शिमला सम्मलेन, भारतीय विश्वविद्यालय आयोग,और कर्जन शिक्षा नीति
1899 में लॉर्ड कर्जन (Lord Curzon) ब्रिटिश भारत के नए गवर्नर जनरल और वायसराय नियुक्त हुए। वे उच्च कोटि के विद्वान और कुशल प्रशासक थे। उनमें कुछ कर गुजरने की बलवती इच्छा थी। उन्होंने यहाँ कार्यभार सम्भालते ही हर क्षेत्र में सुधार के प्रयत्न शुरु किए, शिक्षा के क्षेत्र में भी। उन्होंने देखा कि बिटिश शासन के 40 वर्ष लम्बे कार्यकाल में भी यहाँ की शिक्षा में न तो उतनी संख्यात्मक वृद्धि हो पाई है और न उतनी गुणात्मक उन्नति हो पाई है जितनी होनी चाहिए थी।
अतः उन्होंने सितम्बर 1901 में शिमला में एक शिक्षा सम्मेलन का आयोजन किया और उसमें भारतीय शिक्षा पर विस्तार से विचार किया। उसके बाद 1902 में भारतीय विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति की और उसे विश्वविद्यालयों के संगठन को प्रभावी बनाने और उच्च शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने के सम्बन्ध में सुझाव देने का कार्य सौंपा।
11 मार्च 1904 को लॉर्ड कर्जन ने अपनी शिक्षा नीति घोषित की और 21 मार्च 1904 को भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम 1904 की घोषणा की। इस लेख में इन सबका क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत है। साथ ही लॉर्ड कर्जन के अन्य शैक्षिक सुधारों और आधुनिक भारतीय शिक्षा के विकास में उनके योगदान की विवेचना प्रस्तुत है।
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शिमला शिक्षा सम्मेलन, 1901
लॉर्ड कर्जन ने सितम्बर 1901 में शिमला में एक शिक्षा सम्मेलन का आयोजन किया जिसे 'शिमला शिक्षा सम्मेलन' के नाम से जाना जाता है। इस सम्मेलन में सभी प्रान्तों के जन शिक्षा निदेशकों और मुख्य ईसाई मिशनरियों के कुछ प्रतिनिधियों को आमन्त्रित किया गया था। यह सम्मेलन 15 दिन तक चला था। इसकी अध्यक्षता स्वयं लार्ड कर्जन ने की थी।
इस सम्मेलन में भारतीय शिक्षा पर विस्तार से विचार किया गया था और 150 प्रस्ताव पारित किए गए थे, परन्तु इस सम्मेलन में न तो किसी भारतीय को आमन्त्रित किया गया था और न ही इसकी कार्यवाही को प्रकाशित किया गया था। परिणामतः भारतीयों में इसके प्रति भय और रोष दोनों थे। वे प्रारम्भ से ही लॉर्ड कर्जन को शक की निगाह से देखने लगे। इस सम्मेलन में लॉर्ड कर्जन ने अपने विश्वासपात्रों के साथ मिल-बैठकर अपनी इच्छानुसार प्रस्ताव पारित कराए थे इसलिए कुछ विद्वान इस सम्मेलन को 'शिमला स्वीकृति सम्मेलन' (Shimla Accord) की संज्ञा देते हैं।
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भारतीय विश्वविद्यालय आयोग, 1902 का संक्षिप्त परिचय
सितम्बर 1901 में लॉर्ड कर्जन ने शिमला में शिक्षा सम्मेलन का आयोजन किया था। इस सम्मेलन में भारतीय शिक्षा की अनेक समस्याएँ उजागर हुईं। लॉर्ड कर्जन ने देखा कि लन्दन विश्वविद्यालय के स्वरूप में तो 1898 में आमूलचूल परिवर्तन हो गया था परन्तु उसके आदर्श पर स्थापित भारतीय विश्वविद्यालयों में तदानुकूल कोई परिवर्तन नहीं हुआ था।
उन्होंने यह भी देखा कि तब तक भारतीय विश्वविद्यालयों का कार्यक्षेत्र केवल महाविद्यालयों को सम्बद्धता प्रदान करने और उनमें अध्ययनरत छात्रों की परीक्षा लेने और उत्तीर्ण छात्रों को प्रमाणपत्र देने तक सीमित था। साथ ही उन्होंने यह अनुभव किया कि उस समय के महाविद्यालयों को स्थिति बहुत खराब थी और उनका शिक्षा स्तर बहुत निम्न कोटि का था।
