भारत में शैक्षिक प्रशासन का विकास
भारत में शैक्षिक प्रशासन के विकास का इतिहास पुराना नहीं है। भारत में शैक्षिक विचारों की शुरूआत धार्मिक दृष्टिकोण के साथ हुई मानी जाती है। देश के प्रशासकों ने शिक्षा में रुचि कम प्रदर्शित की है। सर्वप्रथम 'ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 1813 के चार्टर ऐक्ट के पश्चात् शिक्षा प्रसार एवं प्रशासन का दायित्व स्वीकार किया था। तत्कालीन प्रशासन का लक्ष्य केवल यह देखना था कि देश में सम्पूर्ण शिक्षा के लिए केवल एक लाख रुपये खर्च हों। 1813 के पश्चात् जब शिक्षा केन्द्रीय विषय के रूप में उभरकर सरकार के समक्ष आयी तब सरकार ने इसमें रुचि लेनी प्रारम्भ की थी। 1854 के वुड के घोषणा-पत्र के पश्चात् ही भारतीय शिक्षा प्रशासन के स्वरूप में परिवर्तन देखने को मिलता है।
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अत: स्पष्ट है कि 1813 से 1921 तक शिक्षा प्रशासन केन्द्रीय विषय के रूप में रही है तथा 1921 के पश्चात् यह राज्य का एक विषय के रूप में जानी जाती है। इसके साथ ही कुछ महत्वपूर्ण अधिकार; जैसे-राज्यों के सलाह देने का काम, समग्र देश की शिक्षा नीति, शिक्षा नियोजन, देश की शिक्षा सम्बन्धी आँकड़ों का प्रकाशन, विशिष्ट शिक्षा व्यवस्था, शिक्षा के लिए वित्तीय अनुदान, राष्ट्रीय स्तर को संस्थाओं का संचालन आदि केन्द्र या केन्द्र सरकार के पास ही रहे हैं, परन्तु फिर भी सम्पूर्ण रूप में शिक्षा संविधान में राज्य सूची में होने के कारण राज्य का ही विषय रही है। अक्टूबर, 1976 में शिक्षा की समवर्ती सूचो में ले लिया गया जिसके पश्चात् यह आशा की जाने लगी कि केन्द्रीय प्रशासन इस ओर सक्रिय एवं महत्वपूर्ण रूप में भूमिका निर्वाह कर सकेगा।
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अब स्वतन्त्र भारत में (स्वतन्त्रता के पश्चात्) प्रशासनिक दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिलता है। स्वतन्त्रता के पहले जहाँ निरंकुशवादी प्रशासन के प्रमाण मिलते हैं वहीं स्वतन्त्रता के पश्चात् प्रजातन्त्रिक (जनतन्त्रीय) प्रशासन देखने को मिलता है। वर्तमान में शैक्षिक प्रशासन देश की राजनैतिक विचारधारा से काफी प्रभावित है। कोठारी आयोग (1964-66) की यह सिफारिश थी कि देश के प्रत्येक जिले में एक शिक्षा अधिकारी, शिक्षा की गुणात्मक अभिवृद्धि के लिए ही कार्य करे और उसका मुख्य कार्य पर्यवेक्षण द्वारा विद्यार्थियों में कार्यरत शिक्षकों के शैक्षिक स्तर के सुधार का हो।
1970 के पश्चात् भारत में अध्यापक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों; जैसे-बी.एड. व एम.एड. में काफी परिवर्तन हुआ है। शिक्षक प्रशिक्षण कोर्स में जहाँ पहले केवल एक प्रश्न-पत्र 'शाला व्यवस्था के सिद्धान्त' होता था तथा स्नातकोत्तर स्तर (एम.एड. स्तर) पर शिक्षा प्रशासन एवं शाला-प्रशासन को पढ़ाने की कोई व्यवस्था नहीं थी वहीं वर्तमान में बी. एड. (स्नातक) स्तर पर अनिवार्य एव वैकल्पिक विषय के रूप में शिक्षा प्रशासन एवं प्रबन्ध प्रश्न-पत्र पढ़ाया जाता है तथा एम.एड. (स्नातकोत्तर) स्तर पर प्रायः देश के सभी विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्रशासन एवं प्रबन्ध में विशेषीकरण की सुविधा उपलब्ध है।
शिक्षा प्रशासन को राष्ट्रीय स्तर पर और अधिक वैज्ञानिक बनाने के उद्देश्य से 'नेशनल यूनीवर्सिटी ऑफ एजूकेशन प्लानिंग एवं एडमिनिस्ट्रेशन' दिल्ली में एक विश्वविद्यालय (जो कि पहले संस्था था) कार्यरत है। इस विश्वविद्यालय में शिक्षा प्रशासन को नवीन दिशा एवं निर्देशन प्रदान करने के उद्देश्य से अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
अत: कहा जा सकता है कि वर्तमान में शैक्षिक प्रशासन का विकास आज प्रगति के पथ पर है और अनेक सरकारी एवं निजी संस्थाएँ शिक्षा के विकास में लगी हुई हैं।