माध्यमिक शिक्षा आयोग
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने सर्वप्रथम 1948 में विश्वविद्यालय आयोग (राधाकृष्णन् कमीशन) का गठन किया जिसने अपनी रिपोर्ट 1949 में प्रस्तुत की। इस आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा में सुधार के लिए अनेक सुझाव दिए जिनमें एक सुझाव यह भी था कि विश्वविद्यालयी शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए यह आवश्यक है कि उसके पूर्व की माध्यमिक शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाया जाए। उसी समय सन् 1948 में भारत सरकार ने माध्यमिक शिक्षा की समीक्षा करने और उसका स्तर ऊँचा उठाने के लिए सुझाव देने हेतु 'ताराचन्द समिति' (Tarachand Committee) का गठन किया था। इस समिति ने भी अपनी रिपोर्ट 1949 में प्रस्तुत की थी।
इस समिति ने माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध जो सुझाव दिए, उनमें मुख्य सुझाव निम्नलिखित थे-
- जूनियर बेसिक 5 वर्ष, सीनियर बेसिक 3 वर्ष और माध्यमिक शिक्षा 4 वर्ष की की जाए।
- माध्यमिक स्तर पर बहुउद्देशीय स्कूल (Multipurpose Schools) खोले जाएँ जिनमें विभिन्न प्रकार के व्यावसायिक एवं तकनीकी पाठ्यक्रम चलाए जाएँ।
- जूनियर बेसिक स्तर पर केवल मातृभाषा की शिक्षा दी जाए, सीनियर बेसिक स्तर पर मातृभाषा के साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाए और जब देश में उच्च शिक्षा का माध्यम हिन्दी हो जाए तब माध्यमिक स्तर पर भी राष्ट्रभाषा हिन्दी की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाए।
- बाह्य परीक्षाओं का आयोजन केवल माध्यमिक शिक्षा की समाप्ति पर हो।
- विश्वविद्यालयों में प्रवेश माध्यमिक परीक्षा के परिणाम के आधार पर दिया जाए और यदि विश्वविद्यालय चाहें तो वे प्रवेश परीक्षा का आयोजन भी कर सकते हैं।
- शिक्षकों के वेतनमान और सेवाशर्तें 'केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड' के प्रस्तावों के अनुकूल हों।
केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने इन सुझावों का अध्ययन किया। उसकी सम्मति में ये सुझाव अधूरे और अस्पष्ट थे। अतः उसने 1951 में केन्द्रीय सरकार के सामने माध्यमिक शिक्षा आयोग की नियुक्ति का प्रस्ताव रखा। सरकार ने 23 सितम्बर, 1952 को मद्रास विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ० लक्ष्मण स्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में 'माध्यमिक शिक्षा आयोग' का गठन किया। इस आयोग को अध्यक्ष के नाम पर मुदालियर आयोग (Mudaliar Commission) भी कहते हैं। इस आयोग के अन्य सदस्यों में डॉ० के० एल० श्रीमाली, श्री के० जी० सैयदेन, श्रीमती हंसा मेहता, श्री जॉन क्राइस्ट और श्री कैनथ रस्ट विलियम्स के नाम उल्लेखनीय हैं।
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आयोग की नियुक्ति के उद्देश्य एवं कार्यक्षेत्र
इस आयोग की नियुक्ति का मुख्य उद्देश्य था भारत की तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा की स्थिति का अध्ययन करना और उसके पुनर्गठन के सम्बन्ध में सुझाव देना। इस उद्देश्य की दृष्टि से आयोग का कार्यक्षेत्र अति विस्तृत हो गया-
- भारत के सभी प्रान्तों की माध्यमिक शिक्षा के प्रशासन एवं संगठन का अध्ययन करना और उनमें सुधार हेतु सुझाव देना।
- भारत के सभी प्रान्तों की माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षण स्तर का अध्ययन करना और उनमें सुधार हेतु सुझाव देना।
- भारत के सभी प्रान्तों में माध्यमिक स्तर पर छात्र अनुशासन की समीक्षा करना और उसमें सुधार के लिए सुझाव देना।
- भारत के सभी प्रान्तों में माध्यमिक शिक्षकों के वेतनमान और सेवाशर्तों आदि का अध्ययन करना और उनमें सुधार के लिए सुझाव देना।
- भारत के सभी प्रान्तों के माध्यमिक विद्यालयों की स्थिति का अध्ययन करना और उनमें सुधार के लिए सुझाव देना।
- भारत के सभी प्रान्तों में माध्यमिक स्तर की परीक्षा प्रणालियों का अध्ययन करना और उनमें सुधार के लिए सुझाव देना।
- भारत के सभी प्रान्तों में माध्यमिक शिक्षा की समस्याओं का अध्ययन करना और उन्हें दूर करने के उपाय खोजना।
आयोग का प्रतिवेदन
आयोग ने भारत के विभिन्न प्रान्तों की तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा का अध्ययन करने और उसमें सुधार के लिए सुझाव देने के लिए दो अध्ययन प्रणालियों को अपनाया-एक प्रश्नावली और दूसरी साक्षात्कार। उसने माध्यमिक शिक्षा के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित एक विस्तृत प्रश्नावली (Questionnaire) तैयार की और उसकी प्रतियों को देश के विभिन्न भागों के कुछ माध्यमिक शिक्षकों एवं प्रधानाचार्यों और कुछ उच्च शिक्षा शिक्षकों एवं शिक्षाविदों के पास भेजा। उसने प्राप्त प्रश्नावलियों के मतों और सुझावों का सांख्यिकीय विवरण तैयार किया।
दूसरी विधि में उसने सम्पूर्ण देश का भ्रमण किया; कुछ माध्यमिक स्कूलों का निरीक्षण किया, उनके शिक्षकों और प्रधानाचार्यों से भेंट की और जहाँ सम्भव हुआ कुछ शिक्षाविदों से भेंट की, उनके विचारों को जाना, और इस सबको लेखबद्ध किया। इसके बाद इन दोनों अध्ययनों के आधार पर विचार-विमर्श किया और अन्त में अपनी रिपोर्ट तैयार कर उसे 29 अगस्त, 1953 को भारत सरकार को प्रेषित कर दिया। यह प्रतिवेदन 244 पृष्ठों का एक बड़ा दस्तावेज है जिसमें माध्यमिक शिक्षा के समस्त पहलुओं पर 14 प्रकरणों के अन्तर्गत प्रकाश डाला गया है।
और पढ़ें- शिमला सम्मेलन, 1901, भारतीय विश्वविद्यालय आयोग, 1902 और कर्जन शिक्षा नीति, 1904
मुदालियर आयोग के सुझाव
मुदालियर आयोग ने अपने प्रतिवेदन में सर्वप्रथम तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा के दोषों की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया है और उसके बाद उन्हें दूर करने और माध्यमिक शिक्षा को और अधिक सार्थक बनाने के लिए पूरी रूप-रेखा प्रस्तुत की है। मुदालियर कमीशन के समस्त सुझावों को निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध किया जा सकता है।
तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा के दोष
आयोग ने पूरे देश की माध्यमिक शिक्षा का विस्तृत सर्वेक्षण करने के बाद उसके निम्नलिखित दोष उजागर किए-
