भारतीय अनुबन्ध अधिनियम, 1872- [INDIAN CONTRACT ACT 1872]

अनुबन्ध अधिनियम का व्यापारिक सन्नियम में विशिष्ट स्थान है क्योंकि इसका सम्बन्ध प्रत्येक व्यक्ति से है चाहे वह इंजीनियर हो या चिकित्सक, प्रशासनिक अधिकारी हो या शिक्षक, व्यापारी हो या वेतनभोगी कर्मचारी, कलाकार हो या फिर सामान्य नागरिक। वास्तव में हम सभी व्यक्ति किसी न किसी क्रम में जाने-अनजाने अपने सामान्य जीवन में प्रतिदिन विभिन्न प्रकार के अनुबन्ध करते हैं जिनसे कुछ वैधानिक दायित्व उत्पन्न होते हैं।

सम्बन्धित पक्षों को इन दायित्वों को पूरा करना आवश्यक होता है। उदाहरण के लिये जब हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वस्तुओं का क्रय-विक्रय करते है, टैक्सी या बस किराये पर लेते है, मशीन या अन्य सामान खराब हो जाने पर गरम्मत के लिए देते हैं, कपड़ो को सिलाई के लिए दर्जी को देते हैं, पड़ौसी या मित्रों को प्रयोग हेतु वस्तुएँ देते या लेते हैं तथा मकान या दुकान किराये पर देते या लेते हैं तो अनुबन्ध ही तो करते है। यदि हम कहें कि ये अनुबन्ध हमारे जीवन का अनिवार्य अंग है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रसिद्ध विधिशास्त्री टी. आर. देसाई ने ठीक ही कहा है, "अनुबन्धों का विधान प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करता है, क्योकि हमारे में से प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन अनुबन्ध ही करता रहता है।"

व्यापारी वर्ग के लिए तो अनुबन्ध अधिनियम का अत्यधिक महत्व है क्योंकि व्यापार का कार्य तो अनुबन्धों पर ही आधारित है। व्यावसायिक जगत के सफल संचालन एवं विकास हेतु यह आवश्यक है कि अनुबन्ध में दिये गये वचनों का पालन किया जाये। अनुबन्ध अधिनियम ऐसी सुरक्षा प्रदान करता है और दोषी पक्षकार को वचन का पालन करने के लिए बाध्य करता है। और इस प्रकार अनुबन्ध अधिनियम व्यापारिक सन्नियमों की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध व्यापारिक व्यवहारों से उत्पन्न होने वाले अधिकारों एवं दायित्वों को पूर्ण कराने की व्यवस्था से होता है। कार्ले तथा रॉबर्ट ने ठीक ही कहा है कि, "जिस प्रकार जनता एवं सम्पत्ति की सुरक्षा दण्ड विधान के नियमों पर निर्भर करती है उसी प्रकार व्यावसायिक जगत की सुरक्षा एवं स्थिरता अनुबन्धों के विधान पर निर्भर करती है।"

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संक्षेप में अनुबन्ध अधिनियम का उद्देश्य अनुबन्ध के पक्षकारों को अपने वचनों अथवा दायित्वों को पूरा करने हेतु बाध्य करना है जिससे व्यावसायिक क्रियाओं का सफल संचालन सम्भव हो सके। सर विलियम एन्सन के शब्दों में, "अनुबन्ध अधिनियम का" उद्देश्य यह देखना है कि मानव की आकांक्षाओं के अनुकूल कार्य हो तथा उसको दिये गये वचनों को विधिवत पूरा किया जाये।"

एक महान विद्वान ने कहा है- "भारतीय अनुबन्ध अधिनियम व्यापारिक सन्नियम की सबसे महत्वपूर्ण शाखा है। और यह सभ्य देश की आधारशिला है।"  

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical Background)

यह उल्लेखनीय है कि भारतीय अनुबन्ध अधिनियम, 1872 से पूर्व देश में ऐसा कोई सामान्य अनुबन्ध अधिनियम नहीं था जो सम्पूर्ण राष्ट्र में समान रूप से लागू होता रहा हो। 1866 में तृतीय विधि आयोग में वर्तमान अनुबन्ध अधिनियम का प्रारूप तैयार किया, जिसे अनेक परिवर्तन एवं संशोधन के पश्चात् 25 अप्रैल, 1872 को भारतीय संसद द्वारा भारतीय अनुबन्ध अधिनियम के नाम से पारित किया गया। यह अधिनियम 1 सितम्बर, 1872 से लागू हुआ। यह जम्मू व कश्मीर राज्य को छोड़कर शेष भारत में लागू होता है।

