सम्पर्क के माध्यम
योगेश पटेल ने आदिवासियों के बाहरी सम्पर्क के निम्न 12 माध्यमों की चर्चा की है जो इस प्रकार से हैं-
1. राजकीय कर्मचारी
आदिवासी समाज सदैव किसी न किसी राज्य के अन्तर्गत रहे हैं। राज्य कर्मचारी निरन्तर इनके साथ सम्पर्क करते रहे हैं।
2. ईसाई मिशनरी
अंग्रेजी राज्य में अनेकों ईसाई मिशनरियों ने भोली-भाली आदिवासी जनता को ईसाई बनाने के उद्देश्य से इनके एकान्त जीवन में प्रवेश किया। स्कूल, अस्पताल आदि के माध्यम से वे निरन्तर जनजातियों के दैनिक सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित करने लगे।
3. साधू-संन्यासी
हिन्दू साधू-संन्यासी भी दान-दक्षिणा प्राप्त करने के लिए आदिवासी क्षेत्रों में जाते रहे हैं। इनके द्वारा जनजातीय समाज में हिन्दू तत्वों का प्रादुर्भाव हुआ है।
4. ठेकेदार
जनजातियों के साथ ठेकेदारों का विशेष सम्पर्क रहा है। जंगल काटने, सड़कें बनवाने और रेलवे लाइन बिछाने का ठेका लेने वाले शहरी लोग सस्ते दामों पर आदिवासियों को मजदूरी पर लगाते रहे हैं। इन ठेकेदारों और इनके साथ नत्थी सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों ने इन सीधे-साधे स्त्री-पुरुषों का हर प्रकार से शोषण किया है, जो आज भी काफी मात्रा में हो रहा है।
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5. खान उद्योग
आदिवासी क्षेत्रों में खनिज सम्पत्ति की सम्भावनाओं ने शासकों और उद्योगपतियों को अपनी ओर आकर्षित किया है। सिंहभूमि की कोयला खानों तथा संथाल परगने में टाटानगर के लोहे के कारखानों में अधिकांश मजदूर आदिवासी हैं।
6. व्यापारी
सामान बेचने, अपनी वस्तुओं का प्रचार करने और रुपया-पैसा उधार देने के लिए व्यापारियों का भी आदिवासियों से निन्तर सम्पर्क रहा है।
7. बाहरी क्षेत्रों में प्रवास
रोजगार की तलाश में अनेक आदिवासी दूर-दूर के प्रदेशों में उद्योगों या चाय के बागानों आदि में काम करने के लिए चले जाते हैं। वे बाहरी समाज के बीच में रहकर नवीन सांस्कृतिक तत्वों को अपना लेते हैं, और फिर इनको अपने क्षेत्रों में फैलाने लगते हैं।
8. राजनैतिक दल और आन्दोलन
स्वतन्त्रता आन्दोलन ने आदिवासियों को भी प्रभावित किया। आजकल चुनाव के समय राजनीतिक दल इन क्षेत्रों में सक्रिय रहते हैं। इनकी राजनैतिक क्रिया आदिवासियों को भी प्रभावित कर रही है। वे भी सक्रिय राजनीति में आ रहे हैं।
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जनजातियों की मुख्य समस्याएँ
जनजातियों की प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित हैं-
1. हीन भावना का विकास
सांस्कृतिक सम्पर्क का एक मनोवैज्ञानिक कुप्रभाव जनजातियों पर यह पड़ा कि वे बाहरी लोगों को श्रेष्ठ और स्वयं को निकृष्ट मानने लगे। बाहरी लोगों ने इन भोली जनजातियों को सभ्य बनाने के लिए उनके धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में परिवर्तन करने की कोशिश की जिससे उनके मन में हीन भावना पनपने लगी और वे अपने हर व्यवहार को खराब समझने लगे।
2. जीवन पद्धति में परिवर्तन
जिन आदिवासियों ने अपना धर्म-परिवर्तन कर लिया था और सभ्य लोगों के निकट सम्पर्क में आये उन्होंने उपर्युक्त हीन-भावना के परिणामस्वरूप अपनी परम्परागत जीवन पद्धति का ही परित्याग कर दिया। धर्म-परिवर्तन के कारण अनेक आदिवासी ईसाई मिशनरियों के रहन-सहन का अनुकरण करने लगे।
3. रोगों का प्रसार
