महापदम नन्द के काल तक मगध का इतिहास लिखिए।

प्राचीन भारतीय इतिहास में मगध का विशेष स्थान है। प्राचीनकाल में भारत में अनेक छोटे-बड़े राज्यों की सत्ता थी। मगध के प्रतापी राजाओं ने इन राज्यों पर विजय प्राप्त कर भारत के एक बड़े भाग पर विशाल एवं शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की और इस प्रकार मगध के शासकों ने सर्वप्रथम अपनी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति को प्रदर्शित किया। इस तथ्य की पुष्टि अनेक ब्राह्मण एवं जैन-ग्रन्थों से होती है। मौर्य काल में मगध साम्राज्य अपनी शक्ति की चरम सीमा पर पहुँच गया और लगभग सम्पूर्ण भारत मगध साम्राज्य का ही अंग बन गया, किन्तु मगध साम्राज्य के उत्कर्ष का श्रेय मात्र चन्द्रगुप्त मौर्य को नहीं दिया जा सकता। मगध में मौर्य वंश की स्थापना से पूर्व भी अनेक शासकों ने अपने बाहुबल व वीरता से मगध साम्राज्य को शक्तिशाली बनाया था।

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उत्कर्ष के कारण - 

महात्मा बुद्ध के समय में चार प्रमुख राजतन्त्र थे- मगध, कोशल, वत्स और अवन्ति थे। उल्लेखनीय है कि इन चारों राजतन्त्रों में से मगध साम्राज्य का ही विकास हो सका, क्योंकि वीर, प्रतापी एवं योग्य शासकों के अतिरिक्त मगध के एक साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में उभरने में अनेक परिस्थितियों ने भी सहायता की। मगध उत्तर भारत के विशाल तटवर्ती मैदानों के ऊपरी एवं निचले भागों के मध्य अति सुरक्षित स्थान पर था।

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बृहद्रथ वंश 

मगध पर शासन करने वाला प्राचीनतम ज्ञात राजवंश 'बृहद्रथ-वंश' है। महाभारत व पुराणों से ज्ञात होता है कि प्राग्-ऐतिहासिक काल में चेदिराज वसु के पुत्र बृहद्रथ ने गिरिव्रज को राजधानी बनाकर मगध में अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया था। दक्षिणी बिहार के गया और पटना जनपदों के स्थान पर तत्कालीन मगध साम्राज्य था। इसके उत्तर में गंगा नदी, पश्चिम में सोन नदी, पूर्व में चम्पा नदी तथा दक्षिण में विन्ध्याचल पर्वतमाला थी। बृहद्रथ को ही मगध साम्राज्य का संस्थापक माना जाता है। उसके द्वारा स्थापित राजवंश को 'बृहद्रथ-वंश' कहा गया। इस वंश का सबसे प्रतापी शासक जरासंघ था, जो बृहद्रथ का पुत्र था। 

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जरासंध अत्यन्त पराक्रमी एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था। हरिवंश पुराण से ज्ञात होता है जरासंध की मृत्यु के पश्चात् मगध पतन की ओर अग्रसर हो गया, किन्तु फिर भी बृहद्रथ-वंश के अनेक शासक कुछ समय तक मगध पर शासन करते रहे। बृहद्रथ-वंश का अन्तिम शासक रिपुंजय था, जिसकी हत्या उसके मन्त्री पुलिक ने कर दी तथा अपने पुत्र 'बालक' को मगध का शासक नियुक्त किया। इस प्रकार बृहद्रथ-वंश का पतन हो गया। कुछ समय पश्चात् महिय नामक एक सामन्त ने बालक की हत्या करके अपने पुत्र बिम्बिसार को मगध की राजगद्दी पर बैठाया। 