धारा 1 के ही अनुसार यह अधिनियम किसी संविधि (Statute) अधिनियम अथवा नियमन तथा व्यापारिक रीति-रिवाज सम्बन्धी नियमों को किसी प्रकार से प्रभावित नहीं कर सकता, यदि वे इस अधिनियम के विरुद्ध नहीं है तथा जब तक कि उन्हें स्पष्ट रूप से निरस्त (Repealed) न कर दिया गया हो।

इस अधिनियम में निम्नलिखित विभिन्न विषयों से सम्बंधित नियम सम्मलित किये गये थे-

क्रं. सं.

विषय

धारायें

1.

अनुबंध के सामान्य सिद्धांत

1-75

2.

वस्तु-विक्रय अधिनियम

76-123

3.

हानि-रक्षा तथा प्रतिभूति

124-147

4.

निक्षेप

148-181

5.

एजेंसी

182-238

6.

साझेदारी अधिनियम

239-266

विभिन्न अवसरों पर कई भारतीय न्यायाधीशों तथा जूरी सदस्यों ने भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की आलोचनाएँ की थीं। उनकी आलोचनाएँ मुख्यतः इस अधिनियम के वस्तु विक्रय अधिनियम (धाराएँ 76-123) तथा साझेदारी अधिनियम (धाराएँ 239-266) को प्रस्तुत अधिनियम के अन्तर्गत सम्मिलित करने के विषय में थीं। अतएव भारतीय संसद ने सन् 1930 में वस्तु-विक्रय अधिनियम धारा 76 से 123 तक तथा सन् 1932 में साझेदारी अधिनियम धारा 239 से 266 को मूल अनुबन्ध अधिनियम से पृथक् कर दिया। इस प्रकार ये दोनों ही अधिनियम वर्तमान अनुबन्ध अधिनियम के भाग नहीं है। शेष विषयों से सम्बन्धित धाराएँ पूर्ववत् ही रही हैं।

अधिनियम की रूपरेखा (SCHEME OF THE ACT)

प्रारम्भ में अनुबन्ध अधिनियम का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत था और इसमें कुल मिलाकर 1 से 266 तक धाराएँ थीं। वस्तु विक्रय एवं साझेदारी अनुबन्धों सम्बन्धी प्रावधान भी इसमें सम्मिलित थे। परन्तु बाद में वस्तु विक्रय अधिनियम (Sale of Goods Act, 1930) के पृथक् से पारित करने के पश्चात् धाराएँ 76 से 123 और इसी प्रकार भारतीय साझेदारी अधिनियम (Indian Partnership Act, 1932) के पारित होने पर धाराएँ 239 से 266 तक हटा दी गईं तथा शेष धाराएँ पूर्ववत् ही रही हैं।

वर्तमान में लागू भारतीय अनुबन्ध अधिनियम, 1872 को सुविधा की दृष्टि से निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

(अ) अनुबन्ध के सामान्य सिद्धान्त (धाराएँ 1 से 75 तक)- 

इसमें ठहराव, वैध अनुबन्ध के आवश्यक लक्षण, सांयोगिक अनुबन्ध, अनुबन्धों का निष्पादन, अनुबन्धों की समाप्ति, गर्भित अनुबन्ध, अनुबन्ध भंग के उपचार आदि सम्मिलित है।

(ब) विशिष्ट अनुबन्ध (धाराएँ 124 से 238 तक)-

(i) हानिरक्षा तथा प्रत्याभूति अनुबन्ध (124 से 147 तक)

(ii) निक्षेप एवं गिरवी के अनुबन्ध (148 से 181 तक)

(iii) एजेन्सी अनुबन्ध (182 से 238 तक)