सभ्य लोगों ने अर्धनग्न आदिवासियों को अश्लीलता के विशेषण दिए तो नये लोगों की शर्म निभाने के लिए उन्होंने थोड़े-बहुत कपड़े पहनने प्रारम्भ कर दिये। किन्तु कपड़े पहनना ही काफी नहीं होता, उन्हें धोना और बदलना भी जरूरी है। पर साबुन और कई जोड़ी कपड़े कहाँ से आयें? फलस्वरूप आर्थिक हीनता के शिकार आदिवासी गन्दे, फटे और अनधोये कपड़ों का प्रयोग करते हैं और फटने पर ही शरीर से उतारते हैं। इन कपड़ों में जुएँ पैदा हो जाते हैं, पसीना और धूल इनसे लिपटे रहते हैं, जिससे बेचारे आदिवासी चर्म रोगों के तथा बुखार के शिकार हो जाते हैं।
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4. सामाजिक संगठन में असन्तुलन
नवीन सम्पर्क ने जनजातियों समाज के परम्परागत संगठित स्वरूप में भी हलचल पैदा कर दी है। उनके प्रथागत सामाजिक जीवन पर हिन्दू-शास्त्रीय कर्मकाण्डों या ईसाइयत का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। उनकी सामाजिक एकता नष्ट हो रही है। एक ही जनजातीय क्षेत्र में कुछ प्रगतिशील, सम्पन्न लोग अपनी स्थिति बढ़ाने के लिए सभ्य प्रतिमानों को ग्रहण कर रहे हैं और पुराने रीति-रिवाजों के साथ जुड़ रहे हैं। इस प्रकार उनमें सामाजिक विभाजन हो गया है। धार्मिक व्यवस्था जीवन में सामंजस्य करने में सहायता करती है। जो लोग धर्म-परिवर्तन करते हैं, वे अपने ही लोगों के विश्वासों और धार्मिक कार्यों का मजाक उड़ाते हैं।
5. शोषण
सभ्य समाज के अनेक लोगों ने इन सीधे-साधे लोगों का अनेक प्रकार से शोषण किया। राजकीय अधिकारियों ने इन्हें गँवार और नीचा माना। योगेश अटल के शब्दों में "पुलिस अधिकारी इन पर अपना दबदबा जमाते हैं, पटवारी लोग इन्हें परेशान करते हैं और ठेकेदार तथा व्यापारी इन्हें लूटते हैं।" प्रशासन भी इनके साथ सहानुभूतिपूर्ण आचरण नहीं करते। उधार देने वाले सभ्य समाज के महाजनों ने इन्हें मुट्ठी-भर छोटे सिक्के उधार देकर इनकी बीघों जमीनें हड़प कर ली हैं।
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6. गन्दी आदतें
दूर बाहर के क्षेत्रों में काम करने जाने वाले आदिवासी अनेक गन्दी आदतों के शिकार हो जाते हैं। नशीली शराब और जुआ आदि की आदतें वे लौटने पर अपने समाज में भी फैला देते हैं।
7. अपव्यय
बाहर जाने वाले आदिवासी छुट्टियों में जब घर वापस आते हैं तो जो कुछ थोड़ा-बहुत वे कंमाकर लाते हैं उसे अपने समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने की दृष्टि से अन्धाधुन्ध खर्च कर देते हैं। इस प्रकार वे फिर गरीब के गरीब रह जाते हैं।
8. मुकदमेबाजी
आदिवासी पंचायतें सभी प्रकार के झगड़े अपने परम्परागत ढंग से सुलझाती थीं। बाहरी लोगों ने आदिवासियों को उधार देना शुरू किया तो कर्ज सम्बन्धी मुकदमे सरकारी अदालतों में आने लगे। वकीलों ने अपना पैसा बनाने के लिए आदिवासी समाज के आन्तरिक झगड़ों के मुकदमों को भी अदालतों में लाने की प्रेरणा दी। इसके कुप्रभाव को दर्शात हुए योगेश अटल लिखते हैं, "इस प्रकार सरल, सामान्य और सन्तुलित आदिवासीय जीवन में द्वेष, वैमनस्य और विश्रृंखलता पैदा हो गई है।"
9. विशिष्ट समस्याएँ
आदिम समाज में प्रचलित विवाह-पूर्व और अतिरिक्त यौन सम्बन्ध तथा तलाक की सुविधा आदि से वैवाहिक स्थायित्व को निरन्तर खतरा बना रहता है। ऊँचे वधू-मूल्य के कारण अपहरण विवाह या पलायन विवाह तथा सेवा विवाह की अवांछित स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। अन्धविश्वास और भ्रामक तथा कई बार भयंकर जादुई क्रियाओं का प्रचलन भी एक समस्या है। स्थानान्तरित कृषि के कारण जनजातीय समाज अपने श्रम और अपनी भूमि का उचित और लाभदायक उपयोग नहीं कर पाता। जनजातियों में घर में निकाली गई शराब का सामान्य प्रचलन मद्यपान से सम्बन्धित सभी समस्याओं को जन्म देता है।
