आचार्य नरेन्द्र देव समिति के उद्देश्य एवं कार्यक्षेत्र
प्रायः हम सभी जानते हैं कि इस समिति के गठन का मुख्य उद्देश्य उत्तर प्रदेश में माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में प्रथम आचार्य नरेन्द्र देव समिति 1939 के अनुपालन के प्रभाव का अध्ययन करना था और साथ ही उसमें सुधार के लिए सुझाव प्राप्त करना था। और जहाँ तक इसके कार्य क्षेत्र की बात है वह माध्यमिक शिक्षा तक ही सीमित था।
अतः समिति के उद्देश्य एवं कार्यक्षेत्र का वर्णन निम्नलिखित रूप से हैं-
(1) उत्तर प्रदेश को तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा प्रणाली के प्रशासन एवं संगठन का अध्ययन करना और सुधार के लिए सुझाव देना।
(2) माध्यमिक शिक्षा परिषद, इलाहाबाद (उ० प्र०) द्वारा चलाए जा रहे अ, ब, स, द वर्गों की सफलता की जाँच करना और सुधार के लिए सुझाव देना।
(3) छात्रों को अपनी रुचि, योग्यता और आवश्यकतानुसार विषयों के चयन की सुविधा के अवसरों की जाँच करना और सुधार के लिए सुझाव देना।
(4) माध्यमिक शिक्षा के व्यावसायिक वर्ग की शिक्षा प्राप्त करने के बाद रोजगार प्राप्त करने के अवसरों की जाँच करना और सुधार के लिए सुझाव देना।
(5) माध्यमिक स्तर को पाठ्यपुस्तकों की जाँच करना और सुधार के लिए सुझाव देना।
(6) गैरसरकारी माध्यमिक स्कूलों के प्रबन्ध तन्त्र को जाँच करना और सुधार के लिए सुझाव देना।
(7) विद्यालयों की स्थिति की जाँच करना और सुधार के लिए सुझाव देना।
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन शिक्षा मन्त्री डॉ० सम्पूर्णानन्द ने समिति के अपने उद्घाटन भाषण में उसके कार्यक्षेत्र में निम्नलिखित कार्य और जोड़ दिए थे-
(8) मनोविज्ञानाशाला, इलाहाबाद (Bureau of Psychology, Allahabad) और उसकी पाँचों क्षेत्रीय शाखाओं के कार्यों की जाँच करना और सुधार के लिए सुझाव देना।
(9) गृह विज्ञान कॉलिज, इलाहाबाद के नारी शिक्षा के क्षेत्र में योगदान की जाँच करना और सुधार के लिए सुझाव देना।
(10) छात्रों के नैतिक विकास में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव देना।
(11) सामान्य एवं तकनीकी शिक्षा में समन्वय की सम्भावना स्पष्ट करना।
और पढ़ें- वर्धा शिक्षा योजना क्या है, खैर समिति और आचार्य नरेन्द्र देव समिति प्रथम- Full Information
प्रतिवेदन
समिति ने भिन्न-भिन्न कार्यों के सम्पादन के लिए 8 उपसमितियों का गठन किया। इन उपसमितियों ने प्रदेश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के कुछ माध्यमिक स्कूलों का निरीक्षण किया, उनके प्रधानाचार्यों की समस्याओं को सुना और उनसे सुधार के लिए सुझाव प्राप्त किए। इसके साथ-साथ कुछ शिक्षाविदों से भी सुझाव प्राप्त किए। अन्य प्रान्तों को माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में उनके शिक्षा विभागों से जानकारी प्राप्त की। इसके बाद एक साथ बैठकर विचार-विमर्श किया और अपने निर्णयों को प्रतिवेदन के रूप में 7 मई, 1953 को प्रान्तीय सरकार को प्रस्तुत कर दिया।
और पढ़ें- शिमला सम्मेलन, 1901, भारतीय विश्वविद्यालय आयोग, 1902 और कर्जन शिक्षा नीति, 1904
आचार्य नरेन्द्र देव समिति द्वितीय की मुख्य सिफारिशें
समिति ने सर्वप्रथम उत्तर प्रदेश की तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा के दोषों को उजागर किया और उसके बाद उसमें सुधार के लिए सुझाव प्रस्तुत किए।
अतः यहाँ उस सबका क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत है-
तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा के दोष
(1) पूर्व प्रस्तावित योजना पूरी तरह से लागू नहीं की जा सकी है।
