राष्ट्रीय चेतना का विकास | राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन | गोखले बिल और शिक्षा नीति 1913

भारत में राष्ट्रीय चेतना का विकास

इतिहास इस बात का साक्षी है कि राष्ट्र का सम्प्रत्यय सर्वप्रथम भारत में विकसित हुआ था। हमारे वेद संसार के प्राचीनतम ग्रंथ हैं और इनमें राष्ट्र एवं राष्ट्रीय कर्तव्यों का विशद वर्णन है। इतना ही नहीं अपितु हमारी वेद कालीन शिक्षा का एक उद्देश्य राष्ट्रीय कर्तव्यों का बोध एवं पालन कराना था। बौद्ध काल में राष्ट्रीय कर्तव्यों के स्थान पर सामाजिक कर्तव्यों पर अधिक बल दिया गया। इसका दूरगामी परिणाम यह हुआ कि एक दिन इस देश पर विदेशी मुसलमान शासकों का साम्राज्य स्थापित हो गया।

    मुसलमान शासकों ने इस देश में लगभग 500 वर्ष तक शासन किया। यह 500 वर्षों का काल संघर्षों का काल माना जाता है। इस काल में कुछ हिन्दू शासकों ने तो मुसलमान शासकों की अधीनता स्वीकार कर ली थी परन्तु कुछ इनसे बराबर टक्कर लेते रहे। उस बीच 1498 में पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा ने यूरोप से भारत आने के समुद्री मार्ग की खोज की। 

    वह पहला यूरोपीय व्यक्ति था जो जल मार्ग द्वारा भारत के पश्चिमी बन्दरगाह कालीकट पहुँचने में सफल हुआ । इसके बाद 1510 में यहाँ पुर्तगाली व्यापारियों का प्रवेश हुआ। लगभग 100 वर्ष तक उनका यहाँ के व्यापार के क्षेत्र में एक छत्र राज्य रहा। 1613 में यहाँ अंग्रेज व्यापारियों का प्रवेश हुआ। इनके बाद क्रमशः डच, फ्रान्सीसी और डेन व्यापारियों ने प्रवेश किया। इन व्यापारियों में संघर्ष होना स्वाभाविक था। अन्त में यहाँ अंग्रेज व्यापारी अपने पैर जमाने में सफल हुए।

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    अंग्रेज व्यापारियों का मूल उद्देश्य यहाँ व्यापार करना था परन्तु धीरे-धीरे वे यहाँ की आपसी फूट का लाभ उठाकर अपना राज्य स्थापित करने की सोचने लगे। उनकी ईस्ट इंडिया कम्पनी में उनकी अपनी रक्षा के लिए अपनी सेना रहती थी। इसकी सहायता से उन्होंने 1757 में प्लासी के युद्ध में विजय प्राप्त की और 1764 में बक्सर के युद्ध में विजय प्राप्त की। 

    अब उनका तत्कालीन बंगाल, बिहार और अवध प्रान्तों में शासन स्थापित हो गया। 1857 तक इस ईस्ट इंडिया कम्पनी ने लगभग पूरे भारत को अपने अधीन कर लिया। अब यहाँ को जनता को अपनी भूल का अहसास हुआ। यह अहसास सर्वप्रथम सैनिक क्षेत्र में हुआ। 1857 में इस देश में सैनिक क्रान्ति हुई । इतिहासकार इसे भारत में राष्ट्रीय चेतना की जागृति की शुरूआत मानते हैं। परन्तु अंग्रेजों ने इस क्रान्ति को दबा दिया और 1858 से इस देश पर सीधे इंग्लैण्ड (ब्रिटेन) सरकार का शासन हो गया।

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    इस बीच इस देश में अंग्रेजी शिक्षा का काफी प्रचार हो चुका था। 1858 तक यहाँ कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में यूरोपीय पद्धति के विश्वविद्यालय भो स्थापित हो चुके थे। इस शिक्षा का उस समय कुछ भी उद्देश्य रहा हो परन्तु इससे भारत में एक नई चेतना जागृत हुई, सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक, सभी क्षेत्रों में। 1885 में एक अवकाश प्राप्त अंग्रेज आई. सी. एस. अधिकारी एलॉन ओक्टेविन झूम ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। 

    उस समय इस संस्था का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वशासन के अधिकार प्राप्त करना था। इसकी स्थापना के एक वर्ष बाद 1856 में कलकत्ता में इसका अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में पं० मदन मोहन मालवीय ने अपने भाषण में हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का नारा बुलन्द किया। 1889 में इसी मंच से लोकमान्य बाल गंगाधार तिलक ने घोषणा की- 'स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हैं। बस क्या था, राष्ट्रीय चेतना के जागरण का बिगुल बज गया।

    1893 में स्वामी विवेकानन्द अमेरिका में होने वाले विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने पहुँचे। ये वहाँ 1896 तक रहे। वहाँ के वैभवपूर्ण जीवन से ये बहुत प्रभावित हुए। इन्होंने अनुभव किया कि हम भारतीयों को दीन-हीन दशा का मूल कारण परतन्त्रता है। इन्होंने भारत लौटने पर युवकों का आह्वान किया-'तुम्हारा सबसे पहला कार्य देश को स्वतन्त्र कराना होना चाहिए और इसके लिए जो भी बलिदान करना पड़े उसके लिए तैयार होना चाहिए'। उसी समय गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने देश में राष्ट्रीय चेतना का मन्त्र फूंका। गुरुदेव तो भारत में राष्ट्रीय चेतना के अग्रदूत माने जाते हैं।

