भारतीय संविधान का सामान्य परिचय
स्वतन्त्र होने के बाद हमने अपने देश के संविधान का निर्माण किया। संविधान सभा ने इसे 26 नवम्बर, 1949 को पेश किया और 26 जनवरी, 1950 से यह हमारे देश में लागू हो गया। यूँ तो आकार की दृष्टि से यह संविधान दुनिया का सबसे बड़ा संविधान है परन्तु इसकी मूल भावना को प्रस्तावना की कुछ चन्द लाइनों में ही स्पष्ट कर दिया गया है। 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा इसकी उद्देशिका (Preamble) में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता शब्दों को जोड़कर इसकी मूल भावना को और अधिक स्पष्ट कर दिया गया। वर्तमान में इसकी प्रस्तावना इस प्रकार है-
"हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय दिलाने के लिए तथा विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म एवं उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त कराने के लिए उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्युता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर, 1949 को एतद द्वारा इस संविधान को अगीकृत, अधिनियमित तथा आत्मार्पित करते हैं।"
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अतः इस प्रस्तावना से स्पष्ट है कि भारत प्रभुत्व सम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य है और यह 6 मूल सिद्धान्तों-स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृत्व, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता औन न्याय पर आधारित है। इस संविधान की मूल भावना को स्पष्ट रूप से समझने के लिए इसमें निहित नीति निर्देशक तत्वों (Directive Principles) और नागरिकों के मूल अधिकार एवं कर्तव्यों (Fundamental Rights and Duties) को समझना आवश्यक है। अतः प्रस्तुत हैं।
भारतीय संविधान में नीति निर्देशक तत्व
भारतीय संविधान में नीति-निर्देशक तत्वों (Directive Principles) का उल्लेख करने से पहले यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ''इस भाग में अन्तर्विष्ट उपबन्ध किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होंगे किन्तु फिर भी इनमें अधिकाधिक तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि बनाने में इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा।'' इससे स्पष्ट है कि भारतीय संविधान के ये नीति निर्देशक तत्व अपने में वैधानिक कानून नहीं हैं परन्तु सरकार को कोई भी कानून बनाते समय इन तत्वों को सामने रखना होगा और इनकी मूल भावना के आधार पर ही किसी भी कानून का निर्माण करना होगा।
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अतः ये नीति निर्देशक तत्व निम्नलिखित प्रकार से है-
1. राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्व
राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रुप से-
- पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो,
- समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियन्त्रण इस प्रकार बँटा हो जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो,
- आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिसमें धन और उत्पादन के साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेन्द्रण न हो,
- पुरुष और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो,
- पुरुष और स्त्री श्रमिकों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हों,
- बालकों को स्वतन्त्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएँ दी जाएँ और बालकों तथा अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक तथा आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए,
- राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधि व्यवस्था इस प्रकार काम करे कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और वह, विशिष्टतया, यह सुनिश्चित करने के लिए कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए, उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा या किसी अन्य रीति से निःशुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा।
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2. ग्राम पंचायतों का संगठन
राज्य ग्राम पंचायतों का गठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियाँ एवं प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों।
3. कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार
राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के भीतर, काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेकारी बुढ़ापा, बीमारी और निःशक्तता तथा अनर्ह अभाव की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त करने का प्रभावी उपबन्ध करेगा।
4. काम की न्याय संगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता का उबन्ध
राज्य काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं को सुनिश्चित करने के लिए और प्रसूति सहायता के लिए उबन्ध करेगा।
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5. कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदि
राज्य, उपयुक्त विधान या आर्थिक संगठन द्वारा या किसी अन्य रीति से कृषि के, उद्योग के या अन्य प्रकार के सभी कर्मकारों को काम, निर्वाह मजदूरी, शिष्ट जीवन स्तर और अवकाश का सम्पूर्ण उपयोग सुनिश्चित करने वाली काम की दशाएँ तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक अवसर प्राप्त कराने का प्रयास करेगा और विशिष्टतया ग्रामों में कुटीर उद्योगों को वैयक्तिक या सहकारी आधार पर बढ़ाने का प्रयास करेग। इसके अतिरिक्त वह उद्योगों के प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी के लिए भी प्रयास करेगा।
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6. नागरिक के लिए एक समान सिविल संहिता
राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।
7. छह वर्ष से कम आयु के बालकों के लिए प्रारम्भिक बाल्यावस्था देख-रेख और शिक्षा का उबन्ध
राज्य, सभी बालकों के लिए छह वर्ष की आयु पूरी करने तक प्रारम्भिक बाल्यावस्था देख-रेख और शिक्षा देने के लिए उपबन्ध करने का प्रयास करेगा।
8. अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी हितों की अभिवृद्धि
राज्य, जनता के कमजोर वर्गों के, विशिष्टतया अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा।
9. पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा लोक स्वास्थ्य को सुधार करने का राज्य का कर्तव्य
राज्य, अपने लोगों के पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने और लोक स्वास्थ्य के सुधार को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में मानेगा और राज्य विशिष्टतयण मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक औषधियों के, औषधीय प्रयोग से भिन्न, उपयोग का प्रतिषेध करने का प्रयास करेगा।
10. कृषि और पशुपालन का संगठन
राज्य, कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने का प्रयास करेगा और विशिष्टतया गायों और बछड़ों तथा अन्य दूधारु और वाहक पशुओं की नस्लों के परिरक्षण और सुधार के लिए और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए कदम उठाएगा। इसके अतिरिक्त राज्य, देश के पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन का और वन तथा अन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा।
11. राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण
राष्ट्रीय महत्व वाले कलात्मक या ऐतिहासिक अभिरुचि वाले प्रत्येक स्मारक या स्थान या वस्तु का हर प्रकार से संरक्षण करना राज्य की बाध्यता होगी।
12. कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण
राज्य की लोक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने के लिए राज्य कदम उठाएगा।
13. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि
राज्य,
- अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि का,
- राष्ट्रों के बीच न्याय संगत और सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाए रखने का,
- संगठित लोगां के एक-दूसरे से व्यवहारों में अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सन्धि बाध्यताओं के प्रति आदर भाव बढ़ाने का, और
- अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाने के लिए प्रोत्साहन देने का प्रयास करेगा।
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नागरिकों के मूल अधिकार एवं कर्तव्य
इस संविधान के अनुच्छेद 12 से 32 तक में नागरिकों के मूल अधिकारों (Fundamental Rights) को स्पष्ट किया गया है। प्रारम्भ में इस संविधान में नागरिकों को 7 मूल अधिकार दिए गए थे परन्तु 1979 में 44वें संविधान संशोधन द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों की सूची से निकालकर उसे कानूनी अधिकारों की सूची में जोड़ दिया गया और इस प्रकार 6 मूल अधिकार रह गए।