(2) छात्रों को विषयों के चयन के पूरे पूरे अवसर सुलभ नहीं हैं।
(3) सामान्य ज्ञान को अनिवार्य करने से कोई लाभ नहीं हुआ है।
(4) छात्रों की संख्या बढ़ जाने से छात्र अनुशासन-हीनता बढ़ी है।
(5) माध्यमिक शिक्षकों की स्थिति ठीक नहीं है।
(6) माध्यमिक विद्यालयों की स्थिति ठीक नहीं है।
(7) शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन और परामर्श की व्यवस्था नहीं की जा सकी है।
(8) विद्यालयों की प्रबन्ध समितियों की कार्य प्रणाली ठीक नहीं है।
(9) माध्यमिक परीक्षा में श्रेणी निश्चित करने में प्रारम्भिक हिन्दी के प्राप्तांक नहीं जोड़े जाते हैं।
और पढ़ें- भारतीय शिक्षा आयोग (हण्टर कमीशन), 1882 | [Indian Education Commission, 1882]
माध्यमिक शिक्षा के प्रशासन एवं वित्त सम्बन्धी सुझाव
(1) सभी विद्यालयों को, चाहे वे किसी भी प्रकार की शिक्षा देते हों, शिक्षा विभाग के अन्तर्गत होना चाहिए। व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा संस्थाओं को भी उद्योग विभाग के स्थान पर शिक्षा विभाग के अन्तर्गत लाया जाए।
(2) नए विद्यालयों को मान्यता तभी दी जाए जब वे निर्धारित शर्तें पूरी करें।
(3) मान्यता प्राप्त विद्यालयों को किसी नए विषय अथवा वर्ग के लिए मान्यता तभी दी जाए जब उनके पास उस विषय अथवा वर्ग के लिए पर्याप्त भवन, साज-सज्जा और शिक्षक उपलब्ध हों।
(4) कृषि वर्ग को खोलने की मान्यता उन्हीं विद्यालयों की दी जाए जिनके पास 10 एकड़ कृषि योग्य भूमि हो।
(5) किसी नए तकनीकी विद्यालय को मान्यता देने से पहले यह देखा जाए कि उसके पास पर्याप्त साधन हों और साथ ही यह भी देखा जाए कि क्या उस क्षेत्र के उद्योगों में उसकी माँग है।
(6) प्रत्येक गैरसरकारी विद्यालय के लिए अलग प्रबन्ध समिति होनी चाहिए।
(7) विद्यालयों की प्रबन्ध समितियों में विद्यालय के प्रधानाचार्य पदेन सदस्य हों और उनमें शिक्षकों का प्रतिनिधित्व हो ।
(8) प्रबन्धकारिणी समिति के अधिकारियों का कार्यकाल 3 वर्ष हो।
(9) प्रबन्ध समितियों को आय-व्यय का पूरा ब्यौरा रखना होगा।
(10) जिन सहायता प्राप्त विद्यालयों का प्रबन्ध सराहनीय हो, उन्हें प्रोत्साहन दिया जाए।
(11) जिन सहायता प्राप्त विद्यालयों का प्रबन्ध ठीक न हो उनकी प्रबन्ध समितियों को भंग कर दिया जाए और उनके स्थान पर प्रशासनिक अधिकारी (Administrator) की नियुक्ति की जाए और जब कोई प्रबन्ध समिति उचित प्रबन्ध का आश्वासन दे, तो सन्तुष्ट होने पर उसे बहाल कर दिया जाए।
माध्यमिक शिक्षा के संगठन सम्बन्धी सुझाव
(1) आचार्य नरेन्द्र देव समिति प्रथम ने हाई स्कूल को चार वर्गों में विभाजित किया था- साहित्यिक, वैज्ञानिक, व्यावसायिक और रचनात्मक। इस समिति ने उसे 5 वर्गों में विभाजित करने का सुझाव दिया- साहित्यिक, वैज्ञानिक, कृषि, पूर्व तकनीकी और कलात्मक ।
(2) आचार्य नरेन्द्रदेव समिति प्रथम ने इण्टर को 5 वर्गों में विभाजित किया था- साहित्यिक, वैज्ञानिक, कलात्मक, कृषि और वाणिज्य। इस समिति ने उसे यथावत् रखने का सुझाव दिया है।
माध्यमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या सम्बन्धी सुझाव
इस समिति ने हाई स्कूल स्तर पर चार वर्गों के स्थान पर पाँच वर्ग कर दिए और प्रत्येक वर्ग में 3 विषय अनिवार्य और 3 विषय ऐच्छिक रखे और इस प्रकार 6 विषयों के अध्ययन का सुझाव दिया।
अनिवार्य विषय- सभी पाँचों वर्गों के लिए 3 विषय अनिवार्य किए - (i) संस्कृत के साथ हिन्दी, (ii) एक आधुनिक भारतीय भाषा (हिन्दी के अतिरिक्त) अथवा एक यूरोपीय भाषा (अंग्रेजी, फ्रेंच या जर्मन), (iii) गणित अथवा गृह विज्ञान (केवल लड़कियों के लिए)।
