विवाह साथी चुनने की विधियाँ (Methods of Acquiring a Mate)
भारतीय जनजातियों में जीवन-साथी प्राप्त करने के निम्न तरीके हैं-
1. परिवीक्षा विवाह (Probationary Marriage)
परिवीक्षा का अर्थ है अन्तिम निर्णय करने के पूर्व का समय। इस विवाह में लड़के तथा लड़की को एक-दूसरे को समझने के लिए पूरा अवसर दिया जाता है। उन दोनों को कुछ समय साथ-साथ रहने की अनुमति दी जाती है ताकि वे एक-दूसरे के स्वभाव, दृष्टिकोण आदि का अध्ययन कर सकें। इस परिवीक्षा की अवधि के उपरान्त यदि वे विवाह करना चाहें तो कर सकते हैं। किन्तु यदि इसके बाद वे ऐसा समझते हैं कि उनका स्वभाव इत्यादि एक-दूसरे के अनुकूल न नहीं हैं तो वे अलग हो जाते हैं ऐसी दशा में लड़के के घर वालों को कुछ हर्जाना लड़की के पिता को देना पड़ता है।
आसाम की कुकी जनजाति में यह प्रथा प्रचलित है। परिवीक्षा की अवधि केवल एक-दूसरे को समझने के लिए ही नहीं होती । वास्तव में इस काल में लड़का और लड़की पति-पत्नी की भाँति ही व्यवहार करने लगते हैं। 'होबेल' के विचार से परिवीक्षा का उद्देश्य ही लड़की की सन्तानोत्पादन की परीक्षा लेना होता है। सन्तान की इच्छा जनजातियों में कन्या-मूल्य की इच्छा के समान ही होती है। यदि परिवीक्षा काल में लड़की गर्भवती हो जाती है तो विवाह सुनिश्चित होता है।
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2. परीक्षा विवाह (Marriage by Trial)
परीक्षा विवाह को प्राचीन स्वयंवर के रूप में समझा जा सकता है। इसमें विवाह के लिए इच्छुक पुरुष की शक्ति की परीक्षा ली जाती है। गुजरात की भील जनजाति में परीक्षा विवाह विशेष रूप से प्रचलित है। भील साहसी और वीर होते हैं। होली के अवसर पर वे एक विशेष लोक नृत्य का आयोजन करते हैं। इस लोक नृत्य को 'गोल गधेड़ी' कहा जाता है। जहाँ लोक नृत्य होता है वहाँ एक बाँस या पेड़ पर गुड़ और नारियल बाँध दिया जाता है। इसके चारों ओर मण्डल बनाकर लड़के और लड़कियाँ नाचती हैं।
कुँवारी लड़कियों का मण्डल बाँस के निकट रहता है तथा कुँवारे लड़कों का मण्डल बाहर की ओर, कुँवारे लड़के अन्दर के मण्डल (लड़कियों का घेरा) को तोड़कर गुड़ और नारियल को प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। लड़कियाँ उन्हें रोकती हैं। घेरा तोड़ने वाले लड़कों की खूब मरम्मत करती हैं, उनके कपड़े फाड़ती हैं और बाल इत्यादि नोंचती हैं। इतना अवरोध होने पर भी यदि कोई लड़का घेरा तोड़कर गुड़ और नारियल प्राप्त कर लेता है तो उसे यह अधिकार होता है कि घेरे के अन्दर नाचती हुई लड़कियों में से चाहे जिसे अपनी पत्नी बना ले। यह क्रम चलता रहता है।
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3. सेवा विवाह (Marriage by Service)
जनजातियों में कन्या-मूल्य का अत्यधिक प्रचलन है, जो पुरुष के लिए विवाह करने में कठिनाई उत्पन्न करता है, क्योंकि हर व्यक्ति कन्या-मूल्य चुकाने में समर्थ नहीं होता। अतः कुछ जनजातियों ने कन्या-मूल्य के विकल्प के रूप में सेवा की व्यवस्था कर ली है। कन्या-मूल्य के अनुरूप सेवा की अवधि तय कर ली जाती है और उस समय तक विवाह का इच्छुक लड़का कन्या के पिता अर्थात् होने वाले ससुर के घर पर नौकर की भाँति रहता है। नौकरी का समय पूर्ण हो जाने पर कन्या का विवाह उससे कर दिया जाता है। यह लड़का एक प्रकार से विवाह से पूर्व ही घर जमाई बनकर रहता है, यद्यपि उसकी पत्नी नहीं होती।
इसे सेवा-काल में कठिन परिश्रम करना पड़ता है। सेवा करने वाले लड़के को जनजातियों में 'लामानाई' या 'लामसेना' कहा जाता है। गोंड और बैम जनजातियों में यह प्रथा है। बिरहौर जनजाति में ससुर अपने भावी दामाद को पहले कर्ज दे देता है ताकि वह कन्या-मूल्य चुका सके और बाद में निश्चित अवधि तक वह उस कर्ज को सेवा करके चुका देता है। हिमाचल प्रदेश की गूजर जनजाति और उत्तर प्रदेश की खस लोगों में भी सेवा विवाह की प्रथा है। कभी-कभी लड़के की सेवा बीच में व्यर्थ हो जाती है। ठीक प्रकार से कार्य न करने के कारण ससुर उसे भगाकर नया लामानाई रख लेता है।