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    राष्ट्रीय आन्दोलन

    1889 में लॉर्ड कर्जन (Lord Curzon) भारत में ब्रिटिश सरकार के नए गवर्नर जनरल एवं वायसराय नियुक्त हुए। यूँ इनके इरादे बहुत नेक थे परन्तु ये अपने किसी भी निर्णय में भारतीयों की राय नहीं लेते थे इसलिए ये प्रारम्भ से ही शक के घेरे में आ गए। 1905 में इन्होंने बंगाल का विभाजन किया। पूरे देश में उनके इस निर्णय का विरोध किया गया। उसी वर्ष 1905 में कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में बंगाल विभाजन का कसकर विरोध किया गया और भारत में तत्कालीन ब्रिटिश शासन के विरुद्ध राष्ट्रीय आन्दोलन शुरु करने का निर्णय लिया गया। 

    अतः इस राष्ट्रीय आन्दोलन के चार मुख्य मुद्दे थे-

    (1) स्वराज्य की प्राप्ति।

    (2) स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग।

    (3) विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार।

    (4) राष्ट्रीय शिक्षा की माँग।

    इस आन्दोलन में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, पं० मदन मोहन मालवीय, गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर और श्री अरविन्द ने खुलकर भाग लिया। 1911 में बंगाल विभाजन का निर्णय वापिस लेने से यह आन्दोलन ढ़ीला पड़ गया। पर तभी 1914 में महात्मा गाँधी अफ्रीका से भारत आए। यहाँ आकर सर्वप्रथम उन्होंने 1915 में साबरमती में सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की और यहाँ से भारत की राजनीति को नेतृत्व प्रदान करना शुरू किया। 1917 में इन्होंने चम्पारम में अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध आन्दोलन शुरु किया। 

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    इसके बाद 1919 में असहयोग आन्दोलन का श्रीगणेश किया जो 1921 में अपने चरम रूप में पहुँच गया। पूरे देश में राष्ट्रीय चेतना जागृत हो गई और अंग्रेजों की नींद हराम हो गई। 1929 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतन्त्रता की प्राप्ति का प्रस्ताव पारित किया और उसके लिए आवाज उठानी शुरु की।

    1930 में गाँधी जी ने तत्कालीन नमक कानून के विरुद्ध आन्दोलन शुरू किया। लाखों लोग उनके पीछे चल पड़े। 1932 में उन्होंने सत्याग्रह आन्दोलन शुरू किया। इस आन्दोलन ने भारत में ब्रिटिश सरकार की नींव हिला दी। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में तो पूरा देश कूद पड़ा। यह राष्ट्रीय चेतना का साकार रूप था। परिणाम स्वरूप 1947 में अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा, हम स्वतन्त्रत हुए।

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    राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन

    1813 में ईस्ट इंडिया कम्पनी को ब्रिटिश सरकार से नया आज्ञा-पत्र (Charter Act, 1813) प्राप्त हुआ। इस आज्ञा पत्र से कम्पनी में प्राच्य-पाश्चात्य विवाद खड़ा हो गया। और मजे की बात यह है कि इस विषय पर भारतीय भी दो खेमों में बँट गए। एक वर्ग के लोग भारत में केवल भारतीय भाषा, साहित्य एवं ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा के पक्ष में थे और दूसरे वर्ग के लोग भारत में भारतीय भाषा, साहित्य एवं ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा के के साथ-साथ यूरोपीय भाषा अंग्रेजी, अंग्रेजी साहित्य और यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा के पक्ष में थे। इनमें से प्रारम्भ में पाश्चात्यवादियों का पलड़ा भारी था। पाश्चात्यवादियों में राजा राम मोहन राय का नाम उल्लेखनीय है।

    राजा राम मोहन राय बंगाली, संस्कृत और अंग्रेजी भाषा के विद्वान थे। वे भारतीय संस्कृति के पुजारी होने के साथ-साथ पाश्चात्य संस्कृति के प्रशंसक थे। उन्होंने 1817 में कलकत्ता में 'हिन्दू कॉलिज' की स्थापना को। इस कॉलिज में भारतीय भाषा, साहित्य, ज्ञान और विज्ञान के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य तथा पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा की व्यवस्था की गई। 

    1819 में इन्होंने कलकत्ता में कलकत्ता विद्यालय समाज को स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने कलकत्ता में 115 ऐसे विद्यालयों की स्थापना की जिनमें भारतीय भाषा एवं साहित्य तथा ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा एवं उसके साहित्य तथा यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा की व्यवस्था की गई। 

    राजा राम मोहन राय से प्रभावित होकर श्री जय नारायण घोसाल ने बनारस में 'जय नरायन स्कूल' की स्थापना की और उसमें प्राच्य भाषा, साहित्य, ज्ञान एवं विज्ञान के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा, साहित्य, ज्ञान एवं विज्ञान की शिक्षा की व्यवस्था की। इसी प्रकार का एक कार्य आगरा में पं० गंगाधर शास्त्री ने किया। 

    उन्होंने उस समय एक लाख पचास हजार रुपयों की एक मुश्त सहायता देकर आगरे के संस्कृत कॉलिज को 'आगरा कॉलिज' में बदलवा दिया। दूसरी ओर प्राच्यवादी भी सक्रिय रहे। इनका नेतृत्व किया स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ।

    स्वामी दयानन्द सरस्वती मुख्य रूप से वैदिक धर्म के प्रचारक एवं आर्य समाज के संस्थापक के रूप में जाने-पहचाने जाते हैं परन्तु शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने धर्म प्रचार के साथ-साथ हिन्दी भाषा, संस्कृत और संस्कृत साहित्य का प्रचार शुरु किया। उन्होंने यह कार्य 1863 से शुरु किया। ये भारतीयों के लिए भारतीय भाषा, साहित्य एवं ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा के पक्षधर थे। 