संशोधन (Amendments) भारतीय अनुबन्ध अधिनियम 1872 में वर्ष 1886, 1891, 1899, 1930, 1932, 1951, 1988, 1992 एवं तत्पश्चात् में संसोधन किये गये जिनका उल्लेख यथा साथ किया गया है।

लोकलक्षी तथा व्यक्तिलक्षी अधिकार (Right in rem and right in personam)

व्यक्तियों को प्राप्त अधिकारों को सामान्यतः दो भागों में विभाजित किया जाता है- 

(i) लोकलक्षी अधिकार तथा 

(ii) व्यक्तिलक्षी अधिकार। 

वे अधिकार जो व्यक्ति को समस्त विश्व के विरुद्ध गर्भित या विवक्षित (implied) रूप से प्राप्त हो लोकलक्षी अधिकार कहलाते हैं। इसके विपरीत किसी विशिष्ट व्यक्ति के विरुद्ध प्राप्त होने वाले अधिकार व्यक्तिलक्षी अधिकार कहलाते हैं। यह उल्लेखनीय है कि भारतीय अनुबन्ध अधिनियम के सम्बन्ध व्यक्तिलक्षी अधिकारों से है, लोकलक्षी अधिकारों से नहीं। 

उदाहरण के लिए यदि सौरभ ने गौरव को रु. 2,000 उधार दिये तो सौरभ इस राशि को गौरव से ही वसूल करने का अधिकार रखता है, किसी अन्य से नहीं। यह सौरभ का व्यक्तिलक्षी अधिकार है। इसी प्रकार यदि सौरभ किसी मकान या जमीन का स्वामी है तो उसे अपने मकान या जमीन के विरुद्ध अधिकार प्राप्त है। वह विश्व के प्रत्येक व्यक्ति के विरुद्ध इस मकान या जमीन का शान्तिपूर्ण उपयोग करने का अधिकार रखता है। अन्य कोई भी व्यक्ति सौरभ के इस अधिकार में बाधा नहीं डाल सकता।

क्या अनुबन्ध अधिनियम अपने आप में पूर्ण है? (IS THE CONTRACT ACT COMPLETE IN ITSELF ?)

क्या हमारा अनुबन्ध अधिनियम अपने आप में पूर्ण है ? अथवा क्या हमारा अनुबन्ध अधिनियम पर्याप्त है ? इस महत्वपूर्ण प्रश्न के प्रत्युत्तर में कहा जा सकता है कि भारतीय अनुबन्ध अधिनियम, अनुबन्ध के सभी पहलुओं एवं शाखाओं की विशेष चर्चा नहीं करता। यह तो कानून के केवल कुछ हिस्सों एवं विशेष अनुबन्धों से ही सम्बन्धित है। वस्तु विक्रय, विनिमय साध्य विलेख, बीमा, साझेदारी आदि अनुबन्ध अधिनियम के अन्तर्गत नहीं आते हैं। इन अनुबन्धों के लिए तो पृथक से अधिनियम है। 

अतएव भारतीय अनुबन्ध अधिनियम अपने आप में पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में, भारतीय अनुबन्ध अधिनियम अपर्याप्त है। जिसे विषय में भी कानून के विशेष प्रावधान (Specific Law), व्यापारिक प्रथा अथवा रीति-रिवाज का उल्लेख नहीं होता है वहाँ अन्तःकरण (Conscience) के अनुसार अथवा प्रचलित कानून के मान्य नियमों के आधार पर निर्णय लिये जाते हैं। यह भी एक सर्वमान्य नियम-सा है कि जिस प्रश्न पर भारतीय अनुबन्ध अधिनियम में वर्णन नहीं होता है अथवा उस अनुबन्ध के अनुसार निश्चित तात्पर्य नहीं निकाला जा सकता, वहाँ अंग्रेजी सन्नियम लागू होता है। 

न्यायाधीश स्टाक्स के अनुसार, "भारतीय अनुबन्ध अधिनियम के प्रावधान अधूरे हैं और कभी-कभी अस्पष्ट रूप में व्यक्त किये गये हैं।" 

पोलक के अनुसार, "भारतीय अनुबन्ध अधिनियम सबसे निम्नकोटि की संहिता है।" न्यायाधीश लार्ड बाइस के अनुसार, "इस अधिनियम की बनावट अत्यन्त दोषपूर्ण है।" 