- प्रायः सभी प्रान्तों में माध्यमिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य विश्वविद्यालयी शिक्षा में प्रवेश पाना है, यह छात्रों में सहयोग, अनुशासन और नेतृत्व आदि गुणों का विकास नहीं करती।
- प्रायः सभी प्रान्तों की माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम अव्यावहारिक है, इसका बच्चों के वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है।
- माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम का दूसरा दोष यह है कि यह संकीर्ण एवं एकांगी है, यह बच्चों का सर्वांगीण विकास नहीं करता।
- अंग्रेजी पाठ्यक्रम का अनिवार्य विषय बनी हुई है और कुछ प्रान्तों में यह अभी तक शिक्षा का माध्यम भी है।
- शिक्षण विधियाँ दोषपूर्ण हैं, उत्तम शिक्षण विधियों का प्रयोग नहीं किया जाता।
- स्कूलों की समय-सारणी भी ठीक नहीं हैं।
- स्कूलों में छात्रों की संख्या बहुत अधिक है जिसके कारण शिक्षक और छात्रों के बीच निकट के सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाते।
- स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति के उचित मानदण्ड नहीं हैं, प्रायः योग्य शिक्षकों की नियुक्ति नहीं होती।
- स्कूलों में सहपाठ्यचारी क्रियाओं की उचित व्यवस्था नहीं है।
- माध्यमिक स्तर पर प्रयोग की जाने वाली परीक्षा प्रणाली भी दोषपूर्ण है, इससे बच्चों के ज्ञान एवं कौशल की सही परख नहीं होती।
माध्यमिक शिक्षा के प्रशासन एवं वित्त सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के प्रशासन एवं वित्त के सम्बन्ध में जो सुझाव दिए उन्हें चार उपशीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है-
1. प्रशासनिक ढाँचा- प्रशासनिक ढाँचे के सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की तरह प्रत्येक प्रान्त में प्रान्तीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (Provincial Advisory Board of Education) की स्थापना की जाए जो समय-समय पर प्रान्तीय शिक्षा की व्यवस्था के सम्बन्ध में अपने सुझाव दे।
- जिन प्रान्तों में अभी तक माध्यमिक शिक्षा बोर्डों (Board of Secondary Education) का गठन नहीं किया गया है उनमें इनका गठन किया जाए। प्रान्त का शिक्षा निदेशक इसका पदेन अध्यक्ष होगा। यह बोर्ड माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम बनाने, माध्यमिक स्कूलों को मान्यता देने, उनका निरीक्षण कराने, माध्यमिक शिक्षा के अन्तिम वर्ष में परीक्षा लेने और उत्तीर्ण छात्रों को प्रमाणपत्र देने का कार्य करेगा।
- शिक्षा निदेशक का कार्य शिक्षा मन्त्री को शिक्षा के सम्बन्ध में सलाह देना है इसलिए इसका पद कम से कम ज्वाइंट सैक्रेटरी के समकक्ष होना चाहिए।
- व्यक्तिगत विद्यालयों का प्रबन्ध कम्पनीज अधिनियम के अन्तर्गत पंजीकृत प्रबन्ध समितियों द्वारा ही हो। ये समितियाँ शिक्षकों की नियुक्ति में सरकार द्वारा बनाए नियमों का पालन करेंगी और विद्यालयों के आन्तरिक मामलों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगी।
- तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था के लिए प्रत्येक प्रान्त में तकनीकी शिक्षा बोर्ड (Board of Technical Education) स्थापित किया जाए जो अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (All India Council for Technical Education) के निर्देशन में कार्य करे।
2. वित्त व्यवस्था- माध्यमिक शिक्षा की वित्त व्यवस्था के सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था का पूर्ण उत्तरदायित्व प्रान्तीय सरकारों पर है फिर भी केन्द्रीय सरकार को उसके प्रसार एवं उन्नयन के लिए प्रान्तीय सरकारों को आर्थिक सहायता देनी चाहिए।
- माध्यमिक स्कूलों को दिए जाने वाला दान आयकर से मुक्त होना चाहिए।
- सरकार माध्यमिक स्कूलों के लिए भूमि की व्यवस्था यथा सम्भव निःशुल्क करें।
- माध्यमिक स्कूलों द्वारा क्रय की गई सामग्री कस्टम (चुंगी आदि) से मुक्त होनी चाहिए।
- माध्यमिक स्तर पर तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था के लिए उद्योगों पर कर लगाया जाए।
3. विद्यालयों को मान्यता- माध्यमिक विद्यालयों को मान्यता देने के सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- माध्यमिक विद्यालयों को मान्यता देने में नियमों का पालन कठोरता से किया जाए, किसी भी विद्यालय को बोर्ड द्वारा मान्यता तभी दी जाए जब वह मान्यता सम्बन्धी सभी शर्तों को पूरा करे।
- जो प्रबन्ध समितियाँ मान्यता प्राप्त करने के बाद विद्यालयों को सही ढंग से न चला पाएँ उन्हें चेतावनी दी जाए और यदि वे फिर भी असमर्थ हों तो ऐसे विद्यालयों की मान्यता समाप्त कर दी जाए।
4. विद्यालयों का निरीक्षण- आयोग ने सरकारी और मान्यता प्राप्त व्यक्तिगत माध्यमिक स्कूलों के नियमित निरीक्षण पर बहुत जोर दिया और इस सम्बन्ध में चार सुझाव दिए-
- विद्यालयों के निरीक्षण हेतु पर्याप्त मात्रा में निरीक्षक नियुक्त किए जाएँ।
- निरीक्षण मण्डल में विद्यालय निरीक्षकों के अतिरिक्त माध्यमिक विद्यालयों के प्रधानाचार्य और शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालयों के अनुभवी प्राध्यापक रखे जाएँ।
- प्रत्येक विद्यालय का एक निश्चित समय के अन्तर से निरीक्षण कराया जाए।
- निरीक्षण मण्डल विद्यालयों के गुण-दोषों को उजागर करे और उनमें पाई गई कमियों को दूर करने के लिए सुझाव दे।
यह भी पढ़ें-
- कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग (सैडलर कमीशन), 1917-1919 | kolkata vishwavidyalaya aayog
- भारतीय शिक्षा आयोग (हण्टर कमीशन), 1882 | [Indian Education Commission, 1882]
माध्यमिक शिक्षा के संगठन सम्बन्धी सुझाव
- माध्यमिक शिक्षा प्राथमिक (जूनियर बेसिक) शिक्षा के बाद शुरु हो।
- यह शिक्षा 11 से 17 आयुवर्ग के बच्चों के लिए हो और इसकी अवधि 7 वर्ष हो ।
- यह दो भागों में विभाजित हो 3 वर्षीय माध्यमिक (सीनियर बेसिक) और 4 वर्षीय उच्च माध्यमिक ।
- वर्तमान इण्टरमीडिएट कक्षा को समाप्त कर उसकी 11वीं कक्षा को माध्यमिक शिक्षा में और 12वीं कक्षा को डिग्री कोर्स में जोड़ दिया जाए। इस प्रकार माध्यमिक शिक्षा कक्षा 11 तक को होगी और डिग्री कोर्स 3 वर्ष का होगा।
