भारतीय जनजातियों में विवाह के प्रमुख स्वरूप तथा विवाह से सम्बन्धित विधि-निषेधों का परिचय दीजिए।

भारतीय जनजातियों में विवाह के प्रमुख स्वरूप

दोस्तों हमारे भारत की जनजातियों में विवाह के तीन स्वरूप या भेद देखने को मिलते हैं जो इस प्रकार से है -

1. एकविवाह, 2. बहुपति-विवाह, 3. बहुपत्नी विवाह।

अतः इसके अतिरिक्त अनेक विचारकों ने जनजातियों में समूह विवाह (Group marriage) का भी वर्णन किया है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर वर्तमान समय में समूह विवाह का प्रचलन देखने को नहीं मिला। आज जनजातियों में विवाह के एक सर्वमान्य व सर्वव्यापी नियम के रूप में 'एकविवाह' का प्रचलन सबसे अधिक है। बहुपति-विवाह तथा बहुपत्नी-विवाह संसार की अधिकांश जनजातियों में कुछ समय पहले तक प्रचलित था। लेकिन सभ्य समाजों के सम्पर्क में आने के कारण एक विवाह के स्वरूप का अधिक प्रचलन होता जा रहा है। 

अतः कुछ भी हो, भारतीय जनजातियों में विवाह के मुख्य स्वरूप दो ही हैं- 1. एकविवाह तथा 2. बहुविवाह।

1. एकविवाह (Monogamy)

एकविवाह में एक पुरुष केवल एक ही स्त्री से विवाह कर सकता है अर्थात् अपने जीवनकाल में केवल एक स्त्री और पुरुष ही पति-पत्नी के रूप में रह सकते हैं। संसार के सभ्य समाजों में प्राय: एकविवाह प्रथा ही प्रचलित है किन्तु जनजातियों में सभ्यता का विकास कम होने के कारण एकविवाह का अधिक प्रचलन नहीं है। जैसे-जैसे जनजातियाँ सभ्यता के सम्पर्क में आ रही हैं वैसे-वैसे एकविवाह का रूप भी पनप रहा है। 

भारतीय जनजातियों में वधू-मूल्य का चलन होने के कारण भी एक पुरुष कई पत्नियाँ नहीं रख सकता। किन्तु इसका परिणाम बहुपति प्रथा भी है जिसमें कई पुरुष मिलकर एक स्त्री से विवाह कर लेते हैं। फिर भी एक विवाह की प्रथा भारत की कुछ जनजातियों में प्रचलित है। आसाम की खासी, केरल की कादर और बिहार की संथाल जनजातियों में एकविवाह पाया जाता है। 'हो' जनजाति भी वधू मूल्य अधिक होने के कारण एकविवाही जनजाति बन गई है।

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2. बहुविवाह (Polygamy)

बहुविवाह वह विवाह है जिसके तहत् एक पुरुष एक से अधिक स्त्रियाँ, या एक स्त्री एक से अधिक पुरुषों से विवाह कर लेते हैं। भारतीय जनजातियों में अधिकांश बहुविवाह प्रथा का प्रचलन है। 

अतः बहुविवाह के तीन रूप हैं-

1. बहुपत्नी-विवाह

2. बहुपति-विवाह

3. युग्म-विवाह ।

1. बहुपत्नी-विवाह (Polygamy)- एक पुरुष को एक से अधिक पत्नियों से विवाह करने का अधिकार बहुपत्नी विवाह कहलाता है। यद्यपि एक से अधिक पत्नियाँ रखना तभी सम्भव है जब आर्थिक स्थिति अच्छी हो किन्तु जनजातियों में बहुपति-विवाह आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए भी किया जाता है। जनजातियों में स्त्रियाँ पुरुषों के साथ आर्थिक लाभ का कार्य करती हैं। 

