वुड का घोषणा पत्र
ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर ब्रिटिश सरकार का नियन्त्रण था। ब्रिटिश सरकार कम्पनी को प्रत्येक 20 वर्ष बाद नया आज्ञा पत्र जारी करती थी। अब 1833 के बाद 1853 में उसे नया आज्ञा पत्र जारी करना था। इस बार ब्रिटिश पार्लियामैन्ट ने भारतीय शिक्षा की नीति के सम्बन्ध में विचार करने हेतु एक संसदीय समिति का गठन किया। समिति ने तत्कालीन भारतीय शिक्षा प्रणाली और उसमें कम्पनी की भूमिका का गहन अध्ययन किया और उस सबके आधार पर भारत के लिए एक शिक्षा नीति तैयार कर संसद के सम्मुख पेश की।
वुड के घोषणा पत्र द्वारा घोषित शिक्षा नीति, 1854
वुड के घोषणा पत्र में भारत की शिक्षा नीति को एक नया रूप दिया गया था। उस नई शिक्षा नीति को हम निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं।
शिक्षा का प्रशासन एवं वित्त
शिक्षा के प्रशासन एवं वित्त के सम्बन्ध में इस नीति में 3 घोषणाएँ की गई-
1. शिक्षा का उत्तदायित्व कम्पनी (सरकार) पर- इस शिक्षा नीति में कम्पनी शासित भारतीयों की शिक्षा को व्यवस्था करना कम्पनी (सरकार) का उत्तरदायित्व निश्चित किया गया। इसमें स्पष्ट शब्दों में लिखा गया कि-''कोई भी विषय हमारा ध्यान इतना आकर्षित नहीं करता जितना शिक्षा। यह हमारा एक पवित्र कर्तव्य है।''
2. जन शिक्षा विभाग की स्थापना- इस शिक्षा नीति में भारत के कम्पनी शासित सभी प्रान्तों में जन शिक्षा विभाग (Department of Public Instructions) की स्थापना की घोषणा की गई। यह भी घोषणा को गई कि इस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी जन शिक्षा निदेशक (Director of Public Instructions) होगा और इसकी सहायता के लिए शिक्षा उपसंचालक, निरीक्षक और लिपिकों की नियुक्ति होंगी। वर्ष के अन्त में प्रत्येक प्रान्त को अपने प्रान्त की शिक्षा प्रगति को रिपोर्ट देनी होगी।
3. सहायता अनुदान प्रणाली- इस नीति में पहली बार देशी और विदेशी सभी शिक्षण संस्थाओं को बिना धार्मिक भेद-भाव के आर्थिक सहायता देने की घोषणा की गई और इस आर्थिक सहायता को विभिन्न मदों-भवन निर्माण, विज्ञान प्रयोगशाला निर्माण, अध्यापकों के वेतन और छात्रवृत्तियों आदि में देने का प्रावधान किया गया।
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- भारतीय शिक्षा आयोग (हण्टर कमीशन), 1882 | [Indian Education Commission, 1882]
शिक्षा का संगठन
शिक्षा के संगठन के विषय में इस नीति में दो घोषणाएं की गई-
1. शिक्षा का संगठन चार स्तरों में- इस नीति में भारतीय शिक्षा को चार स्तरों-प्राथमिक, मिडिल, हाईस्कूल और उच्च में संगठित करने की घोषणा की गई।
2. क्रमबद्ध विद्यालयों की स्थापना- इस शिक्षा नोति में शिक्षा के उपर्युक्त संगठन के लिए क्रमबद्ध विद्यालयों-प्राथमिक, मिडिल, हाईस्कूल, कॉलिज और विश्वविद्यालयों की स्थापना की घोषणा की गई।
शिक्षा के उद्देश्य
इस घोषणा पत्र (शिक्षा नीति) में पहली बार भारतीय शिक्षा के उद्देश्य स्पष्ट किए गए उन उद्देश्यों को हम निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं-
(1) भारतीयों का मानसिक विकास करना, उनके बौद्धिक स्तर को ऊँचा उठाना ।
(2) भारतीयों को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान से परिचित कराना, उनकी भौतिक उन्नति करना।
(3) भारतीयों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाना और भारत में अंग्रेजी माल की माँग बढ़ाना ।
(4) भारतीयों का नैतिक एवं चारित्रिक विकास करना।
(5) राज्य सेवा के लिए सुयोग्य कर्मचारी तैयार करना ।
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शिक्षा की पाठ्यचर्या
इस घोषणापत्र (शिक्षा नीति) में पाठ्यचर्या के सन्दर्भ में निम्नलिखित घोषणाएँ की गई-