    इन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा की पूरी योजना भी प्रस्तुत की। ये जहाँ भी जाते थे वहीं धर्म प्रचार के साथ-साथ संस्कृत पाठशाला और गुरुकुलों को स्थापना की बात करते थे, हिन्दी का प्रचार करते थे और हिन्दी माध्यम के स्कूलों की स्थापना की बात करते थे। आज देश भर में जो दयानन्द वैदिक स्कूल व कॉलिजों का जाल बिछा हुआ है यह सब दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज संस्था की ही देन है। यह बात दूसरी है कि आज इनका स्वरूप प्राच्यवादी न होकर पाश्चात्यवादी हो गया है। दयानन्द जी के बाद देश में पुनः पाश्चात्यवादी शिक्षा पर बल दिया जाने लगा। इस सन्दर्भ में गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर और स्वामी विवेकानन्द के नाम उल्लेखनीय हैं।

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    गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने 1892 में 'शिक्षार हेरफेर' की रचना की और इसमें तत्कालीन शिक्षा के दोष उजागर करने के साथ-साथ अपने शैक्षिक विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने अपने शैक्षिक विचारों को मूर्तरूप देने के लिए 1901 में शान्ति निकेतन में 'ब्रह्मचर्य आश्रम' की स्थापना की। प्रारम्भ में इसमें केवल 4 छात्र थे और गुरुदेव एकमात्र शिक्षक थे। आज यह विश्व भारती विश्वविद्यालय के रूप में विकसित है, अन्तर्राष्ट्रीय भाषा एवं साहित्यों तथा कला एवं संस्कृतियों का अध्ययन केन्द्र है। यह सच्चे अर्थों में विश्वविद्यालय है, अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा केन्द्र है, गुरुदेव का कीर्ति स्तम्भ है।

    स्वामी विवेकानन्द का भी इस क्षेत्र में विशेष योगदान रहा। 1893 में वे विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने अमेरिका गए थे। वे वहाँ के वैभवपूर्ण जीवन को देखकर इस परिणाम पर पहुँचे कि हम भारतीयों के पिछड़ेपन के दो ही मुख्य कारण हैं- एक परतन्त्रता और दूसरा अशिक्षा। अतः उन्होंने अमेरिका से लौटने पर दो ही नारे दिए- एक स्वतन्त्रता का और दूसरा शिक्षा का। वे भारतीयों के लिए सामान्य शिक्षा के पक्षधर के साथ-साथ विशिष्ट शिक्षा के पक्षधर थे। उन्हें यह जानने और समझने में देर नहीं लगी कि पाश्चात्य देशों की आर्थिक सम्पन्नता का मूल आधार विज्ञान है। 

    इसकी शिक्षा तब अंग्रेजी के माध्यम से हो दी जा सकती थी, इसलिए इन्होंने राजा राम मोहन राय और गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के विचारों का समर्थन किया। इन्होंने दीन-हीनों की सामान्य शिक्षा के लिए रामकृष्ण मिशन स्कूलों की स्थापना की और साथ ही अंग्रेजी माध्यम के प्राच्य-पाश्चात्य दोनों ज्ञान-विज्ञानों की शिक्षा देने वाले विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की स्थापना पर बल दिया। इन्होंने उ‌द्घोष किया कि हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जो हमें आत्मनिर्भर बनाए, हमें अपने पैरों पर खड़ा करे और देश के विकास में सहायक हो। इन्होंने वेदान्त दर्शन को जीवन में उतारने का स्तुत्य प्रयास किया। यह देश ही नहीं पूरा संसार उनका चिर ऋणि रहेगा।

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    राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन

    भारत में राष्ट्रीय शिक्षा के स्वरूप पर प्रारम्भ से ही विचार होता रहा है। भारत में अंग्रेजी काल पुनर्जागरण का काल माना जाता है। इस काल में भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा के स्वरूप पर भी खूब विचार हुआ। परन्तु इसे आन्दोलन का रूप 1905 में कलकत्ते में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में दिया गया। इस अधिवेशन में 'स्वदेशी आन्दोलन' शुरु करने का निर्णय लिया गया और इसके चार मुद्दे निश्चित किए गए- स्वराज्य की प्राप्ति, स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा की माँग। 

    'अब वह रामय आ गया है जब सम्पूर्ण भारत के व्यक्ति समस्त वालक-बालिकाओं की राष्ट्रीय शिक्षा के बारे में ईमानदारी से सोचें और उसका देश की आवश्यकतानुकून संगठन करे'।

    राष्ट्रीय शिक्षा के आधारभूत सिद्धान्त

    राष्ट्रीय नेताओं ने उस समय राष्ट्रीय शिक्षा को निम्नलिखित आधारों पर विकसित करने पर बल दिया। इन्हें ही राष्ट्रीय शिक्षा के सिद्धान्त कहा जाता है। जो इस प्रकार से निम्नलिखित हैं-

    1. शिक्षा भारतीय नियन्त्रण में 

    सभी नेता इस बात पर एकमत थे कि शिक्षा भारतीयों के नियन्त्रण में होनी चाहिए, उसकी संरचना, संगठन और संचालन का अधिकार भारतीयों को होना चाहिए वह पूर्णरूप से भारतीयों के हाथ में होनी चाहिए।