- जब तक सब हाई स्कूल और इण्टरमीडिएट कॉलिजों को उच्चतर माध्यमिक स्कूलों में परिवर्तित नहीं किया जाता तब तक कक्षा 10 उत्तीर्ण छात्रों का एक वर्ष का पूर्व विश्वविद्यालय कोर्स (Pre University Course) पूरा करने के बाद विश्वविद्यालयों में प्रवेश दिया जाए।
- विश्वविद्यालयों के जिन पाठ्यक्रमों (कृषि, इन्जीनियरिंग और मेडिकल आदि) में न्यूनतम प्रवेश योग्यता इण्टरमीडिएट है उनमें प्रवेश के लिए उच्चतर माध्यमिक के बाद एक वर्ष का पूर्व व्यावहारिक पाठ्यक्रम शुरु किया जाए।
- उच्चतर माध्यमिक स्तर पर बहुउद्देशीय स्कूल (Multipurpose Schools) खोले जाएँ। इन स्कूलों में विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रम (Diversified Courses) चलाए जाएँ। सामान्य शिक्षा के साथ कुछ व्यावसायों की शिक्षा; जैसे- कताई, बुनाई, सिलाई, चमड़े का काम, लकड़ी का काम आदि की व्यवस्था की जाए। आयोग की सम्मति में इन बहुउद्देशीय स्कूलों से पहला लाभ यह होगा कि छात्रों को अपनी रुचि के अनुसार विषयों एवं कौशलों के चयन की छूट होगी। दूसरा लाभ यह होगा कि जो छात्र माध्यमिक शिक्षा प्राप्त कर जीवन के क्षेत्र में प्रवेश करेंगे वे अपनी जीविका कमा सकेंगे। तीसरा लाभ यह होगा कि बच्चों में श्रम के प्रति श्रद्धा विकसित होगी। चौथा लाभ यह होगा कि विश्वविद्यालयों में प्रवेश का दबाव कम होगा। और पाँचवा लाभ यह होगा कि देश में शिक्षित बेरोजगारी नहीं बढ़ेगी।
- ग्रामीण क्षेत्रों के माध्यमिक स्कूलों में कृषि शिक्षा को विशेष व्यवस्था की जाए। इनमें कृषि के साथ-साथ बागवानी, पशुपालन और कुटीर उद्योगधन्धों की शिक्षा का भी प्रबन्ध किया जाए। कृषि के वैज्ञानिक पक्ष पर विशेष बल दिया जाए।
- बड़े शहरों में पॉलिटेक्निक कॉलिज (Polytechnic College) खोले जाएँ जो आस-पास के उद्योगों को कुशल कर्मकारों की पूर्ति करें।
- पॉलिटेक्निक कॉलिजों और स्थानीय उद्योगों में निकट का सम्बन्ध होना चाहिए, इन्हें एक-दूसरे का सहयोग करना चाहिए।
- पब्लिक स्कूलों को चलने दिया जाए, परन्तु यह देखा जाए कि ये राष्ट्रीय शिक्षा के अनुरूप हों। राज्य द्वारा इन्हें आर्थिक सहायता देना धीरे-धीरे बन्द कर दिया जाए। इन विद्यालयों में योग्य छात्रों को छात्रवृत्तियाँ देना प्रारम्भ किया जाए।
- आवासीय माध्यमिक विद्यालयों को बड़ी संख्या में खोला जाए, विशेषकर उन क्षेत्रों के बच्चों के लिए जिन क्षेत्रों में माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था नहीं है।
- आवासीय दिवस विद्यालय भी खोले जाएँ जहाँ बच्चे प्रातः 8 बजे से सांय 6 बजे तक रहें। इन विद्यालयों में मध्याह्न भोजन की व्यवस्था होनी चाहिए।
- विकलांग बच्चों के लिए विशिष्ट विद्यालय खोले जाएँ।
- बालिकाओं के लिए अलग से बालिका विद्यालय खोले जाएँ और जिन क्षेत्रों में ऐसा करता सम्भव न हो उन क्षेत्रों के सामान्य माध्यमिक विद्यालयों में सहशिक्षा की व्यवस्था की जाए।
माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा को उद्देश्यहीन बताया और कहा कि यह बच्चों को वास्तविक जीवन के लिए तैयार नहीं करती। उसने माध्यमिक शिक्षा के निम्नलिखित चार उद्देश्य निश्चित किए-
- छात्रों में लोकतन्त्रीय नागरिकता का विकास।
- छात्रों में व्यावसायिक कुशलता का विकास।
- छात्रों के व्यक्तित्व का विकास।
- छात्रों में नेतृत्व शक्ति का विकास।
इन उद्देश्यों को हम निम्नलिखित तार्किक क्रम में देख-समझ सकते हैं-
1. व्यक्तित्व का विकास- आयोग के पूरे प्रतिवेदन को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि आयोग ने व्यक्तित्व को बहुत व्यापक रूप में लिया है। इसके अन्तर्गत उसने छात्रों के स्वास्थ्य की रक्षा, वास्तविक जीवन के ज्ञान, सामाजिक व्यवहार, सांस्कृतिक उन्नयन, रुचियों का संवर्द्धन, नैतिक एवं चारित्रिक विकास और आध्यात्मिक विकास पर बल दिया है।
2. लोकतन्त्रीय नागरिकता का विकास- स्वतन्त्र होते ही हमने अपने देश में लोकतन्त्र शासन प्रणाली को अपनाया। तब बच्चों में लोकतन्त्रीय नागरिकता का विकास आवश्यक है। हमारे भारतीय लोकतन्त्र के मूल सिद्धान्त है- समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृत्व, न्याय, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता। अतः अब आवश्यक हो गया था कि छात्रों अर्थात् देश के भावी नागरिकों को बिना भेद-भाव के रहने, स्वतन्त्र चिन्तन और स्वतन्त्र अभिव्यक्ति करने, एक-दूसरे के प्रति प्रेम भाव रखने, न्यायपूर्ण व्यवहार करने, किसी भी प्रकार के वर्ग भेद को अस्वीकार करने और साम्प्रादायिक उन्माद से दूर रहने में प्रशिक्षित किया जाए। माध्यमिक आयोग ने इसे माध्यमिक शिक्षा का सर्वप्रथम उद्देश्य निश्चित किया।
3. नेतृत्व शक्ति का विकास- लोकतन्त्र की सफलता कुशल नेतृत्व पर निर्भर करती है। आज के छात्र कल के नागरिक हैं, इन्हें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व करना है अतः इन्हें इसका प्रशिक्षण विद्यालयी जीवन में देना आवश्यक है।
4. व्यावसायिक कुशलता का विकास- आयोग की दृष्टि से माध्यमिक शिक्षा अपने में एक पूर्ण इकाई है। यह वह शिक्षा है जिसे प्राप्त करने के बाद देश के लगभग 70% छात्र वास्तविक जीवन में प्रवेश करते हैं। अतः इस स्तर पर ऐसी व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए जिसे प्राप्त करने के बाद ये 70% बच्चे अपनी जीविका कमा सकें और शेष 30%, मेधावी छात्रों में श्रम के प्रति आदर भाव उत्पन्न हो सके। इसी से कोई भी देश आर्थिक विकास करता है।
माध्यमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने माध्यमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या के निर्माण के चार आधारभूत सिद्धान्तों पर बल दिया-
- पाठ्यचर्या वास्तविक जीवन से सम्बन्धित हो जिसे पूरा कर छात्र समाज में सम्मानपूर्वक रह सकें।
- पाठ्यचर्या व्यापक एवं लचीली हो जिससे छात्र अपनी रुचियों के अनुसार विषयों का चयन कर सकें।
- पाठ्यचर्या में ऐसे विषयों का समावेश हो जिनसे छात्र अपने अवकाश के समय का सदुपयोग कर सकें।
- पाठ्यचर्या के समस्त विषयों एवं क्रियाओं में सह-सम्बन्ध हो।
1. निम्न माध्यमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या- आयोग ने सुझाव दिया कि सीनियर बेसिक पाठ्यचर्या और माध्यमिक स्कूलों को निम्न माध्यमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या में समानता होनी चाहिए और यह पूरे देश के लिए समान होनी चाहिए। उसने इस स्तर की पाठ्यचर्या में निम्नलिखित विषयों को रखने का सुझाव दिया-
