धर्म क्या है ? धर्म का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं एवं महत्व

धर्म का अर्थ एवं परिभाषाएँ

धर्म एक सार्वभौमिक सामाजिक तथ्य है जो आदिकाल से मानव को प्रभावित कर रहा है। प्रत्येक समाज में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। जनजातियों का समाजिक जीवन धर्म से प्रभावित होता है। धर्म का स्वरूप इतना जटिल हो गया है और धर्म की परिधि में मानवीय व्यवहार के इतने पक्षों को सम्मिलित किया गया है कि धर्म की एक सर्वमान्य परिभाषा करना कठिन हो गया है। 

इन्द्रियग्राह्य प्राकृतिक तथा सामाजिक जगत् से परे किसी ऐसी सत्ता का अनुभव करना जो इस समस्त चर-अचर जगत् का संचालन करती है, धर्म को मान्यता देना है। पारलौकिक शक्ति जो मनुष्य के नियन्त्रण से ऊपर है, मनुष्य को सुख-दुख देती है, इस शक्ति के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए मनुष्य जो विशिष्ट व्यवहार, अनुष्ठान करता है, वह भी धर्म के अन्तर्गत आता है।

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संसार की रहस्यमयी घटनाओं का रहस्य न पाकर, आदिकाल का मानव यह समझ बैठा कि इस दृश्य संसार से परे कोई आलौकिक शक्ति है जो हम सबसे महान् है, उसी के द्वारा ही संसार का संचालन व नियमन हो रहा है और वही इन समस्त रहस्यमयी घटनाओं का आधार है। इस अलौकिक सत्ता का आशीर्वाद इसके सम्मुख नतमस्तक होकर, पूजा-पाठ, आराधना, प्रार्थना या इबादत के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। 

वस्तुत: यही धार्मिक दृष्टिकोण है और इस अलौकिक शक्ति से सम्बन्धित विश्वास व क्रियायें धर्म है। पारलौकिक शक्ति में विश्वास करना और इस विश्वास को व्यक्त करना ही धर्म है। पारलौकिक शक्तियों में विश्वास की अभिव्यक्ति कुछ विशिष्ट क्रियाओं के द्वारा होती है, जैसे पूजा-प्रार्थना, मन्दिर दर्शन, कथा कीर्तन आदि। इस प्रकार दैवी शक्तियों में विश्वास और क्रियाओं का योग धर्म कहा जाता है।

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धर्म की परिभाषायें 

विभिन्न विद्वानों ने धर्म को निम्न प्रकार परिभाषित किया है-

एडवर्ड टायलर के अनुसार-"धर्म का अभिप्राय आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास करना है।"

मैलिनोवस्की के अनुसार-"धर्म क्रिया का एक ढंग है, साथ ही विश्वासों की एक व्यवस्था है और सामाजशास्त्रीय घटना के साथ-साथ व्यक्तिगत अनुभव भी है।"

फ्रेजर के अनुसार-"धर्म से मेरा अभिप्रायः मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की सन्तुष्टि अथवा आराधना से है जिनके सम्बन्ध में यह विश्वास किया जाता है कि वे प्रकृति और मानव जीवन को मार्ग दिखाती और नियन्त्रित करती हैं।" 

इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि धर्म अलौकिक अथवा समाज से परे उच्च शक्ति में विश्वास है और इसकी अभिव्यक्ति पूजा-पाठ, प्रार्थना, आराधना, भक्ति आदि के द्वारा होती है। धर्म व्यक्ति को यह विश्वास प्रदान करता है कि अलौकिक शक्ति प्रकृति एवं मानव जीवन को नियन्त्रित व निर्देशित करती है।

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धर्म के मौलिक लक्षण या विशेषताएँ 

विभिन्न धर्मों में पायी जाने वाली सार्वभौमिक विशेषताएँ ही धर्म के मौलिक लक्षण हैं। अतः ये प्रमुख लक्षण निम्न हैं-

1. अलौकिक अथवा समाजोपरि शक्ति में विश्वास 

इस अलौकिक अथवा समाजोपरि शक्ति का रूप विभिन्न धर्मों में भले ही कुछ हो लेकिन इतना निश्चित है कि अलौकिक शक्ति में विश्वास ही धर्म का आधार है। हिन्दुओं के देवी-देवताओं, मुसलमानों का खुदा, अल्लाह, रसूल, और ईसाइयों का गॉड (God) ऑलमाइटी (Almighty) आदि महान् शक्ति के ही प्रतीक हैं। इन प्रतीकों में विश्वास करना ही धर्म है।