अतः वर्तमान समय में भारतीय नागरिकों को निम्नलिखित 6 मूल अधिकार प्राप्त हैं-
(1) समानता का अधिकार।
(2) स्वतन्त्रता का अधिकार।
(3) शोषण के विरुद्ध अधिकार।
(4) धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार।
(5) संस्कृति और शिक्षा का अधिकार।
(6) संवैधानिक उपचारों का अधिकार।
प्रारम्भ में हमारे संविधान में केवल मूल अधिकारों की व्यवस्था ही की गई थी। 1976 में 42 वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान के अनुच्छेद 51 (A) में नागरिकों के 10 मूल कर्तव्य (Fundamental Duties) भी जोड़े गए। उसके बाद 2001 में 93वें संविधान संशोधन द्वारा 51 (A) में ग्यारहवां मूल कर्तव्य और जोड़ा गया। वर्तमान में प्रत्येक नागरिक के ग्यारह कर्तव्य है।
भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह-
(1) संविधान का पालन करे और उसके आदशों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे। अनुच्छेद-51(a)।
(2) स्वतन्त्रता के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे। अनुच्छेद-51(b)।
(3) भारत की सम्प्रभुता, एकता तथा अखण्डता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण बनाए रखे। अनुच्छेद-51(c)।
(4) देश की रक्षा करे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे। अनुच्छेद-51(d)।
(5) भारत के सभी लोगों में समरसता तथा समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो महिलाओं के सम्मान के विरुद्ध हों। अनुच्छेद 51(c)।
(6) हमारी समन्वित संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्व समझे और उसकी रक्षा करे। अनुच्छेद-51(1)।
(7) प्राकृतिक पर्यावरण की जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी तथा वन्य जीव हैं, उसकी रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणीमात्र के प्रति दया भाव रखे। अनुच्छेद-51(g)।
(8) वैज्ञानिक तथा मानववादी दृष्टिकोण अपनाकर सुधार की भावना का विकास करे। अनुच्छेद-51(h) ।
(9) सार्वजनिक सम्पत्ति की सुरक्षा करे तथा हिंसा से दूर रहे।
(10) व्यक्तिगत तथा समूहिक प्रयत्नों से सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का निरन्तर प्रयास करे, जिससे राष्ट्र उपलब्धि की नई ऊँचाइयों को छू सके।
(11) माता-पिता अथवा अभिभावक के रूप में 6-14 आयु वर्ग के अपने बच्चों अथवा आश्रितों को शिक्षा के अवसर प्रदान करे।
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भारतीय संविधान में शिक्षा सम्बन्धी प्रावधान
भारतीय संविधान में शिक्षा को नागरिकों का मूल अधिकार माना गया है। भारतीय नागरिक अपने शिक्षा सम्बन्धी मूल अधिकार का प्रयोग कर सकें, इसके लिए संविधान में अनेक व्यवस्थाएँ की गई हैं। यहाँ कुछ मूल व्यवस्थाओं का उल्लेख संक्षेप में प्रस्तुत है।
1. शिक्षा समवर्ती सूची में
भारतीय गणराज्य के संविधान में तीन अलग-अलग सूचियाँ हैं- संघ सूची (Unioun List), राज्य सूची (State list) और समवर्ती सूची (Concurrent list)। संघ सूची में उल्लिखित सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्रीय सरकार को है, प्रान्तीय सूची में उल्लिखित सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकारों को है और समवर्ती सूची में उल्लिखित सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र तथा राज्य सरकार दोनों को है। केन्द्र द्वारा बनाए गए कानूनों और राज्यों द्वारा बनाए गए कानूनों में विरोध होने की दशा में केन्द्र द्वारा बनाए गए कानून को माना जाता है।
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प्रारम्भ में शिक्षा प्रान्तीय सूची में थी। इसकी व्यवस्था करना प्रान्तीय सरकारों का उत्तरदायित्व था। केन्द्रीय सरकार का उत्तरदायित्व संघीय क्षेत्रों में शिक्षा की व्यवस्था करना, कुछ राष्ट्रीय महत्व की शिक्षा संस्थाओं की व्यवस्था करना और तकनीकी एवं उच्च शिक्षा के स्तरमान को बनाए रखने तक सीमित था। 1976 में 42 वें संविधान संशोधन द्वारा शिक्षा को समवर्ती सूची (Concurrent list) में सम्मिलित किया गया। तब से शिक्षा की व्यवस्था करना केन्द्र और प्रान्तीय सरकारों का संयुक्त उत्तरदायित्व है।