(1) मातृभाषा (2) राष्ट्रभाषा हिन्दी (जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है) अथवा कोई अन्य संघीय भाषा (जिनकी मातृभाषा हिन्दी है) (3) अंग्रेजी (4) सामाजिक विज्ञान (5) सामान्य विज्ञान (6) गणित (7) कला तथा संगीत (8) हस्तशिल्प और (9) शारीरिक शिक्षा।
2. उच्च माध्यमिक स्तर की पाठ्यचर्या- आयोग ने उच्च माध्यमिक शिक्षा को 7 वर्गों में विभाजित किया और सातों वर्गों के लिए अलग-अलग पाठ्यचर्या निश्चित की। इनमें कुछ विषयों एवं क्रियाओं को सभी वर्गों में समान एवं अनिवार्य रूप से रखा और कुछ को अलग-अलग एवं ऐच्छिक रूप से रखा।
सभी वर्गों के लिए अनिवार्य विषय निम्नलिखित रखे गए-
(1) मातृभाषा,
(2) हिन्दी (अहिन्दी भाषा-भाषियों के लिए) अथवा प्रारम्भिक अंग्रेजी (उनके लिए जिन्होंने निम्न माध्यमिक स्तर पर अंग्रेजी नहीं पढ़ी है) अथवा उच्च अंग्रेजी अथवा कोई अन्य आधुनिक संघीय भाषा अथवा अंग्रेजी के अतिरिक्त कोई अन्य विदेशी भाषा अथवा कोई शास्त्रीय भाषा,
(3) समाज विज्ञान (केवल प्रथम दो वर्ष हेतु),
(4) गणित तथा सामान्य विज्ञान (केवल प्रथम दो वर्ष हेतु) और
5. कोष्ठक में दिए गए शिल्पों में से कोई एक शिल्प (कताई-बुनाई, काष्ठकला, धातु का काम, बागवानी, सिलाई-कढ़ाई, मुद्रण, माडल बनाने का काम और दस्तकारी)।
सभी वर्गों के लिए ऐच्छिक विषय
वर्ग- 1 (मानवशास्त्र)- (1) शास्त्रीय भाषा (जो अनिवार्य विषयों में न ली हो) (2) इतिहास (3) भूगोल (4) अर्थशास्त्र तथा नागरिकशास्त्र के साधारण सिद्धान्त (5) मनोविज्ञान तथा तर्कशास्त्र (6) गणित (7) संगीत (8) गृह विज्ञान।
वर्ग- 2 (विज्ञान)- (1) भौतिकशास्त्र (2) रसायनशास्त्र (3) जीव विज्ञान (4) भूगोल (5) गणित (6) शरीर विज्ञान एवं स्वास्थ्य विज्ञान (जो जीव विज्ञान के साथ नहीं लिया जा सकता)।
वर्ग- 3 (तकनीकी)- (1) व्यावहारिक गणित एवं ज्यामिति ड्राइंग (2) व्यावहारिक विज्ञान (3) मैकेनिकल इन्जीनियरिंग के तत्व (4) इलैक्ट्रीकल इन्जीनियरिंग के तत्व ।
वर्ग- 4 (वाणिज्य)- (1) कामर्सियल प्रेक्टिस (2) बुक-कीपिंग (3) वाणिज्य भूगोल एवं अर्थशास्त्र के तत्व (4) शॉर्टहैण्ड एवं टाइप।
वर्ग- 5 (कृषि)- (1) सामान्य कृषि (2) पशुपालन (3) उद्यान कार्य (4) कृषि रसायन और वनस्पति विज्ञान ।
वर्ग- 6 (ललित कला)- (1) कला का इतिहास (2) ड्राइंग तथा डिजाइनिंग (3) चित्रकला (4) मॉडलिंग (5) संगीत और (6) नृत्य ।
वर्ग-7 (गृह विज्ञान, केवल लड़कियों के लिए)- (1) गृह अर्थशास्त्र (2) आहार, पोषण और पाक कला (3) मातृकला और शिशु रक्षा और (4) गृह प्रबन्ध।
शिक्षण विधियों सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने उस समय प्रयोग की जाने वाली शिक्षण विधियों की कटु आलोचना की और उनमें सुधार के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए-
- शिक्षण में रटने पर बल न देकर समझने पर बल देना चाहिए और इसके लिए छात्रों को स्वयं सोचने, स्वयं कार्य करने और स्वयं निर्णय निकालने के अवसर देने चाहिए।
- शिक्षण में बच्चों की सक्रिय साझेदारी होनी चाहिए, सामूहिक क्रियाओं द्वारा शिक्षण को आगे बढ़ाना चाहिए। इस दृष्टि से क्रिया विधि और योजना विधि का प्रयोग उपयुक्त होता है।
- तथ्यों को स्पष्ट करने के लिए दृश्य-श्रव्य साधनों का प्रयोग करना चाहिए। इससे शिक्षण रुचिकर और प्रभावी होता है।
- ऐसी विधियों का प्रयोग करना चाहिए जो मन्द, समान्य और प्रतिभाशाली, सभी छात्रों के लिए उपयोगी हों।
- प्रायोगिक विषयों को प्रयोग विधि से पढ़ाया जाए।
- स्वाध्याय को प्रोत्साहन दिया जाए।
- छात्रों को सीखे हुए ज्ञान एवं क्रियाओं के प्रयोग के अवसर प्रदान किए जाएँ जिससे सीखा हुआ ज्ञान स्थायी हो।
माध्यमिक स्तर की पाठ्य पुस्तकों के सम्बन्ध में सुझाव
- प्रत्येक प्रान्त में पाठ्य पुस्तक समिति का गठन किया जाए। इस समिति का कार्य अच्छी पाठ्य पुस्तकें तैयार कराना और अच्छी पाठ्य पुस्तकों का चयन करना होगा।
- यह समिति पाठ्य पुस्तकों के निर्माण के सम्बन्ध में नियमों का निर्माण करेगी और उनके अनुसार पाठ्य पुस्तकों का निर्माण कराएगी।
- केन्द्रीय सरकार पाठ्य पुस्तकों के लिए चित्र बनाने में प्रशिक्षण हेतु एक स्वतन्त्र संस्था का निर्माण करे। केन्द्र और प्रान्तीय सरकारें इन चित्रों के ब्लाकों को सुरक्षित रखने की व्यवस्था करें।
- किसी भी कक्षा के लिए भाषा की पाठ्य पुस्तकें निश्चित हों जिससे परीक्षा प्रश्नपत्र बनाने में कोई परेशानी न हो।
- किसी भी कक्षा के लिए भाषा को छोड़कर अन्य किसी भी विषय पर 3-4 अच्छी पाठ्य पुस्तकों का चयन किया जाए। इन पुस्तकों में से किसी भी पुस्तक का चयन करने का अधिकार विद्यालय के विषय शिक्षकों और प्रधानाचार्य को होना चाहिए।
- पाठ्य पुस्तकों में ऐसे प्रसंग न हों जिनसे किसी वर्ग विशेष को कोई ठेस पहुँचे।
- पाठ्य पुस्तकें बार-बार न बदली जाएँ।
माध्यमिक स्तर पर चरित्र निर्माण एवं अनुशासन सम्बन्धी सुझाव
आयोग ने माध्यमिक स्तर के बच्चों के चरित्र निर्माण और अनुसाशन की ओर विशेष ध्यान आकर्षित किया। उसने इन दोनों के उचित विकास के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए-
- छात्रों के चरित्र निर्माण और अनुशासन का उत्तरदायित्व सभी शिक्षकों का होना चाहिए। शिक्षकों के सामान्य व्यवहार और उनके द्वारा पढ़ाए जाने वाले किसी भी विषय के शिक्षण से बच्चों का चरित्र निर्माण होना चाहिए और उनमें अनुशासन आना चाहिए।
- छात्रों में अनुशासन की भावना विकसित करने के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षक और छात्रों के बीच निकट का सम्बन्ध हो।
- छात्रों में स्वानुशासन के विकास के लिए स्वशासन (प्रीफेक्ट प्रणाली, गृह प्रणाली, विद्यार्थी परिषद आदि) का निर्माण किया जाए। स्वेच्छा से स्वीकार किया गया आचरण ही स्थायी आचरण होता है।
- छात्रों की रुचियों और अभिवृत्तियों को उचित दिशा देने के लिए साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाए।
- विद्यालयों में खेल-कूद, स्काउटिंग, प्राथमिक चिकित्सा, रेडक्रास और एन० सी० सी० आदि की व्यवस्था की जाए। इन क्रियाओं में भाग लेने से बच्चों में अनुशासन आता है।
- 17 वर्ष से कम आयु के बच्चों को राजनैतिक आन्दोलनों में भाग लेना और चुनाव प्रचार करना गैरकानूनी घोषित किया जाए।