2. धार्मिक व्यवहार

महाशक्ति का आशीर्वाद अथवा आशीष प्राप्त करने के लिए पूजा-पाठ, आराधना, प्रार्थना, आदि कृत्यों को भी व्यक्ति करते हैं। इसलिए धार्मिक व्यवहार के इस रूप को धर्म का ही आवश्यक तत्व या लक्षण माना जाता है।

3. धार्मिक संस्तरण

प्रत्येक धर्म में उच्च धार्मिक ज्ञान रखने वालों को ऊँची स्थिति प्रदान की जाती है। उदाहरण के लिये, हिन्दू समाज में ब्राह्मणों को धार्मिक ज्ञान के कारण ही उच्च स्थान प्राप्त है, और हरिजनों को निम्न स्थान ।

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4. धार्मिक मान्यताएँ

प्रत्येक धर्म की अपनी-अपनी मान्यताएँ होती हैं और इन मान्यताओं के द्वारा ही धर्म का विशिष्ट रूप बना रहता है। उदाहाणार्थ, हिन्दू धर्म की विशिष्ट मान्यताओं के कारण ही लोग विपत्ति में भी धैर्य व साहस से काम लेते हैं।

5. धार्मिक सामग्री

प्रत्येक धर्म में धार्मिक क्रियाओं के संचालन में भिन्न-भिन्न सामग्री प्रयोग में लाई जाती है। उदाहरणार्थ, हिन्दू धर्म में यज्ञ के लिए आम की समिधायें, घृत, चावल, धूप, अग्नि आदि की आवश्यकता होती है। जबकि ईसाई धर्म के धार्मिक कृत्यों के लिए भिन्न सामग्री की आवश्यकता होती है। वस्तुत: धार्मिक सामग्री धर्म का ही आवश्यक लक्षण है।

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6. धार्मिक ग्रन्थ व पौराणिक कथानक

प्रत्येक धर्म में धार्मिक ग्रन्थों और पौराणिक कथानकों के द्वारा धार्मिक प्रवाह को बनाये रखा जाता है। हिन्दुओं के धर्म ग्रन्थ रामायण, महाभारत, गीता, मनुस्मृति, वेद आदि इस तथ्य के स्पष्ट परिचायक हैं। इसके अतिरिक्त हिन्दू समाज में धार्मिक क्षेत्र में अनेक पौराणिक कथानक भी प्रचलित हैं।

7. श्रेष्ठता की भावना

सब धर्मों का एक आवश्यक तत्व यह है कि विभिन्न धर्म वाले अपने-अपने धर्मों को श्रेष्ठ समझते हैं। इस प्रकार स्वधर्म के बारे में श्रेष्ठता की भावना पायी जाती है।

8. मानसिक उद्वेग अथवा भावनाएँ

धर्म के साथ प्रेम, श्रद्धा, भक्ति, भय, आतंक, आदि अनेक मानसिक भावनायें जुड़ी रहती हैं क्योंकि इनके द्वारा ही अलौकिक अथवा महान शक्ति के प्रति विश्वास की अभिव्यक्ति होती है। इसलिए मानसिक उद्वेग अथवा भावनायें भी धर्म के आवश्यक मौलिक लक्षण हैं।

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धर्म के सामाजिक कार्य या धर्म का समाजशास्त्रीय महत्व या सामाजिक नियन्त्रण में धर्म की भूमिका

धर्म के सामाजिक कार्यों के सन्दर्भ में ही समाजशास्त्रीय महत्व एवं सामाजिक नियन्त्रण में इसकी भूमिका को समझा जा सकता है। अतः धर्म के प्रमुख कार्य या आधार निम्न हैं- 