1. प्राच्य भाषा एवं साहित्य को स्थान- इसमें भारतीयों के लिए प्राच्य भाषा एवं साहित्य के महत्व को स्वीकार किया गया और उन्हें पाठ्यचर्या में उचित स्थान देने की घोषणा की गई। साथ ही यह घोषणा भी की गई कि प्राच्य भाषा और साहित्यों को प्रोत्साहित किया जाएगा।
2. पाश्चात्य ज्ञान विज्ञान को विशेष स्थान- इस शिक्षा नीति में भारतीयों की भौतिक उन्नति के लिए पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा को अति आवश्यक बताया गया और उसे पाठ्यचर्या में विशेष स्थान देने पर बल दिया गया। घोषणा पत्र में स्पष्ट रूप से लिखा गया कि हम बलपूर्वक घोषित करते हैं कि ''हम भारत में जिस शिक्षा का प्रसार देखना चाहते हैं वह है- यूरोपीय ज्ञान।''
3. धार्मिक शिक्षा की सीमित छूट- इस घोषणा पत्र (शिक्षा नीति) में मिशन स्कूलों को धार्मिक शिक्षा की छूट दी गई और सरकारी स्कूलों में धार्मिक तटस्थता की नीति का पालन किया गया। परन्तु साथ ही इन सरकारी स्कूलों के पुस्तकालयों में बाईबिल रखना अनिवार्य कर दिया गया।
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शिक्षण विधि
इस घोषणा पत्र (शिक्षा नीति) में शिक्षा के माध्यम के सम्बन्ध में निम्नलिखित नीति की घोषणा की गई-
1. प्राचमिक शिक्षा का माध्यम देशी भाषाएँ और अंग्रेजी- इस घोषणा पत्र में प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिए देशी भाषाओं और अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम स्वीकार किया गया। इसमें स्पष्ट रूप से लिखा गया कि- 'हम भारत के समस्त स्कूलों को फलते-फूलते देखना चाहते हैं'।
2. उच्च शिक्षा का माध्यम केवल अंग्रेजी- घोषणा पत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया कि प्राच्य भाषाएँ इतनी विकसित नहीं हैं कि उनके माध्यम से पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा दी जा सके अतः उच्च शिक्षा के लिए अंग्रेजी ही शिक्षा का माध्यम होगी।
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शिक्षक
इस घोषणा पत्र (शिक्षा नीति) में शिक्षकों के स्तर को ऊपर उठाने पर बल दिया गया और इसके लिए शिक्षकों के वेतन बढ़ाने की बात कही गई।
शिक्षार्थी
इस घोषणा पत्र (शिक्षा नीति) में किसी भी प्रकार के विद्यालयों में पढ़ने वाले निर्धन छात्रों के लिए छात्रवृत्तियाँ देने का प्रावधान किया गया।
शिक्षण संस्थाएँ
शिक्षण संस्थाओं के विषय में इस नीति में निम्नलिखित घोषणाएँ की गई-
1. विभिन्न स्तर की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना- इस शिक्षा नीति में किसी भी स्तर की शिक्षा की व्यवस्था करना कम्पनी (सरकार) का उत्तरदायित्व निश्चित किया गया और कम्पनी से यह अपेक्षा की गई कि वह आवश्यकतानुसार विभिन्न स्तर की संस्थाओं की स्थापना करे।
2. व्यावसायिक विद्यालयों की स्थापना- इस शिक्षा नीति में पहली बार भारतीयों को व्यावसायिक शिक्षा देने हेतु व्यावसायिक विद्यालय खोलने की घोषणा की गई।
3. विश्वविद्यालयों की स्थापना- उस समय हमारे देश में उच्च शिक्षा और शोध कार्य हेतु विश्वविद्यालय नहीं थे। इस घोषणा पत्र में घोषणा की गई कि भारत में लन्दन विश्वविद्यालय के आदर्श पर कलकत्ता और बम्बई में विश्वविद्यालय स्थापित किए जाएँगे और इसके बाद आवश्यकतानुसार मद्रास और अन्य स्थानों पर भी विश्वविद्यालय स्थापित किए जाएंगे।
इन विश्वविद्यालयों में सीनेट का गठन किया जाएगा और योग्य एवं अनुभवी कुलपति एवं प्राध्यापक नियुक्त किए जाएँगे। इन विश्वविद्यालयों में प्राच्य एवं पाश्चात्य भाषा एवं साहित्यों, विधि और इन्जीनियरिंग को उच्च शिक्षा की विशेष व्यवस्था की जाएगी। साथ ही महाविद्यालयों को इनसे सम्बद्ध किया जाएगा। ये विश्वविद्यालय अपने क्षेत्र के महाविद्यालयों को सम्बद्धता प्रदान करेंगे, उन पर नियन्त्रण रखेंगे, उनके छात्रों की परीक्षा लेंगे और उत्तीर्ण छात्रों को प्रमाणपत्र प्रदान करेंगे।
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जन शिक्षा