10. राष्ट्र विरोधी
योगेश अटल ने एक अन्य भयंकर समस्या की ओर ठीक ही संकेत किया है। उन्होंने लिखा है, "धर्म प्रसार के साथ ही साथ ईसाई मिशनरियों ने उन्हें राष्ट्र विरोधी राजनैतिक कुचकों और षड्यन्त्रों में फैलाने की भी चेष्टा की।" धर्म-परिवर्तन से आदिवासियों की केवल पूजा-पद्धति ही नहीं बदलती उनकी आस्थायें, उनकी देश-निष्ठा और भारत माँ के प्रति उनकी भावना भी बदलने लगती है।
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समाधान की नीति / उपाय
भारतीय जनजातियों की समस्याओं का समाधान करने की दृष्टि से अनेक प्रयास हुए हैं। विभिन्न स्तरों पर समाधान की योजनायें बनाई गईं। कुछ समाधानकर्ताओं ने जनजातियों को सभ्य समाजों के हस्तक्षेप से पूर्णतः अलग रखने और उन्हें अपने जीवन को अपनी परम्परागत संस्कृति के अनुसार व्यतीत करने की स्वतन्त्रता पर बल दिया है। समाज सुधारकों ने इस बात पर जोर दिया है कि आदिवासी जनता भारत का अभिन्न अंग है, और उसे भी लोकतन्त्र के आनन्द और सुविधाओं का उपयोग करने का समान अधिकार है।
अत: उनके साथ निरन्तर गहन सम्पर्क स्थापित करके उन्हें शेष भारतीय समाज के साथ मिलाने की कोशिश की जानी चाहिए। इसी प्रकार पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने जनजातीय समस्याओं के समाधान के लिए एकीकरण की नीति का अनुसरण किया। डॉ. दुबे ने भी अलगाव और पूर्ण विलय की नीतियों को नकारते हुए प्रादेशिक और राष्ट्रीय व्यवस्था के साथ जनजातियों के एकीकरण पर बल दिया है।
जनजातियों की समस्याओं के समाधान के लिए अपनाई जाने वाली नीतियों को हम अन्य प्रकार से भी स्पष्ट कर सकते हैं। डॉ. मजूमदार ने दो प्रकार की नीतियों का अनुसरण करने की सलाह दी है। प्रथम तो हमें सुधारात्मक कार्यक्रम अपनाने चाहिए और दूसरे प्रशासनिक प्रयास किये जाने चाहिए। सुधारवादी कार्यक्रमों में समाज सुधारक, प्रशासक और वैज्ञानिक तीनों का सम्मिलित प्रयास आवश्यक है। मानवशास्त्री के ज्ञान का व्यावहारिक उपयोग इस दृष्टि से हो सकता है। मजूमदार के विचार से प्रशासनिक कार्यक्रम के अन्तर्गत विशिष्ट कल्याणकारी योजनाओं का निर्माण और क्रियान्वयन होना चाहिए। उनकी मान्यता है कि तथाकथित राजनीतिज्ञों के स्थान पर जनजातीय कल्याण के कार्यक्रमों का राष्ट्रीयकरण होना चाहिए।
डॉ. दुबे के अनुसार जनजातीय समस्याओं के समाधान में मानवशास्त्री का योगदान विशेष महत्व रखता है। उन्होंने समाधान की नीति की दृष्टि से आठ सुझाव दिये हैं जो संक्षेप में निम्नलिखित है-
1. आदिवासियों के सामाजिक संगठन और मूल्यों का वैज्ञानिक अध्ययन।
2. प्राविधिक, आर्थिक और सांस्कृतिक धरातल पर समस्याओं का सूक्ष्म अध्ययन ।
3. आदिवासी जीवन में एकीकरण की शक्तियों और कारकों का अध्ययन।
4. संस्कृति के परिवर्तनशील और परिवर्तन विरोधी पक्षों का अध्ययन।
5. संस्कृति के विभिन्न पक्षों के पारस्परिक सम्बन्ध तथा अन्तरनिर्भरता का अध्ययन ।
6. आदिवासी क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों के प्रशिक्षण की व्यवस्था ।
7. आदिवासी आवश्यकताओं का क्षेत्रीय और राष्ट्रीय आवश्यकताओं के साथ समन्वय करने वाली विकास योजनायें।