1. समाज का प्राथमिक आधार

धार्मिक मान्यताओं और विश्वासों का समाजं में प्राथमिक स्थान रहा है। आज तक के धर्म समाज के प्रत्येक क्षेत्र को अपनी मान्यताओं, विचार और विश्वास के द्वारा छूते रहे हैं। आदिम समाज में व्यक्ति का जीवन धर्म से ओत-प्रोत रहता था। अपने ही देश भारत में वैदिक काल में धर्म सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित व नियमित करता था। हमारी धार्मिक पुस्तकों में वर्णित वर्ण-व्यवस्था, आश्रम-व्यवस्था, कर्म का सिद्धान्त, पुरुषार्थ का सिद्धान्त आदि सामाजिक व्यवस्था को धार्मिक आधार पर आदर्श बनाने के लिए विभिन्न संस्थायें थीं। प्रारम्भिक समाज में धर्म और शिक्षा भी आपस में पूर्णरूप से घुले-मिले थे। आधुनिक समाजों में धर्म का स्थान तर्क व विज्ञान लेता जा रहा है फिर भी यह निश्चित है कि धर्म आज भी अधिकांश व्यक्तियों का सामाजिक जीवन निर्धारित करता है।

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2. मानवता को विकसित करना

धार्मिक कृत्यों द्वारा व्यक्ति पूजा-पाठ, आराधना-उपासना, इबादत आदि में लगा रहता है और उसे ज्ञान हो जाता है कि यह संसार, इसके विभिन्न प्राणी (प्राकृतिक व कृत्रिम) एवं ईश्वर, परमात्मा, खुदा या अल्लाहताला द्वारा अथवा अलौकिक शक्ति के आशीर्वाद से ही निर्मित हो सका है। इस ज्ञान के परिणामस्वरूप व्यक्ति के दिल व दिमाग पर यह तथ्य स्पष्ट रूप में बैठ जाता है कि ईश्वर द्वारा रचित वस्तुओं को अनावश्यक रूप से नष्ट नहीं करना चाहिए। 

वास्तव में धार्मिक विश्वास, आचरण, मान्यताएँ, कृत्य आदि व्यक्ति के आन्तरिक पक्ष पर प्रभाव डालते हैं और उसके अन्दर के राम को जगा देते हैं। इसलिए सही अर्थों में धार्मिक व्यक्ति मानव मात्र को प्रेम करता है, अन्य प्राणियों की रक्षा करता है और दीन-दुखियों का सहारा होता है। इस प्रकार धर्म व्यक्तियों को मानवता के नजदीक ले आता है। धर्म का यह प्रभाव व्यक्तियों के व्यवहार में किसी न किसी रूप में देखा जा सकता है ।

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3. विषम परिस्थितियों में सफलतापूर्वक अनुकूलन

धार्मिक आधार पर व्यक्ति विषम अथवा बुरी से बुरी परिस्थिति में भी साहस व धैर्य नहीं छोड़ता; गरीब गरीबी में और अमीर अमीरी में अपने दिन काट देता है। इसका एक कारण यह है कि व्यक्ति अपने साथ एक महान् शक्ति के बल का अनुभव करता है। इस असीम वल की कल्पना व्यक्ति में आशावादी दृष्टिकोण विकसित करती है। उदाहरणार्थ, अपने ही समाज में अक्सर व्यक्ति यह कहते सुने जाते हैं- कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि यदि कुछ व्यक्ति किसी की जीवन-लीला समाप्त भी करना चाहें तो भी ईश्वर की इच्छा या मर्जी के बिना ऐसा होना सम्भव नहीं है। 

हिन्दू धर्म में प्रचलित कर्म और मोक्ष का विचार व्यक्ति को बुरे समय में भी अपने पथ से विचलित नहीं होने देता है। आधुनिक समाज में काफी मनुष्य बुरी परिस्थितियों में धर्म का सहारा लेते देखे जा सकते हैं। ईश्वर तेरा ही सहारा है, तू ही सब कुछ है और तू ही मददगार है। ये सब विचार धर्म की महान् शक्ति के प्रतीक हैं। इस प्रकार "धर्म जीवन की विपत्तियों में व्यक्ति को सफलतापूर्वक अनुकूलन करने के लिये असीम बल, साहस व धैर्य प्रदान करता है।"

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4. मानव व्यवहार का नियन्त्रण

धार्मिक विश्वास, परम्परायें, संस्कार आदि व्यक्ति के दिल व दिमाग पर छाये रहते हैं, परिणामस्वरूप व्यक्ति समूह से अपने व्यवहार को धार्मिक मूल्यों के अनुसार नियंन्त्रित रखता हैं व्यक्ति के व्यवहार का यह नियन्त्रण अनौपचारिक (Informal) रूप में बिना सोचे-समझे होता है, धार्मिक व्यक्ति के स्वभाव में रम जाते हैं और व्यक्ति धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ही अपने दैनिक कार्यों को करता है। व्यक्तियों को यह विश्वास होता है कि यदि धर्मानुकूल आचरण न किया तो अलौकिक शक्ति जो ईश्वर, परमात्मा, खुदा, अल्लाह आदि के रूप में हैं, दण्ड देगी। 