इस घोषणा पत्र (शिक्षा नीति) में जन शिक्षा के प्रसार की घोषणा की गई और इस सम्बन्ध में निम्नलिखित 5 निर्णयों को घोषणा की गई-
(1) निष्यन्दन सिद्धान्त को निरस्त किया जाता है। शिक्षा केवल उच्च वर्ग के लिए ही नहीं, सबके लिए सुलभ कराई जाएगी।
(2) प्राथमिक एवं माध्यमिक स्कूलों की संख्या में वृद्धि की जाएगी।
(3) निर्धन छात्रों को छात्रवृत्तियां दी जांयेगी।
(4) जन शिक्षा के प्रसार हेतु व्यक्तिगत प्रयासों (देशी और मिशनरी प्रयासों) को प्रोत्साहन दिया जाएगा।
(5) भारतीय भाषाओं का विकास किया जाएगा, यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान का भारतीय भाषाओं में अनुबाद कराया जाएगा और अच्छे अनुवादकों को पुरस्कृत किया जाएगा।
स्त्री शिक्षा
इस घोषणा पत्र (शिक्षा नीति) में स्वीकार किया गया कि भारतीयों का नैतिक एवं चारित्रिक विकास करने और उनकी भौतिक उन्नति करने के लिए स्त्री शिक्षा की अति आवश्यकता है और इसके विकास हेतु निम्नलिखित घोषणाएं की गई-
(1) बालिका विद्यालयों को विशेष अनुदान (सरकारी सहायता) दिया जाएगा।
(2) स्त्री शिक्षा हेतु सहयोग देने वाले व्यक्तियों को प्रोत्साहित किया जाएगा।
मुसलमानों की शिक्षा
इस घोषणापत्र (शिक्षा नीति) में यह स्वीकार किया गया कि भारत में हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों में शिक्षा का प्रसार बहुत कम है और इनकी शिक्षा के प्रसार के लिए निम्नलिखित घोषणाएँ की गई-
(1) मुसलमान बच्चों की शिक्षा के लिए विशेष स्कूल खोले जाएँगे।
(2) मुसलमान बच्चों को स्कूलों की ओर आकर्षित किया जाएगा।
व्यावसायिक शिक्षा
इस घोषाणा पत्र (शिक्षा नीति) में इस बात को स्वीकार किया गया कि भारत में बेरोजगारी दूर करने, उद्योगों में कुशल कर्मकारों की पूर्ति करने और भारतीयों की आर्थिक उन्नति करने के लिए व्यावसायिक शिक्षा की उचित व्यवस्था आवश्यक है।
इस सम्बन्ध में दो घोषणाएँ की गई-
(1) भारत में व्यावसायिक शिक्षा की उचित व्यवस्था की जाएगी।
(2) शिक्षित व्यक्तियों को उनकी शैक्षिक योग्यता और कार्य कुशलता के आधार पर सरकारी नौकरी दी जाएंगी।
शिक्षक शिक्षा
इस घोषणा पत्र (शिक्षा नीति) में शिक्षा का स्तर उठाने के लिए शिक्षक शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया गया और इस सम्बन्ध में निम्नलिखित घोषणाएँ की गई-
(1) भारत में इंग्लैण्ड के शिक्षक प्रशिक्षण की तरह के शिक्षक प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाएगी।
(2) यह प्रशिक्षण सामान्य शिक्षकों, विधि शिक्षकों और चिकित्सा शिक्षकों के लिए अलग-अलग होगा।
(3) शिक्षकों को प्रशिक्षण काल में छात्रवृत्तियाँ देने की व्यवस्था की जाएगी।
धार्मिक शिक्षा
धार्मिक शिक्षा के सम्बन्ध में इसमें एक ओर धार्मिक तटस्थता की नीति की बात कही गई और दूसरी ओर मिशन स्कूलों को धर्म शिक्षा देने की छूट दी गई और सभी सरकारी स्कूलों के पुस्तकालयों में बाईबिल रखना अनिवार्य किया गया।
वुड के घोषणा पत्र का मूल्यांकन अथवा गुण-दोष
किसी भी वस्तु, विचार अथवा क्रिया का मूल्यांकन किन्हीं निश्चित मानदण्डों के आधार पर किया जाता है। शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है, विकास की प्रक्रिया है। अतः किसी भी शैक्षिक विचार अथवा क्रिया का मूल्यांकन समाज विशेष की तत्कालीन परिस्थितियों, आवश्यकताओं, आकांक्षाओं और सम्भावनाओं के आधार पर किया जाना चाहिए। हम यहाँ बुड के घोषणा पत्र (शिक्षा नीति), 1854 का मूल्यांकन अथवा गुण-दोष विवेचन भारतीय समाज के सन्दर्भ में ही करेंगे।
वुड के घोषणा पत्र (शिक्षा नीति), 1854 की विशेषताएँ अथवा गुण
यदि हम वुड के घोषणा पत्र द्वारा घोषित शिक्षा नीति से भारतीय शिक्षा पर पड़ने वाले प्रभाव को आज के भारतीय समाज की दृष्टि से देखें समझें तो उसमें निम्नलिखित विशेषताएँ नजर आएँगी-
