सूफीवाद क्या है | चिश्ती सम्प्रदाय एवं उनके सिद्धान्त

भारत में सूफी मत का विकास

भारत में सूफी मत मुस्लिम आक्रमण के पूर्व ही प्रवेश कर चुका था। अरब यात्रियों के साथ सूफी संतों ने भी भारत की यात्रा की थी। कहा जाता है कि प्रथम श्रेष्ठ सूफी विद्वान अल हज्जाम ने भारत की यात्रा की थी और उन पर भारतीय रहस्यवाद का प्रभाव पड़ा था। गजनवी काल में लाहौर सूफी केन्द्र के रूप में स्थापित हो चुका था। यहाँ सूफी मत का प्रचार अबुल हसन हुजवेरी ने किया। 

उसने अपने ग्रंथ कश्फुल महजूब में विभिन्न मतों का प्रतिपादन किया है। उदारता के कारण हुजवेरी लाहौर में लोकप्रिय था और जनसाधारण में वह 'हजरत दातागंज' के नाम से प्रसिद्ध था। उसका जन्म गजनी में और शिक्षा बगदाद में हुई थी। उसका देहान्त 1072 ई. में लाहौर में हुआ था लेकिन भारत में सूफी मत का आरम्भ शेख मुईनुद्दीन चिश्ती से माना जाता है। उन्होंने चिश्ती सिलसिला स्थापित किया। भारत का प्राचीनतम सूफी सिलसिला चिश्ती सिलसिला है। 

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यह सिलसिला भारत में अत्यन्त लोकप्रिय हुआ और उत्तर भारत के अधिकांश भारत में इसका प्रसार हुआ। अबुल फजल ने चौदह सूफी सिलसिलों का उल्लेख किया है जो इस प्रकार है- चिश्ती, सुहरावर्दी, हबीबी, तफरी, करबी, सत्री, जुनैदी, काजरूनी, रूसी, फिरदौसी, जैदी, इयादी, सदहमी और हुबेरी। चिश्ती सिलसिले का प्रभाव क्षेत्र अजमेर, राजस्थान, पंजाच, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, उड़ीसा तथा दक्षिण के कुछ भागों में स्थापित हुआ। सुहरावर्दिया सिलसिले का प्रभाव सिंध, मुल्तान तथा पंजाब तक सीमित था।

चिश्ती सिलसिला (Chishti Silsilah)

चिश्ती सम्प्रदाय के सिलसिले इस प्रकार हैं-

(1) शेख मुईनुद्दीन चिश्ती

चिश्ती सिलसिले की स्थापना का श्रेय ख्वाजा इसहाक शामी चिश्ती को जाता है। अबुल फजल के अनुसार इसकी स्थापना खुरासान के निवासी अबू अब्दाल चिश्ती ने की थी। भारत में इस सिलसिले की स्थापना का श्रेय शेख मुईनुद्दीन चिश्ती को है। उनका जन्म 1141 ई. मैं ईरान के सीस्तान नामक नगर में हुआ था। उन्होंने ख्वाजा उस्मान, हारूनी से दीक्षा ग्रहण की। 

अनेक वर्षों तक अपने गुरु के साथ भ्रमण करने के बाद वह अपने गुरु के आदेशानुसार अजमेर 1190 ई. में आये और यहाँ खानकाह स्थापित किया। उस समय पृथ्वीराज चौहान का राज्य काल था। कहा जाता है कि हिन्दुओं ने उनके निष्कासन की माँग की। इस कार्य के लिए पृथ्वीराज चौहान ने रामदेव नामक पुजारी को भेजा लेकिन रामदेव उनसे इतने प्रभावित हुए कि उनका शिष्य होना स्वीकार कर लिया। 

उन्होंने अपना शेष जीवन यहीं सेवा करते हुये बिताया और 1236 ई. में अपना शरीर त्याग दिया। डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव लिखते हैं, "ख्वाजा ने विदेश में अपने धर्म-प्रचार के कार्य में जो कठिनाइयाँ झेली थीं, उनके लिए वे प्रशंसा के पात्र हैं; पर हिन्दुओं ने अहिन्दू विदेशियों के प्रति जो सहिष्णुता और मैत्री प्रदर्शित की, वह भी कम प्रशंसनीय नहीं है।"