    2. शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श 

    भारतीय इस सम्बन्ध में भी सब नेता एक मत थे कि भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा के उद्देश्य और आदर्श भारत की अपनी संस्कृति पर आधारित होने चाहिए, उसमें भारतीय आदर्शों का समावेश होना चाहिए न कि इंग्लैण्ड के आदर्शों का। इस सम्बन्ध में श्रीमती एनीबेसेंट ने बड़े विनम्र भाव से कहा था कि 'ब्रिटेन के आदर्श ब्रिटेन के लिए अच्छे हैं परन्तु भारत के लिए भारत के आदर्श ही अच्छे हैं।'

    3. मातृभूमि के प्रति प्रेम और राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण 

    राष्ट्रीय शिक्षा का अर्थ ही यह है कि वह बच्चों में मातृभूमि के प्रति प्रेम और समर्पण की भावना जागृत करे, उनमें राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करे और यह तभी सम्भव है जब उन्हें प्रारम्भ से ही स्वदेशी भाषा, साहित्य और इतिहास का ज्ञान कराया जाए।

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    4. अंग्रेजी के वर्चस्व की समाप्ति 

    अधिकतर नेता इस पक्ष में थे कि न तो अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए और न ही उसकी शिक्षा को अनिवार्य किया जाए। गाँधी जी ने तो एक बार तत्कालीन समाचार पत्र 'यंग इण्डिया' में लिखा था कि- ''हमारे बालक यह सोचते हैं कि बिना अंग्रेजी के अध्ययन के सरकारी नौकरी प्राप्त नहीं की जा सकती। बालिकाओं को अंग्रेजी का अध्ययन विवाह करने के लिए प्रमाणपत्र के रूप में कराया जाता है। समाज में अंग्रेजों का धुन लग गया है। मेरे विचार से यह सब हमारी दासता और पतन का प्रतीक है।'' बहरहाल उसके वर्चस्व को समाप्त करने के पक्ष में तो सभी थे।

    5. व्यावसायिक विषयों का समावेश 

    उस समय हमारी शिक्षा ज्ञान प्रधान थी। राष्ट्रीय नेताओं ने उसे जीविकोपार्जन उन्मुख बनाने पर बल दिया। इस सन्दर्भ में लाला लाजपत राय के शब्द उल्लेखनीय हैं- ''भारतीय निर्धनता जीवन का बहुत ही दुःखद तथ्य है। इसका मुख्य कारण शिक्षा के साधनों का अभाव है। ऐसी स्थिति में लोक शिक्षा का प्रथम उद्देश्य भारत नागरिकों को व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करना होना के चाहिए।''

    6. मातृभाषाओं के माध्यम से शिक्षा 

    सभी राष्ट्रीय नेता इस बात से सहमत थे कि जब तक शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा अंग्रेजी रहेगी तब तक देश में शिक्षा का प्रसार नहीं किया जा सकता, उसे जन-जन तक नहीं पहुंचाया जा सकता। इस दृष्टि से उन्होंने मातृभाषाओं (क्षेत्रीय भाषाओं) को शिक्षा का माध्यम बनाने पर बल दिया।

    7. पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा 

    राष्ट्रीय शिक्षा का स्वरूप निश्चित करने वालों में कुछ नेताओं का मत था कि अन्य देशों से सम्पर्क स्थापित करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है और भारत का भौतिक विकास करने के लिए यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान का ज्ञान आवश्यक है। अतः राष्ट्रीय शिक्षा योजना में इन्हें उपयुक्त स्थान मिलना चाहिए। लाला लाजपतराय ने तो यहाँ तक कहा कि-''मेरे विचार से भारत में यूरोपीय भाषाओं, साहित्यों और विज्ञानों के अध्ययन को प्रोत्साहित न करने का प्रयास मूर्खता और पागलपन होगा।"

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    राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की स्थापना

    बंग-भंग के विरोध में राष्ट्रीय आन्दोलन जोरों पर था। अध्ययनरत छात्र भी इस आन्दोलन में कूद पड़े थे। आन्दोलन को दबाने को दृष्टि से गवर्नर जनरल एवं वायसराय लॉर्ड कर्जन ने एक आदेश निकाला कि जो विद्यार्थी आन्दोलन में भाग लें उन्हें शिक्षा संस्थाओं से निकाल दिया जाए। परिणामतः हजारों छात्र शिक्षण संस्थाओं से निकाल दिए गए। 

    कुछ छात्रों ने स्वेच्छा से विद्यालयों में पढ़ना छोड़ दिया और इस आन्दोलन में कूद पड़े। अब राष्ट्रीय नेताओं के सामने इन युवकों की शिक्षा की व्यवस्था का प्रश्न उपस्थित हुआ। इस क्षेत्र में सबसे पहला कदम उठाया, बंगाल ने। बंगाल में श्री गुरुदास बनर्जी को अध्यक्षता में 'राष्ट्रीय शिक्षा प्रसार समिति' (Society for the Promotion of National Education) की स्थापना की गई। 

    इस समिति ने पूर्वी बंगाल में 40 और पश्चिमी बंगाल में 11. कुल मिलाकर 51 राष्ट्रीय हाई स्कूलों की स्थापना की। इस समिति ने कलकत्ता में एक टेक्निकल इन्सटीट्यूट भी खोला जो आगे चलकर जादवपुर कॉलिज ऑफ इंजीनियरिंग एण्ड टैक्नोलॉजी के रूप में विकसित हुआ। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर, श्री रास बिहारी बोस और श्री अरविन्द घोष के प्रयास से कलकत्ता में 'राष्ट्रीय कॉलिज' (National College) को स्थापना हुई। 

    श्री अरविन्द घोष इसके प्राचार्य नियुक्त किए गए। यह कॉलिज उच्च शिक्षा के साथ-साथ राष्ट्रीय आन्दोलन का केन्द्र बना। इन्हीं सिद्धान्तों पर पूना में 'समर्थ विद्यालय' की स्थापना की गई। देश के अन्य भागों में भी राष्ट्रीय विद्यालय खोले गए। इस क्रम में आर्य समाज द्वारा स्थापित गुरुकुल और डी० ए० वी० कॉलिजों की स्थापना उल्लेखनीय है।