1. शिक्षा का उत्तरदायित्व सरकार पर- भारत के इतिहास में प्रथम बार यह स्वीकार किया गया कि शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य (सरकार) का उत्तरदायित्व है आज की परिस्थितियों में तो यह अति आवश्यक हो गया है।
2. शिक्षा विभाग की स्थापना- जब शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का उत्तरदायित्व होगा तो इम उत्तरदायित्व के निर्वाह के लिए राज्य में शिक्षा विभाग होना भी आवश्यक होगा। वुड के घोषणापत्र में प्रत्येक प्रान्त में जन शिक्षा विभाग की स्थापना की घोषणा उसका दूसरा बड़ा कदम था, उसका दूसरा बड़ा गुण था। आज तो शिक्षा विभाग को इतना विस्तृत किया गया है कि उसके अभाव में शिक्षा की व्यवस्था सही ढंग से की ही नहीं जा सकती।
3. सहायता अनुदान प्रणाली का शुभारम्भ- यह न तब सम्भव था और न आज सम्भव है कि शिक्षा को सम्पूर्ण व्यवस्था सरकार करे। तब व्यक्तिगत प्रयासों द्वारा चलाई जा रही संस्थाओं को आर्थिक सहायता देने की शुरुआत और वह भी नियमानुसार और कुछ शर्तें पूरी करने पर, इस घोषणा पत्र द्वारा घोषित शिक्षा नीति की तीसरी बड़ी विशेषता थी। उसी सहायता अनुदान प्रणाली को हम आज भी चला रहे हैं, यह बात दूसरी है कि थोड़े परिवर्तित रूप में।
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4. निर्धन छात्रों को छात्रवृत्तियाँ देने का प्रावधान- इतने कम साधन होते हुए भी उस समय निर्धन छात्रों के लिए छात्रवृत्तियों का प्रावधान, इसका चौथा प्रशंसनीय कदम था।
5. शिक्षा का संगठन मनोवैज्ञानिक स्तरों में- इससे पहले हमारे देश में शिक्षा दो ही स्तरों में विभाजित चली आ रही थी- प्राथमिक और उच्च। इस घोषणा पत्र में पहली बार छात्रों की आयु अर्थात् उनकी मनोवैज्ञानिक भिन्नता के आधार पर उसे प्राथमिक (शिशु), मिडिल (बाल), हाईस्कूल (किशोर) और उच्च (युवा) में संगठित किया गया। यह इसकी पाँचवी विशेषता थी।
6. क्रमबद्ध विद्यालयों की स्थापना- शिक्षा के विभिन्न स्तरों प्राथमिक, मिडिल, हाईस्कूल और उच्च के लिए अलग-अलग विद्यालयों की स्थापना की घोषणा इसको छठी विशेषता थी।
7. भारतीयों के नैतिक एवं चारित्रिक विकास पर बल- यूँ इस घोषणा पत्र में शिक्षा के पाँच उद्देश्य निश्चित किए गए थे, भारतीयों का मानसिक विकास, भारतीयों को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान से परिचित कराना, भारतीयों का जीवन स्तर ऊँचा उठाना, भारतीयों का नैतिक एवं चारित्रिक विकास करना और राज्य के लिए सुयोग्य कर्मचारी तैयार करना परन्तु यह उद्देश्य तो ऐसा उद्देश्य था जो हमारी संस्कृति की पहचान है और जिसके विकास से ही हम देश की स्वतन्त्रता के लिए आगे बढ़े।
8. पाश्चात्य ज्ञान विज्ञान के ज्ञान पर वल- इस घोषणा पत्र में स्पष्ट रूप से लिखा गया था-''हम बलपूर्वक घोषित करते हैं कि हम भारत में जिस शिक्षा का प्रसार देखना चाहते हैं वह है-यूरोपीय ज्ञान''। बहरहाल इसके पीछे उनका उद्देश्य कुछ भी रहा हो पर इसके परिणाम भारत और भारतवासियों के हित में रहे। अतः आज इसे भी इस नीति का गुण ही मानना चाहिए।
9. सभी प्रकार के विद्यालयों प्राच्य और पाश्चात्य के विकास पर बल- इस घोषणा पत्र में स्पष्ट रूप से लिखा गया-''हम भारत में देशी, मिशनरी और सरकारी, सभी प्रकार की शिक्षा संस्थाओं को फूलते-फलते देखना चाहते हैं।'' आज की भारतीय सरकार को तो इस नोति को हृदय से अपनाना आवश्यक है।
10. विश्वविद्यालयों की स्थापना- बौद्धकालीन विश्वविद्यालयों को मुसलमान शासकों ने बहुत पहले नष्ट कर दिया था। अब इस देश में विश्वविद्यालय स्तर की कोई संस्था नहीं थी। इस घोषणा पत्र में भारत में विश्वविद्यालय स्थापित करने की घोषणा की गई। उस समय सर्वप्रथम 1857 में कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई, आज देश भर में विश्वविद्यालय स्थापित हैं।