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बिम्बिसार

बिम्बिसार के मगध-सिंहासन पर आरूढ़ होने के पश्चात् ही वास्तविक अर्थों में मगध साम्राज्य का उत्कर्ष प्रारम्भ हुआ। मगधराज बिम्बिसार एक सुयोग्य और शक्तिशाली शासक था। उसका सैन्यबल अमित था और इसी कारण वह "सुमंगल विलासिनी" के अनुसार 'सैणिय' (श्रेणिक महती सेना वाला) नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह 'चक्रवर्ती' के आदर्श से प्रेरित था। उसको महत्वाकांक्षा अन्ततः सार्वभौम साम्राज्य की प्रतिस्थापना थी। अपने अभीष्ट की पूर्ति के लिए उसने नीति और शक्ति दोनों से काम लिया और मगध को साम्राज्य निर्माण के पथ पर अग्रसर कर दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि अन्ततः मौयों के समय में मगध साम्राज्य ने लगभग सम्पूर्ण भारत के राष्ट्रीय राज्य का स्वरूप धारण कर लिया। 

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साम्राज्य विस्तार- 

बिम्बिसार ने एक ओर वैवाहिक सम्बन्ध के द्वारा काशी को और दूसरी ओर विजय द्वारा अंग को मगध में विलीन कर, मगध को साम्राज्य निर्माण के पथ पर अग्रसर कर दिया। डॉ. आर. एस. त्रिपाठी का मानना है कि अनेक अन्य प्रदेश भी विम्बिसार के शासनकाल में ही मगध साम्राज्य के अधीन हुए। अपने मत के समर्थन में डॉ. त्रिपाठी भाष्यकर बुद्धघोष के लेख का उल्लेख करते हैं जिसमें कहा गया है कि बिम्बिसार के शासनकाल में मगध की सीमाओं का प्रसार दुगुना हो गया था। 'धम्मपदट्ठकथा' के अनुसार बिम्बिसार का राज्य तीन सौ योजन तक विस्तृत था। विनयपिटक उसके राज्य में नगरों की संख्या अस्सी हजार बताता है।

बिम्बिसार के विशाल साम्राज्य की राजधानी गिरिव्रज थी। ह्वेनसांग ने लिखा है कि गिरिव्रज में बहुधा अग्निकाण्ड की घटनाएँ होती रहती थीं, अतः विम्बिसार ने एक नवीन नगर की स्थापना की जिसे राजगृह कहा गया। इसके विपरीत, फाह्यान राजगृह की स्थापना का श्रेय अजातशत्रु को देता है।

इस प्रकार 492 ई. पू. में बिम्बिसार की मृत्यु हो गई, किन्तु मृत्यु से पूर्व वह मगध साम्राज्य को विकास की राह पर अग्रसर करने में सफल रहा था। यही कारण है कि उसे मगध साम्राज्य के उत्कर्ष का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।

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अजातशत्रु

बिम्बिसार के पश्चात् उसका पुत्र अजातशत्रु मगध के राजसिंहासन पर आसीन हुआ। अजातशत्रु का एक अन्य नाम कुणिक भी था। अपने पिता बिम्बिसार के राज्यकाल में वह अंग की राजधानी चम्पा में शासक रहा था तथा वहीं उसने शासन की व्यवस्था सीखी। यद्यपि अजातशत्रु पितृहन्ता था, किन्तु योग्यता एवं पराक्रम में किसी भी क्षेत्र में अपने पिता से कम न था। डॉ. राय चौधरी ने लिखा है, "अजातशत्रु ने चाहे जिस ढंग से सिंहासन प्राप्त किया हो, किन्तु वह बड़ा ही सशक्त शासक प्रमाणित हुआ। उसका शासन हर्यक वंश का चरमोत्कर्ष काल था।"