ख्वाजा ने हिन्दुओं के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाया और एकेश्वरवाद का उपदेश दिया। उनका कहना था, "जब हम बाह्य बंधनों को पार कर जाते हैं और चारों ओर देखते हैं तो हमें प्रेमी, प्रेमिका और प्रेम सभी एक लगते हैं अर्थात् एकेश्वर के समक्ष वे सभी एक हैं।" शेख ने यह भी कहा कि ईश्वर की सच्ची भक्ति मनुष्य की सेवा है। उनके उपदेशों तथा त्यागपूर्ण जीवन का जनमानस पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनकी समाधि अजमेर शरीफ में है जहाँ हजारों श्रद्धालु उनके दर्शन के लिए जाते हैं। मुहम्मद गौरी ने उन्हें सुल्तान-उल-हिन्द की उपाधि प्रदान की थी।

(2) शेख हमीद उद्दीन नागौरी

शेख मुईनुद्दीन के शिष्यों में दो अत्यन्त लोकप्रिय हुए जिन्होंने शेख के उपदेशों का प्रचार किया था। इनमें से एक शेख हमीद उद्दीन नागौरी और दूसरे शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी थे। शेख हमीद उद्दीन का जन्म दिल्ली में मुस्लिम सत्ता को स्थापना के बाद हुआ था। युवावस्था में उन्होंने शेख मुईनुद्दीन चिश्ती का शिष्यत्व स्वीकार किया। उनके आध्यात्मिक गुणों से प्रभावित होकर शेख मुईनुद्दीन ने उनको सुल्तान-तारिकीन (त्यागियों के सुल्तान की उपाधि प्रदान की थी। 

शेख हमीद उद्दीन अपनी पत्नी के साथ नागौर के सुबल गाँव में रहते थे और पूर्ण निर्धनता तथा त्याग का जोवन बिताते थे। उनकी झोंपड़ी कच्च्ची थी और जीविका के लिए केवल एक बीघा भूमि थी जिस पर वह स्वयं खेती करते थे। वह अपने हाथों से कपड़ा बुनकर पहनते थे। 

उनके पास एक गाय थी और वहू पूर्ण रूप से शाकाहारी थे। यद्यपि मुस्लिम राज्य स्थापित हो गया था और वह वैभव का जीवन बिता सकते थे लेकिन उन्होंने मुस्लिम अधिकारियों से किसी प्रकार की भेंट स्वीकार नहीं की। मुसलमान लेखकों ने उनके उदार धार्मिक दृष्टिकोण की प्रशंसा करते हुए कहा है कि वह हिन्दुओं के आध्यात्मिक गुणों की प्रशंसा करते थे। 

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(3) शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी

यह शेख मुईनुद्दीन के प्रमुख शिष्य थे। उनका जन्म फरगाना के गौस नाम स्थान में हुआ था। शेख मुइनुद्दीन ने उन्हें बख्तियार अर्थात् 'भाग्य बन्धु' का नाम दिया था। एक परम्परा के अनुसार उन्हें काकी अर्थात् 'रोटियों वाला' कहा जाने लगा था। आध्यात्म के क्षेत्र में उनका ऊँचा स्थान था। 

उन्होंने व्यापक रूप से भ्रमण किया था। इल्तुतमिश के शासन काल में वह दिल्ली आये जहाँ सुल्तान तथा जनता ने उनको भव्य स्वागत किया था। सुल्तान ने उनको शेख-उल-इस्लाम नियुक्त करना चाहा लेकिन उन्होंने पद अस्वीकार कर दिया। इस पर सुल्तान ने नज्मुद्दीन सुगरा को इस पद पर नियुक्त कर दिया। 

