धर्म की उत्पत्ति और धर्म की उत्पत्ति के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।

धर्म की उत्पत्ति 

धर्म, मानव समाज का सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण सोच और आचरण की रूपरेखा है। यह सबसे अध्यात्मिक और सामाजिक मुद्दों का संग्रहण करने वाला एक विशेष तत्त्व है जो व्यक्ति को उच्चतम आदर्शों और नैतिकता की दिशा में मार्गदर्शन करता है। धर्म की उत्पत्ति भिन्न समय और स्थानों पर विभिन्न सांस्कृतिक और सामाजिक प्रवृत्तियों के कारण हुई है, और इसे विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक परंपराओं के रूप में व्यक्त किया गया है।

प्राचीन धरोहर

धर्म की उत्पत्ति का प्रारंभ प्राचीन समय में हुआ था, जब मानव समाज ने अपने आस-पास की प्राकृतिक शक्तियों, विचारों, और अनुभूतियों को आदित्य और परमात्मा के रूप में पूजा। इस प्रारंभिक धारा को प्राचीन धरोहर कहा जाता है, जिसमें वेद, उपनिषद, पुराण और महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों का महत्वपूर्ण योगदान था।

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सामाजिक संगठन

धर्म की उत्पत्ति का एक महत्वपूर्ण पहलु यह थी कि इसने समाज को संगठित किया और समृद्धि की दिशा में मार्गदर्शन किया। सामाजिक न्याय, कर्मफल, और धार्मिक आदर्शों की महत्वपूर्णता को मानव समाज में स्थापित किया गया। यह भी सुनिश्चित करता है कि व्यक्ति और समाज अधिक सुसंगत और समर्थ हों, जिससे समृद्धि हो सके।

धार्मिक आधार

धर्म का आधार धार्मिक अनुष्ठान और नैतिकता पर है। यह व्यक्ति को अच्छे कर्मों की प्रेरणा देता है और समाज में सामंजस्य बनाए रखने का सुझाव देता है। धर्म में ईश्वर या आत्मा के प्रति श्रद्धा, सत्य, अहिंसा, और सामंजस्य की महत्वपूर्ण भूमिका है।

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धर्म और सांस्कृतिक समृद्धि

धर्म और सांस्कृतिक समृद्धि में गहरा संबंध है। धर्म ने विभिन्न समाजों को एक सांस्कृतिक भूमि प्रदान की है जो उनकी अद्वितीयता और विविधता को समाहित करती है। सांस्कृतिक आधार पर धर्म ने कला, साहित्य, संगीत, और विज्ञान में अद्भुत योगदान दिया है।

धर्म का विकास

समय के साथ, विभिन्न समुदायों ने अपने-अपने धर्मों को विकसित किया और समृद्धि के साथ अपने आदर्शों को संजीवनी दी। अतः यह विकास अनेक धाराओं में हुआ, जैसे कि हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, इस्लाम, ख्रिस्तीयता, और अन्य।

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 वैदिक साम्राज्यों में धर्म का आरंभ

धर्म की शुरुआत वैदिक साम्राज्यों में हुई, जहां धार्मिक तत्त्वों को ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद के रूप में संगृहीत किया गया। वेदों में ब्राह्मण, आरण्यक, और उपनिषद् जैसे ग्रंथों के माध्यम से विभिन्न धार्मिक सिद्धांतों का विकास हुआ। वेदों के आधार पर ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ और ऋतुअभिषेक के माध्यम से धर्म का पालन करने का महत्व बताया गया। उपनिषद् में आत्मा के अद्वितीयता का सिद्धांत प्रस्तुत किया गया, जिससे धार्मिक चिंतन में एक नया परिग्रह हुआ।

जैन और बौद्ध धर्म

वैदिक धार्मिक परंपराओं के अलावा, भारतीय सभ्यता में जैन और बौद्ध धर्में भी उत्पन्न हुईं। महावीर और गौतम बुद्ध ने अपने समय में जीवन के उद्देश्य और धर्म के प्रति एक नए दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया। जैन धर्म में नैसर्गिक तत्त्वों का विशेष महत्व है, जबकि बौद्ध धर्म में आत्मनिर्वाण की प्राप्ति के लिए अहिंसा, सत्य, आचार्य, तप, और ध्यान के अनुष्ठान का उपदेश दिया गया है।

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हिन्दू धर्म

हिन्दू धर्म, जो वैदिक साम्राज्यों की धार्मिक परंपराओं से उत्पन्न हुआ, विविधता में अपनी अनूठी विशेषता रखता है। उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र के चार वर्णों का प्रणाली, धार्मिक कर्मकांड, और योग जैसे आचार्यों के उपदेशों का समृद्ध भंडार है। रामायण और महाभारत जैसे एपिक ग्रंथों में भगवान राम और कृष्ण के जीवन पर प्रमुख धार्मिक उपदेशों को प्रस्तुत किया गया है।