अतः उन्होंने 27 जनवरी 1912 को 'भारतीय विश्वविद्यालय आंयोग' की नियुक्ति की। प्रारम्भ में तो इसमें किसी भी भारतीय सदस्य की नियुक्ति नहीं की गई थी परन्तु कुछ समय बाद समय की नब्ज पहचानकर डॉ० गुरुदास बनर्जी और श्री सैयद हसन विलग्रामी को इसका सदस्य बनाया गया और इस प्रकार इसमें भारतीयों (हिन्दु-मुसलमान दोनों) का प्रतिनिधित्व हो गया। इस आयोग के अध्यक्ष रैले महोदय (Railley) थे, इसलिए इसे उनके नाम पर रैले कमीशन (Railley Commission) भी कहा जाता है।
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आयोग का कार्य क्षेत्र
(1) भारतीय विश्वविद्यालयों के तत्कालीन विधान और उनकी कार्य प्रणाली का अध्ययन करना और उसे प्रभावी बनाने हेतु सुझाव देना।
(2) भारतीय विश्वविद्यालयों की तत्कालीन शैक्षिक व्यवस्था का अध्ययन करना और उनके शैक्षिक स्तर को ऊँचा उठाने हेतु सुझाव देना।
(3) विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध महाविद्यालयों की स्थिति का अध्ययन करना और उनके शिक्षा स्तर को ऊँचा उठाने के लिए सुझाव देना।
आयोग का प्रतिवेदन
आयोग ने भारत के तत्कालीन सभी विश्वविद्यालयों की संगठन प्रणाली और शिक्षा व्यवस्था का प्रत्यक्ष रूप से अध्ययन किया, उनकी अच्छाइयों और कमियों को देखा, उनकी समस्याओं को समझा, उन समस्याओं के निदान पर विचार किया और अन्त में 6 माह के कठोर परिश्रम के बाद अपना प्रतिवेदन लार्ड कर्जन को प्रेषित कर दिया।
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भारतीय विश्वविद्यालय आयोग, 1902 के सुझाव
आयोग ने विश्वविद्यालयों और उनसे सम्बद्ध महविद्यालयों के प्रशासन, वित्त, संगठन और शिक्षा स्तर को ऊँचा उठाने के सम्बन्ध में जो सुझाव दिए उन्हें निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध किया जा सकता है।
विश्वविद्यालयों के प्रशासन एवं संगठन सम्बन्धी सुझाव
(1) विश्वविद्यालयों में सीनेट के सदस्यों की संख्या घटा दी जाए और उनके कार्यकाल की अवधि 5 वर्ष कर दी जाए।
(2) प्रत्येक वर्ष 20 प्रतिशत नए सीनेट सदस्यों का निर्वाचन किया जाए। इनमें शिक्षाविदों, कॉलिज प्राध्यापकों और सरकारी कर्मचारियों, सभी का प्रतिनिधित्व हो ।
(3) विश्वविद्यालयों में सिन्डीकेट के सदस्यों की संख्या 9 से बढाकर 15 कर दी जाए। इनका निर्वाचन सोनेट के सदस्यों द्वारा हो।
(4) प्रत्येक विश्वविद्यालय की सीमा (Jurisdiction) निश्चित की जाए।
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विश्वविद्यालयों की शिक्षा व्यवस्था सम्बन्धी सुझाव
(1) विश्वविद्यालयों को शिश्क्षण का उत्तरदायित्व भी सौंपा जाए। इनमें शोध कार्य करने की भी व्यवस्था हो।
(2) विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सुधार किया जाए।
(3) विश्वविद्यालयों में शिक्षण कार्य हेतु उच्च योग्यता प्राप्त प्राध्यापकों की नियुक्ति की जाए।
(4) विश्वविद्यालयों की परीक्षा प्रणाली और मूल्यांकन कार्य में सुधार किया जाए।
महाविद्यालयों के प्रबन्ध सम्बन्धी सुझाव
(1) प्रत्येक महाविद्यालय के प्रबन्ध के लिए एक सुसंगठित प्रबन्धकारिणी समिति होनी चाहिए।
(2) महाविद्यालयों की प्रबन्ध समितियाँ महाविद्यालयों के उचित प्रबन्ध के लिए उत्तरदाई हों।
(3) प्रत्येक महाविद्यालय में पर्याप्त भवन, प्राध्यापक, पुस्तकालय और प्रयोगशालाओं का उचित प्रबन्ध हो।
(4) महाविद्यालयों में लिए जाने वाले शिक्षण शुल्क को सिन्डीकेट को महाविद्यालयों की परिस्थितिनुसार निश्चित करना चाहिए।
महाविद्यालयों की शिक्षा सम्बन्धी सुझाव
(1) महाविद्यालयों की सम्बद्धता के नियम कठोर होने चाहिए। मान्यता देने के बाद उनके शैक्षिक स्तर की देखभाल विश्वविद्यालय सिन्डीकेट द्वारा हो।
(2) निम्न स्तर के महाविद्यालयों को बन्द कर दिया जाए।
(3) सम्बद्ध महाविद्यालयों का नियमित रूप से निरीक्षण हो ।
(4) महाविद्यालयों में केवल स्नातक स्तर तक का शिक्षण हो।