वर्तमान में केन्द्र सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण करने, संघीय क्षेत्रों में शिक्षा की व्यवस्था करने, पूरे देश में सामान्य शिक्षा सुविधाओं में समन्वय स्थापित करने, उच्च शिक्षा के स्तर को बनाए रखने, राष्ट्रीय महत्व की भाषाओं का विकास करने और राष्ट्रीय महत्त्व की उच्च शिक्षा संस्थाओं और शोध संस्थानों को व्यवस्था करने के लिए उत्तरदायी है और प्रान्तीय सरकारें राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुरूप अपने-अपने क्षेत्रों में शिक्षा के प्रशासन के लिए उत्तरदायी हैं।
वर्तमान में केन्द्रीय सरकार देश के विभिन्न क्षेत्रों में शिशु शिक्षा और प्राथमिक शिक्षा के प्रसार के लिए भी अनेक योजनाएँ चला रही है और माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में केन्द्रीय विद्यालयों एवं नवोदय विद्यालयों की व्यवस्था कर रही है, और कुछ उच्च स्तर की उच्च संस्थाओं को चला रही हैं। साथ ही प्रान्तों में किसी भी स्तर और किसी भी प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था के लिए आर्थिक सहायता देती है।
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2. जन्म से 6 वर्ष तक के शिशुओं की देखभाल और शिक्षा की व्यवस्था
सन् 2002 में संविधान में 86वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 45 में यह परिवर्तन किया गया- कि 'राज्य सभी बच्चों को जब तक कि वे 6 वर्ष की आयु प्राप्त न कर लें बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा की व्यवस्था करेगा।
3. 6 से 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों की अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था
प्रारम्भ में संविधान के अनुच्छेद 45 में यह घोषणा की गई थी- कि 'राज्य संविधान के प्रारम्भ से 10 वर्ष की कालावधि के अन्दर सभी बालकों को 14 वर्ष की आयु समाप्ति तक निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा देने के लिए प्रबन्ध करने का प्रयास करेगा।' संविधान में राज्य से तात्पर्य केन्द्र एवं प्रान्तीय सरकारों तथा प्रशासनतन्त्र, तीनों से है। यह इस संवैधानिक निर्देश (Constitutional Directive) का ही प्रभाव है कि राज्य 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों की प्राथमिक शिक्षा की अनिवार्य एवं निःशुल्क व्यवस्था करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील है।
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इस दिशा में एक बड़ा कदम 86वां संविधान संशोधन अधिनियम 2002 है जिसके अनुसार अनुच्छेद 21(A) जोड़ा गया है, जो इस प्रकार है- 'राज्य 6 से 14 आयु वर्ग के सभी बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा, उस प्रकार की नीति से जैसा राज्य विधि द्वारा अवधारित करे, की व्यवस्था करेगा'। इसी 86 वें संसोधन, 2002 में एक संशोधन यह किया गया कि 'प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह माता-पिता अथवा अभिभावक के रूप में 6 से 14 आयु वर्ग के अपने बच्चों अथवा आश्रितों को शिक्षा के अवसर प्रदान करे।'
इस दिशा में सरकार का सबसे बड़ा कदम शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (Right to Education Act, 2009) पास करना है। इस अधिनियम के अनुसार- 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को कक्षा 1 से कक्षा 8 तक की निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का मूल अधिकार है। सरकार ने 2010 में इसे कानून का रूप दिया और 1 अप्रैल, 2010 से इसे कानून के रुप में लागू कर दिया।
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4. शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश के समान अधिकार
संविधान के अनुच्छेद 29 (2) में यह व्यवस्था की गई है- कि 'राज्य द्वारा पोषित अथवा राज्य निधि से सहायता पाने वाली किसी भी शिक्षा संस्था में किसी भी नागरिक को धर्म, मूल, वंश अथवा जाति के आधार पर प्रवेश से वंचित नहीं किया जाएगा।' वर्तमान में यह नियम वित्तविहीन (स्ववित्तपोषित) मान्यता प्राप्त शिक्षा संस्थाओं पर भी लागू है और पब्लिक स्कूलों पर भी लागू है।
5. स्त्री शिक्षा की विशेष व्यवस्था
स्त्री शिक्षा के सन्दर्भ में संविधान के अनुच्छेद 15(3) में यह व्यवस्था की गई है-'इस अनुच्छेद की किसी भी बात से राज्य की स्त्रियों और बालकों के लिए कोई उपबन्ध बनाने में कोई बाधा नहीं होगी।'
6. समाज के कमजोर वर्ग-अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बच्चों की शिक्षा की विशेष व्यवस्था