इस्लाम और ख्रिस्तीयता

भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम और ख्रिस्तीयता के आगमन के साथ ही नए धार्मिक सिद्धांतों का परिचय हुआ। 7वीं शताब्दी में मुस्लिम सम्राट मोहम्मद बिन कसीम के आगमन के बाद, इस्लाम ने अपने तत्त्वों और आचरण के माध्यम से भारतीय समाज को प्रभावित किया। उसी प्रकार, ख्रिस्तीय धर्म भी यीशु मसीह के आगमन के बाद भारतीय भूमि पर प्रचारित हुआ।

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आधुनिक धर्म

आधुनिक काल में, विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक परिवर्तनों के साथ, नए धार्मिक आंदोलनों ने उत्पन्न हुए हैं। आर्य समाज, ब्राह्मो समाज, रामकृष्ण मिशन, आदि इसी दिशा में कार्य करते हैं और धर्म को सामाजिक न्याय, समाज सुधार, और व्यक्तिगत आत्मविकास का माध्यम बनाए रखने का प्रयास कर रहे हैं।

इस प्रकार अगर हम देखें तो धर्म की उत्पत्ति एक समृद्धि और सामाजिक समृद्धि की कहानी है। यह मानवता को एक सामंजस्यपूर्ण और उत्कृष्ट दिशा में मार्गदर्शन करता है और विभिन्न समुदायों को एक संबंधित और समृद्ध समाज बनाए रखने में मदद करता है। धर्म का अर्थ निरंतर विकास और परिपर्णता का है, जो मानवता को उच्चतम आदर्शों की दिशा में अग्रणी बनाए रखने का प्रयास करता है।

अतः धर्म व्यक्ति को उद्दीपना और आदर्शों की दिशा में मार्गदर्शन करने वाला एक महत्वपूर्ण सामाजिक और आध्यात्मिक सिद्धांत है, जिसने मानवता को योगदानी बनाया है। धर्म के माध्यम से मानव समाज ने अपने जीवन को एक उच्च आदर्श और नैतिकता की दिशा में मोड़ने का प्रयास किया है।

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धर्म की उत्पत्ति के सिद्धान्त

धर्म की उत्पत्ति के सिद्धान्त पर विभिन्न धार्मिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक परंपराएं हैं, और इसका विशेष सिद्धान्त विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों और सांस्कृतिक समृद्धियों में अलग-अलग हो सकता है। यहाँ कुछ मुख्य सिद्धान्तों की चर्चा की गई है जो इस प्रकार से है-

1. आत्मवाद (Animism) 

आत्मवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन टायलर तथा स्पेन्सर ने किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार आदिम मनुष्य स्वप्न में दिखाई देने वाले दृश्यों को उसी प्रकार सत्य मानते हैं जिस प्रकार वे जाग्रत अवस्था में दिखाई देने वाले दृश्यों को सत्य समझते हैं। उनके विचार से शरीर में दो आत्मायें हैं। 

एक आत्मा तो सोते समय भी शरीर में रहती है, परन्तु दूसरी आत्मा जो वास्तविक आत्मा है, बहुत लचीली और तरल होती है। वह शरीर के छोटे-छोटे घरों में से मुख या नाक से निकलकर घूमने चली जाती है, सोते समय हम मृतप्राय और विचारशून्य इसीलिए हो जाते हैं क्योंकि हमारी यह दूसरी आत्मा निकलकर घूमने चली जाती है। इसमें आध्यात्मिक शक्ति का अंश होता है। 

अत: यह शरीर में रहते हुए भी उससे स्वतन्त्र होती है। मरने के साथ ही इस आत्मा का शरीर से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। मृत पूर्वजों की आत्माएँ जिन्हें प्रेतात्माएँ कहा जा सकता है उसी प्रकार इच्छाओं, आवश्यकताओं और वासनाओं का अनुभव करती हैं, जैसे जीवित मनुष्य। वे अपने पिछले सगे-सम्बन्धियों के बारे में भी जागरूक रहती हैं। 

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आदिम समाजों में यह विश्वास पाया जाता है कि ये पूर्वात्मायें उन्हें लाभ या हानि पहुँचाती हैं, उनकी प्रसन्नता, समूह में सुख-समृद्धि का विस्तार करती हैं और उनकी नाराजगी, बीमारी. अकाल आदि भेज सकती हैं। टायलर का कथन है कि इन पूर्वात्माओं को प्रसन्न करने के लिए ही प्रार्थना, पूजा-पाठ, आरती आदि धार्मिक क्रियाओं की उत्पत्ति हुई है। 