11. निस्यन्दन सिद्धान्त की समाप्ति और जन शिक्षा पर बल- मैकॉले के सुझाव पर लार्ड विलियम बैटिक और उसके बाद लार्ड ऑकलैण्ड ने जिस भेदभावपूर्ण निस्यन्दन सिद्धान्त को स्वीकृति दी थी, इस घोषणा पत्र में उसे निरस्त कर दिया गया और शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने पर बल दिया गया। आज के भारत में तो यह पहली आवश्यकता है।
12. स्त्री शिक्षा पर बल- इस घोषणा पत्र द्वारा भारत में पहली बार देश की उन्नति के लिए स्त्री शिक्षा की आवश्यकता अनुभव की गई और उसके लिए बालिका विद्यालयों की संख्या बढ़ाने की घोषणा की गई। आज तो यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि स्त्रियों की शिक्षा पुरुषों की शिक्षा से भी अधिक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक है।
13. मुसलमानों की शिक्षा पर बल- उस समय मुसलमान बच्चे इस अंग्रेजी शिक्षा की ओर कम आकर्षित हो रहे थे। अंग्रेजों ने इस बात को समझा और इस शिक्षा नीति में घोषणा की कि मुसलमानों की शिक्षा के लिए अतिरिक्त प्रबन्ध किए जाएंगे। यदि आप ईमानदारी से देखें तो यह स्थिति आज भी बनी है। सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए।
14. व्यावसायिक शिक्षा पर बल- इस घोषणा पत्र में अंग्रेजों ने पहली बार यह स्वीकार किया कि भारत को आर्थिक उन्नति के लिए व्यावसायिक शिक्षा अति आवश्यक है। इस शिक्षा नीति में उसकी उचित व्यवस्था को घोषणा की गई। आज तो शिक्षाविद् रोजगारपरक शिक्षा पर बल दे रहे हैं।
15. शिक्षक शिक्षा की व्यवस्था- यूँ तो उस समय तक इस देश में मिशनरियों द्वारा एक-दो शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय खोले जा चुके थे परन्तु उनमें जो प्रशिक्षण दिया जाता था वह अपने प्रकार का था। इस नीति में यह घोषणा की गई कि शिक्षा का स्तर उठाने के लिए इंग्लैण्ड की तरह के शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय खोले जाएँगे। हमारे आज के शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय और महाविद्यालय आज भी उसी आधार पर चल रहे हैं।
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वुड के घोषणा पत्र (शिक्षा नीति), 1854 की कमियाँ अथवा दोष
वुड के घोषणापत्र (शिक्षा नीति) की कमियों अथवा दोषों को हम निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं-
1. शिक्षा कम्पनी (ब्रिटिश शासन) के नियन्त्रण में- उत्तरदायित्व और अधिकार तो एक सिक्के के दो पहलू हैं। जब शिक्षा की व्यवस्था करना कम्पनी का उत्तरदायित्व घोषित हुआ तो उस पर उसका नियन्त्रण होना स्वाभाविक था। और वे ईमानदारी से भारतीयों का हित क्यों सोचते।
2. शिक्षा के क्षेत्र में लाल फीताशाही का श्री गणेश- शिक्षा विभाग की स्थापना का अर्थ लालफीताशाही का श्रीगणेश। फिर उस समय इस विभाग में ऊंचे पदों पर तो अंग्रेज ही नियुक्त होते थे और कनिष्ठ पदों पर अंग्रेज भक्त अतः इनसे सामान्य व्यवहार की अपेक्षा कैसे की जा सकती थी।
3. सहायता अनुदान की कठोर शर्तें- सहायता अनुदान प्रणाली की शुरुआत एक बहुत अच्छा कदम था, परन्तु इसको प्राप्त करने के लिए विद्यालयों को अनेक शर्तें पूरी करनी होती थीं और वे इतनी अधिक और कठोर थीं कि प्राच्य विद्यालय इसका कम लाभ उठा पाए।
4. शिक्षा का मूल उद्देश्य पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का विकास- यूँ इस नीति में शिक्षा के पाँच उद्देश्य निश्चित किए गए थे और उनमें यह उद्देश्य घोषित नहीं किया गया था, परन्तु यदि आप इस नीति का बारीकी से अध्ययन करें तो इस सबके पीछे उनका मुख्य उद्देश्य भारत में पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का विकास ही था।
5. शिक्षा की पाठ्यचर्या में पाश्वात्य ज्ञान- विज्ञान को अधिक महत्व हर जाति को अपनी भाषा, अपने साहित्य, अपनी सभ्यता और अपनी संस्कृति श्रेष्ठ लगती है, तब अंग्रेजों को अपनी भाषा, अपने साहित्य और अपने ज्ञान-विज्ञान को श्रेष्ठ समझना स्वाभाविक था, पर उन्हें इतना ध्यान तो रखना ही चाहिए था कि भारतीयों के लिए क्या श्रेष्ठ है। इसका दूरगामी कुप्रभाव यह रहा कि भारतीयों में हीनता को भावना विकसित हुई जिससे वे अभी तक नहीं निकल पाए हैं।