    राष्ट्रीय विद्यालयों में मातृभाषाओं के माध्यम से शिक्षा की व्यवस्था की गई और जीवनोपयोगी विषयों एवं कौशलों को पाठ्यक्रम में मुख्य स्थान दिया गया। देश के प्रति प्रेम और समर्पण को भावना का विकास तो इनका मुख्य उद्देश्य था।

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    गोखले विधेयक, 1911 

    1905 में शुरु होने वाला राष्ट्रीय आन्दोलन देश भर में फैल गया। इसके साथ-साथ राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन भी फैलता गया, स्थान-स्थान पर राष्ट्रीय विद्यालयों को स्थापना इस आन्दोलन की सफलता के प्रतीक थे। पर सरकार पर इसका उतना प्रभाव नहीं पड़ा जितना पड़ना चाहिए था। अतः 1910 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने इलाहाबाद अधिवेशन में और मुस्लिम लीग ने अपने नागपुर अधिवेशन में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क बनाने के सम्बन्ध में प्रस्ताव पारित किए। 

    देश में अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की माँग को गति देने में सबसे अधिक कार्य किया गोपाल कृष्ण गोखले ने। गोपाल कृष्ण गोखले ने उस समय बी० ए० तक शिक्षा प्राप्त की थी। वे तत्कालीन शिक्षा के गुण-दोषों से भली भाँति परिचित थे। उनमें राष्ट्र प्रेम को भावना भी कूट-कूट कर भरी थी, वे देश में व्याप्त अशिक्षा के प्रति प्रारम्भ से ही चिन्तित थे। उन्होंने अनुभव किया कि जब तक देशवासियों को शिक्षित नहीं किया जाता तब तक देश को स्वाधीन नहीं किया जा सकता।

    गोखले उच्च कोटि के विद्वान थे, अच्छे शिक्षक थे और कुशल वक्ता थे। उन्होंने 1905 में लॉर्ड कर्जन द्वारा पारित 'विश्वविद्यालय अधिनियम 1904' का खुलकर विरोध किया था। वे भारत में प्राथमिक शिक्षा के प्रसार पर भी निरन्तर जोर देते रहे थे। इसी बीच 1906 में तत्कालीन बड़ौदा नरेश महाराजा शियाजी राव गायकवाड़ ने अपने सम्पूर्ण बड़ौदा राज्य में 7 से 12 वर्ष आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य कर दी थी और वे इस कार्य में सफल भी हुए थे। गोखले ने अनुभव किया कि जब सीमित साधनों वाला यह छोटा सा राज्य यह कार्य कर सकता है तो फिर ब्रिटिश सरकार यह कार्य क्यों नहीं कर सकती। अतः उन्होंने इसके लिए अपने स्तर से प्रयास शुरु किए।

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    गोखले का प्रस्ताव, 1910

    गोपाल कृष्ण गोखले उस समय 'केन्द्रीय धारा सभा' (Imperial Legislative Council) के सदस्य थे। उन्होंने 19 मार्च, 1910 को इस केन्द्रीय धारा सभा में अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा के सम्बन्ध में एक प्रस्ताव पेश किया। यह प्रस्ताव इस प्रकार था-

    ''यह सभा सिफारिश करती है कि सम्पूर्ण देश में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क बनाने का कार्य प्रारम्भ किया जाए और इस सम्बन्ध में सरकारी एवं गैर सरकारी अधिकारियों का एक संयुक्त आयोग शीघ्र  नियुक्त किया जाए।''

    अपने इस प्रस्ताव के सन्दर्भ में गोखले ने निम्नलिखित सुझाव दिए-

    (1) 6 से 10 आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की जाए।

    (2) प्राथमिक शिक्षा के लिए केन्द्र में अलग से प्राथमिक शिक्षा विभाग खोला जाए। 

    (3) प्राथमिक शिक्षा के नियन्त्रण के लिए एक अलग से सचिव की नियुक्ति की जाए।

    (4) स्थानीय निकाय और प्रान्तीय सरकारें प्राथमिक शिक्षा पर होने वाले व्यय को 1:2 के अनुपात में वहन करे।

    (5) वार्षिक बजट प्रस्तुत करते समय प्राथमिक शिक्षा की प्रगति का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जाए।

    केन्द्रीय धारा सभा में इस प्रस्ताव पर खुलकर चर्चा हुई। अधिकतर सदस्य गोखले के तर्कों से सहमत हुए और सरकार ने इस सबके लिए आश्वासन दिया। केन्द्र में प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था के लिए पृथक विभाग स्थापित किया गया और प्राथमिक शिक्षा पर नियन्त्रण करने के लिए अलग से सचिव की नियुक्ति भी की गई, परन्तु प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क करने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए। परिणामतः 1911 में गोखले ने इसी प्रस्ताव को केन्द्रीय धारा सभा में विधेयक के रूप में पेश किया।

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    गोखले विधेयक, 1911

    गोखले ने प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी अपने इस विधेयक को 16 मार्च, 1911 को केन्द्रीय धारा सभा में पेश किया। इस विधेयक की मुख्य धाराएँ इस प्रकार थीं-

    (1) भारत में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा आरम्भ करने का समय आ गया है। प्रारम्भ में यह नियम उन्हीं क्षेत्रों में लागू किया जाए जिनमें बच्चों का एक निश्चित प्रतिशत प्राथमिक स्कूलों में शिक्षा प्राप्त कर रहा है। इस प्रतिशत को निश्चित करने का अधिकार गवर्नर जनरल की काउन्सिल को होगा।