भूतपूर्व विख्यात न्यायाधीश छागला ने हानिरक्षा के अनुबन्ध (Contract of Indemnity) के सम्बन्ध में निम्न विचार प्रकट किये है- "हानिरक्षा से सम्बन्धित अनुबन्ध अधिनियम की धाराओं 124 व 125 में पूर्ण व्याख्या नहीं हैं। अतः भारतीय न्यायालय अंग्रेजी अधिनियम से सम्बन्धित प्रावधानों को लागू कर सकते हैं।"

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम, 1872 का मूल्यांकन (EVALUATION OF INDIAN CONTRACT ACT, 1872)

भारतीय अनुबन्ध, अधिनियम, 1872 भारत में 1 सितम्बर, 1872 से लागू हुआ है। इसके लागू होने के कुछ ही समय पश्चात् से इसकी कटु शब्दों में आलोचना की जाती रही है। न्यायमूर्ति डॉ. स्टॉक्स (Dr. Stocks, J.) ने लिखा है कि "भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की व्यवस्थाएँ अधूरी हैं तथा कहीं-कहीं अस्पष्ट भी हैं।" इसकी कटु आलोचना करते हुए सर पोलक ने तो यहाँ तक लिख दिया है कि, "यह सबसे निम्नतम कोटि की संहिता है।" सन् 1925 में गठित सिविल जस्टिस कमेटी ने इस अधिनियम पर अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा था कि, "भारतीय अनुबन्ध अधिनियम कुछ दृष्टिकोणों से दूरदर्शी है, किन्तु हम इसकी गणना सर्वोत्तम संहिताओं में नहीं कर सकते तथा इसमें संशोधनों की आवश्यकता है।''

इस अधिनियम में संशोधन की आवश्यकता की जाती ही है। तदनुसार इसमें क्रमशः 1891, 1899, 1930, 1932, 1988, 1992 एवं इसके पश्चात् संशोधन किये गये हैं जिनका उल्लेख यथा-स्थान पर किया गया है।

आधारभूत शब्दावली (FUNDAMENTAL TERMINOLOGY)
[धारा 2 (a) से धारा 2 (j) तक]

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 2 के अन्तर्गत कुछ आधारभूत शब्दों की व्याख्या की गई है। अतएव भारतीय अनुबन्ध अधिनियम को भलीभांति समझने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि इन आधारभूत शब्दों के विशेष अर्थ को समझ लिया जाय क्योंकि ये शब्द प्रस्तुत अधिनियम में बार-बार प्रयुक्त होते हैं। प्रस्तुत अधिनियम की धारा 2 में इन आधारभूत शब्दों की परिभाषाएँ निम्न प्रकार से दी गई है-

(1) प्रस्ताव (Proposal) 

जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से किसी कार्य को करने अथवा उससे विरत रहने के सम्बन्ध में अपनी इच्छा इस उद्देश्य से प्रकट करे कि उस व्यक्ति की सहमति (Assent) उस कार्य को करने अथवा उससे विरत रहने के सम्बन्ध में प्राप्त हो, तो कहेंगे कि पहले व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति के सम्मुख प्रस्ताव रखा। [धारा 2(a)]

(2) वचन (Promise) 

जब वह व्यक्ति जिसके सम्मुख प्रस्ताव रखा गया है उस पर अपनी सहमति (Assent) प्रकट कर दे, तो कहेंगे कि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया है। इस प्रकार से स्वीकार किया गया प्रस्ताव 'बच्चन' बन जाता है। [धारा 2(b)]

उदाहरण- जगदीश, गोविन्द के सम्मुख अपनी साइकिल रु. 500 में बेचने का प्रस्ताव रखता है। गोविन्द उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है अर्थात् वह साइकिल रु. 500 में खरीदने को तैयार हो जाता है। ऐसी स्थिति में कहा जायेगा कि जगदीश ने गोविन्द के सम्मुख साइकिल बेचने का प्रस्ताव रखा। गोविन्द द्वारा स्वीकार किया गया प्रस्ताव वचन कहलायेंगा।

(3) वचनदाता तथा वचनगृहीता (Promisor and Promisee) 