6. उच्च शिक्षा का माध्यम केवल अंगेजी- यूँ तो इस घोषणा पत्र (शिक्षा नीति) में प्राच्य भाषाओं और अंग्रेजी दोनों को शिक्षा का माध्यम बनाने की बात कही गई थी और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान को प्राच्य भाषाओं में अनुवाद करने की बात कही गई थी परन्तु उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी को ही रखा गया था परिणामतः उस समय सामान्य वर्ग के बच्चे उच्च शिक्षा से वंचित हो रहे ।
7. सरकारी स्कूलों में बाईबिल होना अनिवार्य- यूँ इस शिक्षा नीति में शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक तटस्थता की नीति की घोषणा की गई थी पर साथ ही स्कूलों के पुस्तकालयों में बाईबिल की प्रतियाँ अनिवार्य रूप से रखने का आदेश दिया गया। आप ही सोचें इसके पीछे उनका क्या इरादा था।
8. ईसाई मिशनरियों को अपने स्कूलों में धर्म शिक्षा देने की छूट- ईसाई मिशनरियों की मांग पर इस शिक्षा नीति में उन्हें धार्मिक शिक्षा देने की छूट दी गई परन्तु इस हिदायत के साथ कि वे किसी भी धर्म की शिक्षा जबरन नहीं देंगे। आप ही सोचें कि इस दुविधापूर्ण नीति का पालन किस रूप में हुआ होगा।
9. सरकारी नौकरी हेतु अंग्रेजी जानना आवश्यक- यूँ तो इसमें यह घोषणा की गई थी कि यदि अभ्यर्थियों में अन्य योग्यताएँ समान हों तो अंग्रेजी जानने वालों को सरकारी नौकरियों में वरीयता दी जाएगी परन्तु वास्तव में इसका आशय अंग्रेजी के ज्ञान की अनिवार्यता से ही था और ऐसा हुआ भी। बहरहाल भारतीयों की दृष्टि से यह इस नीति का दोष ही था।
वुड के घोषणा पत्र में निहित शिक्षा नीति का भारतीय शिक्षा पर प्रभाव अथवा योगदान
अब हम थोडा विचार करें इस बात पर कि वुड के घोषणा पत्र में निहित शिक्षा नीति का भारतीय शिक्षा पर क्या प्रभाव पड़ा अथवा उसका भारतीय शिक्षा के विकास में क्या योगदान रहा। इस प्रभाव अथवा योगदान को हम दो भागों में देख-समझ सकते हैं- तत्कालीन प्रभाव और दीर्घकालीन प्रभाव।
तत्कालीन प्रभाव को हम निम्नलिखित क्रम में देख-समझ सकते हैं-
1. 1856 तक सभी प्रान्तों में शिक्षा विभागों की स्थापना- 1854 में इस नीति की घोषणा हुई और 1856 तक कम्पनी (ब्रिटिश) शासित सभी प्रान्तों में शिक्षा विभागों की स्थापना हो गई, जन शिक्षा निदेशक और अन्य कर्मचारियों की नियुक्तियाँ हो गईं और इन्होंने अपना कार्य करना शुरु कर दिया।
2. सभी प्रान्तों में सहायता अनुदान प्रणाली का शुभारम्भ- सभी प्रान्तों के शिक्षा विभागों ने अपने-अपने क्षेत्र की शैक्षिक स्थिति और आवश्यकतानुसार सहायता अनुदान के नियम बनाए और जो भी विद्यालय उन शर्तों को पूरी करते गए उन्हें अनुदान देना शुरु कर दिया।
3. सभी स्तर के स्कूल और कॉलिजों की स्थापना- उस समय माध्यमिक और उच्च शिक्षा संस्थाओं की मांग अधिक थी अतः कम्पनी ने उसी स्तर के स्कूल-कॉलिज खोलने शुरु किए।
4. 1857 में कलकत्ता और बम्बई में विश्वविद्यालयों की स्थापना- 1857 में कलकत्ता और बम्बई में विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। प्रारम्भ में ये विश्वविद्यालय सम्बद्ध महाविद्यालयों के छात्रों की परीक्षा लेने और उत्तीर्ण छात्रों को प्रमाणपत्र देने तक सीमित रहे, बाद में इनमें शिक्षण कार्य भी होने लगा।
विशेष:
इसी बीच भारत में 1857 की क्रान्ति का श्रीगणेश। इस क्रान्ति को दबाने के लिए भारत में बिटिश फौजों का भारी संख्या में प्रवेश और भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना। इस राजनैतिक उथल-पुचल का भारतीय शिक्षा पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। उसी समय (1858) में लॉर्ड एलेनबरा (Lord Alenbara) ने वुड के घोषणा पत्र की नौति का विरोध किया परन्तु उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ।