8. योजनाओं का मूल्यांकन और हानिकारक तत्वों का निराकरण।
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जनजातीय कल्याण कार्यक्रम
स्वतन्त्र भारत में केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों द्वारा जनजातियों के कल्याण हेतु कार्य किए जा रहे हैं। इन कल्याण कार्यक्रमों में निम्नलिखित मदों को सम्मिलित किया जा सकता है-
संवैधानिक व्यवस्थाएँ
भारत के नवीन संविधान में जनजातियों के आर्थिक और सामाजिक हितों की दृष्टि से विशेष व्यवस्थाएँ की गई हैं जिनमें से महत्वपूर्ण व्यवस्थाएँ निम्नलिखित हैं-
1. लोकसभा तथा राज्य- विधानसभाओं में आदिवासी क्षेत्रों के प्रतिनिधियों के लिए निश्चित सीटें सुरक्षित कर दी गई है।
2. संविधान के अनुच्छेद 16 (4) 335 के अनुसार- सार्वजनिक सेवाओं और सरकारी नौकरियों में जनजातियों के लिये स्थान सुरक्षित रखने का अधिकार राज्य को दिया गया है। इसके अनुसार भारत सरकार अखिल भारतीय सेवाओं में 5% स्थान जनजातियों को दे रही है। तृतीय तथा चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों के लिये प्रत्येक राज्य में जनजातियों की जनसंख्या के अनुपात में रिक्त स्थानों को सुरक्षित रखने की व्यवस्था है। नौकरियों में पदोन्नति, भरती, आयु-सीमा और योग्यता आदि के सम्बन्ध में भी जनजातियों को विशेष रियायतें दी जा रही हैं।
3. संविधान के भाग 6 अनुच्छेद 164 में बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, और आसाम में 'जनजातीय कल्याण मन्त्रालय' स्थापित करने की व्यवस्था की गई है। इसके अतिरिक्त गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर और त्रिपुरा में कल्याण विभाग स्थापित किये जो चुके हैं।
4. संविधान के अनुच्छेद 244 (2) के अन्तर्गत आसाम में जनजातियों के लिये जिला तथा क्षेत्रीय स्तर पर विशेष परिषदों की स्थापना की व्यवस्था है। छठी अनुसूची के अन्तर्गत खासी, जयन्तियाँ पहाड़ियों, मिजो पहाड़ियों, उत्तर कछार की पहाड़ियों में एक क्षेत्रीय परिषद तथा पाँच जिला परिषद स्थापित की गई हैं। इन परिषदों को कानून बनाने और कर लगाने के अधिकार दिये गये हैं।
5. संविधान के अनुच्छेद 338 के अनुसार- राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है कि वे जनजातियों और अनुसूचित जातियों के लिये एक विशेष अधिकारी नियुक्त करें जो जनजातीय कल्याण के लिये उन्हें सुझाव दें। इस अधिकारी की नियुक्ति राष्ट्रपति महोदय ने की हुई है जिसे 'अनुसूचित जनजाति आयुक्त' कहते हैं। इस अधिकारी की सहायता के लिये 17 सहायक आयुक्त नियुक्त किये गये हैं। इस सम्बन्ध में केन्द्रीय सरकार ने एक केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड की स्थापना की है।
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सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व
अखिल भारतीय प्रतियोगिता एवं अन्य आधार पर नियुक्त होने वाले पदों पर जनजातियों के लोगों के लिए 7.5 प्रतिशत स्थान सुरक्षित कर दिए गये हैं। तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणियों की सेवाओं में भी राज्यों में जनजातियों की जनसंख्या के अनुपात में सेवायें सुरक्षित कर दी गई हैं। विभिन्न सेवाओं में तरक्की, आयु-सीमा, चुनाव, योग्यता आदि मामलों में इन लोगों को विशेष रियायतें दी जाती हैं।
लोकसभा और विधान सभाओं में प्रतिनिधित्व