अतः यही कारण है कि मृतक संस्कार ही प्रथम संस्कार थे, मृत व्यक्तियों को प्रसन्न करने के लिए उनके लिए तर्पण या तृप्ति के लिए दिया गया भोजन ही प्रथम बलि या भेंट थी और समाधियाँ ही प्रथम पूजा, स्थान थे। इस प्रकार आत्माओं के पूजन से ही धर्म की संस्था का विकास हुआ है।

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2. मानवतावाद या जीववाद

इस सिद्धान्त के प्रतिपादक मैरेट हैं। मैरेट के विचार से आदिम मनुष्यों में यह विश्वास पाया जाता है कि जगत् की प्रत्येक वस्तु में जीव है। जड़-चेतन सभी कुछ जीव शक्ति से अनुप्राणित हैं। एक अलौकिक और अदृश्य शक्ति सृष्टि के कण-कण में निवास करती है। मैलेनेशिया के निवासी उस शक्ति को माना कहते हैं। यह शक्ति भिन्न-भिन्न वस्तुओं और जीवों में भिन्न-भिन्न अंशों में प्रकट होती है और सबको प्रभावित करती है। इस शक्ति के प्रभाव से ही सफलता और असफलता मिलती है। 

अत: इस अलौकिक और सर्वव्यापी शक्ति को प्रसन्न करने के लिए अनेक प्रकार की पूजा और अनुष्ठान किये जाते हैं। इसी माना शक्ति की पूजा से ही धार्मिक क्रियाओं की उत्पत्ति हुई है। भारतीय जनजातियों में इस शक्ति को 'बोंगा' कहा जाता है। मैक्समूलर का प्रकृतिवाद का सिद्धान्त भी मानवतावाद का ही दूसरा रूप है। इस सिद्धान्त के आलोचकों का कथन है कि आदिम मनुष्य इतना बुद्धिमान और मननशील नहीं था कि सर्वव्यापी अलौकिक शक्ति की धारणा को जन्म दे सके।

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3. प्रकृतिवाद 

आत्मवाद का सिद्धान्त आदिम मनुष्यों की काल्पनिक धारणा पर आधारित है। मैक्समूलर ने धर्म की उत्पत्ति की खोज वैज्ञानिक आधार पर करने का प्रयत्न किया है। उनके विचार से इन्द्रियात्मक अनुभव के आधार पर धर्म की उत्पत्ति की खोज की जानी चाहिए। उसने वेदों की व्याख्या को आधार मानकर धर्म के प्रकृतिवादी सिद्धान्त की स्थापना की है। देवताओं के नाम सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि प्राकृतिक तथ्य हैं। 

मनुष्य का सबसे पहला सम्पर्क प्रकृति से ही हुआ, और भिन्न-भिन्न प्राकृतिक तथ्यों को देखकर उसे भय या सौन्दर्य अथवा चमत्कार का अनुभव हुआ। प्राकृतिक शक्तियों को मनुष्य ने उनकी क्रिया के अनुसार नाम दिये। आकाश की बिजली को ऐसी शक्ति समझा जो धरती को फाड़ सकती है। 

पवन उनके विचार से सीटी बजाती है, आह भरती है, ये रूपक वास्तविक नाम बन गये। प्रत्येक प्राकृतिक शक्ति को विशिष्ट नाम देकर भाषा के माध्यम से उनकी जीवन-गाथायें बन गईं और इन्हें दैवीय शक्तियों के रूप में मान्यता दी जाने लगी। धीरे-धीरे महत्वपूर्ण मनुष्यों के मरने के बाद उनकी आत्माओं को भी दैवीय संसार में शामिल कर दिया गया और पूर्वजों की भी पूजा होने लगी। इस प्रकार धर्म की उत्पत्ति प्राकृतिक शक्तियों की पूजा से हुई है।

4. टोटमवाद

प्रसिद्ध समाजशास्त्री दुखींम ने आत्मवाद तथा प्रकृतिवाद के सिद्धान्तों को स्वीकार नहीं किया है। उनके अनुसार धर्म में पवित्रता और अपवित्रता का विचार महत्वपूर्ण होता है। आत्मवाद और प्रकृतिवाद पवित्र और अपवित्र का भेद स्पष्ट नहीं करते। दुर्खीम ने धर्म की उत्पत्ति की खोज करने के लिए आस्ट्रेलिया की अत्यन्त प्राचीन आदिम जाति अरुन्टा में प्रचलित धार्मिक जीवन का अध्ययन किया और टोटम की धारणा को धर्म का मूल कारण बताया। 

