संस्कृति का अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएँ

संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषाएँ

संस्कृति का उद्भव मानव के मध्य ही होता है, संस्कृति को बनाने और उसे बनाये रखने की क्षमता केवल मानव के पास है। मानव और पशु समाज एक-दूसरे से भिन्न हैं। विभिन्न अध्ययनों से यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि पशु समाज में जैविक-सामाजिक (Bio-Social) विशेषताएँ पायी जाती हैं, क्योंकि पशुओं में सामाजिक सम्बन्ध वंशानुसंक्रमण (Heredity) के द्वारा निश्चित होता है, इसीलिए मानव-समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक (Socio-Cultural) विशेषताओं वाला कहा जाता है। संभवतया विचारक इसी भिन्नता के कारण ही कहा करते हैं कि पशुओं में समाज होता है, संस्कृति नहीं। इस प्रकार मनुष्य संस्कृति का निर्माता है, उसने विवेक, बुद्धि, कौशल आदि के आधार पर विभिन्न संस्कृतियों को जन्म दिया है।

प्रत्येक समूह अपने जीवन के ऐतिहासिक विकास में जीवन की विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति के संदर्भ में अनेक प्रकार की विशिष्ट प्रणालियों का विकास कर लेता है। जीवनयापन के इन विशिष्ट स्वरूपों का योग ही किसी समूह की संस्कृति कही जाती है।

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अतः संस्कृति की कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं- 

1. डॉ. श्यामाचरण दुबे के अनुसार-"सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों की उस समग्रता को जो किसी समूह को विशिष्टता प्रदान करती है, संस्कृति की संज्ञा दी जा सकती है।" 

2. टायलर के अनुसार-"संस्कृति वह जटिल सम्पूर्णता है जिसके अन्तर्गत ज्ञान, विकास, कला, आचार, विधि, तथा अन्य ऐसी क्षमताएँ और आदतें सम्मिलित हैं जिन्हें मनुष्य समाज के सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है।" 

3. रूथ बेनेडिक्ट के अनुसार-"एक संस्कृति, एक व्यक्ति की भाँति विचार और क्रिया का थोड़ा-बहुत शांतिपूर्ण प्रतिमान है।"  

संक्षेप में, मानवशास्त्री संस्कृति के अन्तर्गत उन सभी वस्तुओं को सम्मिलित करते हैं जिनका सृजन मनुष्य ने किया है, चाहे वे वैचारिक उत्पत्तियाँ हों अथवा भौतिक। क्रोबर ने संस्कृति को इथॉस और इडॉस का योग बताया है। 

इडाँस संस्कृति का औपचारिक और प्रत्यक्ष पक्ष है और इथॉस संस्कृति के गुणात्मक और अमूर्त पक्ष को निर्धारित करता है। 

क्लखोन ने संस्कृति के इन्हीं पक्षों को प्रकट तथा अप्रकट तत्व कहा है। प्रकट तत्व मूर्त और इन्द्रियग्राह्य होते है जबकि अप्रकट या अन्तर्निहित तत्व अमूर्त होते हैं। संस्कृति का भौतिक पक्ष ही प्रकट या मूर्त पक्ष है और अभौतिक तत्वों को अप्रकट या अमूर्त कहा जा सकता है। 

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इस प्रकार विचार और व्यवहार तथा ज्ञान और वस्तुएँ सभी संस्कृति के अंग हैं। कला, शिल्प, कानून, विचार और विश्वास, पूजा-पाठ के तरीके, औद्योगिक प्रणाली और विभिन्न कार्यों तथा आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए उपयोग किये जाने वाले यन्त्र और उपकरण तथा अन्य भौतिक वस्तुएँ सभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष साधन संस्कृति के समग्रता का निर्माण करते हैं।

संस्कृति की प्रकृति या लक्षण या विशेषताएँ

संस्कृति की प्रकृति अथवा लक्षणों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

1. संस्कृति मानव-निर्मित है

संस्कृति ईश्वर या प्रकृति की देन नहीं है। वह मनुष्य के कृतित्व का फल है। मनुष्य संस्कृति को ग्रहण करने की क्षमता रखता है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि मनुष्य संस्कृति का स्वामी है। वह संस्कृति की रचना करता है, परन्तु एक या अस्तित्व में आने पर यह रचना स्वयं मनुष्य का मार्गदर्शन करने लगती है।