    (2) स्थानीय निकायों को यह अधिनियम लागू करने से पूर्व प्रान्तीय सरकार की अनुमति लेनी होगी।

    (3) स्थानीय निकायों को यह अधिकार होगा कि वे इस अधिनियम को अपने पूरे क्षेत्र में लागू करें अथवा उसके किसी सीमित भाग में लागू करें।

    (4) जिन क्षेत्रों में यह अधिनियम लागू होगा उन क्षेत्रों के अभिभावकों को 6 से 10 आयु वर्ग के बच्चों को प्राथमिक स्कूलों में भेजना अनिवार्य होगा और नियम का उल्लंघन करने वाले अभिभावकों को दण्ड दिया जाएगा। 

    (5) पहले यह अधिनियम बालकों की शिक्षा के लिए लागू किया जाएगा, उसके बाद बालिकाओं की शिक्षा के लिए लागू लेगा।

    (6) इस शिक्षा पर होने वाले व्यय को स्थानीय निकाय और प्रान्तीय सरकारें 1: 2 के अनुपात में वहन करेंगी। 

    (7) स्थानीय निकाय यदि उचित समझें तो अपने क्षेत्र में शिक्षा कर लगा सकते हैं।

    (8) 10 रु० प्रति माह से कम आय वाले अभिभावकों के बच्चों को कोई शुल्क नहीं देना होगा।

    इस विधेयक पर दो दिन तक बड़ी गर्मा-गर्म बहस हुई। गोपाल कृष्ण गोखले ने अपने बिल के पक्ष में अकाट्य तर्क प्रस्तुत किए। सरकारी प्रवक्ता हर्टाग बटलर (Hertog Butlar) ने इस विधेयक का विरोध किया। उन्होंने अपने पक्ष में 5 तर्क प्रस्तुत किए- 

    (1) यह विधेयक समय से पहले रखा गया है, इस समय प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने में बहुत कठिनाइयाँ हैं, 

    (2) प्रान्तीय सरकारें अभी इसके पक्ष में नहीं हैं, 

    (3) स्थानीय निकायों ने भी इस सन्दर्भ में अपनी असमर्थता प्रकट की है,

    (4) सामान्य भारतीय जनता इसके लिए कोई माँग नहीं कर रही है और 

    (5) शिक्षित भारतीय भी इसकी अनिवार्यता के पक्ष में नहीं हैं। गोखले ने हर्टाग बटलर के इन सभी तकों को व्यर्थ बताया। 

    उन्होंने सभा के सामने बड़ौदा राज्य और पश्चिमी देशों के उदाहरण प्रस्तुत किए। पं० मदन मोहन मालवीय और मौहम्मद अली जिन्ना भी उस समय इस केन्द्रीय धारा सभा के सदस्य थे। उन्होंने गोखले द्वारा प्रस्तुत इस विधेयक का समर्थन किया। परन्तु भारतीय रियासतों के प्रतिनिधियों ने सरकार के पक्ष में मत दिया और यह विधेयक 13 मतों के विरुद्ध 38 मतों से गिर गया।

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    गोखले के प्रयत्नों का प्रभाव

    यद्यपि गोखले द्वारा प्रस्तावित यह विधेयक केन्द्रीय धारा सभा में पास नहीं हो सका परन्तु उनके द्वारा अपने विधेयक के पक्ष में दिए गए तों से ब्रिटिश सरकार में खलबली मच गई। वे सोचने लगे कि अब भारतीयों को उनके शिक्षा सम्बन्धी अधिकारों से बहुत दिनों तक वंचित नहीं रखा जा सकता। तभी 20 दिसम्बर, 1911 को बिटिश सम्राट जार्ज पंचम भारत के दौरे पर आए। उन्होंने यहाँ की नब्ज को समझा और अधिकारियों को भारतीय शिक्षा की ओर विशेष ध्यान देने का निर्देश दिया। परिणामस्वरूप सरकार ने 1913 में शिक्षा के सम्बन्ध में नया प्रस्ताव पारित किया जिसे शिक्षा नीति, 1913 माना जा सकता है।

    शिक्षा सम्बन्धी प्रस्ताव (नीति), 1913

    16 मार्च, 1911 को गोपाल कृष्ण गोखले ने केन्द्रीय धारा सभा में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी विधेयक पेश किया था। यूँ यह विधेयक केन्द्रीय धारा सभा में पास नहीं हो पाया था परन्तु गोखले के अकाट्य तर्कों ने ब्रिटिश सरकार को भारतीयों की प्राथमिक शिक्षा की उचित व्यवस्था करने के लिए विवश अवश्य कर दिया था। तभी 20 दिसम्बर, 1911 को ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम भारत पधारे। 

    उनके सम्मान में 'दिल्ली दरबार' का आयोजन किया गया। इस दरबार में सम्राट ने प्राथमिक शिक्षा के प्रसार हेतु 50 लाख रुपये की अतिरिक्त धनराशि व्यय करने का आदेश दिया। उस समय के 50 लाख आज के 50 करोड़ के बराबर थे। इससे भी अधिक महत्व की घोषणा सम्राट ने 6 फरवरी, 1912 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रांगण में आयोजित कार्यक्रम में की। 