'टोटम' किसी पौधे या पशु का नाम होता है। कभी-कभी सूर्य, चन्द्र, आदि प्राकृतिक तथ्य या कोई पूर्वज भी टोटम के रूप में प्रतिष्ठित होता है। प्रत्येक जनजाति या गोत्र का समूह का अपना विशिष्ट टोटम होता है। टोटम को समूह का प्रत्येक सदस्य श्रद्धा और भक्ति के साथ दैवीय शक्ति के रूप में मान्यता देता है। घर में टोटम के चित्र लगाये जाते हैं। 

जिस प्रकार सभ्य मनुष्य हनुमान जी या सरस्वती का चित्र शरीर पर कराते हैं उसी प्रकार आदिम लोग अपने शरीर पर टोटम को (चाहे वह शेर हो या कुत्ता, फूल हो या पौधा) टँकवाते हैं। समूह टोटम को अपना आदि-पूर्वज मानता है। टोटम यदि पशु है तो उसे मारा या खाया नहीं जाता। 

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हाँ, यदि विशिष्ट अवसरों पर उसका भोजन बनाया जा सकता है। टोटम एक शक्ति है जो समूह के सदस्यों को लाभ पहुँचा सकती है, कष्ट दे सकती है, अत: उसे प्रसन्न रखने के लिए समूह के लोग उसकी पूजा और वन्दना करते हैं। एक प्रकार से आदिम समूहों में टोटम का वही स्थान है जो सभ्य समाजों में ईश्वर या देवी-देवताओं का है।

दुर्खीम के विचार से धर्म की उत्पत्ति टोटम से हुई है, टोटम के प्रति आस्था और विश्वास प्रथम धार्मिक विश्वास है, और टोटम की पूजा सबसे पहली पूजा पद्धति है। दुर्खीम धर्म की व्याख्या वैज्ञानिक आधार पर करते हैं, धर्म कोई दूसरी दुनिया की चीज नहीं हैं वह काल्पनिक भी नहीं। धर्म इसी भौतिक संसार में सामूहिक जीवन से सम्बन्धित है। 

प्राय: टोटम का नाम ही आदिम जातियों में गोत्र का नाम होता है, गोत्र मनुष्यों का समूह है जो हर व्यक्ति से अधिक शक्तिशाली होता है। समूह की प्रसन्नता और अप्रसन्नता व्यक्ति को लाभ या हानि पहुँचाती है। अत: वास्तव में गोत्र समूह ही टोटम है और गोत्र समूह की पूजा ही टोटम की पूजा है, टोटम की शक्ति समाज को शक्ति है, टोटम देवता या ईश्वर है। अत: समाज ही ईश्वर है। धर्म सामाजिक घटना है। दुर्खीम का टोटमवाद समाजशास्त्रीय आधार पर धर्म की व्याख्या करता है।

अन्य 

सृष्टि सिद्धान्त (Creationism): कई धार्मिक सम्प्रदायों में यह माना जाता है कि दुनिया और सभी जीवों की उत्पत्ति एक ईश्वर या दिव्य शक्ति द्वारा हुई है।

विकास सिद्धान्त (Evolution): कुछ धार्मिक सम्प्रदाय विकास सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं और मानते हैं कि जीवों का संबर्धन और परिणामस्वरूप मानव जाति का उत्पत्ति एक प्रक्रिया के माध्यम से हुआ है।

सांसारिक सिद्धान्त (Cycle of Birth and Death): बहुत से धर्म, जैसे कि हिन्दू और जैन धर्म, में इस मान्यता का है कि जीवात्मा सांसारिक चक्र में आत्माएं पुनर्जन्म करती हैं, जिससे मुक्ति की प्राप्ति होती है।

आध्यात्मिक सिद्धान्त (Spiritualism): कुछ सिद्धान्तों के अनुसार, धर्म का मुख्य उद्देश्य मानव जीवन को आध्यात्मिक समृद्धि की दिशा में बढ़ावा देना है और व्यक्ति को ईश्वर या ब्रह्म के साथ एकीकृत करना है।

अतः यहाँ दिए गए सिद्धान्तों का संग्रह केवल सार्वजनिक तरीके से किया गया है और यह ध्यान दिलाने वाला है कि इनमें से प्रत्येक का अपना विशेष सांस्कृतिक समायोजन और तात्पर्य होता है। इसलिए, धर्म की उत्पत्ति के सिद्धान्त विविध और अनूठे हो सकते हैं।


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