माध्यमिक शिक्षकों के सम्बन्ध में सुझाव
आयोग ने माध्यमिक शिक्षकों के सम्बन्ध में जो सुझाव दिए हैं उन्हें हम तीन वर्गों में विभाजित कर सकते हैं-
1. प्रशिक्षण सम्बन्धी सुझाव,
2. नियुक्ति सम्बन्धी सुझाव और
3. वेतनमान एवं सेवाशर्तों सम्बन्धी सुझाव ।
1. शिक्षक प्रशिक्षण सम्बन्धी सुझाव- माध्यमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण के सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- माध्यमिक स्कूलों के लिए दो प्रकार के शिक्षक चाहिए, एक निम्न माध्यमिक कक्षाओं हेतु और दूसरे उच्च माध्यमिक कक्षाओं हेतु। आयोग की सम्मति में इनके लिए अलग-अलग शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय और महाविद्यालय होने चाहिए।
- निम्न माध्यमिक शिक्षकों के लिए शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय राज्य के शिक्षा विभाग से सम्बद्ध होने चाहिए और इनमें प्रवेश के लिए न्यूनतम योग्यता हायर सैकेण्डरी होनी चाहिए। ये विद्यालय शिक्षक और शिक्षिकाओं के लिए अलग-अलग होने चाहिए और इनका प्रशिक्षण काल 2 वर्ष का होना चाहिए।
- माध्यमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण महाविद्यालय विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध होने चाहिए। इनमें प्रवेश के लिए न्यूनतम योग्यता स्नातक होनी चाहिए और इनका प्रशिक्षण काल अभी तो एक वर्ष रखा जाए परन्तु आगे चलकर इसे भी दो वर्ष कर दिया जाए।
- शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालयों और महाविद्यालयों में योग्य अभ्यर्थियों को ही प्रवेश दिया जाना चाहिए।
- शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालयों और महाविद्यालयों में प्रशिक्षणार्थियों से किसी प्रकार का शुल्क न लिया जाए और उन्हें राज्य सरकार की ओर से छात्रवृत्तियाँ दी जाएँ। और जो शिक्षक किसी विद्यालय में कार्यरत हों उन्हें प्रशिक्षण हेतु पूर्ण वेतन पर अवकाश दिया जाए।
- शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालयों और महाविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सिद्धान्त और प्रायोगिक प्रशिक्षण को बराबर का महत्व दिया जाए।
- शिक्षकों को दो पाठ्य विषयों के शिक्षण और कम से कम दो सहपाठ्यचारी क्रियाओं के आयोजन में प्रशिक्षित किया जाए।
- शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालयों और महाविद्यालयों में शोध कार्य को बढ़ावा दिया जाए।
- शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालयों और महाविद्यालयों में प्रायोगिक प्रशिक्षण और शोध कार्य हेतु डिमोन्सट्रेशन स्कूल संलग्न हों।
- प्रशिक्षित शिक्षकों की पूर्ति के लिए अंशकालीन प्रशिक्षण पाठ्यक्रम भी चलाए जाएँ।
- शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालयों और महाविद्यालयों में समय-समय पर अभिनव पाठ्यक्रम (Refresher Courses) की व्यवस्था भी की जाए।
- स्नातकोत्तर प्रशिक्षण (एम० एड०) में उन्हें ही प्रवेश दिया जाए जो स्नातक प्रशिक्षण (बी० एड०) उत्तीर्ण हों और जिन्हें कम से कम तीन वर्ष का शिक्षण अनुभव हो ।
2. शिक्षकों की नियुक्ति सम्बन्धी सुझाव- शिक्षकों को नियुक्ति के सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए-
- शिक्षकों के चयन सम्बन्धी सामान्य नियम बनाए जाएँ।
- प्रत्येक गैरसरकारी स्कूल में शिक्षकों की नियुक्ति हेतु चयन समिति का गठन किया जाए जिसमें विद्यालय का प्रधानाचार्य पदेन सदस्य हो।
- प्रथम नियुक्त शिक्षकों का परीक्षण काल (Probation Period) साधारणतः एक वर्ष हो जो एक वर्ष और बढ़ाया जा सकता है।
3. शिक्षकों के वेतनमान एवं सेवाशतों सम्बन्धी सुझाव- आयोग ने शिक्षकों की दशा सुधारने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए-
- शिक्षकों के वेतनमान निश्चित करने के लिए एक विशेष समिति का गठन किया जाए जो समय-समय पर महंगाई को ध्यान में रखकर विभिन्न स्तर के शिक्षकों के वेतनमान निश्चित करे।
- समान योग्यता और समान कार्य करने वाले शिक्षकों के वेतनमान समान हों, चाहे वे किसी भी प्रकार के विद्यालय में कार्यरत हों।
- प्रधानाचार्यों को उच्च वेतनमान दिया जाए जिससे योग्य व्यक्ति इस पद पर नियुक्त किए जा सकें।
- प्रत्येक प्रान्त में शिक्षकों को प्रोविडेन्ट फण्ड, बीमा और पेंशन की सुविधाएँ प्रदान की जाएँ।
- शिक्षकों को पूर्णकालीन प्रशिक्षण, रिफ्रेशर कोर्स और शैक्षिक संगोष्ठियों में भाग लेने के लिए पूर्ण वेतन पर अवकाश दिया जाए।
- शिक्षकों के बच्चों को माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा निःशुल्क दी जाए।
- शिक्षकों को निःशुल्क चिकित्सा सुविधा दी जाए।
- शिक्षकों की कठिनाइयों और झगड़ों का निपटारा करने के लिए आर्बिटेशन बोर्ड बनाए जाएँ।
- योग्य एवं स्वस्थ शिक्षकों को 58 वर्ष के स्थान पर 60 वर्ष की आयु पर सेवानिवृत्त किया जाए।
- शिक्षकों को प्राइवेट ट्यूशन देने करने की स्वीकृति न दी जाए।
छात्रों के शारीरिक स्वास्थ्य सम्बन्धी सुझाव
- सभी प्रान्तों में 'स्कूल स्वास्थ्य सेवा' योजना शुरु की जाए।
- स्कूली छात्रों का वर्ष में कम से कम एक बार स्वास्थ्य परीक्षण हो।
- अस्वस्थ छात्रों का वर्ष में कई बार स्वास्थ्य परीक्षण हो।
- छात्रों के सामान्य रोगों का निःशुल्क इलाज किया जाए।
- छात्रावासों में पौष्टिक भोजन की व्यवस्था की जाए।
माध्यमिक विद्यालयों के सम्बन्ध में सुझाव
1. भवन एवं साज सज्जा- प्रत्येक माध्यमिक विद्यालय में मान्यता की शर्तों के अनुसार उचित भवन, फर्नीचर एवं अन्य सामग्री होनी चाहिए। छात्र संख्या 500 से 750 तक होनी चाहिए।
2. पुस्तकालय एवं प्रयोगशालाएँ- प्रत्येक माध्यमिक विद्यालय में अच्छे स्तर के पुस्तकालय और साज-सज्जा सम्पन्न प्रयोगशालाओं की व्यवस्था की जाए।
3. स्वास्थ्य सेवा सुविधाएँ- प्रत्येक माध्यमिक विद्यालय में छात्रों के नियमित स्वास्थ्य परीक्षण और प्राथमिक चिकित्सा की व्यवस्था की जाए। साथ ही उनके लिए पौष्टिक मध्याह्न भोजन की व्यवस्था की जाए।
4. कार्य दिवस- प्रत्येक माध्यमिक विद्यालय में सत्र में कम से कम 200 कार्य दिवस हों, प्रति सप्ताह 35 घण्टे कार्य हो और सप्ताह में एक दिन मध्याह्न अवकाश (Interval) के बाद सहपाठ्यचारी क्रियाएँ हों। .