ऐच्छिक विषय- ऐच्छिक विषयों की सूची प्रत्येक वर्ग के लिए अलग-अलग बनाई गई। कुछ विषयों को एक से अधिक वर्गों में रखा गया।
जो इस प्रकार है-
1. साहित्यिक वर्ग- (i) इतिहास, (ii) भूगोल, (iii) नागरिक शास्त्र, (iv) संस्कृत या फारसी या अरबी या पारशियन या लैटिन एवं (v) कला या संगीत।
2. वैज्ञानिक वर्ग- विज्ञान अनिवार्य रूप से, शेष दो विषय साहित्यिक वर्ग के उपरोक्त पाँच ऐच्छिक विषयों में से।
3. कृषि वर्ग- कृषि अनिवार्य रूप से और यह दो विषयों के बराबर होगा, शेष तीसरा विषय साहित्यिक वर्ग के उपरोक्त पाँच ऐच्छिक विषयों में से।
4. पूर्व तकनीकी या रचनात्मक वर्ग- निम्नलिखित में से कोई एक विषय जो दो विषयों के बराबर होगा-
(i) वाणिज्य एवं व्यापारिक भूगोल (ii) काष्ठकला (iii) जिल्दसाजी (iv) काष्ठकला (v) सिलाई (vi) धातुकला (vii) वस्त्र निर्माण (viii) चमड़े का काम (ix) कपड़े की धुलाई, प्रेस, रफू ।
शेष तीसरा विषय साहित्यिक वर्ग के उपरोक्त पाँच ऐच्छिक विषयों में से।
5. कलात्मक वर्ग- निम्नलिखित में से कोई दो विषय लेने होंगे- (i) कला, (ii) संगीत, (iii) पेंटिंग, (iv) स्कल्पचर, (v) वाणिज्य कला, एवं (vi) नृत्य शेष तीसरा विषय साहित्यिक वर्ग के उपरोक्त पाँच ऐच्छिक विषयों में से।
समिति ने इण्टरमीडिएट स्तर पर पाँच वर्ग ही रखे और प्रत्येक वर्ग में 2 विषय अनिवार्य और 3 विषय ऐच्छिक रखे और इस प्रकार कुल 5 विषयों के अध्ययन का सुझाव दिया।
अनिवार्य विषय- सभी पाँचों वर्गों के लिए दो विषय अनिवार्य किए- (i) संस्कृत के साथ हिन्दी और (ii) हिन्दी के अतिरिक्त अन्य कोई संघीय भाषा अथवा अंग्रेजी अथवा फ्रेंच अथवा जर्मन अथवा रूसी भाषा।
ऐच्छिक विषय- प्रत्येक वर्ग के लिए अलग-अलग ऐच्छिक विषय निश्चित किए गए। कुछ विषयों को एक से अधिक वर्गों में रखा गया।
1 . साहित्यिक वर्ग- निम्नांकित विषयों में से कोई तीन विषय- (i) इतिहास (ii) भूगोल या व्यापारिक भूगोल (iii) नागरिकशास्त्र (iv) गणित (v) अर्थशास्त्र (vi) संस्कृत, पाली, परशियन या लैटिन (vii) मनोविज्ञान (viii) तर्कशास्त्र (ix) सैन्य विज्ञान (x) गृह विज्ञान (केवल लड़कियों के लिए)।
2. वैज्ञानिक वर्ग- निम्नांकित विषयों में से कोई तीन विषय- (i) भौतिकशास्त्र, (ii) रसायनशास्त्र, (iii) जीवविज्ञान, (iv) सैन्यविज्ञान, (v) गणित, (vi) भौतिकी (जियोलॉजी), (vii) कला, (viii) संगीत, (ix) भूगोल, (x) अर्थशास्त्र, (xi) गृहविज्ञान (केवल लड़कियों के लिए)।
3. कलात्मक वर्ग- निम्नांकित विषयों में से कोई एक विषय- (i) संगीत (ii) ड्राईंग (iii) स्कल्पचर (iv) पेटिंग (v) नृत्य । और शेष दो विषय साहित्यिक वर्ग के उपरोक्त 10 विषयों में से।
4. कृषि वर्ग- इस वर्ग के लिए पूर्व पाठ्यक्रम को स्वीकार किया गया।
5. वाणिज्य वर्ग- इस वर्ग के लिए भी पूर्व पाठ्यक्रम को स्वीकार किया गया।
पाठ्य पुस्तकों सम्बन्धी सुझाव
(1) प्रत्येक विषय का विस्तृत पाठ्यक्रम तैयार किया जाए और उसके अनुसार पाठ्य पुस्तकें तैयार कराई जाएँ।
(2) विभिन्न विषयों की अच्छी पाठ्यपुस्तकों को प्रकाशित करने के लिए इंग्लैण्ड और अमेरिका की भाँति विशेष सोसाइटियाँ बनाई जाएँ।
(3) अच्छी पाठ्य पुस्तकें लिखने के लिए विद्वानों को प्रोत्साहित किया जाए, उन्हें आर्थिक सहायता दी जाए।
(4) पाठ्यपुस्तकों के प्रकाशन के लिए प्रकाशकों को ही अवसर दिए जाएँ।
(5) सरकार अच्छी पाठ्यपुस्तकों को बाजार में उपलब्ध कराए।
(6) पाठ्यपुस्तकों के चयन का अधिकार प्रधानाचार्यों को हो।
(7) एक वर्ष जो पाठ्यपुस्तक चुनी जाए वह कम से कम तीन वर्ष चलाई जाए।
और पढ़ें- माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर कमीशन) 1952-53 | Madhyamik Shiksha Aayog 1952-53