वह व्यक्ति जो प्रस्ताव रखता है प्रस्तावक या वचनदाता कहलाता है और प्रस्ताव को स्वीकार करने वाला दूसरा व्यक्ति वचनगृहीता कहलाता है। [धारा 2(c)] 

(4) प्रतिफल (Consideration) 

'जब वचनदाता की इच्छा पर, वचनगृहीता अथवा किसी अन्य व्यक्ति ने (अ) कोई कार्य किया है या उसके करने से विरत रहा है, अथवा (ब) कोई कार्य करता है या उसके करने से विरत रहता है, अथवा (स) कोई कार्य करने या विरत रहने का वचन देता है, तो ऐसा कार्य या विरति (Abstinence) या वचन (Promise) उस वचन के लिए प्रतिफल कहलाता है। [धारा 2(d)]

उदाहरण- 'अ', 'ब' की पुरानी साइकिल रु. 400 खरीदने के लिए तैयार हो जाता है। यहाँ पर 'अ' के लिए साइकिल प्रतिफल है और 'ब' के लिए रु. 400 प्रतिफल है।

(5) ठहराव (Agreement) 

प्रत्येक वचन और वचनों का प्रत्येक समूह जो एक दूसरे का प्रतिफल हो, ठहराव कहलाता है। [धारा 2(e)]

(6) पारस्परिक वचन (Reciprocal Promises) 

ऐसे वचन जो एक-दूसरे के लिए प्रतिफल अथवा आंशिक प्रतिफल (part of the consideration) हों पारस्परिक वचन कहलाते हैं। [धारा 2(f)]

(7) व्यर्च या शून्य ठहराव (Void Agreement) 

वह ठहराव जिसको शासकीय नियम के अनुसार कार्यान्वित (प्रवर्तनीय) नहीं कराया जा सकता है, व्यर्थ ठहराव कहलाता है। [धारा 2(g)]

(8) अनुबन्ध अथवा संविदा (Contract) 

प्रत्येक ऐसा ठहराव जो कि वैधानिक रूप से कार्यान्वित (प्रवर्तनीय) होता है, अनुबन्ध कहलाता है। [धारा 2(h)]

(9) व्यर्थनीय अनुबन्ध (Voidable Contract) 

ऐसा कोई भी ठहराव जो कि केवल एक अणवा एक से अधिक पक्षकारों की इच्छा पर ही प्रवर्तनीय (Enforceable) होता है, परन्तु दूसरे पक्षकारों की इच्छा पर प्रवर्तनीय नहीं होता है, व्यर्थनीय अनुबन्ध कहलाता है। [धारा 2(i)]

उदाहरण- अ ब से एक स्वस्थ घोड़ा खरीदता है। ब एक अस्वस्थ घोड़ा अ को बेचता है और कहता है कि घोड़ा पूर्णतः स्वस्थ है। यहाँ पर यह माना जायेगा कि ब ने अ के साथ कपट किया है। यह अनुबन्ध पीड़ित पक्षकार अ की इच्छा पर व्यर्थनीय है।

(10) व्यर्थ अथवा शून्य अनुबन्ध (Void Contract)

एक अनुबन्ध जब वह वैधानिक रूप ने प्रवर्तनीय नहीं हो पाता उस समय व्यर्थ हो जाता है जब वह इस प्रकार प्रवर्तनीय नहीं हो पाता। इसे व्यर्थ अथवा शून्य अनुबन्ध कहते हैं। [धारा 2(j)]

अधिनियम की उपर्युक्त परिभाषा स्पष्ट नहीं है। अतएव विद्यार्थियों की सुविधा हेतु उसकी एक स्पष्ट परिभाषा निम्न शब्दों में प्रस्तुत की जा सकती है- 

अनुबन्ध जो साधारणतया वैधानिक रूप से लागू किया जा सकता है, किन्तु किसी विशेष घटना घटने पर लागू नहीं किया जा सकता है, 'व्यर्थ अनुबन्ध' कहलाता है। उदाहरण- रमेश, कमल के साथ अपनी लड़की रानी की शादी करने का वचन देता है, परन्तु शादी से पहले ही रानी की मृत्यु हो जाती है। यहाँ पर यह अनुबन्ध व्यर्थ माना जायेगा।

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