अत: वे बोझ न होकर सहायक तत्व के रूप में कार्य करती हैं। अधिक पत्नियों का होना अधिक कार्य करने वालों का होना है। स्त्रियाँ भी चाहती हैं कि उनकी संख्या बढ़ जाए तो उनका काम सरल हो जायेगा, क्योंकि जनजातियों का आर्थिक जीवन अत्यन्त कठोर होता है। धनी व्यक्ति काम-तृप्ति और सामाजिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी कई-कई पत्नियाँ रखते हैं। भारतीय जनजातियों में नागा, टोडा,गोंड और निषाद जनजातियों में बहुपत्नी विवाह पाया जाता है।

2. बहुपति विवाह (Polyandry)- बहुपति विवाह का अर्थ है कई पुरुषों की एक पत्नी होना। भारतीय जनजातियों में केरल की टियान, कुशम्व, कोट, लढ़ारवी, वोट, नीलगिरि पहाड़ियों को टोडा तथा देहरादून जिले के जौनसार मावर क्षेत्र में रहने वाली 'खस' जनजातियाँ बहुपति-विवाह करती हैं। 

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आसाम के भागों में तथा दक्षिण की नायर जनजाति में भी बहुपति-विवाह पाया जाता है। हिमांचल के लाहौर-स्पीति क्षेत्र में चप्पा, कुल्लू की घाटी में तथा मध्य भारत में औरांघ लोगों में भी इस प्रथा का प्रचलन कुछ विद्वानों द्वारा पाया गया है। वर्तमान युग में यह प्रथा प्रमुख रूप से 'खस' और 'टोडा' जनजातियों में पाई जाती है। दक्षिण भारत के नायरों में भी यह प्रथा पाई जाती है। निर्धनता और स्त्रियों की कम संख्या इस प्रथा के प्रमुख कारण माने जाते हैं।

बहुपति प्रथा के दो स्वरूप भारतीय जनजातियों में देखने को मिलते हैं जैसे-

(अ) भ्रातृक बहुपति विवाह- इसे पितृसत्तात्मक बहुपति-विवाह भी कहा जा सकता है। जब एक से अधिक भाई मिलकर एक ही स्त्री से विवाह करते हैं तो भ्रातृक बहुपति विवाह कहलाता है। इस प्रकार की विवाह प्रथा नीलगिरि के टोडा और जौनसार माबर के 'खस' लोगों में पाई जाती है।

टोडा जनजाति में एक व्यक्ति एक स्त्री से विवाह करता है किन्तु यह स्त्री उसके सभी भाइयों की पत्नी हो जाती है। विवाह के उपरान्त भी जो भाई उत्पन्न होते हैं वे भी उस स्त्री के पति हो जाते है। कभी-कभी यह अधिकार केवल सगे भाइयों को होता है और कभी-कभी गोत्र के भाइयों को भी। 

पहली बार गर्भवती होने पर बड़ा पति (सबसे बड़ा भाई) तीर-कमान के द्वारा एक संस्कार करता है जिससे वह होने वाली सन्तान का पिता मान लिया जाता है। दूसरी बार गर्भवती होने पर यही संस्कार दूसरा भाई करता है और उसे दूसरी सन्तान का पिता मान लिया जाता है। 

इसी प्रकार बारी-बारी से सब भाइयों को उम्र के अनुसार पिता का अधिकार मिलता रहता है। सारांश यह है कि पिता होना तीर-कमान के संस्कार पर निर्भर करता है। परिवार से पृथक होने पर व्यक्ति का न सन्तान पर अधिकार रहता है और न पत्नी पर। भांइयों को एक से अधिक पत्नी रखने की आज्ञा नहीं दी जाती है।

खस जनजाति में बड़ा भाई जिस स्त्री को विवाह करके लाता है यह सभी छोटे भाइयों की पत्नी मानी जाती है। किन्तु इस जनजाति में छोटा भाई विवाह कर सकता है किन्तु दूसरी स्त्री भी सब भाइयों की पत्नी मानी जायेगी। पृथक पत्नी रखने की किसी छोटे भाई को आज्ञा नहीं दी जाती। यह सब होते हुए भी पत्नी पर बड़े भाई का अधिकार विशेष रूप से स्वीकार किया जाता है। 