साम्राज्य विस्तार- 

अजातशत्रु भी अपने पिता के समान साम्राज्यवादी नीति का पोषक था। राजगद्दी प्राप्त करते ही वह मगध साम्राज्य के विस्तार के लिए प्रयत्नशील हो गया। वह सैनिक विजयों के द्वारा अपने पिता की विस्तार नीति को अक्षुण्ण रखने के लिए कृतसंकल्प था। मगध की राजधानी राजगृह में भी थी, जो पांच पहाड़ियों से घिरा एक सुन्दर नगर था तथा यह पहाड़ियाँ उसकी रक्षा के लिए प्रकृति का वरदान थीं। अजातशत्रु ने राजगृह को सुदृढ़ किया तथा गंगा के पार्श्व में पाटलिपुत्र नामक एक छोटे-से दुर्ग का निर्माण कराया जो भविष्य में मौयों का सुप्रसिद्ध राजधानी पाटलिपुत्र बना।

अजातशत्रु के पिता बिम्बिसार ने पूर्वी राज्य मगध को जीत लिया था, अत: साम्राज्य विस्तार के लिए अजातशत्रु ने अपना ध्यान उत्तर व पश्चिम की ओर केन्द्रित किया।

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इस प्रकार अजातशत्रु ने अपनी साम्राज्यवादी नीति के द्वारा मगध साम्राज्य का विस्तार किया। उसने अपने शासनकाल में मगध को वास्तविक शक्ति प्रदान की तथा अपने पिता बिम्बिसार के विशाल मगध साम्राज्य की स्थापना के स्वप्न को साकार करने का प्रयास किया।

कुछ इतिहासकारों का विचार है कि प्रारम्भ में अजातशत्रु जैन धर्मावलम्बी था, किन्तु पिता बिम्बिसार की हत्या करने के पश्चात् उसने बौद्ध धर्म को ग्रहण कर लिया। बौद्ध साहित्य ने इस तथ्य की पुष्टि भी होती है कि बिम्बिसार की हत्या करने के उपरान्त अजातशत्रु ने अपने अपराध की स्वीकारोक्ति महात्मा बुद्ध के समक्ष की थी। ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा बुद्ध से प्रभावित होकर अजातशत्रु ने बौद्ध धर्म को ग्रहण कर लिया था। 462 ई. पू. में अजातशत्रु की मृत्यु हो गई।

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अजातशत्रु के उत्तराधिकारी

विभिन्न साहित्यिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि अजातशत्रु के पश्चात् उसका पुत्र उदयन (उदायी) राजगद्दी पर बैठा। अजातशत्रु के शासनकाल में मगध साम्राज्य का काफी विस्तार हुआ था, अत: एक कोने में स्थित राजगृह मगध साम्राज्य की राजधानी के रूप में उपयुक्त न था। इसी कारणवश उदयन ने राज्य के केन्द्र में स्थित पाटलिगांव में नई राजधानी का निर्माण कराया जो पुष्पपुर अथवा पाटलिपुत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई। 

सोन तथा गंगा नदी के संगम पर स्थित यह नवीन राजधानी सामरिक व व्यापारिक दृष्टि से विशेष महत्व की थी। उदयन भी अजातशत्रु के समान साम्राज्यवादी शासक था। हेमचन्द्र कृत स्थिविरावलि से ज्ञात होता है कि उदयन ने एक पड़ोसी राज्य पर आक्रमण करके उसके राजा की हत्या कर दी। वहाँ के राजकुमार को भागकर उदयन के शत्रु अवन्ति के राजा के यहाँ शरण लेनी पड़ी। कालान्तर में इसी राजकुमार ने षड्यन्त्र द्वारा उदयन की हत्या कर दी। उदयन जैन धर्मावलम्बी था। उसने लगभग 16 वर्ष तक राज्य किया।

उदयन के उत्तराधिकारी अयोग्य एवं दुर्बल शासक थे। श्रीलंका के बौद्ध-ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि उदयन के पश्चात् अनुरुद्ध, मुण्ड व नागदशक ने शासन किया। ये तीनों ही शासक पिता की हत्या करने के उपरान्त शासक बने थे। इनके शासन से जनता त्रस्त थी, अत: जनता ने क्रोधवश पूरे राजपरिवार को निष्कासित कर नागदशक के योग्य आमात्य शिशुनाग को मगध के सिंहासन पर आरूढ़ किया। इस प्रकार मगध में हर्यंक कुल का पतन हो गया तथा शिशुनाग वंश की स्थापना 414 ई. पू. में हुई।