छात्र अनुशासन सम्बन्धी सुझाव
(1) विद्यालय के एक अध्यापक की देख-रेख में 20 से 30 छात्र रखे जाएँ, अध्यापक इनके आचरण पर ध्यान दें, उनके व्यवहार का लेखा-जोखा रखें।
(2) विद्यालयी छात्रों की एक समिति बनाई जाए जो विद्यालयी अनुशासन में प्रधानाचार्य का सहयोग करे।
(3) प्रत्येक विद्यालय में एक पूर्णकालीन फिजिकल ट्रेनिंग इन्सट्रक्टर (Physical Training Instructor) की नियुक्ति की जाए।
(4) प्रत्येक छात्र से वर्ष में 40 घण्टे श्रम कार्य कराया जाए।
(5) 17 वर्ष से कम उम्र के छात्रों को सिनेमा देखना निषेध हो।
(6) छात्रों के स्वास्थ्य, शैक्षिक कार्य, सहपाठ्यचारी कार्य, श्रम कार्य और व्यवहार का पूरा-पूरा लेखा-जोखा रखा जाए।
(7) उपरोक्त सभी कार्यों में अभिभावकों का सहयोग लिया जाए।
(8) प्रधानाचार्यों को अनुशासन भंग करने वाले छात्रों को दण्ड देने का अधिकार हो, उनके निर्णय के विरुद्ध कोई अपील न की जा सके।
(9) जिन विद्यालयों में अच्छा अनुशासन हो उन्हें सरकार की ओर से प्रोत्साहन दिया जाए।
शिक्षकों के सम्बन्ध में सुझाव
(1) विद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति हेतु प्रत्येक विद्यालय में एक 5 सदस्यी समिति का गठन हो। इसमें प्रबन्ध समिति के 3 सदस्य हों, चौथा सदस्य प्रधानाचार्य हो और पाँचवां सदस्य शिक्षक प्रतिनिधि हो।
(2) शिक्षकों की नियुक्ति एक वर्ष के परीक्षण काल (Probation Period) पर की जाए। उनसे प्रारम्भ में ही एग्रीमेण्ट फार्म भरवाया जाए।
(3) शिक्षकों की सेवा शर्तों के सम्बन्ध में एजूकेशन कोड में नियम बनाए जाएँ।
(4) शिक्षक एवं प्रबन्ध समिति के बीच के झगड़ों का निपटारा निर्णायक बोर्ड (Arbitary Board) करे और उसका निर्णय अन्तिम माना जाए। इस बोर्ड के निर्णय का दो माह के अन्दर अनुपालन होना आवश्यक हो।
विद्यालयों में सुधार सम्बन्धी सुझाव
(1) जो विद्यालय दो पारियों में चल रहे हैं उन्हें एक पारी में चलाया जाए।
(2) विद्यालयों का सत्र 8 जुलाई से शुरु हो । 8 जुलाई का अवकाश होने की स्थिति में 9 जुलाई से शुरु हो ।
(3) विद्यालयों में एक सत्र में 200 से 235 कार्य दिवस हों।
(4) विद्यालयों में प्रतिदिन 4-5 घण्टे कार्य हो।
(5) विद्यालयों में सभी राष्ट्रीय अवकाश हों।
(6) स्थानीय छुट्टियाँ करने का अधिकार प्रधानाचार्य को हो।
(7) ग्रीष्म अवकाश (मैदानी क्षेत्रों में) और शीत अवकाश (पहाड़ी क्षेत्रों में) 6-7 सप्ताह का हो।
माध्यमिक परीक्षा में सुधार सम्बन्धी सुझाव
(1) कक्षा 6, 7, 8, 9 और 11 की परीक्षा आन्तरिक हो, इस परीक्षा में कक्षोन्नति के निश्चित नियम हों, वर्ष में तीन परीक्षाएँ हों और उनके आधार पर कक्षोन्नति दी जाए। यदि कोई छात्र किसी विशेष कारण से इनमें से किसी एक परीक्षा में न बैठ पाए तो प्रधानाचार्य के सन्तुष्ट होने पर उसे दो परीक्षाओं के आधार पर ही कक्षोन्नति दी जाए।
(2) हाई स्कूल के संस्थागत छात्रों की परीक्षा आन्तरिक हो परन्तु जो छात्र बोर्ड की परीक्षा में बैठना चाहें उन्हें उसमें बैठने की इजाजत दी जाए।
(3) हाई स्कूल के व्यक्तिगत छात्रों की परीक्षा बोर्ड द्वारा ही ली जाए। हाई स्कूल की व्यक्तिगत परीक्षा में बैठने की इजाजत उन्हीं छात्रों को दी जाए जो मान्यता प्राप्त जूनियर हाई स्कूलों से जूनियर हाई स्कूल परीक्षा उत्तीर्ण हों या मान्यता प्राप्त हाई स्कूल से कक्षा 8 उत्तीर्ण करने के दो वर्ष बाद या कक्षा 9 उत्तीर्ण करने के एक वर्ष बाद इस परीक्षा में बैठ रहे हों।
(4) इण्टरमीडिएट के छात्रों की अन्तिम परीक्षा बोर्ड द्वारा ही ली जाए।