5. अवकाश- प्रत्येक माध्यमिक विद्यालय में 2 माह का ग्रीष्मावकाश/शीतकालीन अवकाश, 10-10 दिन के दो लम्बे अवकाश और सभी सरकारी अवकाश हों, परन्तु कुल मिलाकर ये 160 दिन से अधिक न हों।
शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन एवं परामर्श सम्बन्धी सुझाव
- प्रत्येक राज्य में एक 'शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन ब्यूरो' की स्थापना की जाए।
- प्रत्येक माध्यमिक विद्यालय में शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन एवं परामर्श सेवा की व्यवस्था की जाए। इसके लिए जीविकोपार्जन शिक्षक (Career Masters) और मार्गदर्शक अधिकारी (Guidance Officers) की नियुक्ति की जाए।
- जीविकोपार्जन शिक्षक और मार्गदर्शकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था केन्द्र सरकार करे।
- मार्गदर्शन शैक्षिक और व्यावसायिक दोनों क्षेत्रों में किया जाए, छात्रों को सामान्य विषयों एवं व्यावसायिक विषयों के चयन में सहायता की जाए। साथ ही उन्हें आगे उच्च स्तरों के पाठ्यक्रमों के विषय में जानकारी दी जाए।
- मार्गदर्शन छात्रों के व्यक्तिगत भेदों, रुचि, रुझान और योग्यता के आधार पर किया जाए।
- मार्गदर्शन और परामर्श देते समय छात्रों की परिस्थितियों और क्षेत्रीय आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखा जाए।
- शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन देते समय भविष्य की सम्भावनाओं को भी ध्यान में रखना चाहिए।
माध्यमिक विद्यालयी छात्रों की परीक्षा सम्बन्धी सुझाव
- बाहय परीक्षाएँ कम की जाएँ, यह केवल माध्यमिक शिक्षा की समाप्ति पर ही हों।
- निबन्धात्मक परीक्षाओं में सुधार किया जाए, विचार प्रधान प्रश्न पूछे जाएं।
- परीक्षाओं को वस्तुनिष्ठ बनाने हेतु वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं (Objective Tests) का भी प्रयोग किया जाए।
- माध्यमिक शिक्षा की समाप्ति पर अन्तिम मूल्यांकन केवल बाह्य परीक्षा पर ही निर्भर नहीं होना चाहिए, उसमें छात्रों के नियमित कार्यों और आन्तरिक परीक्षाओं के परिणामों को भी स्थान देना चाहिए।
- छात्रों की प्रगति का ब्यौरा रखने के लिए संचयी अभिलेख (Cumulative Records) का प्रयोग किया जाए।
- मूल्यांकन परिणाम प्रतिशत अंकों में प्रकट न कर ग्रेडों में प्रकट किए जाएँ। इसके लिए पंच पद श्रेणी (Five Points Scale) उत्तम होगी।
- बाह्य परीक्षा में किसी एक विषय में अनुत्तीर्ण छात्रों के लिए संविभागीय (Compartmental) परीक्षा की व्यवस्था की जाए।
माध्यमिक स्तर की व्यावसायिक शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
- माध्यमिक स्कूलों में किसी एक हस्तकार्य की शिक्षा अनिवार्य की जाए।
- माध्यमिक स्कूलों में तकनीकी, वाणिज्य और कृषि वर्ग के पाठ्यक्रम व्यवसाय एवं तकनीकी शिक्षा प्रधान हों।
- माध्यमिक स्कूलों को बहुउद्देशीय स्कूलों में बदला जाए जिनमें विभिन्न हस्तकौशलों की शिक्षा की व्यवस्था हो।
- बड़े शहरों में पॉलिटेक्निक कॉलिज (Polytechnic college) स्थापित किए जाएँ जो आस-पास के उद्योगों को कुशल कर्मकार और कनिष्ठ अधिकारियों की पूर्ति करें।
- इन तकनीकी स्कूलों और स्थानीय उद्योगों में निकट का सम्बन्ध होना चाहिए और इन्हें एक-दूसरे का सहयोग करना चाहिए।
स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव
- बालकों की तरह बालिकाओं को भी किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने का समान अधिकार हो।
- बालिकाओं के लिए गृह विज्ञान के अध्ययन की व्यवस्था की जाए।
- माध्यमिक स्तर पर गृह विज्ञान वर्ग की अलग से व्यवस्था की जाए।
- आवश्यकतानुसार बालिका विद्यालय खोले जाएँ।
- जहाँ बालिका विद्यालय खोलना सम्भव न हो वहाँ सह-शिक्षा की स्वीकृति दी जाए।
धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
- माध्यमिक विद्यालयों में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा को अनिवार्य न किया जाए।
- अभिभावकों को स्वीकृति के आधार पर इसकी व्यवस्था की जा सकती है, परन्तु यह शिक्षा स्कूल कार्य प्रारम्भ होने से पहले अथवा उसके समाप्त होने के बाद ऐच्छिक रूप से ही दी जाए।
माध्यमिक शिक्षा आयोग का मूल्यांकन एवं गुण-दोष
किसी वस्तु, क्रिया अथवा विचार का मूल्यांकन कुछ आधारभूत मानदण्डों के आधार पर किया जाता है। शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसका विधान समाज विशेष के उत्थान के लिए किया जाता है, अतः इससे सम्बन्धित किसी भी विचार, क्रिया अथवा योजना का मूल्यांकन उसकी समाज विशेष के लिए उपादेयता के आधार पर ही किया जा सकता है। हम इस आयोग के सुझावों का मूल्यांकन एवं गुण-दोष विवेचन आज के भारतीय समाज एवं उसकी भविष्य की आकांक्षाओं और सम्भावनाओं के आधार पर ही करेंगे। फिर हम तो उसके कुछ सुझावों को अमल में भी ला चुके हैं, उसके गुण-दोष देख-समझ चुके हैं। अतः यहाँ उन सबका वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है जो इस प्रकार से है।
माध्यमिक शिक्षा आयोग के गुण
1. व्यवस्थित प्रशासनिक ढांचा
आयोग ने माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था में केन्द्र सरकार की भागीदारी पर बल दिया, केन्द्र की भाँति प्रान्तों में भी प्रान्तीय शिक्षा सलाहकार बोर्डों की स्थापना का सुझाव दिया, प्रत्येक प्रान्त में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के गठन का सुझाव दिया और विद्यालयों के नियमित निरीक्षण पर बल दिया। उसके ये सभी सुझाव अच्छे हैं। इन सुझावों को जिस प्रान्त में जिस सीमा तक लागू किया गया उस प्रान्त में उसी सीमा में लाभ हुआ।
2. शिक्षा के उपयुक्त उद्देश्य