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शिशुनाग वंश

414 ई. पू. में नागदशक के निष्कासन के बाद शिशुनाग राजगद्दी पर बैठा। शिशुनाग ने पाटलिपुत्र के स्थान पर गिरिव्रज को अपनी राजधानी बनाया। शिशुनाग वैशाली के एक लिच्छवि राजा का पुत्र था, अत: वैशाली के प्रति उसे विशेष लगाव था। इसी कारण शिशुनाग ने वैशाली नगर को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। कालान्तर में उसकी वास्तविक राजधानी वैशाली हो गई।

शिशुनाग एक प्रतापी एवं महत्वाकांक्षी शासक था, तथा अपने शासनकाल में उसने मगध साम्राज्य के सम्मान में अपार वृद्धि की। उसके शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना अवन्ति पर विजय प्राप्त करके उसका मगध साम्राज्य में विलय करना था। इस प्रकार जो कार्य अजातशत्रु न कर सका था उसे शिशुनाग ने कर दिखाया। शिशुनाग का समकालीन अवन्ति का शासक सम्भवतः अवन्तिवर्धन था। इस प्रकार शिशुनाग ने अवन्ति में प्रद्योत वंश का पतन कर दिया। अवन्ति पर अधिकार होने से अवन्ति के अधीन वत्स व कौशाम्बी राज्यों पर भी मगध का आधिपत्य हो गया।

इस प्रकार शिशुनाग के राज्यकाल में मगध साम्राज्य अत्यन्त विशाल हो गया। शिशुनाग ने 18 वर्ष तक शासन किया। 396 ई. पू. में शिशुनाग की मृत्यु हो गई।

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कालाशोक (396 ई. पू.-368 ई. पू.)- शिशुनाग के पश्चात् उसका पुत्र कालाशोक अथवा काकवर्ण (कौवे के रंग का) शासक बना। कालाशोक ने पुनः पाटलिपुत्र को ही मगध साम्राज्य की राजधानी बनाया। इस समय से लेकर भविष्य में काफी समय तक मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र ही रही।

श्रीलंका के बौद्ध-ग्रंथों से ज्ञात होता है कि कालाशोक के शासनकाल के दसवें वर्ष (387 ई. पू.) में द्वितीय बौद्ध संगीति (Second Buddhist Conference) हुई थी।

बौद्ध ग्रन्थ दीपवंश व महावंश से ज्ञात होता है कि कालाशोक ने 28 वर्ष तक शासन किया था। 368 ई. पू. में कालाशोक की नगर के बाहर हत्या कर दी गई। ऐसा प्रतीत होता है कि कालाशोक भी हर्यंककुल के शासकों के समान किसी षडयन्त्र का शिकार हुआ था।

कालाशोक के उत्तराधिकारी (368 ई. पू.-346 ई. पू.)- बौद्ध साहित्य से ज्ञात होता है कि कालाशोक के पश्चात् उसके दस पुत्रों ने सम्मिलित रूप से शासन किया। महाबोधिवंश के अनुसार, कालाशोक के इन दस पुत्रों के नाम-भद्रसेन, कोरण्डवर्ण, मंगुर, सर्वंजह, जालिक, उभक, संजय, कौरव्य, नन्दिवर्धन तथा पंचमक थे। इन भाइयों ने 22 वर्ष तक शासन किया तत्पश्चात् महापदम ने शिशुनाग वंश को समाप्त कर मगध में नन्द-वंश की स्थापना की।

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नन्द-वंश

शिशुनाग वंश के पतन के पश्चात् मगध में नन्द-वंश की स्थापना हुई। पुराणों के अनुसार नन्द-वंश का प्रथम शासक (संस्थापक) महापद्म था, जिसका अर्थ  'असीम सेना अथवा अपार धन का स्वामी' होता है। मगध में नन्द-वंश की स्थापना से एक नवीन युग का आविर्भाव हुआ।

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