संविधान में सर्वप्रथम अनुच्छेद 17 द्वारा अस्पृश्यता (छुआछूत) को समाप्त किया गया है और अनुच्छेद 46 में यह व्यवस्था की गई है- 'राज्य जनता के कमजोर वगों, विशेषतः अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को शिक्षा तथा अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करेगा और सामाजिक अन्याय और सब प्रकार के शोषण से उनका संरक्षण करेगा।' वर्तमान में प्राथमिक स्तर पर कमजोर वर्गों के सभी बच्चों को निःशुल्क शिक्षा के साथ पुस्तकें भी निःशुल्क दी जाती हैं और साथ ही छात्रवृत्तियाँ भी दी जाती हैं। माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा स्तर पर इनके लिए छात्रवृत्तियों के साथ आरक्षण सुविधा भी है।
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7. अल्पसंख्यकों की शिक्षा की विशेष व्यवस्था
अल्प संख्यकों की शिक्षा के सम्बन्ध में संविधान के अनुच्छेद 30 में दो प्रावधान किए गए हैं-
- धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा। अनुच्छेद 30(1)।
- शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में राज्य किसी विद्यालय के विरुद्ध इस आधार पर भेद नहीं करेगा कि वह धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक वर्ग के प्रबन्ध में है। अनुच्छेद 30(2)।
8. मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा
संविधान के अनुच्छेद 350 (A) में यह घोषणा की गई है कि 'प्रत्येक राज्य (State) और प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी (Local Authority) का यह दायित्व है कि वह भाषायी दृष्टि से अल्प संख्यकों के बच्चों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर, मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा की समुचित सुविधाएँ उपलब्ध कराए।'
9. धार्मिक शिक्षा के विषय में स्पष्ट निर्देश
संविधान के अनुच्छेद 28 में यह घोषणा की गई है कि पूर्ण रूप से राज्य निधि द्वारा पोषित किसी भी शिक्षा संस्था में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी और अनुच्छेद 22 में यह स्पष्ट किया गया है कि राज्य निधि से सहायता प्राप्त किसी भी शिक्षा संस्था में बच्चों को किसी धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
10. राष्ट्रीय महत्त्व के उच्च शिक्षा एवं अनुसंधान केन्द्रों की व्यवस्था केन्द्र द्वारा
संघ सूची एक की प्रविष्ट संख्या 62 में उल्लिखित राष्ट्रीय पुस्तकालय एवं संग्रहालय आदि, प्रविष्टि संख्या 63 में उल्लिखित राष्ट्रीय महत्व की शिक्षण संस्थाएँ- बनारस, अलीगढ़ व दिल्ली विश्वविद्यालय आदि, प्रविष्टि संख्या 64 में उल्लिखित केन्द्र द्वारा पोषित राष्ट्रीय महत्व की वैज्ञानिक एवं तकनीकी संस्थाएँ, प्रविष्टि संख्या 65 में उल्लिखित राष्ट्रीय महत्त्व को प्रोफेशन, वोकेशनल, तकनीकी एवं विशिष्ट अध्ययन संस्थाएँ और प्रविष्टि संख्या 66 में उल्लिखित उच्च शिक्षा संस्थान और अनुसंधान केन्द्रों की सम्पूर्ण वित्तीय व्यवस्था और संचालन का कार्य भार केन्द्र सरकार का है।
11. राष्ट्रीय महत्त्व की भाषाओं की शिक्षा
संविधान के अनुच्छेद 344 (1) में 15 भाषाओं को राष्ट्रीय महत्त्व की भाषा घोषित किया गया है।
अतः ये भाषाएँ हैं- (1) असमिया (2) बंगाली (3) गुजराती (4) हिन्दी (5) कन्नड़ (6) कश्मीरी (7) मलयालम (8) मराठी (9) उड़िया (10) पंजाबी (11) संस्कृत (12) सिन्धी (13) तमिल (14) तेलगू और (15) उर्दू।
और आगे चलकर संविधान संशोधन द्वारा कॉकड़ी, मणिपुरी, डोगरी, बोगे, मैथिली, संथाली और नेपाली को भी मान्यता प्रदान कर दी गई। इस प्रकार इस समय राष्ट्रीय महत्त्व की भाषाओं की संख्या (15 + 7) = 22 हो गई है। साथ ही संविधान में यह घोषणा की गई है कि राज्य इन भाषाओं के विकास के लिए आवश्यक प्रयास करेगा।
12. राष्ट्र भाषा हिन्दी का विकास
संविधान के अनुच्छेद 343 में हिन्दी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया है और साथ ही अनुच्छेद 351 में इसके विकास के लिए विशेष प्रयत्न करने की व्यवस्था की गई है।
''हिन्दी भाषा का प्रसार एवं वृद्धि करना, उसका विकास करना जिससे वह भारत की संस्कृति में सब तत्वों को अभिव्यक्ति का माध्यम हो सके और उसकी आत्मीयता में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी एवं अष्टम अनुसूचि में उल्लिखित अन्य भारतीय भाषाओं के रूप, शैली और पदावली को आत्मसात करते हुए एवं जहाँ आवश्यक एवं वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द भण्डार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण सुनिश्चित करना संघ का कर्त्तव्य होगा।''