(5) मैट्रीकुलेशन (हाई स्कूल) का स्तर ऊँचा किया जाए, इण्टरमीडिएट कक्षाएँ समाप्त की जाएँ और स्नातक पाठ्यक्रम 3 वर्ष का किया जाए।
(6) महाविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सुधार किया जाए।
(7) महाविद्यालयों में प्राध्यापकों की नियुक्ति में विश्वविद्यालयों का दखल हो।
(8) विश्वविद्यालयों द्वारा सम्पादित परीक्षाओं और मूल्यांकन प्रणाली में सुधार किया जाए।
आयोग का मूल्यांकन
भारत में विश्वविद्यालयों के सम्बन्ध में यह सबसे पहला आयोग था। इसके अधिकतर सदस्य अंग्रेज थे, केवल दो सदस्य ही भारतीय थे इसलिए इस आयोग ने विश्वविद्यालय और उनसे सम्बद्ध महाविद्यालयों में सुधार के जो भी सुझाव दिए वे ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली पर आधारित थे। फिर भी उसके कुछ सुझाव बहुत अच्छे थे। उनमें मुख्य सुझाव थे-
(1) विश्वविद्यालयों में सीनेट के सदस्यों की संख्या सीमित करना, उनके कार्यकाल को 5 वर्ष तक सीमित करना और उसमें शिक्षाविदों और महाविद्यालय प्राध्यापकों को उपयुक्त प्रतिनिधित्व प्रदान करना।
(2) विश्वविद्यालयों में शिक्षण कार्य और शोध कार्य की व्यवस्था करना।
(3) विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों को साधन सम्पन्न करना, उनमें योग्य प्राध्यापकों की नियुक्ति करना और प्राध्यापकों के चयन का भार विश्वविद्यालयों को सौंपना।
(4) महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों, परीक्षा प्रणाली और मूल्यांकन विधियों में सुधार करना।परन्तु साथ ही कुछ सुझाव ऐसे थे जो तत्कालीन परिस्थितियों के अनुकूल नहीं थे।
उनमें ये मुख्य सुझाव थे-
- विश्वविद्यालयों के आन्तरिक मामलों में सरकारी हस्तक्षेप को बनाए रखना।
- महाविद्यालयों की सम्बद्धता के नियम कठोर बनाना।
कुछ भी हो, आयोग के अधिकतर सुझावों से उच्च कोटि के विद्वान और प्रशासक लार्ड कर्जन सहमत हुए और उन्होंने इन सुझावों को विश्वविद्यालय अधिनियम 1904 के रूप में पारित कराकर तदानुकूल कार्यवाही शुरु की। इसके कुछ अच्छे परिणाम सामने आए, उच्च शिक्षा के स्तर में कुछ सुधार शुरु हुआ तो कुछ प्रतिकूल परिणाम भी सामने आए, उच्च शिक्षा के प्रसार की गति कम हुई। परन्तु प्रारम्भिक प्रयास की दृष्टि से इसे अवश्य सराहा जा सकता है।
भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904
भारतीय विश्वविद्यालय आयोग 1902 ने अपना प्रतिवेदन अगस्त 1912 में प्रस्तुत किया। लॉर्ड कर्जन ने उस पर विचार करने के बाद उसको अधिकतर सिफारिशों का समावेश करते हुए 'भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम' का मसविदा तैयार किया और 1903 में उसे केन्दीय धारा सभा (Imperial Legislative Council) में पेश किया। भारतीय लॉर्ड कर्जन से इतने सशंकित थे कि वे उसके नेक इरादों में भी विश्वास नहीं करते थे।
अतः उन्होंने इसका खुलकर विरोध किया। गोपालकृष्ण गोखले ने तो इसकी धज्जियाँ ही उखाड़ दीं। परन्तु बहुमत तो उन्हीं का था, अतः यह विधेयक पारित हो गया और 21 मार्च 1904 को उसे कानून के रूप में प्रकाशित कर दिया गया।
अतः इस अधिनियम की मुख्य धाराओं को हम निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं-
(1) किसी भी विश्वविद्यालय की सीनेट में कम से कम 50 और अधिक से अधिक 100 सदस्य होंगे और उनका कार्यकाल 5 वर्ष होगा।
(2) विश्वविद्यालयों को सिन्डीकेट को कानूनी मान्यता प्रदान की जाती है। इसमें प्राध्यापकों का उचित प्रतिनिधित्व होगा।
(3) सरकार को सीनेट द्वारा पारित नियमों में संशोधन करने का अधिकार होगा।
(4) कलकत्ता, बम्बई और मद्रास विश्वविद्यालयों में 20-20 तथा पंजाब और इलाहाबाद विश्वविद्यालयों में 15-15 फैलो होंगे।