यह भय व्यक्तियों के व्यवहारों व कार्यों को नियन्त्रण व प्रतिबन्धित करता रहता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक धर्म में अनेक धार्मिक, कथायें प्रचलित होती हैं जिनके द्वारा भी व्यक्तियों को उपदेश व निर्देश प्राप्त होते रहते हैं। धर्म के ये निरन्तर होने वाले धार्मिक कृत्य व्यक्ति के स्वभाव में प्रवेश की जाते हैं और धीर-धीरे व्यक्ति की मनोवृत्तियों को धर्मानुकूल निर्देशित करना प्रारम्भ कर देते हैं। आधुनिक समाज में मानव व्यवहार के नियन्त्रण में धर्म का स्थान अवश्य कुछ कम होता है लेकिन सामान्यतया व्यक्ति धर्म से व्यावहारिक नियन्त्रण प्राप्त करते हैं।

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5. समाज में एकमत बनाये रखना

धर्म का अन्तिम कार्य समाज के अधिकांश व्यक्तियों के विचारों को एक निश्चित दिशा प्रदान करना है। विचारों, मनोवृत्तियों, भावनाओं आदि को एक निश्चित क्रम या दिशा मिल जाने से व्यक्ति अधिकतर मामलों में एकमत बनाये रखते हैं। वास्तव में सामाजिक संगठन के लिए एकमत का होना आवश्यक है।

6. समाजीकरण में सहायक

धर्म व्यक्ति को धार्मिक मूल्यों के अनुसार समाज के लिए तैयार करता है। व्यक्ति इस प्रकार धर्म की छत्रछाया में धीरे-धीरे सामाजिकता को विकसित करते हैं। "हिन्दू धर्म ने तो पालने से लेकर मृत्युपर्यन्त तक के सामाजिक जीवन को ढालने की जिम्मेदारी स्वयं ले रखी है।" हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्थित व आश्रम व्यवस्था व्यक्तियों में सामाजिकता विकसित करने के व्यवस्थित व उचित माध्यम रहे हैं। इस प्रकार धर्म व्यक्ति के समाजीकरण में भी सहायक होता है।

7. समाज विरोधी प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण

धर्म का सामान्य आधार घृणा व द्वेष नहीं वरन् मैत्री, प्रेम, सहानुभूति आदि है। ऐसी स्थिति में व्यक्तियों से समाज विरोधी कृत्यों की सम्भावना कम रहती है। उदाहरणार्थ, "भारत के समीपवर्ती प्रांत बंगाल में 1970 से हिंसात्मक कान्ति को जो दृश्य सामने आया है उसका एक महत्वपूर्ण कारण धर्म के प्रति आस्था न होना भी हैं।" आये दिन बंगाल में अनेक अप्रत्याशित घटनायें हो रही हैं, बड़े से बड़े व्यक्ति का जीवन भी सुरक्षित नहीं रहा है और अराजकता जैसी स्थिति पनपती जा रही है। 

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"वास्तव में जीवन से धर्म को अलग कर देने से समाज विरोधी प्रवृतियों पर नियन्त्रण नहीं रखा जा सकता है जबकि धर्म का उचित स्थान होने पर समाज विरोधी प्रवृतियों पर नियन्त्रण बना रहता है"- जैसे, पूर्वी उत्तर प्रदेश में निर्धनता सबसे अधिक है लेकिन धर्म में आस्था होने के कारण लोगों की समाज विरोधी गतिविधियों या प्रवृत्तियों पर काफी सीमा तक नियन्त्रण रहता है।