    उन्होंने अपने अभिभाषण में कहा-`''मेरी इच्छा है कि सम्पूर्ण देश में स्कूल और कॉलिजों का जाल बिछा दिया जाए जिनमें से विश्वासपात्र, निर्भीक और कुशल नागरिक निकलें जो अपने उद्योगों, कृषि और अन्य व्यवसायों को सुचारू रूप से चला सकें।'' सम्राट की यह इच्छा ब्रिटिश अधिकारियों के लिए आदेश से कम नहीं थी। परिणामतः भारत सरकार ने 21 जनवरी, 1913 को शिक्षा सम्बन्धी नया प्रस्ताव प्रकाशित किया। इस प्रस्ताव को ही शिक्षा नीति, 1913 कहते हैं।

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    शिक्षा नीति, 1913 के आधारभूत सिद्धान्त

    शिक्षा सम्बन्धी इस प्रस्ताव में तीन आधारभूत सिद्धान्तों की घोषणा की गई-

    (1) शिक्षा संस्थाओं की संख्या में वृद्धि करने की अपेक्षा उनके स्तर को ऊँचा उठाने पर अधिक ध्यान देना।

    (2) प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर के पाठ्यक्रमों में व्यावसायिक विषयों का समावेश करना।

    (3) उच्च शिक्षा और शोध कार्य की व्यवस्था करना।

    इन सिद्धान्तों के आधार पर इसमें प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च और स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में जो सुझाव दिए गए, उन सुझावों का यहाँ क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत है।

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    प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी निर्णय अथवा सुझाव

    प्राथमिक शिक्षा के सम्बन्ध में सरकार ने स्वीकार किया कि इस पर सबसे अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए और सबसे अधिक व्यय किया जाना चाहिए। प्रस्ताव में आगे स्पष्ट किया गया कि कुछ प्रशासनिक और आर्थिक कठिनाइयों के कारण सरकार अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था नहीं कर पा रही है, परन्तु वह गैर सरकारी प्रयासों को प्रोत्साहन देकर प्राथमिक शिक्षा के प्रसार का प्रयत्न करेगी। इसमें सरकार ने यह भी संकेत दिया कि अभी प्राथमिक शिक्षा को पूर्ण रूप से निःशुल्क नहीं किया जा सकता परन्तु स्थानीय निकाय निर्धन और पिछड़े वर्ग के बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करेंगे। 

    प्रस्ताव में प्राथमिक शिक्षा के सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिए गए थे-

    (1) निम्न प्राथमिक स्कूल (Lower Primary Schools) की संख्या में वृद्धि की जाए और इन स्कूलों में पढ़ने-लिखने तथा सामान्य गणित की शिक्षा के साथ-साथ कला, प्रकृति निरीक्षण और शारीरिक व्यायाम की शिक्षा दी जाए।

    (2) आवश्यकतानुसार निम्न प्राथमिक स्कूलों को उच्च प्राथमिक स्कूलों (Upper Primary Schools) में विकसित किया जाए। साथ ही उपयुक्त स्थानों पर नए उच्च प्राथमिक स्कूल खोले जाएँ।

    (3) जिन क्षेत्रों में स्थानीय निकाय प्राथमिक स्कूलों की व्यवस्था न कर पाएँ, वहाँ व्यक्तिगत प्रयासों को प्रोत्साहन दिया जाए।

    (4) प्राथमिक स्कूल स्वच्छ स्थानों पर स्थापित किए जाएँ, उनके लिए सस्ते भवनों का निर्माण कराया जाए।

    (5) देशी स्कूलों-मकतब और पाठशालाओं को उदारतापूर्वक अनुदान दिया जाए।

    (6) सभी प्रकार के प्राथमिक स्कूलों के निरीक्षण की व्यवस्था की जाए। 

    (7) प्राथमिक शिक्षक कम से कम मिडिल पास हों और एक वर्ष का शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त हों।

    (8) प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षकों को 12 रु० प्रतिमाह वेतन दिया जाए। आज की दृष्टि से इसका मूल्य 1200 रु० के लगभग था। 

    (9) सामान्यतः एक कक्षा में 30-40 छात्र ही हों, 50 से अधिक कभी नहीं।

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    माध्यमिक शिक्षा सम्बन्धी निर्णय अथवा सुझाव

    सरकार ने स्वीकार किया कि वह माध्यमिक शिक्षा के उत्तरदायित्व को सही ढंग से नहीं निभा पा रही थी। प्रस्ताव में माध्यमिक शिक्षा के सन्दर्भ में निम्नलिखित निर्णय अथवा सुझाव प्रकाशित किए गए-

    (1) सरकार अपने को माध्यमिक शिक्षा के उत्तरदायित्व से मुक्त न समझे ।

    (2) सरकार ऐसे स्थानों पर सरकारी माध्यमिक स्कूलों की स्थापना करे जहाँ गैर सरकारी प्रयासों से माध्यमिक स्कूल स्थापित नहीं हैं। 

    (3) सरकारी माध्यमिक स्कूल, गैरसरकारी माध्यमिक स्कूलों के लिए आदर्श हों।

    (4) गैरसरकारी माध्यमिक स्कूलों को उदारतापूर्वक अनुदान दिया जाए।

    (5) सभी प्रकार के माध्यमिक स्कूलों का नियमित रूप से निरीक्षण कराया जाए।

    (6) हाई स्कूल का पाठ्यक्रम अपने में पूर्ण इकाई होना चाहिए। इस स्तर के पाठ्यक्रम में हस्त-कौशलों और विज्ञान को शिक्षा को सम्मिलित करना चाहिए।

    (7) छात्रों को स्वास्थ्य विज्ञान को भी शिक्षा देनी चाहिए, उनके स्वास्थ्य का परीक्षण भी होना चाहिए।

    (8) माध्यमिक स्कूलों में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण और शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षकों की नियुक्ति को जाए।

    (9) सरकारी स्कूलों के शिक्षकों का वेतन निश्चित होना चाहिए, अंग्रेजी के शिक्षकों को कम से कम 40 रु० प्रतिमाह (वर्तमान 4000 रु० प्रतिमाह) दिया जाए।