(5) किसी भी विश्वविद्यालय की सीमा (Jurisdiction) निश्चित करने का अधिकार गवर्नर जनरल को होगा।
(6) विश्वविद्यालय अपने परिसर में उच्च शिक्षा एवं शोध कार्य की व्यवस्था करेंगे। इसके लिए भवनों, पुस्तकालयों और प्रयोगशालाओं का निर्माण किया जाएगा। विश्वविद्यालयों में प्राध्यापकों की नियुक्ति का अधिकार विश्वविद्यालयों को होगा।
(7) महाविद्यालयों की सम्बद्धता के नियमों का कठोरता से पालन किया जाएगा। किसी भी विश्वविद्यालय द्वारा किसी भी महाविद्यालय को सम्बद्धता देने से पहले सरकार का अनुमोदन आवश्यक होगा।
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भारतीय शिक्षा आयोग (हण्टर कमीशन), 1882 | [Indian Education Commission, 1882]
अधिनियम का मूल्यांकन
इस अधिनियम के लागू होने के कुछ अच्छे परिणाम हुए और कुछ घातक परिणाम हुए। अच्छे परिणामों में मुख्य परिणाम थे-
(1) सीनेट में भारतीयों को प्रतिनिधित्व मिला, शिक्षाविदों और प्राध्यापकों को प्रतिनिधित्व मिला।
(2) विश्वविद्यालयों के प्रशासन में सुधार हुआ।
(3) कुछ विश्वविद्यालयों में शिक्षण कार्य की शुरुआत हुई।
(4) महाविद्यालयों को सम्बद्धता प्रदान करने में नियमों का कड़ाई से पालन होने लगा, शिक्षा का स्तर उठा।
(5) सम्बद्ध कॉलिजों का नियमित रूप से निरीक्षण होने लगा, निम्न स्तर के महाविद्यालय स्वतः बन्द हो गए। शिक्षा का स्तर गिरने से बचा। और घातक परिणामों में मुख्य परिणाम थे-
- विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियन्त्रण अधिक हो गया, उनकी स्वायत्तता कम हुई, परिणामतः शैक्षिक प्रयोग नहीं किए जा सके।
- अधिनियम में नए विश्वविद्यालय खोलने की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी, परिणामतः कोई नया विश्वविद्यालय नहीं खोला जा सका।
- महाविद्यालयों की सम्बद्धता के नियम इतने कठोर हो गए कि नए महाविद्यालय कम स्थापित हुए, उच्च शिक्षा का प्रसार कम हुआ।
- अधिनियम में परीक्षा प्रणाली में सुधार पर बल नहीं दिया गया परिणामतः उसमें कोई सुधार नहीं हुआ।
सच बात यह है कि यह अधिनियम मूल रूप से प्रशासनिक प्रस्ताव था, शैक्षिक सुधार सम्बन्धी दस्तावेज नहीं, और यही कारण है कि इसके लागू होने से विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के प्रशासन में तो कुछ सुधार हुआ परन्तु उनकी शिक्षा प्रणाली और परीक्षा प्रणाली में कोई सुधार नहीं हुआ। परन्तु कुछ भी हो इससे उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार की शुरुआत अवश्य हुई।
लॉर्ड कर्जन की शिक्षा नीति, 1904
लॉर्ड कर्जन ने 'शिमला शिक्षा सम्मेलन 1901' में पारित प्रस्तावों के आधार पर एक शिक्षा नीति तैयार को और 11 मार्च 1904 को उसे एक सरकारी प्रस्ताव के रूप में प्रकाशित किया। शिक्षा नीति सम्बन्धी इस प्रस्ताव में सर्वप्रथम तत्कालीन भारतीय शिक्षा के दोषों का उल्लेख किया गया और उसके बाद उसमें सुधार हेतु नई शिक्षा नीति प्रस्तुत की गई। अतः हम यहाँ उस सबका क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत करते है।
तत्कालीन भारतीय शिक्षा के संख्यात्मक दोष
इस शिक्षा नीति सम्बन्धी प्रस्ताव के प्रारम्भ में लिखा गया कि-'संख्यात्मक दृष्टि से वर्तमान शिक्षा प्रणाली के दोष सर्वविदित हैं। 5 में से 4 ग्रामों में कोई विद्यालय नहीं है, 4 में से 3 लड़कों को शिक्षा प्राप्त नहीं होती और 40 में से केवल 1 लड़की किसी प्रकार के विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करती है।'
तत्कालीन भारतीय शिक्षा के गुणात्मक दोष
इस शिक्षा नीति सम्बन्धी प्रस्ताव में तत्कालीन भारतीय शिक्षा के जो गुणात्मक दोष बताए गए थे उन्हें निम्नलिखित क्रम में प्रस्तुत किया जा सकता है-