स्त्री बड़े पति के साथ संभोग करने से इन्कार नहीं कर सकती। ऐसा करने पर उसे छोड़ा जा सकता है। बड़े पति की ओर से यदि किसी भाई से संभोग करने की मनाही हो जाय तो उसे उसकी आज्ञा माननी पड़ती है। केवल बड़े भाई को ही विवाह-विच्छेद करने का अधिकार है। 

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यदि विवाह से पूर्व ही स्त्री को कोई सन्तान उत्पन्न हो गई है तो उस पर केवल बड़े भाई का अधिकार होता है। पहली सन्तान बड़े भाई की और इसके उपरांत क्रम से प्रत्येक सन्तान दूसरे भाई की मानी जाती है। बच्चे बड़े भाई को 'बारी बाबा' दूसरे को 'डांगर बाबा' और 'भेदी बाबा' कहकर पुकारते हैं। 

(ब) अभ्रातृक बहुपति विवाह- इसे मातृसत्तात्मक बहुपति-विवाह भी कहा जाता है। जब एक ही स्त्री कई ऐसे पुरुषों से विवाह करती है जो परस्पर भाई नहीं होते तो उसे अभ्रातृक विवाह कहते हैं। ऐसी अवस्था में या तो पत्नी प्रत्येक पति के घर बारी-बारी से जाकर रहती है या पति बारी-बारी से उसके घर आकर रहते हैं। जब स्त्री एक पति के साथ रह रही हो तो उसके ऊपर दूसरे पति का अधिकार नहीं समझा जाता। 

मालाबार के नायरों में इस प्रथा का प्रचलन है। अवैप्पन के अनुसार, 'इयागु' में ही इसका प्रचलन है। अपने प्रचलित रूप में लड़की अपनी माँ के घर कितने ही नायर लड़कों से शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने की उसे स्वतन्त्रता रखती है। बहुपति प्रथा से सन्तान कम होती है और प्राय: लड़के अधिक होते हैं। स्त्रियाँ बाँझ भी रह जाती हैं। स्त्रियों के स्वास्थ्य पर इसका कुप्रभाव पड़ता है और विवाह-विच्छेद की संख्या बढ़ जाती है।

3. द्विपत्नी विवाह- द्विपत्नी या युग्म विवाह बहुपत्नी विवाह का सीमित रूप है। जब स्त्रियों की संख्या दो तक सीमित हो जाती है तब उसे युग्म विवाह कहते हैं। यह विवाह सामाजिक आवश्यकता का परिणाम बताया जाता है। पहली पत्नी के अस्वस्थ, बाँझ आदि होने पर दूसरी पत्नी की अनुमति दी जाती है। भारतीय जनजातियों में यह प्रथा प्रचलित नहीं है। एस्किमो, ओरगेन जनजातियाँ और ग्रीनलैण्ड के निवासी युग्म विवाह करते हैं।

जनजातीय विवाह सम्बन्धी निषेध और नियम

1. अन्तर्विवाह (Endogamy) 

प्रत्येक भारतीय जनजाति एक अन्तर्विवाही समूह है। एक जनजाति दूसरी जनजाति से विवाह सम्बन्ध स्थापित नहीं करती। इसके अतिरिक्त कुछ जनजातियों में अन्तर्विवाही उपसमूह हैं। नीलगिरि पहाड़ियों की टोडा जनजाति में दो अन्तर्विवाही उपसमूह है जिनके नाम 'तारथारोल' और 'थिवेलियोल' हैं। इसी प्रकार 'भील' जनजाति में भी 'उजले भील' और 'मैले भील' दो अन्तर्विवाही उप-समूह हैं। 