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4. विनिमय विवाह (Marriage by Exchange)
जिस प्रकार सेवा विवाह के द्वारा कन्या-मूल्य का विकल्प ढूँढ़ लिया गया है, उसी प्रकार विनिमय विवाह भी कन्या-मूल्य की कठिनाई को दूर करने की पद्धति है। इस विवाह में दो परिवार इस प्रकार से समझौता कर लेते हैं कि वे एक-दूसरे की लड़कियों की शादी एक-दूसरे के लड़कों से कर देते हैं। इस प्रकार दोनों परिवार कन्या-मूल्य के बदले अपनी कन्या ही दे देते हैं। लोवी ने इस विवाह को हानि विहीन बताया है और होबेल के अनुसार इसमें बिना खर्च दिये कन्या-मूल्य दे दिया जाता है। आसाम की खासी जाति इस पद्धति की अनुमति नहीं देती। इस प्रकार का विवाह कुछ हिन्दू जातियों में भी पाया जाता है।
5. सहमति और पलायन विवाह (Marriage by Mutual Consent and Elope- ment)
इस पद्धति को 'गान्धर्व विवाह' के समकक्ष रखा जा सकता है। इसे प्रेम-विवाह भी कहा जा सकता है। जब किसी युवक और युवती में प्रेम हो जाए और वे विवाह करना चाहें किन्तु कन्या-मूल्य के कारण अथवा किसी अन्य कारण से माता-पिता उन्हें विवाह की अनुमति न दें, तो वे दोनों पारस्परिक सहमति से योजनापूर्वक गाँव छोड़कर भाग जाते हैं और निश्चित अवधि तक या माता-पिता की अनुमति प्राप्त होने तक वापस नहीं लौटते। जब वे लौट आते हैं तो उन्हें पति-पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। ऐसी अवस्था में न तो कन्या-मूल्य देना पड़ता है और न कोई संस्कार ही किया जाता है। इस प्रकार के विवाह को बिहार की जनजातियों में 'राजी-खुशी' कहा जाता है, क्योंकि इसमें 'दो जनों की राजी' वाली बात होती है।
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कन्या-मूल्य का जनजातियों में अत्यधिक प्रचलन है। कन्या-मूल्य देकर विवाह कर लेना एक प्रकार की लड़की खरीदना ही है। अत: इस विवाह को 'क्रय-विवाह' कहा गया है। हो, संथाल, ओरांव, खरिया, गोंड, नागा, कुकी आदि अधिकांश जनजातियों में यह प्रथा प्रचलित है जो विवाह का सरल तरीका है। लोवी ने इस प्रकार के विवाह को लड़की का क्रय-विक्रय करना उचित नहीं माना है। इसके विचार से कन्या-मूल्य कन्या का मूल्य नहीं है बल्कि स्त्रियों की उपयोगिता का सूचक है। यह कन्या देने में जो हानि होती है उसका मुआवजा है, और दो परिवारों के बीच आर्थिक सम्बन्धों की स्थापना है।
लिस्टन के अनुसार- कन्या-मूल्य तो वास्तव में कन्या से उत्पन्न होने वाले बच्चों पर प्राप्त होने वाले अधिकार का मूल्य है। कुछ जनजातियों में क्रय-विवाह के आर्थिक पक्ष पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता। यह केवल स्त्री की प्रतिष्ठा का प्रतीक है। 'रंगमा नागा' तय किए हुए कन्या-मूल्य से दस रुपये कम लेते हैं। क्रय-विवाह निर्धन लोगों के समक्ष कठिनाई उत्पन्न कर देता है। अत: सच पूछा जाये तो विवाह की अन्य पद्धतियाँ इस कठिनाई को दूर करने में सहायक होने के कारण ही अपनाई जाती हैं।
7. अपहरण विवाह (Marriage by Capture)
नागा जनजाति की भाँति कई जनजातियों में स्त्रियों की अत्यन्त कमी है। इसी प्रकार कुछ जनजातियों में कन्या-मूल्य अधिक और अनिवार्य है। अत: जब अन्य किसी ढंग से पुरुष पत्नी प्राप्त करने में सफल नहीं होता तो स्त्री का अपहरण करने को उद्यत होता है। अपहरण विवाह को 'हो' जनजाति में 'ओपरटिपी' और गोंड जनजाति में 'पोसीओथुर' कहा जाता है। अपहरण विवाह दो प्रकार का होता है- या तो वस्तुतः किसी गाँव या घर पर आक्रमण करके लड़की का अपहरण कर लिया जाता है और या फिर लड़की के घर वालों की अनुमति प्राप्त करने के बाद केवल प्रदर्शन मात्र के लिए लड़का लड़की का हरण कर ले जाता है।