(1) उच्च शिक्षा केवल सरकारी नौकरी प्राप्त करने के उद्देश्य से प्राप्त की जा रही है।
(2) पाठ्य विषय पूर्णरूप से साहित्यिक हैं, इनमें औद्योगिक एवं व्यावसायिक विषयों का अभाव है।
(3) अंग्रेजी को अधिक महत्व दिया गया है, भारतीय भाषाओं की उपेक्षा की गई है।
(4) अंग्रेजी को माध्यम बनाने से शिक्षा के प्रसार में बाधा पड़ रही है। यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान का भी प्रसार नहीं किया जा पा रहा है।
(5) विद्यालयों में रटने पर अधिक बल दिया जा रहा है, सोचने-समझने पर कम। परिणामतः बच्चों का मानसिक विकास नहीं हो रहा है।
(6) परीक्षाओं को आवश्यकता से अधिक महत्व दिया जा रहा है।
शिक्षा नीति, 1904
शिक्षा नीति, 1904 सम्बन्धी सुझावों को अग्रलिखित रूप में क्रमबद्ध किया जा सकता है-
प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी नीति अथवा सुझाव
(1) प्राथमिक शिक्षा के प्रति कम ध्यान दिया गया है और उसके प्रसार के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं। उसका प्रसार करना सरकार का मुख्य कर्तव्य है।
(2) स्थानीय निकाय प्राथमिक शिक्षा कोष को केवल प्राथमिक शिक्षा पर ही व्यय करें। प्रान्तीय सरकारें इन्हें आवश्यकतानुसार अनुदान दें। यह अनुदान परीक्षाफल पर आधारित न होकर क्षेत्रीय आवश्यकताओं के आधार पर दिया जाए। प्रान्तीय सरकारें प्राथमिक शिक्षा पर हुए व्यय का 50 प्रतिशत भाग वहन करें।
(3) प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुसार तैयार किया जाए। इसमें भारतीय भाषाओं को मुख्य स्थान दिया जाए, अंग्रेजी को इससे हटा दिया जाए, शारीरिक व्यायाम अनिवार्य किया जाए और कुछ उपयोगी विषयों को सम्मिलित किया जाए।
(4) प्राथमिक स्तर की शिक्षण विधियों में सुधार किया जाए, किण्डर गार्टन प्रणाली का प्रयोग किया जाए।
(5) प्राथमिक शिक्षकों को दो वर्ष का प्रशिक्षण दिया जाए, उनके वेतन में वृद्धि की जाए।
माध्यमिक शिक्षा सम्बन्धी नीति अथवा सुझाव
(1) गैरसरकारी (अनुदान प्राप्त अथवा अप्राप्त) सभी माध्यमिक विद्यालयों को सरकार के शिक्षा विभाग से मान्यता लेना आवश्यक होगा।
(2) माध्यमिक विद्यालयों के शिक्षण स्तर को ऊँचा उठाने के लिए उन्हें मान्यता प्रदान करने और सहायता अनुदान स्वीकृत करने के नियम कठोर किए जाएँगे।
(3) इनके पाठ्यक्रमों में व्यावसायिक विषयों को स्थान दिया जाएगा।
(4) सभी माध्यमिक विद्यालयों में प्रशिक्षित अध्यापक नियुक्त किए जाएँगे।
(5) जो राजकीय माध्यमिक विद्यालय चलाए जा रहे हैं वे गैरसरकारी माध्यमिक विद्यालयों के लिए आदर्श विद्यालयों की भूमिका अदा करेंगे।
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उच्च शिक्षा सम्बन्धी नीति अथवा सुझाव
(1) उच्च शिक्षा के विस्तार और उन्नयन के लिए आवश्यक धनराशि बढ़ाई जाएगी।
(2) महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों की शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए प्रयास किए जाएँगे।
(3) उच्च शिक्षा में बाह्य परीक्षाओं का महत्व कम किया जाएगा।
शिक्षा नीति, 1904 का मूल्यांकन
लार्ड कर्जन द्वारा घोषित इस शिक्षा नीति के पीछे उनका बड़ा नेक इरादा था, भारतीय शिक्षा में संख्यात्मक प्रसार और गुणात्मक उन्नयन, परन्तु भारतीय तो उन्हें प्रारम्भ से ही शक की निगाह से देख रहे थे इसलिए उन्होंने उस समय इसका कसकर विरोध किया। यदि निष्पक्ष भाव से देखें तो इसके अपने गुण- दोष हैं। इसके गुणों में मुख्य गुण हैं-
(1) इस नीति के प्रारम्भ में तत्कालीन भारतीय शिक्षा की सही स्थिति प्रस्तुत की गई।