इस आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के जो उद्देश्य निश्चित किए हैं वे अति व्यापक हैं। छात्रों के व्यक्तित्व विकास से उसका तात्पर्य छात्रों के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक और चारित्रिक विकास से है। शिक्षा द्वारा लोकतन्त्रीय नागरिकता के विकास से उसका तात्पर्य छात्रों को लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों के ज्ञान और लोकतन्त्रीय जीवन शैली में प्रशिक्षित करने से है। नेतृत्व शक्ति और व्यावसायिक कुशलता का विकास तो लोकतन्त्र की सफलता का आधार है।
3. पाठ्यचर्या निर्माण के उपयुक्त सिद्धान्त
आयोग ने माध्यमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या को चार आधारों-वास्तविकता, व्यापकता, उपयोगिता और सहसम्बन्ध पर विकसित करने का सुझाव दिया। ये आज पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्त माने जाते हैं। आयोग ने माध्यमिक स्तर की पाठ्यचर्या में सहपाठ्यचारी क्रियाओं को अनिवार्य करने का सुझाव भी दिया। सहपाठ्यचारी क्रियाओं के महत्व को आज सभी शिक्षाशास्त्री स्वीकार करते हैं।
4. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा
आयोग ने माध्यमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को बनाने पर बल दिया। यह किसी भी स्वतन्त्र देश के लिए हितकर है, हमारे देश भारत के लिए भी।
5. चरित्र निर्माण और अनुशासन पर बल
आयोग ने चरित्र निर्माण और अनुशासन पर विशेष बल दिया और इनकी प्राप्ति के लिए ठोस सुझाव दिए। हमारे आज के भारत में चरित्र निर्माण और अनुशासन की बड़ी आवश्यकता है। इनके अभाव में हम क्या, कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता।
6. शिक्षकों की दशा में सुधार
आयोग ने सर्वप्रथम शिक्षकों के प्रशिक्षण पर बल दिया और शिक्षक प्रशिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए ठोस सुझाव दिए। उसने शिक्षकों की नियुक्ति के लिए नियम बनाने पर भी बल दिया। पर साथ ही उनके वेतनमान बढ़ाने और उनकी सेवाशर्तों में सुधार करने की सिफारिश भी की। इससे योग्य व्यक्तियों का शिक्षण कार्य की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक है।
7. शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन पर बल
आयोग ने बहुउद्देशीय माध्यमिक विद्यालय खोलने पर बल दिया। ये तभी सफल हो सकते थे जब बच्चों को विद्यालयों में शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन एवं परामर्श दिया जाता। अतः उसने प्रत्येक विद्यालय में इसकी व्यवस्था करने पर बल दिया। इसके द्वारा बच्चों को उनकी रुचि, रुझान और योग्यता और स्थान विशेष की आवश्यकतानुसार, सामान्य एवं व्यावसायिक विषयों के चयन में सहायता की जा सकती है।
8. परीक्षा प्रणाली में सुधार
आयोग ने निबन्धात्मक परीक्षा के दोषों को दूर करने के लिए ठोस सुझाव दिए। उन सुझावों में दो सुझाव बड़े महत्वपूर्ण हैं। पहला यह कि निबन्धात्मक प्रश्नों की रचना सावधानी से की जाए और विचार प्रधान प्रश्न पूछे जाएँ और दूसरा यह कि निबन्धात्मक परीक्षाओं के साथ-साथ वस्तुनिष्ठ परीक्षा की भी व्यवस्था की जाए। आज इन सुझावों को स्वीकार करने से परीक्षा प्रणाली में सुधार हुआ है, वह कुछ वस्तुनिष्ठ और विश्वसनीय हुई है।
9. स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में ठोस सुझाव
आयोग ने बालक-बालिकाओं की शिक्षा में किसी प्रकार का भेद न करने की सिफारिश की। आयोग की दृष्टि से बालिकाओं को बालकों की भाँति किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए। उसने बालिकाओं के लिए गृह विज्ञान वर्ग की अतिरिक्त व्यवस्था करने की सिफारिश भी की। उसका यह सुझाव भी बड़ा महत्व का है कि जिन क्षेत्रों में अलग से बालिका विद्यालय नहीं हैं उन क्षेत्रों में सहशिक्षा की स्वीकृति दी जाए।
माध्यमिक शिक्षा आयोग के दोष
परन्तु ऐसा भी नहीं है कि आयोग के सभी सुझाव अपने में उपयुक्त थे। आज की दृष्टि से उसके कुछ सुझाव तो एकदम अनुपयुक्त थे, उन्हें ही हम उसके दोष कहते हैं।
1. माध्यमिक शिक्षा का अस्पष्ट संगठन
आयोग ने एक ओर 7 वर्षीय माध्यमिक शिक्षा की बात की और दूसरी ओर कक्षा 6, 7 तथा 8 को निम्न माध्यमिक और कक्षा 9, 10 तथा 11 को उच्च माध्यमिक और इस प्रकार कुल 6 वर्षीय माध्यमिक शिक्षा की बात की, यह अपने में अस्पष्ट है। इण्टरमीडिएट की कक्षा 11 को माध्यमिक शिक्षा और कक्षा 12 को स्नातक शिक्षा में जोड़ने सम्बन्धी सुझाव के पीछे भी कोई औचित्य नजर नहीं आता। पूर्व विश्वविद्यालय कोर्स और पूर्व व्यावसायिक कोर्स चलाने सम्बन्धी विचार भी बड़े उलझे हुए थे। इन सबसे परेशानियों के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगा और हमें पुनः 10+2 की ओर लौटना पड़ा।
2. बोझिल पाठ्यचर्या
माध्यमिक स्तर पर तीन भाषाएँ और कुल मिलाकर आठ विषयों का अध्ययन, लगता है आयोग बच्चों को माध्यमिक स्तर पर ही सब कुछ पढ़ा-लिखा देना चाहता था।
3. विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रम
आयोग ने माध्यमिक स्तर पर 7 वर्गों का निर्माण किया और सातों वर्गों के लिए कुछ विषय समान रखे और भिन्न-भिन्न वर्गों के लिए भिन्न-भिन्न रखे। कुछ ऐच्छिक विषयों को दो या दो से अधिक वर्गों में भी रखा गया। इस सबके पीछे कोई ठोस तर्क नहीं थे। अब जब पूरे देश में 10 + 2 + 3 शिक्षा संरचना लागू हो गई है, यह वर्ग विभाजन अर्थहीन हो गया है।
4. अंग्रेजी के बारे में अस्पष्ट सुझाव
आयोग ने अंग्रेजी के अध्ययन के विषय में कुछ उलझे हुए सुझाव दिए हैं। एक ओर उसे अनिवार्य विषयों की सूची में रखा है और वह भी विभिन्न रूपों में और दूसरी ओर दो वर्गों में ऐच्छिक विषयों की सूची में रखा है और वह भी विभिन्न रूपों में।
5. व्ययसाध्य बहुउद्देशीय स्कूल
आयोग ने माध्यमिक विद्यालयों को बहुउद्देशीय माध्यमिक विद्यालयों में बदलने का सुझाव दिया, सभी स्कूलों में एक साथ अनेक हस्तकौशलों और व्यवसायों की शिक्षा की व्यवस्था का सुझाव दिया। आयोग ने सम्भवतः इस पर होने वाले व्यय का अनुमान नहीं लगाया था। यदि वह व्यय और लाभ का अनुमान लगाता तो शायद यह सुझाव नहीं देता।
6. गैरसरकारी स्कूलों के सन्दर्भ में हवाई सुझाव