2. संस्कृति सीखी जाती है

संस्कृति स्वाभाविक रूप से मनुष्य को प्राप्त होती। मनुष्य उसे सीखकर प्राप्त करता है। भाषा, अनुकरण, सुझाव, सहानुभूत्ति तथा शिक्षा के माध्यम से मनुष्य विचारों, विश्वासों और आचरण के तरीकों को सीखता है तथा विभिन्न भौतिक वस्तुओं का प्रयोग करता है। मनुष्य इन सीखे हुए सांस्कृतिक व्यवहारों में संशोधन और परिमार्जन भी कर लेता है। ये सांस्कृतिक तत्व पैतृकता से प्राप्त नहीं होते बल्कि सामूहिक जीवन में भाग लेने के फलस्वरूप शिक्षण की प्रक्रिया के परिणाम होते हैं।

3. संस्कृति सामूहिक हैं

संस्कृति किसी व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों से सम्बन्धित वस्तु नहीं होती। संस्कृति सामूहिक जीवन में ही विकसित होती है और समूहों में जीवन व्यतीत करने वाले मानव उसे अपनाते हैं। समाज स्वयं संस्कृति का आधार है। सामाजिक अनुभवों के आधार पर संस्कृति के विभिन्न तत्वों का विकास होता है। संस्कृति किसी समूह की जीवन-शैली को व्यक्त करती है। संस्कृति की सामाजिक प्रकृति ही उसे शक्ति प्रदान करती है और इस शक्ति के कारण ही समूह का प्रत्येक सदस्य संस्कृति के द्वारा निर्धारित आचार-विचार का पालन करता है।

4. संस्कृति सामाजिक विरासत है

संस्कृति वह सम्पत्ति है जो किसी समूह के सदस्यों को अपने पूर्वजों से प्राप्त होती है। प्रथा, परम्परा, विश्वास इत्यादि संस्कृति के समस्त अंग हमें पूर्वजों से प्राप्त होते हैं। दूसरे शब्दों में, संस्कृति हस्तांतरित संस्कृति है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होती रहती है। सम्पूर्ण समूह इस विरासत पर अधिकार रखता है। सम्भव है कि पूर्वजों से प्राप्त अनेक भौतिक या अभौतिक तत्वों को हम ग्रहणं न करें या उन्हें उपयोग में न लायें पर वे सब तब तक हमारी संस्कृति के अंगों के रूप में मान्यता रखते हैं जब तक कि हम उन्हें भूल न जायें।

5. संस्कृति यथार्थ पर आधारित आदर्श है

संस्कृति की प्रकृति आदर्शात्मक है। सांस्कृतिक तत्वों को जीवन के आदर्श प्रतिमानों के रूप में स्वीकार किया जाता है। पूर्वजों से प्राप्त सामाजिक व्यवहार-प्रकारों को हम श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। सामूहिक जीवन की उत्पत्ति होने के कारण संस्कृति को प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए अनुकरणीय समझता है। सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्यवहार का संचालन और निर्देशन संस्कृति के द्वारा ही होता है। 

प्रत्येक समूह अपनी संस्कृति को अन्य संस्कृतियों से इसीलिए श्रेष्ठ समझता है क्योंकि वह उसे न केवल अपने सदस्यों के लिए बल्कि सभी मनुष्यों के लिए आचार-विचार की सर्वोत्तम पद्धति को सर्वोत्तम व आदर्श समझता है। किन्तु यह आदर्शात्मक उत्पत्ति समूह की वास्तविक जीवन परिस्थितियों का. ही परिणाम होता है आर्थात् समूह जिन यर्थात् दशाओं का अनुभव करता है, उन्हीं के संदर्भ में सांस्कृतिक आदर्शों का विकास होता है।

6. संस्कृति प्रकार्यात्मक है

संस्कृति का प्रत्येक तत्व किसी मानवीय आवश्यकता की पूर्ति में सहायक होता है। मानव की शारीरिक, मानसिक, तथा सामाजिक आवश्यकताओं की "पूर्ति के साधन जुटाना ही संस्कृति के विकास का मुख्य आधार है। भूख, प्यास, जीवन रक्षा, काम तृप्ति इत्यादि मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं और प्रेरणाओं को संतुष्ट करने का प्रयत्न संस्कृति को जन्म देता है। संस्कृति उपयोग की वस्तु है। संस्कृति का जो तत्व अनुपयोगी हो जाता है अथवा प्रकार्यात्मक नहीं रहता, समूह धीरे-धीरे उसे छोड़ देता है। 