जिन जनजातियों में स्त्रियों का अभाव होता है वहाँ लूटपाट करके स्त्रियों का अपहरण कर लिया जाता है। नागा लोग तो अपहरण से बचने के लिए सुन्दर लड़कियों को मार दिया करते थे।
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हो, भील, गोंड आदि जनजातियों में माता-पिता की अनुमति से लड़कियों का अपहरण किया जाता है। गोंड जनजाति में तो कभी-कभी लड़की के मौसेरे या फुफेरे भाई से प्रार्थना की जाती है कि वह लड़की का अपहरण कर ले। अपहरण के समय केवल दिखावे के लिए घर के लोग लड़के का विरोध करते हैं और लड़की भी रोने का उपक्रम करती है। लड़का सुविधा से अपहरण कर ले जाता है।
खरिया और बिरहौर जनजातियों में विधिवत् अपहरण किया जाता है किन्तु अपहरण करने के लिए बल प्रयोग नहीं करना पड़ता बल्कि चालाकी से काम लिया जाता है। जब लड़का किसी लड़की को अन्य प्रकार से प्राप्त नहीं कर सकता तो वह एक प्रकार की वंचिका को देकर उसे प्राप्त करने में सफल होता है। किसी मेले या उत्सव के समय लड़का कहीं छिपकर बैठ जाता है और लड़की जब उस स्थान से गुजरती है तो अनायास दौड़कर उसकी माँग में या मस्तक पर सिन्दूर लगा देता है। ऐसा करने पर लड़की का विवाह उससे हो जाता है।
मध्य भारत की कुछ जनजातियों में मेलों और उत्सवों पर अपहरण किया जाता है अपहरण के पश्चात् लड़का सारी बिरादरी को भोजन कराता है। इस भोज के उपरान्त अपहरण को सामाजिक स्वीकृति मिल जाती है। असम में एक जाति दूसरी जाति पर आक्रमण करके भी अपहरण करती है। विश्व में अन्य स्थानों पर विभिन्न प्रकार के अपहरणों का रिवाज है। आस्ट्रेलिया की एक जनजाति में जब लोग किसी मेजबान के यहाँ उत्सव या दावत आदि पर जाते हैं तो लौटते समय उसके घर की स्त्रियों का भी अपहरण कर लाते हैं।
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8. हठ विवाह (Marriage by Intrusion)
हठ विवाह अपने प्रकार की एक विचित्र विवाह पद्धति है। इसमें जबरदस्ती विवाह करने के लिए लड़की या लड़के को विवश किया जाता है मध्य भरत की बिरहौर, ओरांव और हो जनजातियों में हठ विवाह प्रथा है। जब लड़की किसी लड़के से प्रेम करती है किन्तु लड़का और उसके घर वाले विवाह करने को तैयार नहीं होते तो लड़की जबरदस्ती लड़के के घर में घुस आती हैं। लड़के के घर के लोग उसे डांटते-फटकारते हैं और किसी प्रकार घर से बाहर निकालने का प्रयत्न करते हैं तथा होने वाली सास लड़की पर बहुत अत्याचार भी करती है।
किन्तु सब कुछ सहन करने पर भी जब लड़की घर से नहीं निकलती तो पास-पड़ोस के लोग इकट्ठा होकर लड़के को विवाह करने को विवश कर देते हैं। इस प्रकार हठ करके अपने इच्छित पति को प्राप्त करने में सफल हो जाती है। हो जनजाति में इस प्रकार के विवाह को 'अनादर' कहा जाता है क्योंकि इसमें लड़की का बहुत अनादर किया जाता है फिर भी वह विवाह करके छोड़ती है।
ओरांव इस विवाह को 'निर्बोलोक' कहते हैं। छत्तीसगढ़ के पुरुषों में भी हठ विवाह का रिवाज पाया जाता है। जब कोई सम्पत्ति-सम्पन्न स्त्री विधवा हो जाती है तो कोई पुरुष जो उससे विवाह करने का इच्छुक होता है, उसके घर पर जाकर रहने लगता है। विधवा उसका अपमान करती है किन्तु पुरुष सहन करता रहता है और टलता नहीं। बाद में उसे पति के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है।
अतः इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जनजातियों में जीवन-साथी चुनने की विभिन्न प्रणालियाँ मुख्य रूप से उपयोगिता व आर्थिक जीवन से सम्बन्धित हैं। आधुनिक युग में बाहरी सम्पर्क के कारण विवाह की अनेक प्रणालियाँ लुप्त होती जा रही हैं।