आयोग ने गैरसरकारी माध्यमिक स्कूलों में सुधार के लिए जो सुझाव दिए हैं वे अपने में उपयुक्त होते हुए भी हवाई सुझाव हैं। जिस देश की राजधानी में तम्बुओं में विद्यालय चल रहे हों और ग्रामों में खुले आकाश के नीचे चल रहे हों, उस देश के विद्यालयों में बिना सरकारी सहायता के सब सुविधाएँ उपलब्ध कराना हवाई सुझाव नहीं तो और क्या है।
7. धार्मिक और नैतिक शिक्षा के सम्बन्ध में अनुपयुक्त सुझाव
आयोग का यह सुझाव कि स्कूलों में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा की व्यवस्था तभी की जाए जब अभिभावक चाहें और वह भी स्कूल समय से पहले अथवा बाद में, एक उलझा हुआ एवं अव्यावहारिक सुझाव है। हमारा राज्य धर्मनिरपेक्ष राज्य है, इसमें धर्म विशेष की शिक्षा की नहीं धार्मिक सहिष्णुता की शिक्षा देने की आवश्यकता है और उसे अनिवार्य रूप से देने की आवश्यकता है, तभी हमारे देश में साम्प्रदायिकता की भावना समाप्त की जा सकती है।
माध्यमिक शिक्षा आयोग का प्रभाव
अब थोड़ा विचार करें आयोग के प्रभाव पर, उसकी सिफारिशों को लागू करने से होने वाले हानि-लाभों पर। आयोग का प्रतिवेदन प्राप्त करने के बाद केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने इस पर पुनर्विचार करने हेतु एक समिति का गठन किया। इस समिति की रिपोर्ट मिलने के बाद बोर्ड ने अपने 21वें अधिवेशन में 7 जनवरी, 1954 को ये दोनों रिपोर्ट प्रस्तुत कीं। लम्बे विचार-विमर्श के बाद आयोग की मूल सिफारिशों को स्वीकार किया गया। पहली यह कि माध्यमिक शिक्षा भारत के अधिकांश छात्रों के लिए अपने में पूर्ण शिक्षा हो।
दूसरी यह कि यह कक्षा 6 से कक्षा 11 तक की हो। तीसरी यह कि इस स्तर पर विविध पाठ्यक्रम हों। चौथी यह कि इस स्तर पर कोई हस्तशिल्प अनिवार्य हो। पाँचवीं यह कि हाई स्कूल और इण्टरमीडिएट कॉलिजों को बहुउद्देशीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में बदल दिया जाए। छठी यह कि छात्रों के लिए शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन एवं परामर्श की व्यवस्था की जाए। और सातवीं यह कि सम्पूर्ण भारत में माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में समान नीति एवं समान योजना बनाने हेतु केन्द्र में 'अखिल भारतीय माध्यमिक शिक्षा सलाहकार बोर्ड' का गठन किया जाए। और केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड के इस निर्णय पर केन्द्र सरकार ने अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी।
अब ये सुझाव एवं प्रस्ताव प्रान्तीय सरकारों और योजना आयोग को भेजे गए। कई प्रान्तों में 5+6+3 की योजना लागू कर दी गई और 10 वर्षों के अन्दर 2115 माध्यमिक विद्यालयों को बहुउद्देशीय माध्यमिक विद्यालयों में परिवर्तित कर दिया गया। आयोग की उपरोक्त सिफारिशों को लागू कर देने से कुछ लाभ हुए तो कुछ हानियाँ भी हुई।
जहाँ तक इस आयोग की सिफारिशों को लागू करने से होने वाले लाभों का प्रश्न है उनसे पहला लाभ यह हुआ कि केन्द्र में 'अखिल भारतीय माध्यमिक शिक्षा सलाहकार बोर्ड' का गठन हुआ जो सम्पूर्ण देश की माध्यमिक शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं पर विचार करता है और उनके हल के उपाय खोजता है। दूसरा लाभ यह हुआ कि सामान्य विज्ञान का अध्ययन अनिवार्य हो गया जो आज के संसार में सफलतापूर्वक जीने के लिए आवश्यक है। तीसरा लाभ यह हुआ कि मातृभाषा को माध्यमिक शिक्षा का माध्यम बना दिया गया जिससे माध्यमिक शिक्षा का प्रसार सम्भव हुआ।
चौथा लाभ यह हुआ कि शिक्षकों के प्रशिक्षण, वेतनमान और सेवाशर्तों में सुधार हुआ जिससे योग्य व्यक्ति इस व्यवसाय की ओर आकर्षित हुए। पाँचवा लाभ यह हुआ कि कुछ माध्यमिक विद्यालयों में एन० सी० सी० की व्यवस्था हुई। छठा लाभ यह हुआ कि कुछ प्रान्तों में प्रान्तीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन एवं परामर्श की सुविधा उपलब्ध कराई गई। और सातवां एवं अन्तिम लाभ यह हुआ कि परीक्षाओं में सुधार आन्दोलन शुरु हुआ।
दूसरी ओर इस आयोग की सिफारिशों को लागू करने से कुछ हानियाँ भी हुई। पहली हानि तो यह कि 5+6+3 शिक्षा संरचना को लागू करना व्यर्थ सिद्ध हुआ। दूसरी हानि यह कि 5 अनिवार्य और 3 ऐच्छिक, कुल 8 विषयों से माध्यमिक स्तर की पाठ्यचर्या बोझिल हो गई। तीसरी हानि यह कि विभिन्न पाठ्यक्रमों के चलाने से समरूपता नहीं लाई जा सकी। और चौथी एवं अन्तिम हानि यह कि बहुउद्देशीय माध्यमिक विद्यालयों की व्यवस्था में बहुत अधिक व्यय हुआ और लाभ कुछ भी नहीं हुआ, कच्चे माल की बर्बादी के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगा; धन, समय और श्रम सब व्यर्थ गया।
*** निष्कर्ष ***
कुल मिलाकर यह मानना पड़ेगा कि माध्यमिक शिक्षा आयोग ने तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा के समस्त पहलुओं का अध्ययन किया था, उसकी कमियों को उजागर किया था और उसमें सुधार के लिए अनेक उत्तम सुझाव दिए थे। भारतीय सन्दर्भ में माध्यमिक शिक्षा को अधिकांश (70%) बच्चों के लिए पूर्ण शिक्षा मानना और उसे पूर्ण इकाई के रूप में विकसित करने पर बल देना, एक ऐसी पूर्ण इकाई कि जिसे पूरा करने के बाद अधिकांश बच्चे अपनी रोजी-रोटी कमा सकें, सामान्य जीवन जी सकें और समाज में सम्मानपूर्वक रह सकें और अपने में यह एक व्यावहारिक सुझाव था।
अतः यह बात दूसरी है कि नई शिक्षा संरचना 10+2+3 में यह कार्य + 2 पर करना उचित समझा जा रहा है। सच बात यह है कि माध्यमिक शिक्षा आयोग ने माध्यमिक शिक्षा में सुधार के लिए जो भी सुझाव दिए उनसे माध्यमिक शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में सुधार की प्रक्रिया शुरु हुई। दूसरी तरफ 5+6+3 शिक्षा संरचना लागू करने, बहुविकल्पीय पाठ्यक्रम लागू करने और बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना करने से जो हानियाँ हुई उनसे हमें सबक लेना चाहिए और भूलों को दोहराने से बचना चाहिए।