सुगरा की ईष्यां के कारण शेख बख्तियार दिल्ली से अजमेर जाना चाहते थे लेकिन वह दिल्ली में अत्युन्त लोकप्रिय थे और शेख मुईनुद्दीन ने भी उनको दिल्ली में हो रहने का आदेश दिया। कहते हैं कि एक बार गीतों के भावावेश में वह मूर्छित हो गये थे और इसी अवस्था में चार दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई (1235 ई.)। 

(4) फरीद उद्दीन गंज़-ए-शकर 

इनका जन्म 1175 ई. में मुल्तान के निकट हुआ था। वह शेख वख्तियार काकी के प्रमुख शिष्य थे। एक चमत्कार के कारण इनके नाम के साथ गंज-ए-शकर की उपाधि जुड़ गई थी। सूफी मत के इतिहास में शेख फरीद का विशेष स्थान है। उन्होंने हाँसी तथा अजोधान में सूफी मत के प्रचार का कार्य किया। उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप ही चिश्तिया सिलसिला अखिल भारतीय सम्प्रदाय बन गया। 

नगर के बाहर निर्जन एकान्त में वह निवास करते थे। वह धनी व्यक्तियों से दूर रहते थे और निर्धनों के प्रति उनकी सहानुभूति असीम थी। उन्होंने बहुत से लोगों को आध्यात्मिक तथा मानसिक शान्ति प्रदान की। गुरु ग्रंथ साहब में उनकी अनेक रचनाएँ सम्मिलित हैं। उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों को एक सूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया तथा बाह्य आडम्बरों की आलोचना की। 

वह चाहते थे कि सभी बैर, शत्रुता को त्याग कर प्रेम के सम्बन्धों से आबद्ध हो जाएँ। वह चाहते थे कि सभी मानव सेवा व्रत धारण करें और आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त करें। उन्होंने घोर निर्धनता में दिन बिताये और सदैव अल्लाह को धन्यवाद दिया। उन्होंने अनेक शिष्यों को दीक्षा दी और कई खानकाह स्थापित किये। उनकी लोकप्रियता इतनी अधिक थी कि हजारों लोग उनके दर्शन को आते थे। उनकी मृत्यु 1265 ई. में हुई। उनकी मजार अजोधान (पाकपट्टन) में है।

(5) शेख निजामुद्दीन औलिया

शेख फरीद के दो मुख्य शिष्य थे- शेख निजामुद्दहून औलिया और शेख अलाउद्दीन साबिर। शेख निजामुद्दीन का जन्म 1236 ई. में बदायूँ, उत्तर प्रदेश में हुआ था। बाल्यावस्था में पिता की मृत्यु के पश्चात् उनका पालन-पोषण उनकी माता ने किया था जो अत्यन्त धर्मपरायण महिला थीं। बीस वर्ष की आयु में वाह अजोधान आये और शेख फागेंद का शिष्यत्व ग्रहण किया। 1258 ई. में उन्होंने दिल्ली को अपना आध्यात्मिक केन्द्र बनाया। 1265 ई. में शेख फरीद ने उन्हें अपना खिलाफतनामा बख्शा और चिश्तिया सिलसिले की शिक्षाओं का प्रचार करने का आदेश दिया। 

शेख निजामुद्दीन औलिया के नेतृत्व में चिश्ती सिलसिले का समस्त भारत में लोकप्रियता प्राप्त हुई। इस प्रसिद्धि का कारण शेख का आकर्षक तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व था। उनमें धार्मिक कट्टरता या पक्षपात लेशमात्र नहीं था। उनका उद्देश्य मानव मात्र की सेवा तथा कल्याण करना था। उनका खानकाह निर्धनों तथा मजलूमों के लिए खुला रहता था। 

उनके बारे में बरनी लिखता है, "शेख निजामुद्दीन ने अपने द्वार शिष्यों के लिए खोल दिये थे और उन्होंने अमीरों तथा सामान्य व्यक्तियों, घनी तथा निर्धनों, शिक्षितों तथा अशिक्षितों नगरवासियों या ग्रामवासियों, सैनिकों तथा योद्धाओं, स्वतन्त्र व्यक्तियों तथा गुलामों को अंगीकार कर लिया था। ये सब लोग बहुत सी अनुचित बातों से दूर रहते थे क्योंकि वे स्वयं को शेख का प्रिय शिष्य मानते थे।"

