार रखती है तथा इसी प्रकार अन्य व्यक्तियों को भी कम्पनी पर अभियोग चलाने का अधिकार है।
(9) पृथक् सम्पत्ति
यह निर्विवाद सत्य है कि कम्पनी की सम्पत्ति इसके अंशधारियों की सम्पत्ति नहीं है, अपितु कम्पनी की अपनी ही सम्पत्ति है। कम्पनी अपने नाम में सम्पत्ति का क्रय-विक्रय कर सकती है उसे अपने नाम से रख सकती है, उसे बन्धक रख सकती है एवं उसका उपयोग कर सकती है।
(10) प्रतिनिधि व्यवस्था
चूंकि कम्पनी में सदस्यों की संख्या अधिक होती है तथा यह सम्भव नहीं है कि प्रत्येक सदस्य कम्पनी के संचालन में भाग ले सके। अतएव कम्पनी में प्रतिनिधि शासन पद्धति होती है। इस प्रकार कम्पनी का प्रबन्ध उसके प्रतिनिधि संचालकों द्वारा किया जाता है।
(11) अन्तर्नियम
कम्पनी के मूल उद्देश्य पार्षद सीमानियम में दिये गये हैं किन्तु उन उद्देश्यों की पूर्ति तथा कार्य संचालन सम्बन्धी नियम कम्पनी के पार्षद अन्तर्नियमों में दिये होते हैं। इन अन्तर्नियमों की सीमा के भीतर ही संचालक-मण्डल कार्य करता है। साधारणतया कोई भी कम्पनी अपने पार्षद सीमानियम तथा अन्तर्नियम एवं कम्पनी अधिनियम के बाहर कार्य नहीं कर सकती।
(12) ऋण प्राप्ति का अधिकार
कम्पनी वित्तीय साधनों में वृद्धि करने के लिए ऋण-पत्रधारी जारी करके ऋण प्राप्त करने का अधिकार है। इसके अतिरिक्त व्यापारिक बैंकों तथा वित्तीय संस्थाओं से भी कम्पनी ऋण प्राप्त कर सकती है।
(13) कार्य क्षेत्र की सीमाएँ
एक कम्पनी अपने पार्षद सीमानियम तथा पार्षद अन्तर्नियमों से बाहर कार्य नहीं कर सकती है। इसका कार्य क्षेत्र कम्पनी अधिनियम तथा इसके सीमानियम व अन्तर्नियम द्वारा सीमित होता है।
(14) लाभ के लिए ऐच्छिक संघ
प्रत्येक कम्पनी सामाजिक हित को ध्यान में रखते हुए लाभ कमाने के उद्देश्य से बनायी जाती है। कम्पनी के लाभों में प्रत्येक हित का भुगतान करने के पश्चात् कम्पनी नियमों के अनुसार साधारण अंशधारियों में बाँट दिया जाता है। कम्पनी एक ऐच्छिक संघ है किसी को बलात् अंशधारी नहीं बनाया जा सकता है।