    (10) राजकीय माध्यमिक स्कूलों में छात्रावासों को व्यवस्था की जाए।

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    उच्च शिक्षा सम्बन्धी निर्णय अथवा सुझाव

    सरकार ने स्वीकार किया कि उस समय उच्च शिक्षा की व्यवस्था सन्तोषजनक नहीं थी। प्रस्ताव में उच्च शिक्षा के सुधार हेतु अग्रलिखित निर्णय लिए गए-

    (1) विश्वविद्यालयों का कार्यक्षेत्र सीमित किया जाए। इसके लिए सर्वप्रथम प्रत्येक प्रान्त में कम से कम एक विश्वविद्यालय स्थापित किया जाए।

    (2) विश्वविद्यालयों में शिक्षण कार्य को व्यवस्था की जाए। इसके लिए सर्वप्रथम ढाका में शिक्षण विश्वविद्यालय की स्थापना की जाए और उसके बाद अलीगढ़, बनारस और लखनऊ में शिक्षण विश्वविद्यालय स्थापित किए जाए।

    (3) विश्वविद्यालयों का कार्यभार कम किया जाए, उनके स्थान पर हाई स्कूल की मान्यता का कार्यभार प्रान्तीय सरकारों और देशी राज्यों को सौपा जाए।

    (4) विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों को आवश्यकतानुसार विस्तृत किया जाए और अद्यतन बनाया जाए।

    (5) विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में युवकों के नैतिक विकास के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार किया जाए।

    (6) विश्वविद्यालयों में छात्रों के लिए छात्रावासों और प्राध्यापकों के लिए प्राध्यापक निवासों की व्यवस्था की जाए।

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    स्त्री शिक्षा सम्बन्धी निर्णय अथवा सुझाव

    सरकार ने स्वीकार किया कि उस समय स्त्री शिक्षा न के बराबर थी। स्त्री शिक्षा के विस्तार के सम्बन्ध में प्रस्ताव में निम्नलिखित सुझाव दिए गए-

    (1) बालिकाओं के लिए अलग से स्कूल खोले जाएँ।

    (2) बालिका स्कूलों के लिए सहायता अनुदान की शर्तें और अधिक उदार की जाएँ।

    (3) बालिकाओं के लिए उनकी आवश्यकतानुकूल पाठ्यक्रम बनाया जाए।

    (4) महिला शिक्षिकाओं और निरीक्षिकाओं की संख्या में वृद्धि की जाए।

    शिक्षा प्रस्ताव (नीति), 1913 का मूल्यांकन

    यूँ शिक्षा प्रस्ताव (नोति), 1913 में शिक्षा के सम्बन्ध में ऐसे कोई सुझाव नहीं दिए गए जो इससे पहले नहीं दिए जा चुके थे परन्तु कुछ सुझावों को थोड़े नए रूप और लच्छेदार भाषा में प्रस्तुत किया गया था।

    अतः उन्हें ही हम इसकी विशेषताएँ अथवा गुण मान सकते हैं। इनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं- 

    (1) प्राथमिक स्कूलों के शिक्षकों को न्यूनतम शैक्षिक योग्यता और वेतन निश्चित करना।

    (2) प्राथमिक विद्यालयों की कक्षाओं में छात्रों की संख्या निश्चित करना।

    (3) माध्यमिक विद्यालयों के शिक्षकों की न्यूनतम शैक्षिक योग्यता और वेतन निश्चित करना।

    (4) उच्च शिक्षा के उन्नयन के लिए कुछ विश्वविद्यालयों की स्थापना केवल शिक्षण कार्य हेतु करना।

    (5) अन्य विश्वविद्यालयों का कार्यक्षेत्र सीमित करना और कार्यभार कम करना।

    परन्तु साथ ही कुछ निर्णय अथवा सुझाव बड़े बेतुके भी थे: जैसे- 

    • माध्यमिक शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही बनाए रखना।
    • अन्य शिक्षकों की अपेक्षा अंग्रेजी के शिक्षकों को अधिक वेतन देना।

    अब थोड़ा विचार करें शिक्षा सम्बन्धी इस प्रस्ताव (नीति) के प्रभाव पर। 1913 में यह प्रस्ताव प्रकाशित हुआ और 1914 में प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया। ब्रिटिश सरकार ने इस युद्ध में भारत को भी धकेल दिया। परिणामतः अन्य सभी कार्य गौण हो गए, शिक्षा सम्बन्धी कार्य भी, परन्तु थोड़ा बहुत विकास अवश्य हुआ। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में तो न के बराबर ही प्रगति हुई। 

    डॉ० श्रीधरनाथ मुखोपाध्याय के अनुसार 1917 में 6 से 11 आयु वर्ग के केवल 25 प्रतिशत बच्चे प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। माध्यमिक स्कूलों का माध्यम अंग्रेजी हो बनाए रखने से उसके क्षेत्र में भी कोई प्रगति नहीं हुई। हाँ, उच्च शिक्षा के विस्तार और उन्नयन, दोनो क्षेत्रों में कुछ विकास अवश्य हुआ। 

    1916 में मैसूर विश्वविद्यालय और 1917 में पटना विश्वविद्यालय और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। परिणामतः जहाँ 1912 में 4358 छात्र बी० ए० की परीक्षा में बैठे थे वहाँ 1917 में 8089 छात्र बैठे। उस समय की परिस्थितियों की दृष्टि से यह प्रगति सन्तोषजनक कही जा सकती है। परन्तु कुल मिलाकर इस शिक्षा नीति 1913 का प्रभाव नगण्य ही रहा।

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