महावीर स्वामी का जन्म
महावीर स्वामी का जन्म वज्जि राज्य संघ के अन्तर्गत ज्ञात्रिक कुल के प्रधान सिद्धार्थ के यहाँ (599 ई. पू.) वैशाली में कुण्ड नामक ग्राम (बिहार के वर्तमान जिले मुजफ्फरपुर में) में हुआ था। इसके पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला थी। माता त्रिशला वैशाली गण के राजा, चेटक की बहिन थी। इनके बचपन का नाम वर्धमान था। वे कश्यप गोत्र के थे। कहा जाता है कि वर्धमान के विषय में यह भविष्यवाणी की गई थी कि यह बालक या तो भविष्य में चक्रवर्ती राजा बनेगा या फिर परम ज्ञानी संन्यासी।
इनका विवाह राजकुमारी यशोदा से हुआ। इनके एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ जिसका नाम प्रणोज्या था। उन्होंने पिता की मृत्यु के बाद 30 वर्ष की आयु में अपने भाई नन्दिनवर्धन से आज्ञा प्राप्त कर, संन्यास धारण किया। वर्धमान के परिवार के लोग पहले ही पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म के अनुयायी थे।
अत: वे स्वाभाविक रूप से जैन भिक्षु बन गये। अब आपने अत्यन्त कठोर तपस्या की तथा शारीरिक यन्त्रणा एवं आत्मा हनन से जीवन व्यतीत किया। इस प्रकार 12 वर्ष की घोर तपस्या कर 13वें वर्ष में उन्हें केवल (ज्ञान) प्राप्त हुआ, इस परम ज्ञान को प्राप्त कर और सदैव के लिये दुख से मुक्त होकर वे महावीर या जिन (विजेता) कहलाये और उनके अनुयायी 'निर्गन्ध' (बन्धन मुक्त) और बाद में जैन कहलाये। इनके द्वारा प्रसारित धर्म जैन धर्म के रूप में विख्यात हुआ।
यह भी पढ़ें-
- भगवान् महावीर एवं भगवान् बुद्ध के सुधारवादी धार्मिक आन्दोलन
- धर्म क्या है | धर्म की परिभाषा एवं विशेषतायें | Dharm Kya Hai
- जानिए भक्ति आंदोलन का अर्थ और सन्त कबीर की महत्वपूर्ण शिक्षाएं।
महावीर स्वामी ने अपने धर्म का प्रचार उत्तर भारत के वज्जि, अंग, मगध, गढ़, मल्ल, कौशल, काशी, अवन्ति जैसे विशाल राज्यों में किया। इन सभी राजाओं ने जैन धर्म के प्रचार में पर्याप्त योग दिया। लिच्छिव राजा, छेटकी की पुत्री 'पद्मावती' जो चम्पा नरेश दाघवाहन को ब्याही थी, महावीर की प्रथम भिक्षुणी और चम्पा नगरी जैन धर्म का केन्द्र बन गई।
महावीर गौतम बुद्ध की भाँति अपने धर्म का उपदेश देते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान को घूमा करते थे। उन्होंने चम्पा, मिथिला, श्रावस्ती, वैशाली तथा राजगृह में वर्षावास किया था। वे प्रायः बिम्बिसार और अज्ञातशत्रु से मिलते थे। उनके प्रमुख शिष्य आनन्द, कामदेव, कुण्डकोलिम, नन्दिनी प्रिया आदि थे जिन्होंने जैन धर्म के प्रचार में महावीर का सहयोग दिया। उन्होंने 546 ई. में 72 वर्ष की आयु में पावापुरी (मल्ल राज्य) में निर्वाण प्राप्त किया।
जैन धर्म के उपदेश
यह निश्चित करना कठिन है कि जैन धर्म की वास्तविक शिक्षायें क्या थीं फिर भी जैन धर्म के मुख्य सिद्धान्त निम्न थे-
(1) अनीश्वरवाद
महावीर जी ईश्वर के अस्तित्व के विषय में संदिग्ध थे। उनके अनुसार ईश्वर का शक्तियों का उच्चतम, शालीनतम और पूर्णतम व्यक्तिकरण है। जो मनुष्य की आत्मा में निहित होती है। जैनी संसार को अनादि और अनन्त मानते थे। वे ईश्वर के स्थान पर तीर्थकरों की पूजा अर्चना करते हैं जिनकी आत्माएँ सभी बन्धनों से मुक्त हो गई हैं और जो पूर्ण, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान तथा दुख रहित हो गये हैं।