शेख निजामुद्दीन ने सात सुल्तानों का शासन काल देखा था। उन्होंने किसी सुल्तान से भेंट नहीं की यद्यपि कई सुल्तान उनसे भेंट करना चाहते थे। शेख की लोकप्रियता इतनी अधिक थी कि उन्हें महबूब-ए-इलाही अर्थात् 'परमात्मा का प्रिय' कहा जाता था। उन्होंने भी शेख फरीद के समान निर्धनता का जीवन बिताया। 

उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों को निकट लाने का कार्य किया और मानव मात्र की एकता के लिए कार्य किया। वह प्रेम को ही आध्यात्मिक जीवन तथा मानव जीवन का आधार मानते थे। उनका कहना था कि ईश्वर से प्रेम करना और मनुष्य से प्रेम करना एक ही है। मानव मात्र की सेवा करना ईश्वर की भक्ति है। उनकी मृत्यु 1325 ई. में हुई।

(6) अमीर खुसरो

सूफी मत के इतिहास में अमीर खुसरो का स्थान महत्वपूर्ण हैं। उसका जन्म 1254 ई. में पटियाली (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। खुसरो में जन्मजात प्रतिभा थी और सल्तनत काल में उसे हिन्दू-मुस्लिम का श्रेष्ठ प्रतिनिधि माना जा सकता है। सूफी होने के साथ-साथ उसमें देश-प्रेम की भावना भी कूट-कूट कर भरी हुई थी। बलबन के काल में उसे उच्च साहित्यिक स्थान प्राप्त था। उसने कई सुल्तानों के काल में उच्च पद प्राप्त किये थे। 

एक सूफी के रूप में खुसरो शेख निजामुद्दीन औलिया के शिष्य थे। शेख भी खुसरो से विशेष प्रेम करते थे और उन्होंने उसे तुकील्ला की उपाधि प्रदान की थी। शेख की मत्यु के कारण वियोग को खुसरो सहन नहीं कर पाये और कुछ समय बाद ही 1325 ई. में उनकी मृत्यु हो गई। तुर्क शासक वर्ग का होने पर भी खुसरो में हिन्दुओं के प्रति प्रेम तथा सहिष्णुता की भावना थी। 

उन्होंने खड़ी बोली में सबसे पहले काव्य रचना की थी। वह हिन्दुओं की भक्ति और त्याग की भावना से बहुत प्रभावित थे और उन्होंने मुसलमानों से आग्रह किया कि वे भी इस प्रकार की भक्ति तथा त्याग का विकास करें। युसुफ हुसैन लिखते हैं, "खुसरो अपने समय की हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति का महान प्रतिनिधि था। मध्यकालीन इतिहास में उसका चतुर्मुखी व्यक्तित्व उसके किसी भी समकालीन से श्रेष्ठ, अतुलनीय और अद्वितीय है।" वह इस काल के साहित्य, समाज, संस्कृति और धर्म का प्रतिनिधि है।

(7) अन्य चिश्ती सूफी संत

शेख निजामुद्दीन औलिया के पश्चात् चिश्ती सिलसिले का प्रचार समस्त भारत में हुआ। यह कार्य उनके शिष्यों ने किया शेख सिराजुद्दीन उस्मानों ने बंगाल में, शेख बुरहानुद्दीन गरीब ने दौलताबाद क्षेत्र में, शेख हिसामुद्दीन, सैयद हुसैन और शाह चरकत उल्ला ने गुजरात में धर्म का प्रचार किया। दिल्ली में शेख निजामुद्दीन औलिया के उत्तराधिकारी उनके शिष्य शेख नासिरुद्दीन चिराग-ए-दिल्ली थे। 