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7. संस्कृति गतिशील है

संस्कृति कोई स्थिर वस्तु नहीं है। संस्कृति की संरचना, स्वरूप और प्रक्रियाएँ बदलती रहती हैं। मनुष्य और समूह की जैवकीय भौतिक और सामाजिक आवश्यकताओं के द्वारा संस्कृति का स्वरूप प्रभावित होता है। और ये आवश्यकताएँ समय और परिस्थिति के परिवर्तन के अनुसार अनुकूलन कर लेती हैं। वातावरण के प्रति मनुष्य का दृष्टिकोण बदलने से उसकी शारीरिक-मानसिक आवश्यकताएँ बदल जाती हैं। संस्कृति भी नई आवश्यकताओं के अनुकूल अपने स्वरूप में परिवर्तन कर लेती है।

8. संस्कृति में संगठन और संतुलन होता है 

संस्कृति का निर्माण अनेक तत्वों से मिलकर होता है। इन तत्वों का विभिन्न मानवीय आवश्यकताओं के अनुसार वर्गीकरण किया जा सकता है। ये सांस्कृतिक तत्व आर्थिक संगठन आदि से सम्बन्धित होते हैं। संस्कृति के ये विभिन्न पक्ष अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हुए भी परस्पर निर्भर और सम्बन्धित होते हैं। यह पारस्परिक निर्भरता के विभिन्न पक्षों से संगठित और सम्बन्धित होते हैं। यह पारस्परिक निर्भरता के विभिन्न पक्षों में संगठन और सन्तुलन कायम रखती है। यदि संस्कृति के पक्ष में परिवर्तन होता है तो अन्य सभी पक्षों पर इस परिवर्तन का प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार संस्कृति एक संगठित और सन्तुलित व्यवस्था है।

9. संस्कृति जीवोपरि है

संस्कृति का निर्माण और विकास तथा उसका प्रयोग भी मनुष्य करता है किन्तु वह केवल जैवकीय तथ्य नहीं है। संस्कृति जैवकीय संसार से कुछ अधिक है। यदि वह केवल जैवकीय आधार पर ही विकसित होती है तो प्रत्येक पशु समूह संस्कृति का निर्माण कर सकता था। संस्कृति जड़-चेतन दोनों से कुछ ऊपर है। क्रोबर ने संस्कृति को जड़ (Inor- ganic) और चेतन (Organic) दोनों प्रकार की अवस्थाओं से उन्न्त्च, अतिजीव या जीवोपरि (Superorganic) बताया है। 

शारीरिक दृष्टि से मनुष्य समान दिखाई देते हैं। किन्तु संस्कृति किसी को को न्यायाधीश, किसी को राष्ट्रपति और किसी को चपरासी बना देती है। स्त्री-पुरुष का पारस्परिक संभोग जैवकीय क्रिया के रूप में समान है परन्तु किसी स्थिति में इसे चरित्रहीनता, किसी में वेश्यावृत्ति, किसी में बलात्कार, किसी में यौन शिक्षा और किसी में मधुचन्द्र (सुहागरात) माना जाता है। समान जैविकीय क्रिया संस्कृति के द्वारा भिन्न-भिन्न सामाजिक अर्थों में बदल जाती है।

10. संस्कृति सार्वभौमिकता तथा विशिष्टता दोनों रखती है

मानव संस्कृति का निर्माता है। सभी समाजों में मानव आवश्यकताएँ समान हैं। अतः उनकी पूर्ति के साधनों में भी समानता होती है। जीविकोपार्जन के साधन (उत्पादन आदि) धार्मिक क्रिया-कलाप पारिवारिक जीवन इत्यादि संस्कृति की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जिन्हें सार्वभौमिक कहा जा सकता है। किन्तु सभी समाजों को भौतिक और सामाजिक परिस्थितियाँ समान नहीं होतीं। अपनी स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न समाज अपने-अपने ढंग से इन सार्वभौमिक व्यवस्थाओं से सम्बन्धित विशिष्ट विधियों और प्रक्रियाओं का विकास कर लेते हैं।