8. समाज कल्याण में रुचि 

धर्म व्यक्ति को एक निश्चित तरीके से रहने व सोचने विचारने के लिये बाध्य करता है। इस प्रकार स्वाधर्मियों को एक-दूसरे के नजदीक लाता है और परिणामस्वरूप वे अपने धर्म के लोगों के कल्याण में रुचि लेने लगते हैं। इतना ही नहीं, कुछ सुलझे हुए व्यक्ति धार्मिक भावनाओं से सही मानों में प्रभावित होकर अन्य धर्मों के लोगों की सहायता करते रहते हैं और बिना किसी भेदभाव के समाज में रहने वाले व्यक्तियों के लिये कल्याणकारी कार्यक्रमों को क्रियान्वित करने के लिए आर्थिक सहायता देते रहते हैं। जैसे, भारत के दानवीर बिड़ला परिवार के सदस्य और बरेली के सेठ फजलुल रहमान इसी कोटि के व्यक्तियों में से हैं। बिड़ला परिवार ने सदैव विभिन्न धर्मों को मानने वालों को समुचित सहायता दी है और कल्याणकारी कार्य किये हैं। सेठ फजलुल रहमान ने बरेली में लक्ष्मीनारायण मन्दिर के निमार्ण में आर्थिक सहयोग देकर धर्म में निहित समाज कल्याण की भावना को ही पुष्ट किया है।

9. आर्थिक जीवन पर नियन्त्रण व प्रभाव

धार्मिक विचार आर्थिक क्षेत्र को प्रभावित करते हैं। श्री मैक्स वेबर ने दुनिया के छः महान् धर्मों-हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई, यहूदी और कन्फ्यूशियस का अध्ययन किया और इस परिणाम पर पहुँचे कि धार्मिक आचारों का प्रभाव धर्म विशेष को मानने वाले लोगों की आर्थिक व्यवस्था पर भी पड़ता है। 

श्री मैक्स वेबर के अनुसार, "प्रोटेस्टेन्ट धर्म में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो पूँजीवाद के विकास में सहायक हैं।" वेबर ने अपने अध्ययन के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि पूँजीवाद का विकास इंग्लैण्ड, अमेरिका, हालैण्ड आदि देशों में तीव्रता के साथ हुआ है क्योंकि इन देशों में प्रोटेस्टेण्ट धर्म के मानने वाले लोग हैं। 

प्रोटेस्टेण्ट धर्म में कुछ ऐसी मान्यताएँ हैं जिनके द्वारा ही पूँजीवाद का विकास इन देशों में सम्भव हो पाया है। इसी प्रकार हिन्दू के मोक्ष में कर्म का विचार निहित होने के कारण हिन्दू लोग भौतिक उन्नति में नहीं वरन् आध्यात्मिक उन्नति में सबसे आगे रहे हैं। वस्तुत: धार्मिक मान्यताएँ या धर्म आर्थिक जीवन को भी नियन्त्रित व प्रभावित करती हैं।

10. पवित्रता की भावना

धर्म के कार्य को व्यक्तियों में पवित्रता की भावना पनपाने में भी कम नहीं समझा जाना चाहिये। वस्तुतः धर्म के अन्तर्गत किये जाने वाले धार्मिक कृत्य पवित्रता की भावना से ओत-प्रोत रहते हैं। हम सब पूजा स्थलों पर पवित्रता का विशेष ध्यान रखते हैं, हिन्दू लोग मन्दिरों में आराधना करने के लिए नहा-धोकर जाते हैं और आराधना के समय पवित्र वस्तुओं का ही प्रयोग करते हैं, मुसलमान लोग मस्जिदों में पाक-साफ होने के बाद ही नमाज पढ़ते हैं, ईसाई लोग चर्च या गिरजे में उपासना हेतु विशेष वस्त्र का प्रयोग पवित्रता के कारण ही करते हैं। ये सब उदाहरण धार्मिक जीवन में पवित्रता की भावना पर ही बल देते हैं। इस सन्दर्भ में फ्रांस के समाजशास्त्री दुर्खीम (Durkheim) के मत को प्रस्तुत करना भी उचित होगा। 

दुर्खीम महोदय का कहना है कि, "धर्म मनुष्य के जीवन को दो भागों में विभक्त कर देता है- 

(अ) साधारण अथवा सामान्य (Profane) और (ब) पवित्र (Sacred)। 

धर्म अपने मानने वालों को पवित्र कार्य को करने के लिये प्रेरित करता है, क्योंकि पवित्रता से दूर हो जाना ही धार्मिक मान्यताओं का उल्लंघन है और धार्मिक भ्रष्टाचार है। धार्मिक क्षेत्र से अपवित्र वस्तुओं को सदैव दूर रखा जाता है। इस प्रकार धर्म पवित्रता की दिशा में जाने का संकेत देता है। कुछ भी हो, धर्म मानव व्यवहार में पवित्रता की भावना लाता है।"

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