1859 में लॉर्ड स्टेनले (Lord Stcale) भारत में ब्रिटिश सरकार के मन्त्री पद पर नियुक्त हुआ। उसने वुड के द्वारा घोषित शिक्षा नीति को जारी रखने का आदेश दिया और साथ ही यह आदेश दिया कि-
(1) प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था का पूर्ण उत्तरदायित्व सरकार का है।
(2) प्राथमिक शिक्षा के विकास पर सबसे अधिक बल दिया जाए।
(3) सहायता अनुदान केवल माध्यमिक और उच्च शिक्षा संस्थाओं को दिया जाए।
(4) शिक्षकों के प्रशिक्षण हेतु अधिक विद्यालय और महाविद्यालय खोले जाएँ।
बस यहाँ से वुड के घोषणा पत्र के दीर्घकालीन प्रभाव शुरु होते हैं। उसके दीर्घकालीन प्रभाव को हम निम्नलिखित क्रम में देख या समझ सकते हैं-
1. शिक्षा राज्य का उत्तरदायित्व- वुड के घोषणा पत्र में पहली बार शिक्षा राज्य का उत्तरदायित्व स्वीकार किया गया था। तब से आज तक हमारे देश में शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का उत्तरदायित्व माना जाता रहा है, यह बात दूसरी है कि इसकी व्यवस्था में व्यक्तिगत प्रयासों का सहयोग लिया जाता है।
2. शिक्षा राज्य के नियन्त्रण में- शिक्षा का उत्तरदायित्व तो राज्य तभी निभा सकता है जब उसका नियन्त्रण उसके हाथों में हो। वुड के घोषणा पत्र में पहली बार भारतीय शिक्षा को पूरी नीति और पूरी योजना प्रस्तुत की गई थी। तब से आज तक सरकार शिक्षा की नीति के साथ उसे क्रियान्वित करने को पूरी योजना प्रस्तुत करती आ रही है।
3. सहायता-अनुदान प्रणाली की निरन्तरता- अब से पहले राज्य अथवा सरकार शिक्षा संस्थाओं को स्वेच्छा से आर्थिक सहायता देती थी, इस सम्बन्ध में उसको न कोई नीति थी और न नियम। वुड के घोषणा पत्र में पहली बार निश्चित शर्तों को पूरी करने पर सभी प्रकार के विद्यालयों को आर्थिक अनुदान देना शुरु किया गया। यह व्यवस्था कुछ परिवर्तनों के साथ आज भी लागू है। यह वुह के घोषणा पत्र को हमारी भारतीय शिक्षा की एक बड़ी देन है।
4. शिक्षा का संगठन विभिन्न स्तरों में- वुड के घोषणा पत्र में प्रथम बार बच्चों की आयु और मानसिक योग्यता के आधार पर शिक्षा को चार स्तरों में बाँटा गया था। हमने उसमें पूर्व प्राथमिक स्तर और बढ़ाया है और माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा को विभिन्न वर्गों में विभाजित किया है। परन्तु इसका मार्ग तो वुड डिस्मेच ने ही प्रशस्त किया था।
5. शिक्षा के उद्देश्य समय की माँग के अनुसार- वुड के घोषणा पत्र में पहली बार भारतीय शिक्षा के उद्देश्य आधुनिक परिप्रेक्ष्य में निश्वित किए गए थे, तब से अब तक समय की मांग के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य निश्चित करने का क्रम जारी है। यह वुड डिस्पेच को भारतीय शिक्षा को बहुत बड़ी देन है।
6. शिक्षा की पाठ्यचर्या में पाश्चात्य ज्ञान- विज्ञान का वर्चस्व वुड डिस्पेच में पहली बार स्पष्ट शब्दों में घोषणा की गई कि हम भारत में जिस शिक्षा का प्रसार देखना चाहते हैं, वह है- यूरोपीय ज्ञान। बस तब से आज तक हमारी शिक्षा की पाठ्यचर्या, विशेषकर उच्च शिक्षा में कृषि, इन्जीनियरिंग और चिकित्सा विज्ञान में पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान का वर्चस्व चला आ रहा है और इसी के कारण हमने इस युग में भौतिक उन्नति की है। और यह वुड डिस्पेच की एक और बड़ी देन है।
7. उच्च शिक्षा (कृषि इन्जीनियरिंग चिकित्सा आदि) का माध्यम अंग्रेजी- उस समय उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बनाना अंगेजों को विवशता थी पर हम उसे उनको कूटनीति मान रहे थे। तो फिर स्वतन्त्रता प्राप्ति के 63 वर्ष बाद भी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कृषि, इन्जौरियरिंग और चिकित्साशास्त्र का माध्यम अंग्रेजी हो क्यों बना हुआ है! सच बात यह है कि आज भी यह हमारी विवशता है।