संस्कृति की रचना का आधार है मानव

संस्कृति मानव की कृति है। चेतन जगत् में मानव ही क्यों संस्कृति का विकास कर सका है? अन्य पशु ऐसा क्यों नहीं कर सके ? इन प्रश्नों का उत्तर मानवशास्त्री मानव और पशु की शारीरिक रचना के आधार पर देते हैं। प्रकृति ने मनुष्य की ऐसी पाँच विशेषताएँ प्रदान की है जो पशुओं में नहीं हैं। ये विशेषताएँ निम्नलिखित है-

1. मनुष्य में सीधे खड़े होने की क्षमता है जिसके कारण वह हाथों का उपयोग अपनी रक्षा करने तथा प्रकृति पर नियन्त्रण करने के लिए कर सकता है।

2. मनुष्य के हाथ लचकीले हैं और उन्हें घुमाया जा सकता है। इसी विशेषता के कारण मानव छोटी-बड़ी वस्तुओं को पकड़ सकता है और अनेक प्रकार के भौतिक उपकरण बना सकता है। 

3. मनुष्य की दृष्टि केन्द्रित की जा सकती है। तीक्ष्ण और केन्द्रित की जा सकने वाली दृष्टि हाथों को वस्तु-निर्माण में महत्वपूर्ण सहायता प्रदान करती है।

4. मनुष्य का मेधावी मस्तिष्क संस्कृति-निर्माण का महत्वपूर्ण आधार है। मानव मस्तिष्क तर्क के द्वारा कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित कर सकता है और विचारों और क्रियाओं को स्थायी रूप से ग्रहण कर सकता है। उसकी तार्किकता और ग्राह्मता की क्षमताएँ अनेक आविष्कारों को जन्म देने और विचारों तथा क्रियाओं को स्थायित्व प्रदान करने में समर्थ हुई हैं।

5. मनुष्य के पास भाषा है जिसके माध्यम से वह विचारों और भावनाओं का आदान-प्रदान कर सकता है तथा आविष्कारों का विस्तार और प्रसार कर सकता है।

6. मानव की अग्नि पैदा करने की क्षमता- इसके द्वारा मानव महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न कर सका और कर रहा है। अग्नि के उपयोग से भोजन पकाने से लेकर मानव अनेक महत्वपूर्ण उपयोगी कार्य कर रहा है।

मानव को उपर्युक्त विशेष योग्यताओं ने ही संस्कृति का निर्माण करने की सामर्थ्य प्रदान की है। उसके मेधावी मस्तिष्क और भाषा-शक्ति ने उसे बोधगम्य प्रतीकों का निर्माण करने तथा इन प्रतीकों का प्रसार करने में सहायता दी है। मानव ने अपनी विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए अपनी उपर्युक्त क्षमताओं का उपयोग अनेक प्रकार से किया है और इन क्षमताओं के उपयोग से ही संस्कृति की रचना हुई है। मनुष्य की भूख-प्यास, जीवन रक्षा और काम की प्राथमिक आवश्यकता ने तथा भौतिक, जैविक और मानवीय पर्यावरण अनुकूलन करने की आवश्यकताओं ने उसे एक ओर तो प्रकृति से सम्बन्ध स्थपित करने के लिए प्रेरणा दी और दूसरी ओर उसका सम्बन्ध अन्य मनुष्यों के साथ हुआ। मनुष्य को कुछ अदृश्य शक्तियों के प्रति भी जागरूक होना पड़ा जिन्हें वह बुद्धि और तर्क से नहीं समझ सका।

इस प्रकार मानव ने अपनी क्षमताओं का उपयोग प्रकृति, अन्य मनुष्यों और अदृश्य शक्तियों के साथ अनुकूलन करने में किया और इस अनुकूलन की प्रक्रिया में ही संस्कृति का निर्माण और विकास हुआ है। मानव और प्रकृति के सम्बन्ध ने आर्थिक संगठन और भौतिक संस्कृति को जन्म दिया है। मानव और मानव के सम्बन्ध से सामाजिक संगठन का विकास हुआ है और मानव तथा दृश्य शक्तियों के सम्बन्ध से धर्म और जादू का विकास हुआ है। अनुकूलन की इस त्रिकोणात्मक संयोजना में मनुष्य जिन मान्यताओं, आचार-विचारों और भौतिक वस्तुओं का विकास करता है उनकी समग्रता का नाम संस्कृति है।

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