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330 की व्यवस्था के अनुसार लोकसभा के कुल 543 स्थानों में से 40 स्थान जनजातियों के लिए सुरक्षित हैं। इसी प्रकार भारत के सब राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों की विधानसभाओं की कुल सदस्य संख्या 4,005 है जिसमें से 467 स्थान जनजातियों के लिए सुरक्षित हैं।
कल्याणकारी तथा सलाहकार संस्थाएँ
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 338 के अधीन दी गई सुरक्षा सम्बन्धी व्यवस्था की देख-रेख करने एवं उसको कार्य रूप देने के सम्बन्ध में राष्ट्रपति ने एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति की है। इस अधिकारी का नाम अनुसूचित जाति व जनजाति कमिश्नर (The Commissioner for Scheduled Castes and Scheduled Tribes) है। यह अधिकारी प्रतिवर्ष जनजातियों के सम्बन्ध में अपनी रिपोर्ट समाज कल्याण मन्त्री (Minister for Social Welfare), के द्वारा राष्ट्रपति को प्रेषित करता है। जनजातीय कमिश्नर के अतिरिक्त सहायक कमिश्नर (Assistant Commissioners) भी नियुक्त किये जाते हैं।
जनजातियों के कल्याण सम्बन्धी मामलों में सार्वजनिक कार्यकर्ताओं एवं संसद सदस्यों का सहयोग प्राप्त करने के लिए भारत सरकार ने एक केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड (Central Advisory Board) स्थापित किया है। यह बोर्ड भारत सरकार को समय-समय पर जनजातियों के कल्याण-सम्बन्धी मामलों के बारे में सलाह देता है और कल्याण सम्बन्धी योजनाएँ बनाता है।
इतना ही नहीं संविधान के अनुच्छेद 164 खण्ड (1) के अनुसार बिहार, मध्य प्रदेश, और उड़ीसा में एक-एक मन्न्नी के अधीन जनजातीय कल्याण विभाग (Tribal Welfare De- partment) स्थापित करने की व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त लगभग सभी राज्यों में कल्याण विभाग स्थापित किये जा चुके हैं।
प्रशासन सम्बन्धी व्यवस्था
जनजातियों के क्षेत्रों में प्रशासन सम्बन्धी व्यवस्था के लिए उचित ध्यान दिया जा रहा है। संविधान की पाँचवीं अनुसूची (Schedule) में अनुसूचित जनजातीय क्षेत्र वाले प्रत्येक राज्य में जनजातीय सलाहकार समिति (Tribal Advisory Councils) की स्थापना की व्यवस्था है। राष्ट्रपति की इच्छानुसार उन सभी राज्यों में भी परिषदें स्थापित की जा सकती हैं जिनमें अनुसूचित जातियों के अतिरिक्त अनुसूचित जनजातियाँ भी रहती हों। अनेक राज्यों में ऐसी परिषदें स्थापित भी हो चुकी हैं। ये परिषदें जनजातियों के कल्याण सम्बन्धी मामलों में समय-समय पर राज्यपालों (Governors) को सलाह देती हैं।
जनजातियों की आर्थिक उन्नति की दृष्टि से स्थानान्तरित खेती में सुधार किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त विभिन्न राज्य सरकारें बेकार भूमि को कृषि योग्य बनाकर जनजातियों के लोगों में बाँटने की योजनाएँ भी प्रारम्भ कर चुकी है। वर्ष 1982 के अन्त तक जनजातियों के लोगों को 1,32,884 एकड़ भूमि वितरित की जा चुकी हैं। पशु, खाद, कृषि, औजार आदि से भी सरकार सहायता दे रही है। बहुउद्देशीय सहकारी समितियों की स्थापना द्वारा नकद ऋणों की व्यवस्था की जा रही है। इसके अतिरिक्त आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, आदि प्रदेशों में वन सम्पत्ति को निकालने के ठेके श्रम सहकारी समितियों (Labour Corporation Societies) द्वारा जनजातियों के लोगों को दिये जाते हैं। इस प्रकार कल्याणकारी योजनाओं के द्वारा जनजातियों के आर्थिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाये जा रहे हैं।