(5) हाई स्कूल और इण्टरमीडिएट की परीक्षाओं में संस्थागत छात्रों के रूप में बैठने के लिए स्कूलों में कम से कम 75% उपस्थिति अनिवार्य हो।
(6) हाई स्कूल की परीक्षा में बैठने के लिए न्यूनतम आयु 14 वर्ष और इण्टरमीडिएट की परीक्षा में बैठने के लिए 16 वर्ष हो ।
(7) निबन्धात्मक परीक्षाओं के साथ-साथ वस्तुनिष्ठ परीक्षाएँ भी शुरु की जाएँ।
(8) मूल्यांकन कार्य में सुधार किया जाए। आन्तरिक परीक्षाओं में छात्रों को उनकी मूल्यांकित उत्तर पुस्तकें दिखाई जाएँ।
(9) परीक्षाफल में श्रेणी देने के स्थान पर ग्रेड देने के सम्बन्ध में शोध कार्य हो और यदि इसे उपयुक्त पाया जाए तो लागू किया जाए।
शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन एवं परामर्श सम्बन्धी सुझाव
(1) मनोविज्ञानशाला, इलाहाबाद को समुन्नत किया जाए।
(2) क्षेत्रीय मनोवैज्ञानिक केन्द्र खोले जाएँ जिनमें प्रशिक्षित निर्देशक कार्य करें।
(3) विश्वविद्यालयों के शिक्षक प्रशिक्षण विभागों और मनोविज्ञान विभागों से इस कार्य में सहयोग लिया जाए।
(4) विद्यालयों के योग्य एवं इच्छुक अध्यापकों को मार्गदर्शन का प्रशिक्षण दिया जाए। ये अध्यापक क्षेत्रीय मनोविज्ञानशालाओं के सहयोग से अपने-अपने विद्यालयों में मार्गदर्शन का कार्य करें।
(5) मार्गदर्शकों के प्रशिक्षण के लिए एक वर्षीय प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए।
औद्योगिक एवं तकनीकी शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
(1) औद्योगिक एवं तकनीकी शिक्षा निःशुल्क हो। साथ ही छात्रों को उत्पादन कार्य के लिए पारिश्रमिक दिया जाए।
(2) वर्तमान औद्योगिक एवं तकनीकी विद्यालयों की दशा में सुधार किया जाए, उन्हें साधन सम्पन्न किया जाए।
(3) कुछ वर्तमान जूनियर तकनीकी विद्यालयों को पॉलिटेक्निक विद्यालयों में बदला जाए। प्रत्येक जिले में कम से कम एक पॉलिटेक्निक विद्यालय होना चाहिए।
(4) जहाँ आवश्यक हो वहाँ नए तकनीकी विद्यालय खोले जाएँ।
(5) जहाँ महिलाओं के लिए अलग तकनीकी विद्यालय न हों वहाँ महिला छात्राओं के लिए अलग छात्रावास बनाए जाएँ।
(6) तकनीकी विद्यालयों के पाठ्यक्रमों का नवीनीकरण हो। जूनियर टेक्निकल स्तर पर हिन्दी, भौतिक शास्त्र और रसायनशास्त्र अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाएँ।
(7) तकनीकी शिक्षा को उत्तीर्ण करने वाले छात्रों को फैक्ट्रियों में व्यावहारिक प्रशिक्षण की सुविधा उपलब्ध हो।
(8) तकनीकी स्कूलों के अध्यापकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए।
स्त्री शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
(1) समिति ने महिला शिक्षा के बारे में लिखा कि कुछ आवश्यकताएँ तो स्त्री-पुरुषों की समान होती हैं अतः उनकी शिक्षा दोनों को समान रूप से दी जाए और कुछ आवश्यकताएँ भिन्न होती हैं अतः उनकी शिक्षा की व्यवस्था अलग-अलग की जाए। समिति की सम्मति में माध्यमिक स्तर पर छात्राओं के लिए उनकी आवश्यतानुसार गृह विज्ञान आदि विषयों की अतिरिक्त व्यवस्था की जानी चाहिए।
(2) वर्तमान महिला विद्यालयों की स्थिति में सुधार किया जाए।
(3) नए महिला विद्यालय खोले जाएँ।
धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
(1) विद्यालयी शिक्षा में धार्मिक और नैतिक शिक्षा को महत्व दिया जाए।
(2) प्रत्येक विद्यालय का कार्य प्रार्थना से शुरु हो।
(3) विद्यालयों में समय-समय पर धार्मिक एवं नैतिक विषयों पर प्रवचन हों।
(4) विद्यालयों में विभिन्न मुख्य धर्मों के मुख्य गुरुओं की जीवनियाँ पढ़ाई जाएँ।
(5) विद्यालयों में सभी धर्मों को अच्छी मानी जाने वाली शिक्षाएँ दी जाएँ।
आचार्य नरेन्द्र देव समिति द्वितीय के सुझावों का मूल्यांकन एवं गुण-दोष