जादू-टोने की प्रथा और अन्य जनजातियों या समूहों के मिश्रण का भय, सांस्कृतिक और सामाजिक पृथकता, भौगोलिक तथा प्रजातीय भिन्नता और शिक्षा, उद्योग तथा सभ्यता का अभाव इस प्रथा के प्रमुख कारण हैं। अन्तर्विवाह के नियम तोड़ने वालों को बहिष्कृत किया जाता है या जुर्माना कर दिया जाता है। 

टोटम के भय से भी सदस्य इस नियम का पालन करते हैं। हिन्दू सभ्यता के सम्पर्क में आने पर काफी जनजातियाँ हिन्दुओं में विवाह करने का प्रयत्ल करती हैं। मध्य भारत की जनजातियों को विशेष रूप से इस दिशा में प्रयत्नशील समझा जाता है।

2. बहिर्विवाह (Exogamy)

भारतीय जनजातियों में गोत्र समूह अथवा टोटम समूह के अन्दर विवाह करना वर्णित समझा जाता है। गोत्र या टोटम से सम्बन्धित स्त्री-पुरुष भाई-बहिन समझे जाते हैं। अत: उन्हें परस्पर विवाह करने की अनुमति नहीं दी जाती। रिजले के विचार से यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह नवीन के प्रति आकर्षण रखता है। अपने समूह की जानी-पहचानी लड़की या लड़के से विवाह करने में उतना आनन्द अनुभव नहीं होता जितना बाहरी व्यक्ति के प्रति आकर्षण होता है।

उड़ीसा की जुआंग आदि जनजातियाँ, छोटा नागपुर की मुण्डा तथा आसाम की कुछ नागा जनजातियाँ 'ग्राम बहिर्विवाह' का पालन करती हैं। इन जनजातियों के लड़के गाँव की लड़कियों से विवाह नहीं कर सकते। खासी जनजाति में गोत्र के अन्दर विवाह करना भयंकर अपराध माना जाता है। किन्तु लुसाई कूकी नागा इस निषेध के पालन पर जोर नहीं देते।

3. प्राथमिकतापूर्ण या अधिमान्य विवाह (Preferential Marriage)

भारतीय जनजातियों में कहीं-कहीं कुछ निकट के विशिष्ट रिश्तेदारों में ही परस्पर विवाह करने को प्राथमिकता दी जाती है। इनमें निम्न प्रकार के विवाहों को प्रोत्साहन दिया जाता है- 

1. ममेरे-फुफेरे भाई-बहिन का विवाह (Cross-Cousin Marriage)- कुछ भारतीय जनजातियाँ इस बात का प्रयत्न करती हैं कि ममेरे-फुफेरे भाई-बहिनों का ही परस्पर विवाह कर लेना चाहिए। मध्य प्रदेश की कुछ जनजातियों में तो इस प्रकार का विवाह अनिवार्य माना जाता है। गोंड जनजाति में यह विचार अत्यधिक प्रचलित है। मणिपुर की पुरम, कुकी, जनजाति में तो 75 प्रतिशत विवाह इसी प्रकार के पाये गये हैं। ओरांब, कादर, खासी जनजातियों में भी इस प्रकार के विवाह होते हैं। गोंड जनजाति में इस विवाह को 'दूधलौटवाँ' विवाह कहा जाता है क्योंकि भाई-बहिन के बच्चों को परस्पर विवाह एक ही माँ का दूध पीने वाले भाई-बहिनों के बच्चों के बच्चों का पति-पत्नी बन जाना है।

2. साली विवाह (Sororate)- कुछ जनजातियों में पत्नी की छोटी बहन से शादी करना उत्तम समझा जाता है। पत्नी के मान जाने पर, रोगी या अपंग हो जाने पर या अन्य किसी कारण से यदि दुबारा विवाह करना पड़े तो साली को प्राथमिकता दी जाती है। अतः इसके दो प्रकार होते हैं-