जनजातीय शोध संस्थाओं की व्यवस्था
आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, आसाम, उड़ीसा, आदि राज्यों में जनजातियों की संस्कृति, रीति-रिवाज, धर्म, भाषा आदि के अध्ययन के लिये शोध संस्थायें स्थापित हो चुकी हैं। गोहाटी विश्वविद्यालय में आसाम की जनजातियों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन का अध्ययन प्रारम्भ हो गया है। महाराष्ट्र तथा गुजरात में बम्बई की 'मानवशास्त्र समिति' (Anthropologi- cal Society), 'गुजरात अनुसंधान समिति' (Gujrat Research Society), 'गुजरात विद्यापीठ' (Gujrat Vidyapeeth), एवं बम्बई विश्वविद्यालय में जनजातियों यों के के बारे में अनुसंधान कार्य किया जाता है।
भारत सरकार के मानवशास्त्र विभाग में भारत के 153 जिलों में रहने वाली जनजातियों के सम्बन्ध में गम्भीर अनुसंधान कार्य पूरा किया गया है। धीरे-धीरे इस क्षेत्र में अधिक ध्यान दिया जा रहा है।
जनजातीय कल्याण की उचित व व्यावहारिक नीति
केवल कुछ रुपयों से जनजातीय कल्याण के बड़े कार्य को कैसे सम्पादित किया जा सकता है। इसके लिये सरकार को और अधिक धन जुटाना होगा और जनजातियों की परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न कार्यक्रमों को बनाना होगा। इतना ही नहीं, जनजातीय कल्याण को योजनाओं में निम्नलिखित बातों का औचित्य और व्यावहारिकता की दृष्टि से ध्यान रखना होगा-
1. जनजातीय लोगों की समस्याओं को सुलझाने के लिये काफी छानबीन के बाद अलग-अलग वर्गों या समूहों में बाँट लेने की आवश्यकता है ताकि प्रत्येक प्रकार की समस्या पर व्यावहारिक तौर पर ध्यान दिया जा सके। लेकिन किसी भी समस्या के समाधान हेतु बनाई जाने वाली योजना में अन्य प्रकार की समस्याओं को पूर्णतया अलग-अलग नहीं रखा जा सकता है।
2. जनजातीय कल्याण की एक उचित व व्यावहारिक नीति यह होनी चाहिये कि जनजातियों के लोगों को अपनी परम्परागत संस्कृति के अनुसार विकसित होने दिया जाय। जनजातीय कल्याण का अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि उन्हें परम्परागत संस्कृति से हटकर अंग्रेज बना दिया जाय।
3. आर्थिक समस्याओं को सुलझाने के लिये कल्याण कार्यक्रमों की उचित व्यावहारिक नीति सहकारिता व पंचायत पर आधारित होनी चाहिये।
4. जनजातियों की शिक्षा की ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिये ताकि ये लोग धीरे-धीरे अपले-अपने क्षेत्रों में शासन व विकास का भार संभाल सकें और बाहरी हस्तक्षेप कम से कम हो ।
5. जनजातीय कल्याण योजना की एक उचित व व्यावहारिक नीति यह भी होनी चाहिये कि इन योजनाओं व कार्यक्रमों को चलाने का कार्य उन लोगों को सौंपा जाना चाहिए जो जनजातियों के आर्थिक व सांस्कृतिक जीवन से पूर्ण परिचित हों।
6. जनजातीय कल्याण योजना में आर्थिक समस्याओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। सभी विचारक यह स्वीकार करते हैं कि उनका पिछड़ापन आर्थिक क्षेत्र में है, न कि सांस्कृतिक क्षेत्र में।
7. जनजातियों के विकास के लिये एकदम अनगिनत योजनाओं को भी न लादा जाना चाहिए। नेहरू जी का कहना था कि, "विशेष तौर पर ऐसी योजनाओं को नहीं लादा जाना चाहिए जो उनकी संस्कृति से संघर्ष करें।"
8. जनजातीय कल्याण योजनाओं को बनाते समय स्थानीय व आवश्यक परिस्थितियों का ध्यान रखा जाना चाहिये। सच तो यह है कि योजना को समस्त जनजातियों पर लागू नहीं किया जा सकता।