किसी भी वस्तु, क्रिया अथवा विचार का मूल्यांकन कुछ निश्चित मानदण्डों के आधार पर किया जाता है। शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है, अतः इससे सम्बन्धित किसी भी क्रिया अथवा विचार का मूल्यांकन समाज विशेष के लिए उसको उपादेयता के आधार पर किया जाना चाहिए। इस समिति का गठन केवल उत्तर प्रदेश की माध्यमिक शिक्षा के सन्दर्भ में किया गया था इसलिए इसकी सिफारिशों का मूल्यांकन उत्तर प्रदेश के लिए इसकी उपादेयता के आधार पर ही करेंगे।
आचार्य नरेन्द्र देव समिति द्वितीय के गुण
1. सभी शिक्षा संस्थाएँ शिक्षा विभाग के अधीन
समिति ने सामान्य, व्यावसायिक एवं तकनीकी, सभी प्रकार की शिक्षा संस्थाओं को शिक्षा विभाग के अधीन करने की सिफारिश की। विभिन्न प्रकार की शिक्षा में सन्तुलन बनाने के लिए यह आवश्यक होता है।
2. गैरसरकारी विद्यालयों को मान्यता देने में सावधानी
समिति ने सामान्य, कृषि और व्यावसायिक एवं तकनीकी स्कूलों को मान्यता देने में नियमों का कठोरता से पालन करने का सुझाव दिया। शिक्षा के स्तर के उन्नयन के लिए यह अति आवश्यक होता है। प्रारम्भ में यदि मान्यता देने में ढ़ील बरती जाती है तो बाद में मान्यता की शर्तें पूरी नहीं होतीं। माध्यमिक शिक्षा के स्तर को बनाए रखने के लिए यह एक उपयुक्त सुझाव था।
3. गैरसरकारी स्कूलों की प्रबन्ध समितियों पर अंकुश
इस समिति ने गैर सरकारी स्कूलों की प्रबन्ध समितियों में प्रधानाचार्य को पदेन सदस्य बनाने और उसमें शिक्षकों के प्रतिनिधित्व का सुझाव दिया। साथ ही सही ढंग से कार्य न करने वाली प्रबन्ध समितियों को भंग करने का सुझाव दिया। इनसे प्रबन्ध समितियों की मानमानी पर अंकुश लगा, उनकी कार्य प्रणाली में सुधार आया।
4. पाठ्यपुस्तकों के निर्माण एवं प्रकाशन में कम्पीटीशन
समिति ने अच्छी पाठ्यपुस्तकों के लेखन के लिए अच्छे लेखकों को आर्थिक सहायता देने का सुझाव दिया और साथ ही प्रकाशकों को अच्छी पाठ्यपुस्तकों के प्रकाशन की छूट देने का सुझाव दिया। इस स्थिति में अच्छी पाठ्यपुस्तकों का निर्माण एवं प्रकाशन स्वाभाविक था।
5. विद्यालयों पर अंकुश
समिति ने विद्यालयों के लिए प्रतिदिन के लिए 4-5 घण्टे कार्य समय निश्चित किया और प्रति सत्र 200 से 235 कार्य दिवस निश्चित किए और साथ ही छुट्टियों की सीमा भी निश्चित की। यदि विद्यालयों में इतने दिन ईमानदारी से काम हो तो शिक्षा का स्तर अवश्य ही उठे।
6. परीक्षाओं में वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं को स्थान
समिति ने निबन्धात्मक परीक्षाओं के साथ-साथ वस्तुनिष्ठ परीक्षाएँ शुरु करने का सुझाव दिया। ये दोनों प्रकार की परीक्षाएँ एक-दूसरे की कमियों की पूर्ति करती हैं, इनके संयुक्त प्रयोग से हो छात्रों की योग्यता का सही मूल्यांकन किया जा सकता है।
7. कक्षोन्नति के निश्वित नियम
समिति ने कक्षा 6, 7, 8, 9 और 11 पर परीक्षा और कक्षोन्नति के निश्चित नियमों पर बल दिया। इससे ही पूरे प्रदेश में शिक्षा का समान स्तर बनाए रखना सम्भव है। यह उसका एक अच्छा सुझाव था।
8. शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन सम्बन्धी व्यावहारिक सुझाव
इतने बड़े प्रदेश में इतनी बड़ी जनसंख्या में बच्चों को शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देश देना एक बड़ी समस्या है। समिति ने इस सम्बन्ध में बड़ा व्यावहारिक सुझाव दिया कि प्रत्येक विद्यालय के कुछ योग्य एवं इच्छुक अध्यापकों को शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन और परामर्श में प्रशिक्षित किया जाए और ये क्षेत्रीय मनोविज्ञानशालाओं के सहयोग से इस कार्य का सम्पादन करें। काश हम इतना भर भी कर सकें तो इस कार्य को कुछ गति दी जा सकती है।