(2) प्राथमिक शिक्षा के संख्यात्मक प्रसार और गुणात्मक उन्नयन के लिए उचित सुझाव दिए गए हैं।
(3) माध्यमिक विद्यालयों को मान्यता देने के कठोर नियम, उनके पाठ्यक्रमों में व्यावसायिक विषयों का समावेश और उनमें प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति का सुझाव किसे मान्य नहीं होगा।
(4) उच्च शिक्षा के प्रसार और उन्नयन के लिए अधिक धनराशि की स्वीकृति भी एक उत्तम निर्णय था। परन्तु साथ ही इस नीति के कुछ प्रतिकूल प्रभाव भी पड़े-
- माध्यमिक विद्यालयों को मान्यता देने और सहायता अनुदान स्वीकृत करने के नियम कठोर बनाने से माध्यमिक शिक्षा के प्रसार में बाधा पड़ी।
- सरकारी अंकुश से लाल फीताशाही बढ़ी।
जहाँ तक लाभ-हानि की बात है, ये तो एक सिक्के के दो पहलू की भाँति हैं, यह बात दूसरी है कि किसी नीति से लाभ अधिक होते हैं और किसी नीति से हानि अधिक होती है। इस नीति से लाभ अधिक हुए थे इसलिए, हमें लार्ड कर्जन का अनुगृहीत होना चाहिए।
लार्ड कर्जन के अन्य शैक्षिक कार्य
लॉर्ड कर्जन भारत में केवल 7 वर्ष (1899 से 1906) रहे। इस बीच उन्होंने भारतीय शिक्षा में सुधार हेतु सर्वप्रथम 19401 में शिमला शिक्षा सम्मेलन का आयोजन किया, उसके बाद 1902 में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन किया। इन दोनों की सिफारिशों के आधार पर उन्होंने 11 मार्च, 1904 को एक नई शिक्षा नीति और 21 मार्च, 1904 को विश्वविद्यालय अधिनियम की घोषणा की। इनके अतिरिक्त भी उन्होंने अनेक शैक्षिक कार्य किए जिनका वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है।
1. केन्द्रीय शिक्षा विभाग की स्थापना
वुड द्वारा घोषित शिक्षा नीति के तहत सभी प्रान्तों में शिक्षा विभाग की स्थापना की गई थी। अब आवश्यकता थी इन विभागों के कार्यक्रमों को सही दिशा देने की, उनमें एकरूपता लाने की। लार्ड कर्जन ने इस हेतु केन्द्रीय शिक्षा विभाग की स्थापना की और इसमें 'डायरेक्टर जनरल ऑफ एजूकेशन' के पद का सृजन किया। इससे सबसे पहला लाभ तो यह हुआ कि शिक्षा की व्यवस्था करना केन्द्रीय सरकार का उत्तरदायित्व हो गया और दूसरा लाभ यह हुआ कि केन्द्र द्वारा निश्चित शिक्षा नीतियों को पूरे राज्य में लागू करना सम्भव हो गया।
2. पुरातत्व विभाग की स्थापना
लॉर्ड कर्जन ने देखा कि भारत में अनेक ऐतिहासिक धरोहर हैं जो उचित देख-भाल के अभाव में नष्ट होती जा रही थीं। उन्होंने इन भवनों और स्मारकों के संरक्षण के लिए 'पुरातत्व स्मारक संरक्षण अधिनियम, 1904' पारित किया जिसके अनुसार भारत सरकार में 'पुरातत्व विभाग' की स्थापना हुई। इससे पहला लाभ तो यह हुआ कि भारत में ऐतिहासिक भवनों एवं स्मारकों की देख-भाल शुरु हुई, उनका रख-रखाव शुरु हुआ और दूसरा लाभ यह हुआ कि ऐतिहासिक खोजें शुरु हुई, भारत के इतिहास का पता लगाना सम्भव हुआ, उसे मूर्त रूप में सुरक्षित रखना सम्भव हुआ और इतिहास के छात्रों को उसका प्रत्यक्ष ज्ञान कराना सम्भव हुआ।
3. कला महाविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सुधार
अब तक कला महाविद्यालयों (Arts Colleges) में केवल साहित्यिक विषय पढ़ाए जाते थे। लार्ड कर्जन ने इनमें जीविकोपार्जन सम्बन्धी पाठ्यक्रम शुरु कराए, जीविकोपार्जन सम्बन्धी कलाओं और शिल्पों के शिक्षण की व्यवस्था कराई।
4. कृषि शिक्षा में सुधार
लॉर्ड कर्जन ने भारत में कृषि शिक्षा की आवश्यकता और महत्व को समझा। उन्होंने प्रत्येक प्रान्त में कृषि विभाग की स्थापना की और प्रत्येक प्रान्त में एक कृषि महाविद्यालय स्थापित करने की योजना बनाई। वे कृषि सम्बन्धी ज्ञान को प्रारम्भ से ही सिखाने के पक्षधर थे इसलिए उन्होंने कृषि सम्बन्धी पुस्तकों को भारतीय भाषाओं में प्रकाशित करने पर बल दिया। उन्होंने बिहार में 'केन्द्रीय कृषि अनुसंधान संस्थान' (Central Agricultur Research Institute) की स्थापना की। बस तभी से भारत में कृषि के क्षेत्र में अनुसंधान कार्य की शुरुआत हुई।