(अ) सीमित साली विवाह (Restricted Sororate)- इस विवाह के अनुसार साली से उसी समय विवाह किया जाता है जबकि पत्नी की मृत्यु हो गई हो। गोंड जनजाति में इसी प्रकार का विवाह किया जा सकता है।

(ब) समकालीन साली विवाह (Simultaneous Sororate)- इस विवाह में पुरुष किसी परिवार की केवल एक स्त्री (बड़ी बहन) से विवाह करता है और नियमानुसार उस स्त्री की अन्य सब बहनें (पुरुष की सालियाँ) उसकी पत्नी बन जाती हैं।

3. देवर-भाभी विवाह (Levirate)- कुछ जनजातियों में स्त्री के पति की मृत्यु हो जाने के उपरान्तं उसे अपने देवर (पति के भाई) से विवाह करने की अनुमति होती है। पति के रहते भी देवर-भाभी का पति-पत्नी का रिश्ता रह सकता है। टोडा जनजाति में बड़े भाई की पत्नी सभी देवरों की पत्नी होती है। देवर का शाब्दिक अर्थ ही दूसरा वर है अर्थात् जो पति के बाद वर के रूप में सम्बन्धित हो सके। शायद यही कारण है कि आज भारत की सभ्य जातियों में देवर-भाभी और जीजा-साली का अश्लील मजाक बुरा नहीं माना जाता। यहाँ तक कि कई बार उनके लैंगिक सम्बन्ध भी सहन किये जाते हैं।

देवर-भाभी या जीजा-साली विवाहों का प्रमुख कारण जनजातियों की दरिद्रता और सामूहिक उन्नति का विचार है। कन्या-मूल्य की प्रथा होने के कारण पत्नी की मृत्यु के पश्चात् प्राय: उसकी छोटी बहिन को अनिवार्य रूप से जीजा की पत्नी बनना पड़ता है। जनजातियों में स्त्री एक सम्पत्ति है और उस पर साझा अधिकार समझा जाता है। दो परिवारों का घनिष्ठ सम्बन्ध रखने के लिए भी इन विवाहों को प्राथमिकता दी जाती है।

4. कुछ विशेष प्रकार के विवाह (Some Special Types of Marriage)- कुछ भारतीय जनजातियों में विचित्र प्रकार के विवाह सम्बन्धों की अनुमति प्रदान की जाती है। सामान्य रूप से अनियिमित और अनुपयुक्त लगने वाले विवाह सम्बन्धों की विशेष परिस्थितियों में अनुमति दी जाती है। इनके निम्नलिखित विवाह प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं-

1. बाबा-पोती का विवाह (Marriage of Grand father and Grand Daughter)- यद्यपि बाबा और पौत्री विवाह नियमानुकूल नहीं होता और कुछ अटपटा प्रतीत होता है, तथापि कुछ जनजातियाँ ऐसे विवाह की अनुमति देती हैं। गोंड तथा कमार जनजातियों में इस प्रकार विवाह उचित मान लिया जाता है। लुशाई क्षेत्र की लोखेर जनजाति में कोई पुरुष अपनी विधवा सौतेली माँ से भी विवाह कर सकता है और पुत्रवधू से भी।

2. सास-दामाद का विवाह (Marriage of Mother-in-Law and Son-in-Law)- कुछ वन्य जातियों में दामाद को सास से विवाह करने की अनुमति दी जाती है। गोरे जनजाति में दामाद को विधवा सास से विवाह करना आवश्यक हो जाता है, क्योंकि वहाँ माता की सम्पत्ति पर पुत्री का अधिकार होता है। सास के विधवा होने पर यदि दामाद उससे विवाह न करे तो वह किसी अन्य से विवाह कर सकती है। यह अन्य व्यक्ति सम्पत्ति को इधर-उधर कर सकता है। अतः लड़की (स्वयं अपनी स्त्री) के हित की रक्षा की दृष्टि से दामाद को ही विधवा सास से शादी करनी पड़ती है।

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