उन्होंने अपने गुरु की परम्पराओं का पालन किया और शासक वर्ग से स्वयं को दूर रखा। मुबारक राह खिलजी तथा मुहम्मद तुगलक ने उनसे सम्पर्क करना चाहा लेकिन शेख ने उनकी अवहेलना की। 1336 ई. में उनकी मृत्यु हुई। 16वीं सदी के चिश्ती सिलसिले के प्रमुख संत शेख सलीम चिश्ती थे जो सम्राट अकबर के समकालीन थे। कहा जाता है कि उनके आशीर्वाद से सलीम का जन्म हुआ था। उनकी कब्र फतेहपुर सीकरी की जामा मस्जिद के अहाते में है।

चिश्ती सिलसिले के सिद्धान्त

इस सिलसिले के संतों ने त्याग तथा तपस्या के जीवन में निम्न सिद्धान्तों का पालन किया-

(1) सादगी और पवित्रता का जीवन व्यतीत करना।

(2) स्वेच्छा से निर्धनता तथा अभाव का जीवन अपनाना क्योंकि धन आत्मिक विकास में बाधक था।

(3) राजनीतिक गतिविधियों के प्रति उदासीन रहना और सुल्तानों से धन या पदवी स्वीकार न करना।

(4) भूख तथा दरिद्रता को ईश्वरीय वरदान मारना।

(5) मानव सेवा को ही परमात्मा की सेवा तथा भक्ति मानना।

(6) भावनाओं पर नियंत्रण रखना तथा आचार-विचार शुद्ध रखना।

(7) ईश्वर प्राप्ति के लिए अहं को नष्ट करना।

(8) हिन्दू-मुसलमानों में समन्वय स्थापित करना।

(9) अद्वैतवाद में विश्वास रखना।

चिश्ती सिलसिले के सूफी संगीत को विशेष महत्व देते हैं। संगीत के द्वारा साधक प्रेम का भावावेश प्राप्त करता है। उनका विश्वास है कि संगीत (समा) के द्वारा प्रेम भावना उत्पन्न होती है। रूढ़िवादी इस्लाम इसका विरोध करता है। चिश्ती सिलसिले में 'चिल्ली' का भी प्रचलन था जिसमें चालीस दिन साधक बंद स्थान में कठोर साधना करता है। उन्हें फाका, संतुष्टि, परमात्मा का स्मरण, प्रायश्चित करने के लिए कहा जाता है। दीक्षित होने के बाद शिष्य को चालीस दिन तक उपवास जाप करना पड़ता है।

चिश्ती सिलसिले की लोकप्रियता के कारण

भारत में चिश्ती सिलसिला सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ। इस लोकप्रियता के कारण निम्नलिखित थे इन सूफी संतों ने निर्धनता का जीवन अपनाया। इसका प्रभाव हिन्दुओं पर भी पड़ा। वे हिन्दुओं के मध्य में हिन्दुओं के समान रहते थे। उन्होंने हिन्दुओं की बोली तथा रीति-रिवाजों को अपना लिया था। 

उसके सिद्धान हिन्दू  धर्म से मेल खाते थे। इससे भी हिन्दुओं में उनकी लोकप्रियता बढ़ी। वे संयमपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। दुखी और संकट में फंसे लोगों की सहायता करके उनकी सहानुभूति प्राप्त करते थे। वे हिन्दू धर्म की आलोचना नहीं करते थे और उनकी सहिष्णुता की नीति से हिन्दू उनकी ओरआकर्षित होते थे। वे शासक वर्ग से पृथक् रहकर जनसाधारण के बीच में रहते थे। 

उनके जीवन में आडम्बर, प्रदर्शन या कट्टरता नाममात्र की नहीं थी। उन्होंने समन्वय की नीति अपनायी। शेख मइनुद्दीन चिश्ती के शिष्य रामदेव थे और शेख ने एक हिन्दू कन्या से विवाह किया था। प्रायः चिश्ती संत शाकाहारी थे। अत: हिन्दुओं की दृष्टि में पूज्य थे। इन संतों ने मुसलमानों के साथ हिन्दुओं को भी अपना उपदेश दिया। उनके खानकाह प्राचीन हिन्दू ऋषियों के समान थे।

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