5. नैतिक शिक्षा पर बल
भारत में बहुत पहले से धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा के सम्बन्ध में विवाद चला आ रहा था। लॉर्ड कर्जन ने इस विवाद का अन्त धार्मिक शब्द हटाकर किया। उन्होंने कहा कि सभी शिक्षण संस्थाओं में नैतिक शिक्षा दी जाए। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह शिक्षा पुस्तकों के माध्यम से नहीं दी जा सकती, इसके लिए अध्यापकों का सच्चरित्र एवं कर्त्तव्यनिष्ठ होना आवश्यक है और शिक्षण संस्थाओं का पर्यावरण उच्च होना आवश्यक है। नैतिकता रटने का विषय नहीं जीवन में उतारने की क्रिया है। इसके लिए गुरु-शिष्यों के बीच अच्छे सम्बन्ध होना आवश्यक है और विद्यालयों में अनुशासन होना आवश्यक है।
लॉर्ड कर्जन के शिक्षा सम्बन्धी कार्यों का मूल्यांकन अथवा गुण-दोष विवेचन
लॉर्ड कर्जन उच्चकोटि के विद्वान और कुशल प्रशासक थे। उन्होंने भारत में गवर्नर जनरल और वायसराय का कार्यभार सम्भालते ही हर क्षेत्र में सुधार करने शुरु किए, शिक्षा के क्षेत्र में भी। शिक्षा के क्षेत्र में सुधार हेतु उन्होंने सर्वप्रथम 1901 में शिमला में एक शिक्षा सम्मेलन का आयोजन किया।
यह सम्मेलन 15 दिन चला और इसकी अध्यक्षता स्वयं लॉर्ड कर्जन ने की। इससे यह स्पष्ट होता है कि लॉर्ड कर्जन भारतीय शिक्षा में सुधार के कितने इच्छुक थे। परन्तु उन्होंने इस सम्मेलन में किसी भी भारतीय को आमन्त्रित नहीं किया था और साथ ही इसकी कार्यवाही को भी गोपनीय रखा था। तब भारतीयों का उनके प्रति सशंकित होना स्वाभाविक था।
शिमला शिक्षा सम्मेलन के बाद लॉर्ड कर्जन ने उच्च शिक्षा में सुधार हेतु सुझाव देने के लिए 1902 में 'भारतीय विश्वविद्यालय आयोग' की नियुक्ति की। इसके पीछे भी उनकी नीयत बहुत साफ थी और अच्छी थी, परन्तु प्रारम्भ में इसमें भी कोई भारतीय सदस्य नहीं रखा गया था और बाद में भी केवल दो भारतीय सदस्य रखे गए थे इसलिए भारतीय इस आयोग के प्रति भी सशंकित रहे और परिणाम यह हुआ कि शिमला शिक्षा सम्मेलन के प्रस्तावों और भारतीय विश्वविद्यालय आयोग की सिफारिशों के आधार पर लॉर्ड कर्जन ने जो 'शिक्षा नीति 1904' और 'भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904 की घोषणा की, उन्हें भी शक की निगाह से देखा गया। परन्तु जब कर्जन ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधार करने शुरु किए तो कुछ व्यक्तियों का उनमें विश्वास जागृत हुआ। यदि निष्पक्ष दृष्टि से देखें और समझें तो स्पष्ट होगा कि लॉर्ड कर्जन ने भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी सुधार किए थे। और इस प्रकार कुछ भूलें होना तो स्वाभाविक है।
अतः लॉर्ड कर्जन की भारतीय शिक्षा को जो मुख्य देन हैं उन्हें हम निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं-
(1) केन्द्रीय शिक्षा विभाग की स्थापना की गई, इससे शिक्षा की नीति लागू करना और शिक्षा की व्यवस्था सुव्यवस्थित ढंग से करना सम्भव हुआ।
(2) प्राथमिक शिक्षा में संख्यात्मक वृद्धि और गुणात्मक उन्नयन के लिए आर्थिक सहायता की धनराशि बढ़ाई गई, इससे प्राथमिक शिक्षा में संख्यात्मक वृद्धि हुई और गुणात्मक उन्नयन हुआ।
(3) माध्यमिक शिक्षा के विस्तार और उन्नयन के लिए आर्थिक सहायता की धनराशि में वृद्धि की गई, इससे उसका प्रसार हुआ। साथ ही माध्यमिक विद्यालयों को मान्यता देने में कड़ाई की गई, उन्हें अनुदान देने में कड़ाई की गई: इससे उसके स्तर में सुधार हुआ।