(2) आत्मवाद
जैनियों के अनुसार आत्मा अमर है, सर्वदृष्टा है, इसमें ज्ञान होता है और यह क्रियाशील होती है। वह दुख का अनुभव करती है। आत्मा शरीर से अलग है यह प्रकाश की भाँति अपना अस्तित्व रखती है। यह निर्विकार है परन्तु कर्मों के कारण वह बन्धन में पड़ जाती है।
(3) कर्मवाद पर बल
जैन लोग कहते हैं कि हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों ही से यह निर्णय होता है कि हमें किस वंश और किस राज्य में जन्म दिया।
(4) पुनर्जन्म का सिद्धान्त
महावीर के अनुसार मनुष्य कर्मों का फल भोगने के लिये पुनः जन्म लेता है। कर्मानुसार ही मनुष्य की अगले जन्म में आयु निर्धारित होती है। अतः मनुष्य को हमेशा सत्कर्म ही करने चाहिए ताकि मोक्ष प्राप्त हो सके।
(5) विषयों का आत्म में प्रवाह
महावीर के अनुसार संसार के विषय हमारी इन्द्रियों द्वारा आत्मा में प्रविष्ट होते हैं और उसे मलिन कर देते हैं। इस प्रवाह को रोकने से ही मुक्ति मिलती है। इन विषयों का प्रवाह आत्मा में बार-बार होता है।
(6) त्रिरत्नों का विधान
जैनी लोग सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चरित पर बहुत बल देते हैं। बिना सम्यक् ज्ञान के जीवन से मुक्ति नहीं मिल सकती। सम्यक् ज्ञान के साथ सम्यक् दर्शन आवश्यक है। तीर्थकरों से पूर्ण श्रद्धा रखना ही सम्यक् दर्शन कहलाता है। सम्यक् चरित्र के लिए मनुष्य को अपनी इन्द्रियों, भाषण तथा कर्म पर पूर्ण नियन्त्रण रखना चाहिए। लोग सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चरित्र को त्रिरत्न कहते हैं।
(7) पंच महाव्रत
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ही पंच महाव्रत है।
(क) अहिंसा- जैन लोग अहिंसा पर बहुत बल देते हैं। मन, वचन और शरीर से किसी भी प्रकार की हिंसा करना अनुचित है।
(ख) सत्य- मनुष्य को सदैव मधुरता से बोलते हुए सत्य बोलना चाहिए। इसके लिए क्रोध और भय के समय मौन रहना चाहिए, बिना विचारे बोलना नहीं चाहिए।
(ग) अस्तेय- किसी भी प्रकार की चोरी न करना, किसी को खोई वस्तु को ग्रहण न करना बल्कि उसके स्वामी को वापस करना अस्तेय कहलाता है। चोरी का माल लेना, माल में मिलावट करना तथा राजाज्ञा का उल्लंघन करना भी चोरी में शामिल है।
(घ) ब्रह्मचर्य- मन, वचन तथा कर्म द्वारा पर स्त्री से समागम न कर अपनी पत्नी में ही सन्तोष रखना तथा रती के लिए अपने पति में ही सन्तोष रखना एवं कामवासना को मारना ब्रहाचर्य है।
(ङ) अपरिग्रह- आवश्यकता के बिना धन को संग्रह न करना अपरिग्रह कहलाता है। जैन मुनियों के लिए किसी वस्तु के साथ किसी भी प्रकार काम ममत्व न रखना आवश्यक कहा गया। अतः इस व्रत के सम्यक् पालन से मनुष्य मोक्ष प्राप्त करने के योग्य बनता है।
8. तीन गुणव्रत
महावीर स्वामी ने जैनियों के लिए पंच महाव्रत के पालन करने के अतिरिक्त समय, समय पर कठोर व्रतों को धारण भी उपयोगी कहां कठोर व्रत गुण व्रत कहलाते हैं। वे हैं-