9. औद्योगिक एवं तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा
समिति ने तत्कालीन तकनीकी विद्यालयों की दशा सुधारने और आवश्यकतानुसार नए तकनीकी विद्यालय खोलने और प्रत्येक जिले में कम से कम एक पॉलिटेक्निक कॉलिज खोलने का सुझाव दिया। इससे माध्यमिक स्तर की व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा का प्रसार होना स्वाभाविक था।
आचार्य नरेन्द्र देव समिति द्वितीय के दोष
परन्तु ऐसा भी नहीं है कि इस समिति के सभी सुझाव अच्छे थे, इसके कुछ सुझाव एकदम अनुपयुक्त थे।
1. हाई स्कूल स्तर पर अनावश्यक वर्ग विभाजन
समिति ने हाई स्कूल स्तर पर चार वर्गों के स्थान पर पाँच वर्ग बनाने का सुझाव दिया। यह सुझाव उस समय कितना भी युक्तिसंगत रहा हो, पर अब जब पूरे देश में 10 + 2 + 3 शिक्षा संरचना लागू की जा चुकी है पूरे देश में प्रथम 10 वर्षीय कोर पाठ्यक्रम ही लागू होना चाहिए।
2. इण्टर स्तर पर सामान्य एवं व्यावसायिक शिक्षा की अस्पष्ट योजना
इस सन्दर्भ में पहली आपत्ति तो यही है कि समिति ने एक ओर इण्टर स्तर पर व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा की बात कही है और दूसरी ओर अलग से व्यावसायिक एवं तकनीकी पॉलिटेक्निक विद्यालयों की स्थापना की बात कही है। और दूसरी बात यह है कि आज जब पूरे देश में 2 पर दो ही वर्ग साहित्यिक और व्यावसायिक रखे गए हैं तो उसके वे सुझाव वैसे भी अर्थहीन हो गए हैं।
3. पाठ्यचर्या के सम्बन्ध में दिए गए सुझाव अर्थहीन
समिति ने हाई स्कूल और इण्टर के विभिन्न वर्गों के लिए जो गुम्फित् पाठ्यचर्या तैयार की है, उसके पीछे कोई औचित्य नजर नहीं आता। फिर आज जब पूरे देश में 10 + 2 + 3 शिक्षा संरचना लागू की गई है, वह सब अर्थहीन हो गई है।
4. अध्यापकों के लिए वेतनमान और आचार संहिता का अभाव
इस समिति ने अध्यापकों के प्रशिक्षण और उनकी सेवा शर्तों के बारे में तो सुझाव दिए परन्तु उनके वेतनमान के सम्बन्ध में कोई सुझाव नहीं दिए। आज वेतनमान की मांग शिक्षकों की ओर से है और शिक्षकों के लिए आचार संहिता की माँग अभिभावकों की ओर से है।
5. विद्यालयों में दो पारियों की समाप्ति अव्यावहारिक
विद्यालयों में छात्रों की बढ़ती हुई संख्या के दबाव में दो परियाँ चलाई गई और उसके बाद भी बड़ी संख्या में छात्र प्रवेश से वंचित रहे। तब दो पारियों की जगह एक ही पारी में स्कूल चलाने का सुझाव एकदम अव्यावहारिक था। यह तो तभी सम्भव है जब हर क्षेत्र में आवश्यकतानुसार स्कूल खोले जाएँ।
6. हाई स्कूल के संस्थागत छात्रों की परीक्षा हेतु दोहरी नीति
समिति ने सुझाव दिया कि हाई स्कूल के संस्थागत छात्रों की परीक्षा आन्तरिक हो, परन्तु जो छात्र बोर्ड की परीक्षा में बैठना चाहें उन्हें इजाजत दी जाए। आप ही सोचें, इस विचार के पीछे क्या औचित्य है, इससे तो समान स्तर बनाए रखना असम्भव हो जाता।
7. परीक्षाफल में श्रेणी के स्थान पर ग्रेड
समिति ने सुझाव दिया कि परीक्षाफल में प्रतिशत के आधार पर श्रेणी देने के स्थान पर प्राप्तांकों के आधार पर ग्रेड देने के बारे में सोचा जाए। अतः हम देखें तो अपने को तो ग्रेड देने में कोई लाभ नजर आता नहीं।
8. स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में संकीर्ण दृष्टिकोण
समिति का यह कहना कि स्त्री-पुरुषों की कुछ आवश्यकता समान होती हैं और कुछ भिन्न, आज अर्थहीन हो गया है। आज लिंग के आधार पर किसी प्रकार का भेद नहीं किया जाता, बस सभी स्त्री-पुरुषों की योग्यता, क्षमता, रुचि और आवश्यकतानुसार शिक्षा की व्यवस्था की जाती है।
9. धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा के सन्दर्भ में अस्पष्ट सुझाव
विद्यालयों का कार्यक्रम प्रार्थना से शुरु हो पर किसकी प्रार्थना से और कैसी प्रार्थना से, यह नहीं बताया गया। विद्यालयों में मुख्य धर्मों के गुरुओं की जीवनियाँ पढ़ाई जाएँ, परन्तु किन धर्मों के किन गुरुओं की, यह स्पष्ट नहीं किया गया। विद्यालयों में विभिन्न धमों की मान्य शिक्षाएँ दी जाएँ, परन्तु यह स्पष्ट नहीं किया गया कि वे मान्य शिक्षाएँ क्या हैं। तब ऐसे सुझावों का क्या औचित्य।
आचार्य नरेन्द्र देव समिति द्वितीय का प्रभाव
अतः हुआ यह कि जिस समय आचार्य नरेन्द्र समिति (द्वितीय) ने उत्तर प्रदेश की माध्यमिक शिक्षा के सन्दर्भ में अपना प्रतिवेदन प्रान्तीय सरकार को प्रस्तुत किया, उसी समय माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर कमीशन) ने सम्पूर्ण देश की माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में अपना प्रतिवेदन केन्द्रीय सरकार को प्रस्तुत किया । केन्द्रीय सरकार ने इस प्रतिवेदन के आधार पर अपनी माध्यमिक शिक्षा सम्बन्धी नीति बनाई और उसे प्रान्तीय सरकारों के पास भेज दिया। तब उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा माध्यमिक शिक्षा आयोग के सुझावों को अधिक महत्व दिया जाना स्वाभाविक था। परन्तु कुछ सुझाव तो दोनों में समान थे, उनके लागू करने से उत्तर प्रदेश की माध्यमिक शिक्षा में कुछ परिवर्तन एवं सुधार होना स्वाभाविक था।
आचार्य नरेन्द्र देव समिति (द्वितीय) के सुझाव पर हाई स्कूल और इण्टर स्तर पर विभिन्न वर्ग बनाए गए और उनके लिए विभिन्न पाठ्यक्रम तैयार किए गए, यह बात दूसरी है कि उस सबसे लाभ कुछ भी नहीं हुआ। गैरसरकारी स्कूलों की प्रबन्ध समितियों में प्रधानाचार्य और शिक्षकों के प्रतिनिधियों को सदस्य बनाया गया, इससे भी लाभ कम और संघर्ष अधिक बढ़ा। कुप्रबन्ध के कारण प्रबन्ध समितियों को भंग करने से भी उठक-पटक बढ़ी और उच्च न्यायालय में एक बड़ी संख्या में मुकदमें दर्ज हुए। इन झगड़ों के बीच लाभ कम और हानियाँ अधिक हुई। समिति द्वारा दिए गए अन्य सुझाव भी कोई विशेष लाभकारी सिद्ध नहीं हुए।
उपसंहार
आचार्य नरेन्द्र देव समिति (द्वितीय) के कुछ सुझाव काफी अच्छे थे, जैसे- सभी शिक्षा संस्थाओं को शिक्षा विभाग के अधीन करना, पाठ्यपुस्तकों के निर्माण में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना और शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन हेतु स्कूली शिक्षकों को प्रशिक्षित करना। और इनमें से जिनको लागू किया गया उनसे कुछ लाभ भी हुए। परन्तु उसके द्वारा दिए गए अधिकतर सुझाव तर्कहीन थे, जैसे- हाई स्कूल और इण्टर स्तर पर इतने अधिक वर्गों का निर्माण, विद्यालयों में पारी प्रणाली की समाप्ति और स्त्रियों के लिए भिन्न प्रकार की शिक्षा व्यवस्था। अच्छा ही हुआ कि हमारी प्रान्तीय सरकार ने इस समिति के सुझाव कम और माध्यमिक शिक्षा आयोग के सुझाव अधिक माने। वैसे लाभ तो माध्यमिक शिक्षा आयोग के सुझावों से भी कोई विशेष नहीं हुआ।
*** Most important question answer ***
(1) आचार्य नरेन्द्र देव समिति द्वितीय की नियुक्ति कब हुई थी ?
Ans. 1952 ईसवी में।
(ii) आचार्य नरेन्द्र देव समिति द्वितीय ने हाई स्कूल के पाठ्यक्रम को कितने वर्गों में बाँटा था?
Ans. 5 वर्गों में बांटा गया था।
(iii) आचार्य नरेन्द्र देव समिति ने इण्टर के पाठ्यक्रम को कितने वर्गों में बाँटा था?
Ans. 5 वर्गों में बांटा गया था।
(iv), माध्यमिक विद्यालयों की प्रबन्धकारिणी समिति में प्रधानाचार्य को पदेन सदस्य बनाने का सुझाव किसने दिया था?
Ans. आचार्य नरेन्द्र देव समिति ने।