8. क्रमबद्ध विद्यालयों की निरन्तरता- वुड डिस्पेच में क्रमबद्ध विद्यालयों को स्थापना की घोषणा की गई थी, वह आज तक लागू है। अब तो हमने उसके पूर्व में पूर्व प्राथमिक और अन्त में अनेक वर्गों की शिक्षा के लिए अलग-अलग विद्यालय और महाविद्यालयों को स्थापना करनी शुरु कर दी है। बहरहाल यह मार्ग भी वुड डिस्पेच ने प्रशस्त किया था।
9. जन शिक्षा, स्त्री शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा और शिक्षक शिक्षा में प्रगति- जन शिक्षा, स्त्री शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा और शिक्षक शिक्षा के लिए बिगुल भी सर्वप्रथम वुड डिस्पेच में बजाया गया था। इन सबके महत्व को तब से आज तक बराबर स्वीकार किया जाता रहा है, इनकी उचित व्यवस्था के प्रयल भी होते रहे हैं और इनमें निरन्तर प्रगति भी होती रही है।
उपसंहार / सारांश
वुड का घोषणा पत्र भारत का पहला सरकारी दस्तावेज है जिसमें सरकार की शिक्षा नीति और योजना की पूरी रूप-रेखा प्रस्तुत की गई थी और यदि ध्यानपूर्वक देखा-समझा जाए तो हमारी आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली मूल रूप से उसी आधार पर विकसित हुई है।
वसु के शब्दों में- यह घोषणा पत्र भारतीय शिक्षा का शिलालेख है। भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव इसी ने धरी थी। वैसे भी यदि भारतीय दृष्टिकोण से देखें तो इसमें गुण अधिक थे और दोष कम थे। इसकी सबसे बड़ी देन तो यह है कि इसने शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का उत्तरदायित्व घोषित किया। शिक्षा विभाग की स्थापना, सहायता अनुदान प्रणाली की शुरुआत, क्रमबद्ध विद्यालयों की स्थापना और विश्वविद्यालयों को स्थापना इसकी अन्य प्रमुख विशेषताएँ हैं।
भारत में जन शिक्षा, स्वी शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा और शिक्षक शिक्षा के लिए बिगुल भी सर्वप्रथम वुड घोषणा पत्र में बजाया गया था। सच बात तो यह है कि हमारी आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली की नींव इसी शिक्षा नीति में रखी गई थी।
जेम्स (James) के शब्दों में- 1854 का घोषणा पत्र भारतीय शिक्षा के इतिहास में चरम बिन्दु है, 'जो कुछ उससे पहले हुआ वह उसकी ओर संकेत करता है और जो कुछ उसके बाद हुआ, वह उससे निकलता है।'
श्री जेम्स ने तो इसे 'भारतीय शिक्षा का महाधिकार पत्र' (Magna Chartea of Indian Education) कहा है। हमारी दृष्टि से इस घोषणा पत्र को इतना महत्त्व देना भी उचित नहीं है। पहली बात तो यह है कि इसमें भारतीयों को अपेक्षा अंग्रेजों के हितों का अधिक ध्यान रखा गया था।
दूसरी बात यह है कि इसमें सहायता-अनुदान की शर्तें बड़ी कठोर बनाई गई थीं। तीसरी बात यह है कि पाठ्यचर्या में प्राच्य और पाश्चात्य साहित्यों को समान स्थान नहीं दिया गया था। चौथा दोष यह है कि उच्च शिक्षा का माध्यम केवल अंग्रेजी को बनाया गया था। पाँचवाँ और सबसे बड़ा दोष यह था कि इसमें सामान्य एवं निःशुल्क शिक्षा का कोई प्रावधान नहीं किया गया था।
नुरुल्ला और नायक ने ठीक हो लिखा है- कि ''हमें उन अतिशयोक्तिपूर्ण शब्दों में जिनमें कुछ इतिहासकारों ने इस घोषणा पत्र का वर्णन किया है और इसे भारतीय शिक्षा का महाधिकार पत्र कहा है कोई औचित्य दिखाई नहीं देता'' (We can not find any justification for the superlative terms in which some historians have described Despatch and have called it the Magna Chartea of Indian Education. - Nurrula and Naik) ।
अतः हम इसे कितना महत्त्व दें, इस पर दो मत हो सकते हैं, परन्तु यह है बहुत महत्त्वपूर्ण दस्तावेज। और यह आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली की नींव का पत्थर है। अतः हमें नींव के पत्थरों के महत्त्व को नहीं भूलना चाहिए।
धन्यवाद