- गृहस्थी को व्रत लेना चाहिए कि मैं इस दिशा में इससे अधिक दूर न जाऊँगा। यह व्रत लेकर उस प्रदेश में ही रहे।
- मनुष्य को अपने से सम्बन्ध न होने वाले कार्य नहीं करना चाहिए।
- गृहस्थी को निश्चित मात्रा में भोजन करना चाहिए और अधिक भोजन न करने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए।
(9) चार शिक्षा व्रत
- देश विरति- एक ही क्षेत्र को निश्चित कर उसी में निवास करना।
- निश्चित समय पर सब सांसारिक कार्यों से विरत होकर शुद्ध आत्मस्वरूप में लीन होना सामयिक व्रत है।
- अष्टमी व चतुर्दशी को सभी कार्य छोड़ मुनियों के समान जीवन-व्यतीत करना और धर्मकथा सुनना ।
- विद्वान अतिथियों का स्वागत और सम्मान करना।
(10) व्रत तथा तपस्या का महत्व
जैन धर्म में व्रत, उपवास तथा तपस्या पर विशेष महत्व दिया गया है। इस धर्म में आमरण अनशन करके प्राण त्यागना शुभ माना गया है। तपस्या करके प्राण देना जैन धर्म में प्रशंसनीय है।
(11) ब्राह्मण धर्म के प्रकाण्ड, यज्ञ, बलि, मूर्ति पूजा का विरोध
महावीर जी ने ब्राह्मण धर्म के कर्मकाण्ड, यज्ञ, बलि, मूर्तिपूजा का विरोध किया। उन्होंने वेदों को प्रमाणित न मानकर अर्हतों के कैवल्य ज्ञान और उनके वचनों को प्रमाण माना।
(12) द्वैतवाद तथा स्यादवाद
महावीर जी ने कहा कि मनुष्य का निर्माण दो तत्वों शरीर और आत्मा से हुआ है। शरीर नाशवान है और आत्मा अमर। आत्मा अनेक शरीर धारण करती है। महावीर ने आत्मवादियों और नास्तिकों के एकान्तवादी मतों के स्थान पर मध्यम मार्ग स्यादवाद को अपनाया। इसके अनुसार सत्य के कई पहलू हैं अत: मनुष्य को परिस्थितिवश सत्य का आश्रय लेना चाहिए।
(13) जाति प्रथा तथा लिंग भेद का विरोध
जैन धर्म जाति था के भेद को नहीं मानता है। महावीर स्वामी ने जाति-प्रथा का घोर विरोध किया उनका विचार था, कि मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र होता है, जन्म से नहीं। इसके साथ ही महावीर स्वामी ने लिंग भेद का भी विरोध किया। उनकी दृष्टि से स्त्री-पुरुष दोनों ही एक समान है तथा दोनों ही मोक्ष के अधिकारी है।
(14) यज्ञ, पशु-बलि तथा कर्मकाण्डों में अविश्वास
चूँकि जैन धर्मावलम्बियों का अहिंसा में विश्वास था। अतः वे पशु बलि तथा यज्ञ जैसे कर्मकाण्डों के घोर विरोधी हैं, क्योंकि इसमें हिंसा होती थी।
महावीर स्वामी के पूर्व जैन धर्म के 24 तीर्थंकर
महावीर स्वामी के पूर्व जैन धर्म के 24 तीर्थंकर हो चुके हैं जिनके नाम हैं-
1. ऋषभदेव, 2. अजितनाथ, 3. सम्भव नाथ, 4. अभिनन्दन नाथ, 5. सुमति नाथ, 6. सुपद्य नाथ, 7. पार्श्वनाथ, 8. चन्द्रप्रभु, 9. पुष्यदत्त, 10 शीतलनाथ, 11. श्रेयासनाथ, 12. वाग्रपूज्य, 13. विमलनाथ, 14. अनन्तनाथ, 15. धर्मनाथ, 16. शान्तनाथ, 17. कुन्थनाथ, 18. अरहनाथ, 19. मल्लिनाथ, 20. मुनिसुव्रतनाथ, 21 नामिनाथ, 22. नेमिनाथ, 23. पार्श्वनाथ, और 24. वर्धमान महावीर ।
इस प्रकार जैन धर्म को आधुनिक रूप देने का श्रेय महावीर स्वामी को प्राप्त है। जैन साहित्य तथा उसकी परम्परा से इनसे पूर्व 23 तीर्थंकर हो चुके थे। महावीर स्वामी अंतिम तीर्थकर थे। पार्श्वनाथ के समय में जैन धर्म का काफी प्रचार हो चुका था।