(4) लॉर्ड कर्जन ने पहली बार भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार हेतु अलग से विचार किया, अलग से 'भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम 1904' पास किया और उसे लागू किया। उसके लागू होने से विश्वविद्यालयों के प्रशासन में सुधार हुआ, उनमें शैक्षिक गतिविधियाँ बढ़ीं, महाविद्यालयों के स्तर में सुधार हुआ और इस प्रकार उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार हुआ।
(5) भारत एक कृषि प्रधान देश है। लॉर्ड कर्जन पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारत में कृषि शिक्षा को अपना केन्द्र बिन्दु बनाया। उन्होंने प्रत्येक प्रान्त में कृषि विभाग की स्थापना की, प्रत्येक प्रान्त में कृषि महाविद्यालय स्थापित करने की योजना प्रस्तुत की और बिहार में कृषि अनुसंधान संस्थान की स्थापना की। इतना ही नहीं अपितु प्रारम्भ से ही कृषि शिक्षा की व्यवस्था पर बल दिया। इससे कृषि शिक्षा और कृषि उत्पादन में विकास होना स्वाभाविक था।
(6) लॉर्ड कर्जन की इस क्षेत्र में एक बड़ी देन यह रही कि उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा के विवाद को धार्मिक शब्द हटाकर हल किया। उन्होंने केवल नैतिक शिक्षा पर बल दिया और उसके लिए पुस्तकीय ज्ञान पर नहीं, विद्यालयों की उच्च परिपाटी, अनुशासन और शिक्षकों के चरित्र और सद्व्यवहार पर बल दिया।
परन्तु इसी के साथ उनके कुछ निर्णय भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिकूल साबित हुए। उनमें से ये मुख्य हैं-
- लॉर्ड कर्जन ने माध्यमिक विद्यालयों को मान्यता देने और सहायता अनुदान देने की शर्तें कुछ कठोर कर दी थीं, इससे माध्यमिक शिक्षा का उतनी तेजी से विस्तार नहीं हो सका जितनी तेजी से होना चहिए था।
- उन्होंने महाविद्यालयों को सम्बद्धता देने के नियम भी कठोर कर दिए थे, इससे उच्च शिक्षा के प्रसार में भी बाधा पड़ी।
- विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904 से विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता कम हुई, उन पर सरकारी नियन्त्रण अधिक हो गया, शिक्षाविदों को शैक्षिक प्रयोग करने में बाधा हुई और परिणाम यह हुआ कि उसमें सुधार के लिए प्रयास कम हुए।
- उन्होंने न तो सरकार द्वारा नए विश्वविद्यालय स्थापित करने का प्रस्ताव किया और न ही महाविद्यालयों की स्थापना की बात सोची। उस समय इस क्षेत्र में सरकार द्वारा पहल होनी अति आवश्यक थी।
निष्कर्ष
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि लॉर्ड कर्जन का इरादा बड़ा नेक था, वे भारतीय शिक्षा में तेजी से सुधार करना चाहते थे। उन्होंने अपने 7 वर्ष के छोटे से कार्यकाल में भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए थे। नुरुल्ला और नायक ने ठीक ही लिखा है कि- जो उपलब्धियाँ कर्जन ने सात वर्षों में की उनकी प्राप्ति करने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति को इससे दोगुना या तीन गुना समय लगता।
डॉ० अमरनाथ झा ने लॉर्ड कर्जन की प्रशंसा बड़ी साहित्यिक भाषा में की है। उनके शब्दों में आज जब संघर्षों की स्मृति अतीत के गर्भ में विलीन हो चुकी है, सभी भारतीय उस महान वायसराय की विवेकपूर्ण राज्य मर्मज्ञता के प्रति अनुगृहीत है जिन्होंने हमारे प्राचीन स्मारकों के संरक्षण और हमारी शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए इतना अधिक प्रयास किया। अपने इन कार्यों के लिए वे आज भी स्मरण किए जाते हैं और भारतवासियों की भावी पीढ़ियाँ भी इन कार्यों के लिए उनका गुणगान करेंगी। हम डॉ० झा के मत से पूर्णरूप से सहमत हैं, लॉर्ड कर्जन हमारे साधुवाद के अधिकारी है।